ज़िंदगी के भीतर बैठकर देखने वाला लेखक

  • 7:00 am
  • 17 January 2020

रांगेय राघव से अपनी मुलाक़ात के हवाले से एक संस्मरण में कमलेश्वर कहते हैं, ‘लगता है, हिन्दी का यह अकेला आदमी है, जो सामाजिक इकाइयों के अध्ययन और अछूते कलास्थलों की खोज में भटक रहा है. कमरे में बंद हो कर लिखने वाला यह सब नहीं लिख सकता…. वह लेखक ज़िंदगी के भीतर बैठकर देखता है, तब लिखता है. बड़ी परेशानियां उठाता है, ज़रा-ज़रा सी डिटेल्स के लिए. लहजा तक पकड़ता है. चित्रित जीवन का संस्कार संग्रह करके लिखता है. बहुत गंभीरता से लेता है साहित्य को.’

रांगेय राघव यानी टीएनवी आचार्य (तिरुमलै नम्बाकम् वीर राघव आचार्य) के लेखन के बारे में कमलेश्वर का यह निष्कर्ष एकदम सटीक बैठता है. सिर्फ़ 39 साल के जीवन काल में अलग-अलग विधाओं में उन्होंने डेढ़ सौ से ज्यादा किताबें लिखीं. और अधिकांश कालजयी श्रेणी में रखी जा सकती हैं. पुरखे तमिल लेकिन ख़ुद हिन्दी के ऐसे लेखक हुए, जिन्होंने हिन्दी साहित्य की अंतर्धारा को अपनी बेमिसाल मेधा से ऐसे नए और पुख़्ता आयाम दिए कि आज तक कहा जाता है कि उनके जैसा दूसरा कोई लेखक कम से कम भारत की किसी भाषा में तो नहीं हुआ.

उनकी प्रतिभा की तुलना के लिए इस उक्ति को सरलीकरण ही माना जाएगा लेकिन सच के बेहद करीब लगती है कि वह भारत के शेक्सपियर थे. ऐसी तुलना से उनके आलोचक और पाठक प्रशंसक अपने-अपने तर्कों के साथ सहमत-असहमत होते रहे और जब भी आधुनिक हिन्दी साहित्य का ज़िक्र होगा, होते ही रहेंगे लेकिन बहुतेरे इस पर एकमत हैं कि उनमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ख्यात व क्लासिक लेखक होने की भरपूर क्षमता, प्रतिभा और संभावना थी. धोखा मिला तो उम्र और जीवन की विसंगतियों से. फिर भी भारतीय समाज इस बात पर गर्व महसूस कर सकता है कि हमारे पास महापंडित राहुल सांकृत्यायन हैं और ‘आचार्य’ रांगेय राघव भी हैं जिनके विलक्षण विचारों और अनूठेपन का कोई सानी नहीं. कला-साहित्य-संस्कृति की किवदंती बन चुकी विभूतियों की महानता का एक पैमाना शायद यह भी होता है कि वे ऐसा रचते-बुनते हैं कि उनके लिए काग़ज़ों से लेकर हवा तक में कभी न मिटने वाले हर्फ़ लिख दिए जाते हैं : इन/उन जैसा दूसरा कोई नहीं हुआ ! 1923 से 1962 तक का जीवन पाने वाले रांगेय राघव यक़ीनन इन्हीं में से एक थे!

रांगेय राघव ने अपने अल्प और कष्टकारी जीवन में साहित्य की हर विधा को बखूबी साधा और उनके घोर आलोचकों ने भी माना कि अद्भुत प्रतिभा से लैस यह शख्सियत शब्द संसार का महाविस्फोट है. हिन्दी आलोचना के स्कूल की मान्यता रखने वाले डॉ.रामविलास शर्मा सरीखे बड़े आलोचक उनके ज्यादातर लेखन से असहमत तो थे लेकिन उनकी गहराई और ऊंचाई के कायल भी थे. यह राघव का वह हासिल था, जो हिन्दी में विरले साहित्यकारों के हिस्से आया है. अक़्सर उन्हें ‘कब तक पुकारुं’, ‘मुर्दों का टीला’, ‘आखिरी आवाज’ और ‘बोलते खंडहर’ उपन्यासों के लिए याद किया जाता है. साथ ही जटिल शिल्प वाली कहानियों, नाटकों, कविताओं और शानदार अनुवाद और भावानुवाद के लिए भी.

रांगेय राघव ने जिस विधा के रचनात्मक शिखर को अकल्पनीय बुनावट के साथ छुआ, वह है – रिपोर्ताज. पारखियों के मूल्यांकन में रिपोर्ताज लेखन में वह फणीश्वर नाथ रेणु और अज्ञेय से भी अलहदा और आगे हैं. साहित्य और पत्रकारिता के बीच पुल जैसी रिपोर्ताज विधा जब अपना नया और प्रामाणिक व्याकरण बनाएगी तो निश्चित तौर पर राघव का रिपोर्ताज लेखन बुनियादी मानक की तरह काम करेगा. दीगर है कि फिलहाल तो यह विधा अपठनीयता की हद तक कामचलाऊ ढर्रे का शिकार है और बहुत सुस्ती के साथ वहां से आगे बढ़ रही है, जहां राघव और उनके समकालीनों ने उसे छोड़ा था.

रांगेय राघव ने औपन्यासिक जीवनी, निबंध, संस्कृति, इतिहास, आलोचना, मानवशास्त्र, व्याख्या, कला–चित्रकारी, पुरात्तत्व पर भी खूब कलम चलाई और नायाब कृतियां दीं. इसमें से बहुत सा काम आज विस्मृत तो है पर उसका महत्व रत्ती भर भी कम नहीं हुआ बल्कि उसकी अहमियत तब ज्यादा समझ आएगी, जब हम अंधी भौतिकता के और ज्यादा शिकार होकर, सांस्कृतिक तौर पर और ज्यादा विकलांग हो जाएंगे! राघव ने जो विरसा भारतीय समाज के लिए छोड़ा है, वह तो तभी संभव है जब कोई ताजिंदगी, चिंतन-मनन के जरिए सिर्फ शब्द साधना करे. सो उन्होंने ताउम्र स्वतंत्र लेखन किया और जमकर किया. गहराई में भी और लंबाई में भी. यानी एक दिन में पचास से सौ काग़ज़ तक अनथक लिखे.

दोस्त तो उनके वैसे भी बहुत कम थे पर जो दोस्तनुमा समकालीन लेखक उन्हें इस तरह लगातार लिखता देखते थे, वे अक्सर कटाक्ष करते थे. जवाब मिलता था,  ‘ऊर्जा दिमाग़ में होती है, क़लम काग़ज़ में नहीं!’  प्रसंगवश, ‘कब तक पुकारुं’ उपन्यास उन्होंने लगभग तीन महीनों में लिख लिया था तो ‘मुर्दों का टीला’ एक महीने में. विदेशी लेखकों की बहुआकारी किताबों का अनुवाद भी उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से बहुत कम समय में किया. और जो भी किया, बेहद उम्दा किया. इस बाबत उनकी तुलना जब राहुल सांकृत्यायन से की जाती है तो अक्सर लोग यह तथ्य भूल जाते हैं कि राघव को बहुत कम आयु मिली और अति गंभीर बिमारियों से संघर्ष भी उन्हें बहुत ज्यादा करना पड़ा. उनका लेखन और जिजीविषा एक दूसरे के प्रर्याय थे. ब्लड कैंसर से उनकी देह तो छीजती गई लेकिन क़लम आख़िरी समय तक नहीं थमी.

रांगेय राघव ने ख़ुद को किसी तरह की ख़ेमेबाज़ी से परे रखा. और कमाल की अध्ययन पद्धति के साथ, पूरे वैज्ञानिक औज़ारों के साथ मार्क्सवाद, गांधीवाद और ब्राह्मणवाद से होकर गुजरे. वह यों ही रांगेय राघव नहीं थे !!


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.