हीरालाल सेन | पहले भारतीय फ़िल्म मेकर जिन्हें हमने भुला दिया

  • 6:27 pm
  • 6 June 2020

यह गुज़रे ज़माने की बात है, बहुत पहले की बात कि एक थी रॉयल बायस्कोप कम्पनी और एक थे हीरालाल सेन. फ़ोटोग्राफ़ी के शौक़ीन हीरालाल सेन ने भारतीय सिनेमा की दुनिया में अविस्मरणीय काम किए, मगर बदक़िस्मती से उन्हें और उनके काम को फ़िल्म इतिहास में वह मक़ाम नहीं मिल सका, जिसके वह हक़दार थे. पहली भारतीय विज्ञापन फ़िल्म बनाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है – सन् 1903 में उन्होंने जबाकुसुम हेयर टॉनिक और एडवर्ड्स टॉनिक के विज्ञापन के सीक्वेंस शूट किए थे. तारीख़ थी – 6 जून. इतना ही नहीं, 1904 में उन्होंने ‘एंटी-पार्टीशन डेमॉस्ट्रेशन’ और ‘स्वदेशी मूवमेंट’ पर न्यूज़रील बनाई, और 1912 में दिल्ली दरबार पर ‘विद ऑवर किंग एण्ड क्वीन थ्रू इंडिया’. और एक फ़िल्म भी बनाई – ‘अलीबाबा’. हीरालाल सेन 40 से ज्यादा शॉर्ट फ़िल्में बनाईं.

मानिकगंज (अब बंगलादेश में) के बगजुरी गांव में पैदा हुए कलकत्ते में पले-बढ़े. उनके पिता चंद्रमोहन सेन नामी वकील थे. कॉलेज के दिनों में ही हीरालाल सेन को फ़ोटोग्राफ़ी का ऐसा चस्का लगा कि उन्होंने फ़ोटो खींचने और प्रतियोगिताओं में शामिल होना शुरू कर दिया, कई मेडल जीते. 1890 तक उन्होंने कलकत्ता और मानिकगंज में अपना स्टुडियो खोल लिया. वह ऐसा दौर था, जब फ़ोटोग्राफ़ी की तकनीक या उपकरण हर किसी की पहुंच में नहीं हुआ करते थे.

कलकत्ता से बहुत दूर बम्बई के वॉटसन होटल में लुमियर ब्रदर्स अपनी बनाई छह फ़िल्मों का प्रदर्शन किया – ‘अराइवल ऑफ अ ट्रेन’, ‘द सी बाथ’, ‘एंट्री ऑफ सिनेमैटोग्राफ़ी’, ‘लीविंग द फ़ैक्ट्री’, ‘अ डिमोलिशन’ और ‘लेडीज़ एण्ड सोलजर्स ऑन व्हील्स’. तारीख़ थी – 7 जुलाई 1896. चलती-फिरती हुई तस्वीरों से अवाक् हिन्दुस्तानी दर्शकों ने इन फ़िल्मों को हाथो-हाथ लिया. अख़बारों ने फ़िल्म को ‘सदी का चमत्कार’ के ख़िताब से नवाज़ा और सिनेमा का जादू चल गया. मगर सेन को तो सिनेमा देखने का मौक़ा दो साल बाद मिला, जब कलकत्ता के स्टार थिएटर में उन्होंने प्रो.स्टीवेंसन की शॉर्ट फ़िल्म ‘द फ्लॉवर ऑफ पर्शिया’ देखी. उन दिनों स्टेज शो के इंटरवल के दौरान शॉर्ट फ़िल्में दिखाने का चलन था. तो ‘द फ्लॉवर ऑफ पर्शिया’ देखने का सेन पर यह असर हुआ कि उन्होंने उसी समय ख़ुद फ़िल्म बनाने की ठान ली. उन्होंने फ़िल्म बनाने की तकनीक के बारे में पढ़ना शुरू किया. प्रो.स्टीवेंसन ने उनकी मदद की. उनका कैमरा उधार लेकर हीरालाल सेन ने अपनी पहली फ़िल्म बनाई – ‘अ डांसिंग सीन’. यह फ़िल्म ओपरा ‘द फ्लॉवर ऑफ पर्शिया’ पर ही आधारित थी.

थोड़े ही अर्से बाद उन्होंने लंदन की एक कंपनी से पांच हज़ार रुपये में फ़िल्म प्रोजेक्टर (अरबन बायस्कोप) ख़रीदा और सन् 1898 में अपने भाई मोतीलाल सेन के साथ मिलकर रॉयल बायस्कोप कम्पनी बना डाली. यह कंपनी उनकी ख़ुद की बनाई हुई और इंपोर्ट की हुई फ़िल्मों का प्रदर्शन करती थी. फ़िल्मों के प्रदर्शन की प्रक्रिया उन दिनों आसान हरगिज़ नहीं थी. तब कलकत्ते के दो इलाकों में ही बिजली हुआ करती थी – हावड़ा ब्रिज और मैदान. फ़िल्में दिखाने के लिए रॉयल बायस्कोप कम्पनी को कई तामझाम करने पड़ते और दूसरे संरजाम जुटाने पड़ते. बिजली नहीं थी तो आर्क लैंप के बजाय वे ‘लाइमलाइट’ का इस्तेमाल करते. इस प्रक्रिया में लाइम यानी कैल्शियम ऑक्साइड को जलाने से तेज़ रोशनी पैदा होती है. यह तेज़ रोशनी ही रील की छवियों को पर्दे तक पहुंचाती.

सेन की बनाई फ़िल्मों में अधिसंख्य क्लासिक थिएटर के नाटकों की हैं. अमरेंद्रनाथ दत्त के क्लासिक थिएटर के प्रोडक्शन भ्रमर, हरिराज और बुद्धदेव पर फ़िल्में बनाते हुए उन्होंने कुछ मौलिक प्रयोग भी किए. उनकी फ़िल्में कैमरे को एक जगह लगाकर शूट कर लेने के बजाय क्लोज़-अप दृश्यों, कैमरे को पैन और टिल्ट करके बनतीं. सन् 1903 में क्लासिक थिएटर के ही नाटक ‘अलीबाबा और चालीस चोर’ पर उन्होंने अपनी सबसे लम्बी फ़िल्म बनाई.

हालांकि सेन की बनाई फ़िल्में ख़ूब पसंद की जाती थीं और इस लोकप्रियता को देखते हुए उनकी कंपनी ने बंगाल में घूम-घूमकर फ़िल्में दिखानी शुरू कीं मगर सिर्फ़ नाटकों पर आधारित फ़िल्में बनाने से सेन को संतोष नहीं मिल रहा था, तो उन्होंने कुछ नया करने का फ़ैसला किया. इस नए की शुरुआत में उन्होंने विज्ञापन फ़िल्में भी शूट कीं, जिन्हें पहली भारतीय विज्ञापन फ़िल्म माना जाता है. जबाकुसुम हेयर टॉनिक और एडवर्ड्स टॉनिक की ये विज्ञापन फ़िल्म उन्होंने हुगली के किनारे बने तमाम भव्य विला को पृष्ठभूमि में रखकर बनाईं. ऐसी फ़िल्मों के लिए सेट बनाने का ख़्याल तब तक किसी को आया नहीं था. उन्होंने प्रकृति और लोगों की जीवन की घटनाओं और राजनीतिक गतिविधियों पर भी फ़िल्म बनाईं. सन् 1904 में बंगाल विभाजन के ख़िलाफ़ हुई एक जनसभा पर उन्होंने फ़िल्म बनाई – ‘एंटी-पार्टीशन डेमॉस्ट्रेशन’. भारतीय इतिहास की यह पहली पॉलिटिकल डॉक्युमेंट्री थी. इसके बहुत बाद में सन् 1911 में उन्होंने जॉर्ज पंचम के भारत दौरे यानी दिल्ली दरबार पर भी एक फ़िल्म बनाई. दिल्ली दरबार की फ़िल्म बनाने के लिए इंग्लैंड से आए चार धुरंधर कैमरामैन के मुक़ाबले अकेले हिन्दुस्तानी थे और उनकी फ़िल्म सबसे पहले रिलीज़ हुई थी.

बाद में हालांकि उन्हें लगने लगा कि वह विलायत से आने वाली फ़िल्मों का मुक़ाबला नहीं कर पा रहे हैं. सेन अपने काम में क्रिएटिव थे, मौलिक सोचते थे मगर अपने काम के लिए ज़रूरी मार्केटिंग का सलीका शायद वह नहीं जानते थे. यही वजह थी कि आर्थिक दिक़्कतों के चलते 1913 में उन्होंने अपना कारोबार समेट लिया, अपने कैमरे और दूसरे साज़ो-सामान उन्होंने बेच दिए. यह वही साल था, जब 21 अप्रैल को दादा साहब फ़ाल्के की फ़िल्म ‘राजा हरीशचंद्र’ रिलीज़ हुई थी.

24 अक्टूबर 1917 को उन्हें ख़बर मिली कि जिस गोदाम में उनकी सारी फ़िल्में रखी हुई थीं, उसमें आग लग गई और सब कुछ जलकर ख़ाक हो गया. इसका ऐसा सदमा लगा कि 51 वर्ष के हीरालाल सेन दो दिन बाद ही चल बसे. हिन्दुस्तानी सिनेमा के पहले फ़िल्म मेकर इस होनहार शख़्सियत के बारे में शोध करने वालों ने ज़रूर लिखा-पढ़ा मगर इसके सिवाय उनके काम और ज़िंदगी के बारे में बहुत चर्चा सुनाई नहीं देती. फ़ेडरेशन ऑफ़ फिल्म सोसाइटीज़ ऑफ़ बंगलादेश ने उनकी सौवीं पुण्यतिथि पर अलबत्ता एक किताब छापी है. हां, लंबे शोध के बाद अरुण रॉय ने दो साल पहले उन पर एक बॉयोपिक भी बनाई है.

कवर| आनंदबाज़ार पत्रिका से साभार


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