हसरत मोहानी | इन्क़लाब का नारा देने वाला जंगे आज़ादी का सिपाही

  • 8:00 am
  • 14 October 2020

शायर होने के साथ-साथ हसरत मोहानी जंगे आज़ादी के सिपाही भी थे. वही थे, जिन्होंने ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया. संविधान सभा के वह अकेले ऐसे मेम्बर थे, जिन्होंने संविधान पर अपने दस्तखत नहीं किये. उन्हें लगता था कि देश के संविधान में मजदूरों और किसानों की हुकूमत आने का कोई ठोस सबूत नहीं है.

जंग-ए-आज़ादी में सबसे अव्वल ‘इन्क़लाब ज़िंदाबाद’ का नारा और हिंदुस्तान की मुकम्मल आज़ादी की मांग, ये दो बातें ही मौलाना हसरत मोहानी की बावकार हस्ती का बयान करने के लिए काफी हैं. यों उनकी शख़्सियत से जुड़े कितने ही क़िस्से और कारनामे हैं, जो जंग-ए-आज़ादी के पूरे दौर और फिर आज़ाद हिंदुस्तान में उन्हें अज़ीम बनाते हैं. महात्मा गांधी ने उनके बारे में कहा था, ‘‘मुस्लिम समाज के तीन रत्न हैं और मुझे लगता है कि इन तीनों में मोहानी साहब सबसे महान हैं.’’ उन्होंने अपने लिए जो भी काम चुना या अपने सिर कोई ज़िम्मेदारी ली, उसे दिल से निभाया. उस काम में अपनी छाप छोड़ी. यों उनका हकीक़ी नाम सय्यद फ़ज़ल-उल-हसन था मगर मोहान (उन्नाव) कस्बे में पैदा होने की वजह से उनके नाम के पीछे मोहानी लग गया और बाद में ‘हसरत मोहानी’ के नाम से ही मशहूर हो गए. उन्नाव में डौडिया खेड़ा के राजा राव रामबक्श सिंह की शहादत का उन पर ऐसा असर हुआ कि वे छात्र जीवन से ही आज़ादी के आंदोलन में मुब्तिला हो गए थे.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया, तो एक नई ज़िंदगी उनके इंतज़ार में थी. एक तरफ वतनपरस्तों की टोली थी, दूसरा ग्रुप खुदी में मस्त था, देश-दुनिया के मसलों से उसका कोई साबका नहीं था. अपनी फ़ितरत के मुताबिक मोहानी वतनपरस्तों की टोली में गए. सज्जाद हैदर यल्दरम, क़ाज़ी तलम्मुज़ हुसैन और अबु मुहम्मद जैसी शख़्सियत उनके दोस्तों में शामिल थीं. एएमयू में उस वक़्त आज़ादी के हीरो के तौर पर उभरे मौलाना अली जौहर और मौलाना शौकत अली से भी उनका वास्ता रहा. मौलाना हसरत मोहानी, पढ़ाई के साथ-साथ आज़ादी की तहरीक में हिस्सा लेने लगे. जहां भी कोई आंदोलन होता, उसमें पेश-पेश रहते. अपनी इंकलाबी विचारधारा और आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से कई बार वे निष्कासित हुए, लेकिन आज़ादी के जानिब उनका जुनून और दीवानगी कम नहीं हुई.

मश्क़-ए-सुख़न और चक्की की मशक़्क़त
पढ़ाई पूरी करने के बाद, नौकरी चुनकर वह एक अच्छी ज़िंदगी बसर कर सकते थे, मगर उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना. पत्रकारिता और कलम की अहमियत को पहचाना और साल 1903 में अलीगढ़ से ही एक सियासी-अदबी रिसाला ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ निकाला. इस रिसाले में उन्होंने हमेशा हमख़्याल आज़ादीपसंद लोगों के लेख, इंकलाबी शायरों की ग़ज़लों-नज़्मों को तरजीह दी, और जिसकी वजह से वे अंग्रेज़ी हुकूमत की आंखों में खटकने लगे. अपने एक मज़मून में उन्होंने सरकार की तीखी आलोचना की, नतीजे में उन्हें जेल जाना पड़ा. और सज़ा, दो साल क़ैद बामशक़्क़त! बात 1907 की है. जेल में उनसे रोज़ाना एक मन गेहूँ पिसवाया जाता था. उन्हीं दिनों उन्होंने यह मशहूर शे’र कहा था, ‘‘है मश्क़-ए-सुख़न जारी, चक्की की मशक़्क़त भी/ इक तुर्फ़ा तमाशा है शायर की तबीयत भी.’’

सन् 1904 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की मेंबरशिप भी ले ली थी और कांग्रेस की गतिविधियों में शरीक भी होने लेने थे. वैचारिक स्तर पर वे कांग्रेस के ‘गर्म दल’ के ज्यादा क़रीब थे. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से उनका ज्यादा लगाव था. कांग्रेस के ‘नर्म दल’ के लीडरों की नीतियों से वे रजामंद नहीं थे. वक्त पड़ने पर वे इन नीतियों की बाबत कांग्रेस के मंच से और अपनी पत्रिका ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ में सख़्त नुक़्ताचीनी भी करते. सन् 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस से जुदा हुए, तो वे भी उनके साथ अलग हो गए. हालांकि बाद में वह फिर कांग्रेस के साथ हो लिए.

आज़ादी-ए-कामिल का प्रस्ताव
1921 में मौलाना हसरत मोहानी ने न सिर्फ ‘इंकलाब जिंदाबाद’ नारा दिया, साथ ही अहमदाबाद में हुए कांग्रेस सम्मलेन में ‘आज़ादी ए कामिल’ यानी पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव भी रखा. कांग्रेस की उस ऐतिहासिक बैठक में क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक़उल्ला खां के साथ-साथ कई और क्रांतिकारी भी मौजूद थे. महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया. बावजूद इसके हसरत मोहानी ‘पूर्ण स्वराज्य’ का नारा बुलंद करते रहे और आख़िरकार यह प्रस्ताव साल 1929 में पारित भी हुआ. भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद समेत तमाम क्रांतिकारियों ने आगे चलकर मौलाना हसरत मोहानी के नारे ‘इंकलाब जिंदाबाद’ की अहमियत समझी और देखते-देखते यह नारा आज़ादी की लड़ाई में मकबूल हो गया. एक समय देश भर में बच्चे-बच्चे की ज़बान पर यह नारा था.

यह बात भी बहुत कम लोग जानते होंगे कि महात्मा गांधी को स्वदेशी आंदोलन की राह मौलाना हसरत मोहानी ने ही सुझाई थी. ख़ुद उन्होंने भी इसका खूब प्रचार-प्रसार किया. यहां तक कि एक खद्दर भण्डार भी खोला, जो कि बहुत मकबूल हुआ था. जब हसरत मोहानी ने स्वदेशी आंदोलन अपनाया, तो इतिहासकार, फ़ारसी ज़बान के मशहूर शायर शिबली नोमानी ने उन पर तंज कसते हुए मज़ाक में कहा, ‘‘तुम आदमी हो या जिन्न, पहले शायर थे, फिर पॉलटिशन बन गए और अब बनिए भी हो गए !’’ इस दरमियान अपनी क्रांतिकारी सरगर्मियों के लिए मौलाना हसरत मोहानी 1914 और 1922 में दो बार और जेल हो आए. लेकिन उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया. जेल से वापस आते और फिर उसी जोश और जज़्बे से अपने काम में लग जाते. अंग्रेज हुकूमत का कोई ज़ोर-जुल्म उन पर असर न डाल पाता था.

सीपीआई की काफ़्रेंस में शिरकत
कुछ अर्से बाद मौलाना हसरत मोहानी का झुकाव कम्युनिज़्म की तरफ़ हो गया. यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के पहले सम्मेलन की नींव उन्होंने ही रखी. साल 1926 में कानपुर में हुई पहली कम्युनिस्ट कॉफ्रेंस में स्वागत भाषण उन्होंने ही पढ़ा. जिसमें उन्होंने पूर्ण आज़ादी, सोवियत रिपब्लिक की तर्ज़ पर स्वराज की स्थापना और स्वराज स्थापित होने तक काश्तकारों और मज़दूरों के कल्याण और भलाई पर ज़ोर दिया. 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस हुई, तो मौलाना हसरत मोहानी सिर्फ एक दावतनामे पर इस कान्फ्रेंस में हिस्सा लेने लखनऊ पहुंच गए. अपनी तकरीर में न सिर्फ़ उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र और इसके मकसद से रजामंदी जाहिर की, बल्कि इस बात भी जोर दिया कि ‘‘अदब में आज़ादी की तहरीक की अक्कासी होनी चाहिए. प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखकों को मजदूरों, किसानों और तमाम पीड़ित इंसानों की पक्षधरता करना चाहिए. लेखक को जिंदगी के ज्यादा महत्वपूर्ण और गंभीर मसलों की तरफ ध्यान देना चाहिए.’’

अपने साम्यवादी विचारों के जानिब मौलाना हसरत मोहानी इस क़दर आग्रही थे कि उन्होंने अपनी इस तकरीर में लेखकों से मुख़ातिब होते हुए साफ तौर पर कहा,‘‘महज तरक्कीपसंदगी काफी नहीं है, आधुनिक साहित्य को सोशलिज्म और कम्युनिज्म का समर्थन करना चाहिए, इसे इन्किलाबी होना चाहिए.’’ अलबत्ता मौलाना का ख़ुद का साहित्य, ख़ास तौर पर उनकी शायरी में इन बातों का कोई अक्स नहीं दिखाई देता. बावजूद इसके वे तरक्कीपसंद अदब की तख्लीक के हामी थे. कानपुर में जब प्रगतिशील लेखक संघ की पहली इकाई बनी, तो उन्होंने इस संगठन के अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी संभाली. तरक्कीपसंद तहरीक पर जब भी प्रतिक्रियावादी ताकतें हमला करतीं, मौलाना हसरत मोहानी उन्हें मुंह तोड़ जवाब देते. तहरीक के लिए वह कुछ भी करने को तैयार हो जाते.

अपनी किताब ‘रौशनाई’ में सज्जाद जहीर ने उनके सियासी नज़रिये के बारे में एक टिप्पणी की है, जो लखनऊ अधिवेशन में मौलाना की तकरीर के संबंध में ही है, ‘‘उन्होंने यह समझाने की कोशिश की कि इस्लाम और कम्युनिज्म में कतई कोई तजाद नहीं है. उसके नजदीक इस्लाम का जमहूरी नस्बुलएन इसका मुतकाजी है कि सारी दुनिया में मुसलमान इश्तराकी निजाम (साम्यवाद) कायम करने की कोशिश करें. हमारे ख्याल में तरक्कीपसंद अदबी तहरीक में महज सोशलिस्ट या कम्युनिस्ट ही नहीं, बल्कि मुख्तलिफ अकायद के लोगों के लिए जगह थी. मौलाना के नज़दीक तरक्कीपसंदी के लिए इश्तराकी होना जरूरी था.’’

मुस्लिम लीग के टिकट पर असेंबली में
हसरत मोहानी के नाम के आगे भले ही मौलाना लगा रहा, लेकिन उनका मसलक क्या था? यह उन्होंने ख़ुद अपने एक शे’र में बतलाया है,‘‘दरवेशी ओ इन्किलाब है मसलक मेरा/ सूफी मोमिन हूँ इश्तराकी मुस्लिम.’’ फिर भी ग़ौर करेंगे तो मौलाना हसरत मोहानी की शख्सियत में कई विरोधाभास दिखाई देंगे. एक तरफ वे ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ की कायमगी में पेश-पेश रहे, तो दूसरी ओर ‘आल इंडिया मुस्लिम लीग’ और ‘जमीयत उलेमा ए हिंद’ के भी संस्थापक सदस्य रहे. यहां तक कि मुस्लिम लीग के एक अधिवेशन की अध्यक्षता की और आज़ादी से पहले मुस्लिम लीग के टिकट पर असेंबली चुनाव भी जीते. ‘मुस्लिम लीग’ में रहे, लेकिन उसके द्विराष्ट्रीय सिद्धांत का विरोध किया. यहां तक कि पाकिस्तान बनने के विरोध में खड़े हो गए और जब बँटवारा हुआ, पाकिस्तान जाने से साफ मना कर दिया.

पक्के परहेज़गार और कृष्ण के मुरीद भी
पांचों वक्त के नमाजी और परहेज़गार थे, मगर भगवान कृष्ण के भी मुरीद थे. कृष्ण की तारीफ़ में उन्होंने अपनी नज़्म में लिखा, ‘‘मथुरा कि नगर है आशिक़ी का/ दम भरती है आरज़ू इसी का/ पैग़ाम-ए-हयात-ए-जावेदाँ था/ हर नग़्मा-ए-कृष्ण बाँसुरी का/ वो नूर-ए-सियाह या कि हसरत/ सर-चश्मा फ़रोग़-ए-आगही का.’’ मौलाना हसरत मोहानी, हिंदुस्तानी तहज़ीब के सच्चे मुहाफ़िज़ थे. ‘होली’ पर उनकी एक नज्म है, जिसमें वे कृष्ण भक्ति में लिखते हैं, ‘‘मोहे छेड़ करत नंद लाल/ लिए ठाड़े अबीर गुलाल/ ढीठ भई जिन की बरजोरी/ औरां पर रंग डाल-डाल.’’ वह क़ौमी एकता के सच्चे सिपाही थे और अपने अदब और मजमून में हमेशा ही हिंदू-मुस्लिम इत्तेहाद की बात की.

शायरी उनका बचपन का शौक थी. तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी जैसे मशहूर शायर उनके उस्ताद थे. एएमयू के दिनों उन्होंने ‘शे’र-ओ-सुख़न’ की महफ़िलों में शिरकत शुरू कर दी थी. 1902 में कॉलेज के जलसे में उन्होंने अपनी मसनवी ‘मुशायरा शोरा-ए-क़दीम दर आलम-ए-ख़याल’ सुनाई, जिसे खूब पसंद किया गया. उस जलसे में फ़ानी बदायूंनी, मीर मेहदी मजरूह, अमीर उल्लाह तस्लीम जैसे आला दर्जे के शायर मौजूद थे. आज़ादी आंदोलन में सक्रियता और पत्रकारिता की वजह से अदब के लिए उन्हें बहुत समय नहीं मिल पाता था, तो समय निकालकर अदब की तख्लीक करते. अपने रिसाले ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ के ज़रिये उन्होंने अवाम को न सिर्फ बहुत से गुमनाम शायरों से वाक़िफ़ कराया, बल्कि समकालीन शायरी का रिश्ता क्लासिकी अदब से भी जोड़ा.

हसरत ने उठाया है हर उस्ताद से फ़ैज़
फ़ारसी और अरबी ज़बान के बड़े विद्वान थे और उनका अध्ययन भी बड़ा व्यापक था. उन्होंने पुरखे शायरों को ख़ूब पढ़ा और उनसे फ़ैज़ भी उठाया. उन्होंने कहा भी है, ‘‘ग़ालिब-ओ-मुसहफ़ी-ओ-मीर-ओ-नसीम-ओ-मोमिन/ तबा-ए-‘हसरत’ ने उठाया है हर उस्ताद से फ़ैज़.’’ लेकिन इसके ये मायने नहीं हैं कि उनकी ख़ुद की कोई पहचान नहीं थी. उनके क़लाम में अपना ही एक रंग है, जो सबसे जुदा है. हुस्न-ओ-इश्क में डूबी उनकी ग़ज़लें, हमें एक मुख़्तलिफ़ हसरत मोहानी का तआरुफ कराती हैं. उनकी ग़ज़लों के कुछ अश्आर देखिए, ‘‘न सूरत कहीं शादमानी की देखी/ बहुत सैर दुनिया-ए-फ़ानी की देखी.’’, ‘‘क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके/ उन से हम आँख भी मिला न सके.’’, ‘‘अपना सा शौक़ औरों में लाएँ कहाँ से हम/ घबरा गए हैं बे-दिली-ए-हमरहाँ से हम/ कुछ ऐसी दूर भी तो नहीं मंज़िल-ए-मुराद/ लेकिन ये जब कि छूट चलें कारवाँ से हम.’’, ‘‘दिल को ख़याल-ए-यार ने मख़्मूर कर दिया/ साग़र को रंग-ए-बादा ने पुर-नूर कर दिया.’’ मौलाना हसरत मोहानी की ऐसी और भी कई ग़ज़लें हैं, जो आज भी बेहद मकबूल हैं. ख़ास तौर पर हसरत मोहानी की ग़ज़ल, ‘‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है…’’ तो जैसे उनकी बन गई पहचान है.

उन्होंने अपनी ज़िंदगी में तेरह दीवान संकलित किए और हर दीवान पर ख़ुद ही प्रस्तावना लिखी. उनके अशआर की तादाद भी तक़रीबन सात हज़ार है. जिनमें से आधे से ज़्यादा उन्होंने जेल में लिखे हैं. उनकी लिखी कुछ ख़ास किताबें ‘कुल्लियात-ए-हसरत’, ‘शरहे कलामे ग़ालिब’, ‘नुकाते सुखन’, ‘मसुशाहदाते ज़िन्दां’ हैं. ‘कुल्लियात-ए-हसरत’ में उनकी ग़ज़ल, नज़्म, मसनवी आदि शामिल हैं.

आज़ादी के बाद भी वे लगातार मुल्क की ख़िदमत करते रहे. संविधान बनाने वाली कमेटी में वह शामिल थे. संविधान सभा के मेंबर और संसद सदस्य रहते हुए उन्होंने कभी कोई ख़ास सहूलियत नहीं लीं. यहां तक कि सांसद को मिलने वाली तनख़्वाह या कोई भी सरकारी सहूलियत उन्होंने क़बूल नहीं की. सादगी इस क़दर कि ट्रेन के थर्ड क्लास और शहर के अंदर तांगे पर सफ़र करते थे. छोटा सा मकान उनका आशियाना था.

दिल्ली में जब भी संविधान सभा की बैठक में आते, तो एक मस्जिद में उनका क़याम होता. एक और दिलचस्प वाक़या है, जो उनके उसूलों पर अड़े रहने की मज़बूत गवाही है. मौलाना हसरत मोहानी, संविधान सभा के एक अदद ऐसे मेम्बर थे, जिन्होंने संविधान पर अपने दस्तखत नहीं किये, और वो इसलिए कि उन्हें लगता था कि देश के संविधान में मजदूरों और किसानों की हुकूमत आने का कोई ठोस सबूत नहीं है.

13 मई, 1951 को मौलाना हसरत मोहानी ने इस दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कहा.

(ज़ाहिद ख़ान ‘आज़ाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ के लेखक हैं.)

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