भीष्म को जो यश हिन्दी से मिला वह उनके जीवित रहते हिन्दी का यश बन गया

  • 5:42 pm
  • 11 July 2020

भीष्म साहनी को श्रद्धांजलि देते हुए कमलेश्वर ने लिखा था – यह भी विरल घटना है कि भीष्म को जो यश हिन्दी से मिला वह उनके जीवित रहते हिन्दी का यश बन गया. हिन्दी में जिन लेखकों ने उजाड़े के साल को और समाज पर उसके असर को पूरी संवेदनशीलता से दर्ज किया है, भीष्म साहनी उन्हीं थोड़े से लेखकों में शरीक हैं. हालांकि उनका रचना संसार इससे कहीं ज्यादा बड़ा है और उनकी शख़्सियत और काम का दायरा और भी विस्तृत.

अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में विचारधारा और साहित्य के रिश्ते को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा हैं,‘‘विचारधारा यदि मानव मूल्यों से जुड़ती है, तो उसमें विश्वास रखने वाला लेखक अपनी स्वतंत्रता खो नहीं बैठता. विचारधारा उसके लिए सतत प्रेरणास्त्रोत होती है, उसे दृष्टि देती है, उसकी संवेदना में ओजस्विता भरती है. साहित्य में विचारधारा की भूमिका गौण नहीं है, महत्वपूर्ण है. विचारधारा के वर्चस्व से इंकार का सवाल ही कहां है. विचारधारा ने मुक्तिबोध की कविता को प्रखरता दी है. ब्रेख़्त के नाटकों को अपार ओजस्विता दी है. यहां विचारधारा की वैसी ही भूमिका रही है, जैसी कबीर की वाणी में, जो आज भी लाखों-लाख भारतवासियों के होठों पर है.’’

उपन्यास, कहानियां, नाटक, लेख और कला की तमाम दीगर विधाओं में उन्होंने निरंतर अपनी कलम चलाई. प्रगतिशील लेखक संघ से उनका जुड़ाव रहा और इप्टा के भी वह समर्पित कार्यकर्ता रहे. 1975 में ‘गया सम्मेलन’ में वे प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव बने और 1986 तक बने रहे. प्रलेस के महासचिव के तौर पर उन्होंने देश भर में इसकी विचारधारा फैलाने का काम किया.

भारतीय साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन और प्रगतिशील लेखक संघ की भूमिका को वह महत्वपूर्ण मानते थे. प्रलेस की भूमिका पर वह लिखते हैं,‘‘प्रलेस की भूमिका एक सामाजिक, सांस्कृतिक रूप में रही, संगठन बन जाने के बाद भी उसने संस्था का रूप नहीं लिया. उसका स्वरूप एक लहर जैसा ही है, बंधी-बंधाई संस्था का नहीं है. यह भारत की सभी भाषाओं का साझा मंच था, धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र की दृष्टि से प्रेरित और वामपंथी विचारधारा से गहरे तक प्रभावित, जो एक तरफ़ देश के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ता था, तो दूसरी ओर विश्वव्यापी स्तर पर उठने वाली घटनाचक्र के प्रति सचेत था.’’

रावलपिंडी में 8 अगस्त, 1915 को जन्मे भीष्म साहनी ने लाहौर से अपनी पढ़ाई पूरी की. पढ़ने-लिखने और रंगमंच में उनकी दिलचस्पी शुरू से ही थी. उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘अबला’ उस वक्त लिखी थी, जब दसवीं में पढ़ रहे थे. बाद में यह कहानी उनके कॉलेज की पत्रिका ‘रावी’ में छपी भी.

1942 में जब ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ छिड़ा, तो वह सियासी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे और कांग्रेस में शामिल हो गए. इस हंगामाख़ेज़ दौर में उनकी मुलाक़ात सियासत और साहित्य दोनों ही क्षेत्र की हस्तियों महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचंद, सुदर्शन, दयानारायण निगम, जैनेन्द्र, बनारसीदास चतुर्वेदी, इम्तयाज अली ‘ताज’, रवीन्द्रनाथ टैगोर, उदयशंकर आदि से हुई. और जिसका असर उनकी ज़िंदगी पर भी पड़ा.

पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पिता के साथ कुछ दिन व्यापार भी संभाला, लेकिन उनका वहां उनका मन नहीं लगा. जल्दी ही वे इससे आज़ाद हो गए और लाहौर के एक कॉलेज में फ़ौरी तौर पर पढ़ाने लगे. बाकी समय पढ़ने-लिखने और नाट्य कर्म में लगता. उन्हीं दिनों वह कहानियां और लेख लिखने लगे, जो ‘विशाल भारत’, ‘सरस्वती’ और ‘हंस’ में छपते.

बंटवारे के बाद भीष्म साहनी का पूरा परिवार भारत आ गया. यहां कई विश्वविद्यालयों में उन्होंने अध्यापन किया. 1953 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘भाग्यरेखा’ छपा और इसके तीन साल बाद, 1956 में दूसरा संग्रह ‘पहला पाठ’. वह हमेशा ही अदब में मकसद के क़ायल रहे.

कहानी की शैली-शिल्प और भाषा से ज्यादा उनका ध्यान इसके उद्देश्य पर रहता था. कहानी के मुताल्लिक उनका नज़रिया था,‘‘कहानी में कहानीपन हो, उसमें ज़िंदगी की सच्चाई झलके, वह विश्वसनीय हो, उसमें कुछ भी आरोपित न हो, और वह जीवन की वास्तविकता पर खरी उतरे.’’

वहीं कहानी की भाषा के बारे में उनका ख्याल था कि जहां ज़रूरी लगे वहां हिन्दी की सहोदर भाषाओं और बोलियों का इस्तेमाल करना चाहिए. उनके मुताबिक ‘‘उत्तर भारत की भाषाएं एक-दूसरी से इतनी मिलती-जुलती हैं कि एक के प्रयोग से दूसरी भाषा बिगड़ती नहीं, बल्कि समृद्ध होती है.’’ यही वजह है कि भीष्म साहनी की कहानियां हमें ज़िंदगी के क़रीब लगती हैं. उनकी भाषा से भी पाठक भावनात्मक तौर पर जुड़ जाते हैं, जिसमें वे पंजाबी शब्दों, वाक्यांशों के इस्तेमाल से बचते नहीं हैं.

साल 1957 से लेकर 1963 तक भीष्म साहनी मास्को में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह में अनुवादक के तौर पर काम करते रहे. इस दौरान उन्होंने क़रीब दो दर्जन किताबों का हिंदी में अनुवाद किया. अनुवाद को भीष्म साहनी एक कला मानते थे. ‘आज के अतीत’ में इस विधा के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘‘अनुवाद कार्य भी एक कला है, पाठक को जो रस कहानी-उपन्यास को मूल भाषा में पढ़ने पर मिले, वैसा ही रस अनुवाद में भी मिले. तभी अनुवाद को सफल और सार्थक अनुवाद माना जाएगा. शाब्दिक अनुवाद-जिसे मक्खी पर मक्खी बैठाना कहा जाता है, साहित्यिक कृतियों के लिए नहीं चल सकता.’’

अध्यापन और अनुवाद के अलावा भीष्म साहनी ने दो साल तक ‘नई कहानियां’ पत्रिका का संपादन भी किया. उनका जुड़ाव प्रगतिशील लेखक संघ से तो था ही, ‘अफ्रो-एशियाई लेखक संघ’ से भी वे जुड़े रहे. इस संगठन की पत्रिका ‘लोटस’ के कुछ अंकों का संपादन भी उन्होंने किया.

‘अफ्रो-एशियाई लेखक संघ’ से जुड़कर भीष्म साहनी दुनिया के कई मशहूर लेखकों मसलन फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश, दक्षिण अफ्रीका के एलेक्स ला गूमा, अंगोला के आगस्टीनो नेटो और फ़ैज अहमद फ़ैज के संपर्क में आए. कई देशों की यात्राएं कीं. उनको क़रीब से देखा-जाना.

साल 1993 से 1997 तक वह साहित्य अकादमी के कार्यकारी समिति के सदस्य रहे. साल 1975 में ‘तमस’ पर उन्हें ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार मिला. इसी साल पंजाब सरकार ने भी उन्हें ‘शिरोमणि लेखक अवार्ड’ से सम्मानित किया. हिन्दी अकादमी, दिल्ली का शलाका सम्मान तो साहित्य अकादमी ने उन्हें अपना महत्तर सदस्य बनाकर नवाजा.

सन् 1980 में उन्हें ‘अफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन’ का ‘लोटस अवार्ड’, तो 1983 में ‘सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड’ से नवाजा गया. 1998 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ अलंकरण से विभूषित किया.

भीष्म साहनी की ज्यादातर कहानियां मध्य वर्ग के सुख-दुःख, आशा-निराशा, पराजय-अपराजय की कहानियां हैं. ‘चीफ की दावत’, ‘वांड्चू’, ‘खून का रिश्ता’, ‘चाचा मंगलसेन’, ‘सागमीट’ जैसी उनकी कई कहानियां हिन्दी कथा साहित्य में ख़ास मुकाम हासिल कर चुकी हैं.

‘चीफ़ की दावत’ 1956 में ‘कहानी’ में छपी थी. छह दशक बाद भी यह कहानी मध्य वर्ग की सोच की नुमाइंदगी करती है, कि आज भी मध्य वर्ग की सोच में बहुत फ़र्क नहीं आया है. भारत के बंटवारे पर हिन्दी में जो बेहतरीन कहानियां लिखी गई हैं, उनमें से ज्यादातर भीष्म साहनी की हैं.

उन्होंने और उनके परिवार ने ख़ुद बंटवारे का दंश झेला था. यही वजह है कि उनकी कहानियों में यह सब प्रमाणिकता के साथ आए हैं. कहानी ‘आवाजें’, ‘पाली’, ‘निमित्त’, ‘मैं भी दिया जलाऊंगा, मां’ और ‘अमृतसर आ गया है’ के अलावा उनका उपन्यास ‘तमस’ बंटवारे और उसके बाद के सामाजिक-राजनीतिक हालात को बेबाकी से बयान करता है.

उपन्यास ‘तमस’ बंटवारे की पृष्ठभूमि, उस वक्त के साम्प्रदायिक उन्माद और इस सबके बीच पिसते आम आदमी के दर्द का बयान है. गोविंद निहलानी ने ‘तमस’ नाम से ही टेलीसीरियल बनाया, तो इसे ख़ूब ख्याति मिली. हालांकि सीरियल को चाहने वाले थे, तो कुछ मुट्ठी भर कट्टरपंथी इसके ख़िलाफ़ भी थे. देश भर में धरना-प्रदर्शन हुए. यहां तक कि दूरदर्शन के दिल्ली स्थित केन्द्र पर हमला भी हुआ. लेकिन इसकी लोकप्रिय बनी रही.

‘झरोखे’ भीष्म साहनी का पहला उपन्यास था, जो उन्होंने सोवियत संघ से लौटकर लिखा था. इसके बाद उनका उपन्यास ‘कड़ियां’ आया. इन दोनों उपन्यासों को धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ में धारावाहिक रूप से छापा. ‘मय्यादास की माड़ी’ भीष्म साहनी का एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है. इस उपन्यास में उन्होंने विस्तार से लिखा है कि किस तरह देश में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की स्थापना हुई.

देशी शासक और सेनापति यदि विश्वासघात नहीं करते, तो देश कभी ग़ुलाम नहीं होता. ‘मय्यादास की माड़ी’ की शुरूआत उन्होंने एक छोटी कहानी से की थी, जो ‘एक रोमांटिक कहानी’ शीर्षक से उनके कहानी संग्रह ‘पहला पाठ’ में छपी थी. बाद में उन्होंने इस कहानी का विस्तार किया और इस तरह से यह क्लासिक उपन्यास पाठकों के सामने आया.

रंगमंच से भी उनका रिश्ता पुराना था. इप्टा की स्थापना से ही वे अपने बड़े भाई बलराज साहनी के साथ इससे जुड़ गए थे. उन्होंने इप्टा के लिए न सिर्फ नाटक लिखे, अभिनय किया बल्कि कुछ नाटकों मसलन ‘भूतगाड़ी’, ‘कुर्सी’ का निर्देशन भी किया. कहानी और उपन्यास की तरह भीष्म साहनी के नाटक भी काफी चर्चित रहे.

उनके नाटक की शुरूआत हालांकि बड़ी ठंडी रही. जब उन्होंने अपना पहला नाटक ‘हानूश’ लिखा, तो इसे अपने बड़े भाई बलराज साहनी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक अलकाजी को दिखाया. लेकिन दोनों ने ही इस नाटक में न तो कोई दिलचस्पी ली और न उनका उत्साह बढ़ाया. बाद में इस नाटक को निर्देशक राजिंदरनाथ ने खेला. नाटक ख़ूब पसंद किया गया.

‘हानूश’ की कामयाबी के बाद भीष्म साहनी ने ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ लिखा. जिसे एम. के. रैना ने निर्देशित किया. इस नाटक ने ‘हानूश’ की सफलता की कहानी दोहराई. एम. के. रैना के नाट्य ग्रुप ने इस नाटक को दस साल तक लगातार खेला और आज भी जब इस नाटक का प्रदर्शन होता है, तो इसे भीड़ जुटती है.

‘माधवी’, ‘आलमगीर’, ‘रंग दे बसंती चोला’ और ‘मुआवजे’ भीष्म साहनी के दीगर चर्चित नाटक हैं. उनके सभी नाटकों में वैचारिक प्रतिबद्धता और समाज के प्रति दायित्व साफ नजर आता है. ‘तमस’ हो या ‘हानूश’ या फिर ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ इन सभी में एक बात समान है – ये धर्म और राजनीति के भयानक गठजोड़ पर प्रहार करते हैं.

नाटक ‘माधवी’ और ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ स्त्रीवादी नजरिए से लिखे गए हैं. नाटक के बारे में भीष्म साहनी की मान्यता थी, ‘‘नाटक में कही बात, अधिक लोगों तक पहुंचती है. दर्शकों के भीतर गहरे उतरती है. साहित्य से आगे सामान्यजनों तक बात पहुंचती है.’’ नाट्य लेखन के जरिए समाज को उन्होंने हमेशा एक संदेश दिया. भीष्म साहनी ने कुछ सीरियल और फ़िल्मों में अभिनय भी किया. मसलन ‘तमस’, ‘मोहन जोशी हाजिर हो’ और ‘मिस्टर एंड मिसेज अय्यर’.

प्रेमचंद की तरह भीष्म साहनी का भी यह मानना था कि लेखक राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है और अपनी इस बात को वे एक इंटरव्यू में इस तरह से सही ठहराते हैं,‘‘लेखक का संवेदन अपने समय के यथार्थ को महसूस करना और आंकना है. अंतर्द्वंद्वं और अन्तर्विरोध के प्रति सचेत होना है. इसी दृष्टि से उसकी पकड़ समाज के भीतर चलने वाले संघर्ष पर ज्यादा मजबूत होती है. और परिवर्तन की दिशा का भी भास होने लगता है. इसी के बल पर वह राजनीति से आगे होता है और पीछे नहीं.’’

भीष्म साहनी को एक लंबी उम्र मिली और ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों तक वे सक्रिय रहे. बीमारी और शारीरिक दुर्बलता के बावजूद उन्होंने अपना लिखना-पढ़ना और सांगठनिक जिम्मेदारियां नहीं छोड़ी. 11 जुलाई, 2003 को उनके निधन के बाद कमलेश्वर ने जो श्रद्धांजलि लेख लिखा, वह हिन्दी साहित्य में उनके अवदान और उनकी लोकप्रियता को समझने का पैमाना हो सकता है,

‘‘भीष्म साहनी को याद करने का मतलब है, उनके पूरे समय को याद करना. बीसवीं सदी पर उनका नाम इतनी गहराई से अंकित है कि उसे मिटाया नहीं जा सकता. आज़ादी के साथ और इक्कीसवीं सदी की 11 जुलाई, 2003 तक यह नाम हिंदी कथा साहित्य और नाटक लेखन का पर्याय रहा है. ऐसी अनोखी लोकप्रियता भीष्म साहनी ने प्राप्त की थी कि प्रत्येक तरह का पाठक उनकी रचना की प्रतीक्षा करता था. उनका एक-एक शब्द पढ़ा जाता था. किसी सामान्य पाठक से भी यह पूछने की जरूरत नहीं पढ़ती थी कि उसने भीष्म की यह या वह रचना पढ़ी है या नहीं. उनकी कहानी या उपन्यास पर एकाएक बात शुरू की जा सकती थी. ऐसा विरल पाठकीय सौभाग्य या तो प्रेमचंद को प्राप्त हुआ था या हरिशंकर परसाई के बाद भीष्म साहनी को प्राप्त हुआ और यह भी विरल घटना है कि भीष्म को जो यश हिन्दी से मिला वह उनके जीवित रहते हिन्दी का यश बन गया. ऐसा दुर्लभ सौभाग्य भी किस रचनाकार को प्राप्त होता है? भीष्म जैसे कालजयी रचनाकर को कोई कैसे भुला सकता है?’’

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