किताब | चाँद का शरगा

  • 6:09 pm
  • 23 June 2023

चाँद कभी मामा है तो कभी महबूब के चेहरे की उपमा, नाज़ुकी और शीतलता का पर्याय भी है, वह ऐसा उजला गोला है, माँ जिसके माप का झिंगोला बनवा नहीं सकती और बच्चों की कल्पना में जाने कब से वहाँ बैठी एक बूढ़ी नानी चरखा कात रही हैं. और इश्क में ख़ुद को साबित करने की ख़ातिर कितने ही मंजनू सदियों से चाँद के साथ तारे भी तोड़ ले आने के वायदे करते आए हैं. और चाँद है कि कभी मुस्कुराती सूरत लिए तो कभी मलिन और उदास अपने फीके उजास के साथ हर शाम फ़लक पर चला आता है. और कहीं नींद लग गई तो फिर अमावस…रात सचमुच काली हो उठती है.

और रातों के सफ़र पर निकलने वाला यही चाँद जब अरबी घोड़े पर सवार होकर डॉ. कविता अरोरा की कविताओं में दाख़िल होता है तो उसकी छवि की विविधताओं में, छटाओं में कुछ और इज़ाफ़ा हो जाता है. कविताओं को नए बिम्ब और नए अर्थ देता है, जिन्हें मन की आँखों से ज़्यादा चटख़ देखा सकता है. पिछले दिनों डॉ. कविता का नया संग्रह आया – चाँद का शरगा. सूरज के सफ़र में सात घोड़े शामिल हैं, मगर चाँद का घोड़ा! ज़ाहिर है कि क़ुदरत की तरफ़ से सफ़र तो चाँद के हिस्से भी आया ही है.

हमारी दुनिया में चाँद में दाग़ देखने वाले हैं, और सेलेनोफ़ाइल भी, कुछ इस क़दर नाज़ुक मिज़ाज की चाँदनी में झुलस उठते हैं और कुछ हैं कि चाँद से आँखें मिलाये रातें गुज़ार देते हैं. शैलेंद्र के गीत की नायिका को तो उसकी मौजूदगी में लाज आती है – दम भर जो उधर मुँह फेरे ओ चंदा.. डॉ. कविता की कविता में यह इस तरह भी आता है – जब ज़मीं की/ तंगदिली ने/ कुछ न दिया/ तो माँ ने चाँद पर फिरा कर/ उंगलियाँ/ उसका नाम रख दिया/ चाँदनी/ न रंग भरे बादल/ न नैन में काजल/ मगर फिर भी थी/ वो/ चाँदनी.

इस संग्रह की कविताएं ज़िंदगी के बदलते मौसमों की छवियाँ हैं, हर रोज़ आईने में ख़ुद को ही देखते रहने, ख़ुद को साबित करने की होड़ में भागते फिरने के बीच जो छवियाँ हमारे आसपास होकर भी हमें नज़र नहीं आती, ये कविताएं उन्हीं की परछाइयाँ हैं. परछाईं पकड़ में नहीं आती, पर नज़र आती है और कोई मौजूदगी उसमें हम तलाश ही सकते हैं. पंजाबी में लिखी एक कविता है – पहाड़ां तो गिरदी/ रूई वरगे/ बर्फ़ दे मौसमां विच/ अलाव बाल के बैंठी आं/ यादां दे तेज़ सर्द झोंके/ दा खिलेरा/ ताश दे पत्ते वरगे/ बिखरे-बिखरे लम्हे/ अज/ फेर मैं कमली/ जोकरां वरगी/ कल्ले ही/ समेटांगी/ तेरे नाल/ हारी हुवी/ इक बाज़ी/ इश्क़ दी… अपनी इस पंजाबी कविता का उन्होंने हिंदी तर्जुमा भी कर दिया है मगर पंजाबी में कही बात भी अपने असर के साथ नुमायां होती है.

संग्रह की उनकी कविताएं चाँद को समर्पित है, चाँद से उनके प्रेम को, बचपन से लेकर बड़े होने तक उसकी मौजूदगी और असर को, उसकी मौजूदगी से पैदा छवियों और कल्पनाओं को और इनका मूल स्वर प्रकृति है. प्रकृति का सौंदर्य भर नहीं, उससे लगाव का भाव और उसके बदलाव भी. ‘रिफ़्यूजी दरख़्त’ शीर्षक से एक कविता है – दरख़्तों की/ गर्दनों पर हाथ धर कर/ शहर/ जंगलों को पीछे धकेल रहा है/ तरक़्क़ी के फेंके/ कंकड़-धूल चबाने को/ मजबूर/ पेड़ों की जड़ें/ टहनियाँ पसारे/ सड़कों से रहम चाहती हैं/ परिंदे जिन्होंने/ परों पर तिनके जमा कर/ घर बुना था/ उनसे अब उड़ा नहीं जाता/ सूखी चोंच लिए/ बिजली के खंभे पर बैठे/ ताकते हैं/ बाउण्ड्री वॉल के इस तरफ़/ ग़लती से रह गए/ दरख़्तों को…
ये कविताएं दरिया, पहाड़, जंगल, आसमान और ऋतुओं के हवाले से, परिदों, तितलियों, टिकुलियों के सहारे इंसानी संवेदना के जो बिम्ब रचती हैं, उनमें गुंधी संवेदना तक पहुंचना कई बार झुरझुरी पैदा कर देता है. हम, जो ख़ुद भी प्रकृति का हिस्सा हैं, वह सब छोड़कर कहाँ आ पहुँचे हैं, जो हमारा मन गढ़ता रहा, हमें ख़ुशी और रोमांच महसूस करने के मौक़े देता आया, दरअसल जो हमें ज़िंदगी का सच्चा मतलब बताता है.

मेरे गाँव से लग कर/ एक दरिया बहता था/ और छत से लगी/ इमली के पीछे/ एक चाँद रहता था… ‘इमली का चाँद’ शीर्षक वाली इसी कविता में वह कहती हैं – बक्सा बाँध लिया था मैंने/ गाँव से शहर जाने को/ ज़िक्र छेड़ा ही था/ कि चाँद थरथराया/ झट इमली की ओट से/ बाहर निकल आया/ सुनकर ये जी उसका/ हो गया थोड़ा/ उस रोज़ चाँद ने/ मेरा हाथ नहीं छोड़ा. एक और कविता ‘उदास खिड़की’ है – इमली की शाख़ों पर/ जहाँ पागल हवायें/ आज भी, चाँद की राह तकती हैं/ चाँद के जाने के बाद से/ इमलियों से बचती हैं/ समझती हैं कि खट्टे चटख़ारों की वजह से/ मुँह मोड़ गया है/ निगोड़ी इमलियों की वजह से/ चाँद उन्हें छोड़ गया है.

पिछले संग्रह ‘पैबंद की हँसी’ से एक कविता ‘अमृता प्रीतम नहीं हूँ मैं’ भी इसमें शामिल है और कुछ साहित्यकारों की प्रतिक्रियायें भी. एक पाठक के तौर पर अपनी बात पढ़ने के बाद मैंने सीधे संग्रह की कवितायें ही पढ़ी हैं. एक और बढ़िया बात, जो सुकून देती है, वह सचेत प्रूफ़-रीडिंग हैं. जिन्होंने डॉ. कविता की कविताओं का पिछला संग्रह पढ़ा है, उन्हें तो चाँद का शरगा इसलिए भी पढ़ना चाहिए कि इसमें उन्हें अलग मिज़ाज और तेवर की कविताएं पढ़ने को मिलेंगी.

किताबः चांद का शरगा
प्रकाशकः बोधि प्रकाशन, जयपुर
क़ीमतः 175 रुपये

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पाठकीय प्रतिक्रिया | पैबंद की हंसी


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