संस्मरण | सृजन के बीच

  • 8:42 pm
  • 15 September 2020

बरेली में प्रभा सिनेमा के बराबर का वह संकरा रास्ता दरअसल एक विशाल अहाते में खुलता है..कई भव्य कोठियां, एकाध मोटर गैराज, एक बन्द शटर के माथे पर ब्लिस फ़िल्म का बेमेल-सा बोर्ड..बरसों पहले रिपोर्टिंग के दिनों में मैं पाल को खोजने के लिए इस अहाते में दाख़िल हुआ करता था. कितने ही वर्षों तक बरेली और आसपास के शहरों में पूजा पंडाल पाल की सृजनात्मकता की गवाही हुआ करते. तब गणपति पंडाल सजाने की रवायत शुरू नहीं हुई थी. दुर्गा पूजा ही उनको व्यस्त रखा करती. उनकी बनाई देव प्रतिमाओं में थोड़ा अनगढ़पने का तत्व हमेशा मिलता, वैसा ही जैसा कि परंपरागत कलाकारों के काम में दिखाई देता.

तब दफ़्तर में आने वाले ‘टेलीग्राफ़’ में कलकत्ते के पंडालों में हर साल होने वाले प्रयोगों के बारे में पढ़ता तो उनसे अक़्सर पूछ बैठता था कि आख़िर वे इस तरह के प्रयोग में हाथ क्यों नहीं आज़माते? मेरा लालच अख़बार के लिए कुछ नई तरह की तस्वीरों का भी होता. मिट्टी गढ़ते हाथ थोड़ी देर को रुक जाते. मेरी ओर देखकर कहते – वो सब उन लोग को ही करने दो. इधर कोई पसंद नहीं करेगा. फिर मुस्कुराते हुए कहते – मुझे ऐसी प्रतिमा ही बनाना अच्छा लगता है.

और सचमुच फूस की देह गढ़ने के लिए बांस की खपच्चियों के किनारों को चिकना करने से लेकर मिट्टी से देव छवियां गढ़ने, सांचों में हाथ-पांव और चेहरे ढालते हुए, फिर प्रतिमाओं पर रंग और श्रृंगार करते वक़्त उनकी तन्मयता देखते ही बनती. बनाने वाले और उनसे ले जाकर पंडालों में मूर्तियों की स्थापना करने वाले उन छवियों की भंगुरता ख़ूब जानते हैं मगर मजाल है कि रंग की एक रेखा भी इधर से उधर हो जाए. उनकी रचना थोड़े वक्त के लिए ही सही मगर सर्जक तो सृजन का संतोष तभी पाएगा न, जब दूसरे भी उसकी रचना को प्रशंसा की निगाह से देखें. इस लिहाज़ से पाल का समर्पण और उनकी तन्मयता भी तारीफ़ के क़ाबिल थी.

आज उस तरफ़ गया तो उनकी याद आई… चला गया. अंदर काफ़ी कुछ बदला मिला. गैराज़ पर रुककर पता दरियाफ़्त किया तो एक युवक ने इशारे से रास्ता दिखाया, साथ ही यह भी बताया कि पाल दादा तो अब नहीँ हैं. उनके बेटे मूर्तियां बनाते हैं. दिल धक से हो गया. यह याद आया कि मैं उस रास्ते पर 15 वर्ष के बाद अंदर जा रहा हूँ, या शायद और ज्यादा वक़्त के बाद. घर के बाहर देवी की चार प्रतिमाएं बांस की खपच्चियों के सहारे खड़ी थी, मिट्टी सूखने के क्रम में. लाल दरवाज़े के ऊपर तख़्ती जड़ी थी – मिन्टू पाल.

कभी वहां एक बड़े घेर और ढेर सारी मूर्तियों के बीच मैं अपने काम की तस्वीरें तलाश करता देर तक घूमता था. चाभी के नोक से दरवाज़े पर दस्तक़ दी तो एक महिला ने दरवाज़ा खोलकर सवालिया निग़ाह से देखा. पूछा कि घर में कोई है तो उन्होंने थोड़ी दूर एक शटर की तरफ़ इशारा करते कहा – वहां अंदर हैं. अंदर कई मूर्तियों के बीच बैठे दो लोग रंग करने में व्यस्त थे. एक सज्जन ने काम पूछा और मैंने उनके पिता जी के बारे में. अब उन्होंने हाथ रोककर मुझे देखा, बताया कि नौ बरस पहले चले गए. चलने से पहले मैंने अपना परिचय दिया मगर मेरे बाहर निकलने से पहले उन्होंने हाथ पकड़कर रोक लिया. बोले कि इतने बरसों बाद मिलने पर पहचान नहीं सका. इसरार करके घर ले गए.

बताया – ‘मैंने ही भानु जी से कहा था कि आप कभी आएं तो मिलूंगा.’ मुझे अपने बेटे मनीष से मिलाते हुए उससे कहा, ‘आप जब पिताजी के पास आते थे, तब मैं इतना छोटा होता था,’ हाथ के इशारे से उन्होंने समझाया था. मनीष ने गणित से बीएससी किया है, प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करता है. चलने लगा तो बताया कि कुछ दिन पहले मार्कण्डेय (डॉ.अनुपम) भाई साहब भी आए थे. इतने लोगों को जोड़ने वाला वह शख़्स तो चला गया मगर यह देखकर अजब संतोष हुआ कि मिन्टू अपने पिता की परंपरा में ही देव छवियाँ गढ़ते हैं. आज बिल्कुल नहीँ लगा कि वह दूसरों की देखा-देखी वाले प्रयोग में दिलचस्पी क्यों नहीं लेते, कुछ नया और अलग क्यों नहीं करते? वेग से दौड़ते समय चक्र के बीच अटका सृजन का वह स्वरूप मनभावन लगता रहा, लौटकर काफी देर तक अच्छा महसूस करता रहा.

(महामारी की छाया में इस बार का अभी कुछ तय नहीं लगता. यों दिन आ गए हैं, जब देव प्रतिमाएं अलग-अलग जगहों पर बनती दिखाई देने लगती थीं)

सम्बंधित

बीबीसी हिन्दी का प्रसारण बंद होना इस युग की रातों के एक चंद्रमा के लोप जैसा

इंतिज़ार हुसेन | बेक़रार रूह वाला क़िस्सागो


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.