स्मरण | सुनो इरफ़ान! आज कोई सवाल नहीं, सिर्फ़ तुम्हारे जवाब हैं

  • 9:53 pm
  • 29 April 2020

शानदार शख़्सियत और बेहतरीन कुदरती अदाकारी के मालिक इरफ़ान खान ने यह दुनिया छोड़ दी. उन्हें अभी और रहना था, वह रहना भी चाहते भी थे लेकिन क़ायनात न जाने कौन सा क़िरदार लेकर उनकी तलाश में थी. उसके इस नाटक को आग लगे, उस पर बिजली गिरे, बादल बरसे.

आज इरफ़ान खान नहीं रहे. उनकी तारीफ़ में जो कुछ लिखा-पढ़ा, कहा-सुना जा रहा है, उसकी ताक़ीद में मेरा भी हाथ उठा है. वह क़िरदार को जिस तरह से जिस्मानी और रुहानी तैयारी के साथ अंजाम तक ले जाते थे, वह उन्हें बलराज साहनी, मोतीलाल, गुरुदत्त, संजीव कुमार की लीग का एक्टर बनाता है. सिनेमा के एक्टर्स की कभी कोई गैलेक्सी बनेगी तो इरफ़ान खान नेचुरल एक्टर्स की इसी चमकती गैलेक्सी में नज़र आएंगे.

इरफ़ान खान ने साल 2001 के सितंबर-अक्टूबर महीने के कई दिन इलाहाबाद में गुज़ारे. तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म ‘हासिल’ की शूटिंग के सिलसिले में. इरफ़ान से परिचय और फिर बहुत अच्छी मुलाक़ातों का ज़रिया बने थे अभिनेता दोस्त आशुतोष राणा. ज़ाहिर है कि थिएटर ही इसकी बुनियाद में था. टेलिविज़न के कई सीरियल और फ़िल्मों की वजह से एक अच्छे एक्टर की तरह इरफ़ान को नोटिस लिया जाने लगा था, उनकी पहचान बन चुकी थी. ‘अमर उजाला’ के एडिटर प्रभात भाई साहब (तब हम ‘सर’ कहने के आतंक से मुक्त होकर अपने एडिटर को भाई साहब कह सकते थे) उनसे एक छोटी बातचीत के लिए कहा. उस समय इरफ़ान ख़ान क़िरदार को लेकर शायद अपनी निजी तैयारी की वजह से किसी ‘अख़बार वाले’ से बातचीत को लेकर कोई ख़ास उत्साहित नहीं थे लेकिन उनसे मुलाकात एक ‘थिएटर वाले’ को करनी थी जो अख़बार के काम आनी थी. मैंने एक बातचीत की, वह छपी. एडिटर, रीडर और इरफ़ान सबको अच्छा लगा लेकिन वह दूसरे कई अख़बारों से लीड लेने के लिए लिखा गया था. वह बातचीत 29 सितंबर 2001 को की गई थी.

उसके बाद इरफ़ान मेरे घर भी आए. माँ से मिले, काफी देर रहे. उस समय की बातचीत का कुछ टुकड़ा मैंने रिकॉर्ड किया था. पुराने कैसेट में इरफ़ान की एक अजीब सी टेक्सचर लिए आवाज़, पंखे की सरसराहट, पापड़ तोड़ने और खाने की आवाज़ है. सोफ़ा वही है, पंखे में सरसराहट की आवाज़ वैसे ही आती है, टिन के कनस्तरों में नए पापड़ रखे हैं. माँ साथ हैं, पुराने पड़ चुके कैसेट में इरफ़ान की दबी-दबी ही सही लेकिन आवाज़ अभी भी है, सिर्फ वही नहीं हैं. इरफ़ान से जो मैंने सवाल किए, अब उसका ख़ास मतलब नहीं है. लेकिन जवाब अब भी है. वह अपना रंग बदल लेगा लेकिन बेमानी नहीं होगा. इरफ़ान की बातों में से कुछ सतरें…

…थिएटर किए काफी अरसा हो गया लेकिन फिर करना चाहूंगा. थिएटर करने के लिए एक अलग हिम्मत की ज़रूरत होती है. एक्टर को ऑडियंस के सामने दो-दो घंटे खड़े रहना होता है. कोई बचाने वाला नहीं है. उसे जो कुछ करना है, मरना-जीना है, वहीं करना है. काफी अरसा हो गया है तो हिम्मत छूट रही है लेकिन हिम्मत जुटा रहा हूं. लगातार परफॉरमेंस का जो मज़ा है, वह थिएटर में ही है. इसकी यही बात सबसे जुदा है.”

… कम्युनिकेट तो स्क्रिप्ट करती है, उसके बाद डायरेक्टर का नज़रिया करता है. एक्टर सिर्फ माध्यम है, वह अपना काम बेहतर ढंग से कर दे, यह काफी है. वह पूरी कहानी का पुर्जा भर है.”

… हिंदुस्तान में हीरो को देखने की आदत रही है, एक्टर की बदौलत फ़िल्म को चलाने का इतिहास यहां नहीं रहा है. गिने-चुने एक्टर रहे हैं. इनमें से कुछ ही एक्टर हुए जो स्टार भी बने जैसे दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन, बलराज साहनी, मोतीलाल… लेकिन जो दौर है, वह अलग है लोग जैसे हैं, वैसा आदमी उन्हें नहीं देखना है. वह जैसे बनना चाहते हैं, जो आपको अपनी याद न दिलाए, जो आपका ख्वाब हो, उसकी याद दिलाए, उसका एहसास कराए – उसको देखना चाहते हैं. यह एक बिज़नेस है. कोई कला की सेवा नहीं है. प्रोड्यूसर, डिस्ट्रीब्यूटर, डायरेक्टर, एक्टर पैसा कमा रहा है. जिससे मुनाफ़ा मिलेगा, इंडस्ट्री वही करेगी. एक्टर की जरूरत इंडस्ट्री को है ही नहीं.”

… फ़िल्म इंडस्ट्री अजीब है. जो फ़िल्म बिजनेस कर ले, चल जाए, उसमें मैंने कैसा भी काम किया हो, लोग मेरे पास काम देने आ ही जाएंगे. बतौर एक्टर पहचाना जाना अलग बात है. उससे यहां बहुत फ़र्क नहीं पड़ता. हमारी फ़िल्मों में एक पैकेज डील है. वही कहानी, वही फ़ार्मूला रहेगा, पांच गाना होगा बस. यह टूटता नहीं दिखता. बीच-बीच में कुछ फ़िल्में आ जाती हैं जो लीक को तोड़ती नज़र आती हैं लेकिन यह बहुत कम है.”

… सेंसर बोर्ड का मतलब नहीं है. वहां अजीब हिप्पोक्रेसी है. फ़िल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ सेंसर की ओर से पास हो जाती है. उसका नंगा पोस्टर सबके लिए है लेकिन मेरी फ़िल्म में एक डायलॉग था कि ‘इसका उपभोग करो’. उन्हें ‘उपभोग’ शब्द पर आपत्ति है. कहते हैं कि इस शब्द को हटा दो. अनुराग की फ़िल्म ‘पांच’ को रोक दिया. हिंदुस्तान के सिनेमा में सेंसर बोर्ड का कोई योगदान नहीं है. वहां पुराने ज़माने के वकील जैसे लोग बैठे हैं जिनकी पुरानी गाइडलाइन है और उसको अपने हिसाब से मैनिपुलेट करते रहते हैं. नया ज़माना है, नई सोच के साथ आइए. इससे नई बात आएगी और सिनेमा की क्वालिटी में इज़ाफ़ा होगा.”

… तिग्मांशु धूलिया के साथ काम करना अच्छा लगता है. उनके साथ सीरियल किए, फिल्में कर रहा हूं. एक एक्टर के रूप में उनके साथ काम करना बहुत मज़े का अनुभव होता है और मेरी बहुत ग्रोथ हुई.”

… टीवी के लिए काफी काम किया, कई सीरियल किए. अब मुश्किल है. उनके काम करने के तरीके में मज़ा नहीं है. लंबी और खींची जाती कहानी अच्छी नहीं लगती. कोई बहुत कमिटेड राइटर, डायरेक्टर हो, उसकी बात अलग है लेकिन टीवी में काम करने का तरीका अलग है. मुझे पसंद नहीं आया.”

… फिल्मों का आकर्षण ज्यादा उसकी मास अपील है. लोग टिकट खरीदकर फ़िल्म देखते हैं. यह सोच ही अलग है. फ़िल्म की कहानी प्रभाव छोड़ती है. टेलीविज़न देखना अलग बात है. टीवी का प्रोडक्शन स्टाइल और बजट सब सीमित है. ड्रामा और फिक्शन को लेकर, टीवी में गंभीरता नहीं है.”

… अगर मैं डायरेक्टर को नहीं जानता तो आइडिया सुनता हूं. आइडिया ठीक लगा तो फ़िल्म करता हूं. रोल ऐसा हो जो प्रेरित करे यानी बोझ न बने और कुछ नया करने की चुनौती भी पेश करे कि हो पाएगा कि नहीं? नया करने का मौक़ा मिलेगा कि नहीं?”

… नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की ट्रेनिंग परफॉरमेंस केंद्रित है. एनएसडी यह नहीं बताता कि आप कितने आकर्षक दिखते हैं या कितने ख़ूबसूरत हैं. हिंदी फ़िल्मों में इस बात ज़ोर रहता है कि हीरो चमत्कृत कर रहा है, आकर्षक दिख रहा है, ठीक लग रहा है या नही? एक्टर का काम चमत्कृत करना नहीं है. एक्टर का काम आइडिया को पहुंचाना है.”

… बचपन में फ़िल्म देखने की मनाही थी. दसवीं तक केवल दो फ़िल्म देखी. जब मेरे चाचा आते थे, वही फ़िल्म दिखाने ले जाते थे. उस समय की फ़िल्मों का असर ऐसा है कि आज की फ़िल्में देखने का मन नहीं होता. वाह ग़ज़ब का जादू था. उस समय घर से तीन घंटे के लिए गायब हो जाएं तो जवाब देना मुश्किल होता था. उस समय अमिताभ बच्चन ने, नसीरुद्दीन शाह ने जो असर डाला था वह अब भी है. कॉलेज में आने पर दिमाग़ में यह जद्दोजहद चलती थी कि आगे क्या करना है? उन्हीं दिनों नसीर साहब, दिलीप साहब, अमिताभ साहब को देखना अच्छा लगा. वही करने को दिल कहा. उनकी एक्टिंग अच्छी लगती थी, नाचना-गाना नहीं. सोचा कि बंबई में जाने से पहले ट्रेनिंग ले लूं. इसीलिए एनएसडी गया, फिर बंबई.”

… हमारे यहां वकील लोग भयंकर गर्मी में भी काला कोट क्यों पहनते हैं, यह मैं आज तक नहीं समझ पाया.”

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