इस्मत आपा | अदब की दुनिया में नई लीक की पहल
अदब की दुनिया में अदब से ‘इस्मत आपा’ कही जाने वाली इस्मत चुग़ताई अपने दौर की इस क़दर बेबाक़ और बग़ावती तेवर वाली लेखिका थीं कि ‘महिला मंटो’ और ‘लेडी चंगेज़ ख़ां’ भी कही जातीं. उनके दौर में जब ‘स्त्री विमर्श‘ साहित्य की कोई स्वतंत्र धारा नहीं थी, निम्न-मध्य तबक़े की मुस्लिम महिलाओं की मनोदशा के हवाले से महिलाओं के सवाल उनके लेखन के केंद्र में हमेशा ही रहे. उनके अफ़साने इस बात की गवाही हैं कि वह अपने वक़्त से बहुत आगे का सोच रही थीं, विषय ही नहीं, भाषा और कहन के लिहाज से भी नई लीक डाल रही थीं.
बातचीत में भी निषिद्ध समझने जाने वाले विषय पर ‘लिहाफ़’ उनका ऐसा अफ़साना है, जिसके छपने पर बवंडर मच गया था. लोगों में तो ग़ुस्सा था ही सरकार ने इस कहानी को अश्लील मानते हुए लाहौर हाईकोर्ट में इस्मत चुग़ताई पर मुक़दमा कर दिया. इस कहानी और इस मुक़दमे से जुड़े तो तमाम दिलचस्प वाक़ये हैं, ‘लिहाफ़ के इर्द गिर्द’ नाम से लिखे इस्मत आपा के संस्मरण में पेशी के लिए लाहौर जाने पर अफ़सानानिगार एम.असलम के घर पर उनसे हुई बातचीत पढ़कर देखिए – “असल में असलम साहब मुझे कभी किसी ने नहीं बताया कि ‘लिहाफ़’ वाले सब्जेक्ट पर लिखना गुनाह है. न मैंने किसी किताब में पढ़ा कि इस…बीमारी…या…लत… के बारे में नहीं लिखना चाहिए. शायद मेरा दिमाग़ अब्दुर्रहमान चुग़ताई का ब्रश नहीं, एक सस्ता कैमरा है. जो कुछ देखता है, खट से बटन दब जाता है. मेरी क़लम मेरे हाथ में बेबस होती है, मेरा दिमाग़ उसे बहका देता है. दिमाग़ और क़लम के क़िस्से में हस्तक्षेप नहीं हो पाया.”
तरक़्क़ीपसंद परिवार की परवरिश और बड़े भाई के लेखक होने का उनकी शख़्सियत गढ़ने में ज़रूर योगदान रहा मगर किताबों का योगदान भी कम नहीं. कम उम्र में पढ़ने का चस्का लगा तो तमाम अंग्रेज़ी और हिन्दुस्तानी लेखकों को पढ़ डाला मगर रूसी अदीबों ने उन्हें सबसे ज्यादा मुतास्सिर किया और ख़ास तौर पर चेख़व ने. वह जब किसी कहानी पर अटक जातीं, या वह कहानी जैसा वह चाह रहीं हैं, नहीं बन पा रही होती, तो लिखना छोड़कर वह चेख़व की कहानियां पढ़ने लगतीं. और इसके बाद उनकी कहानी अपनी राह पर आ जाती.
लिखने में वह हमेशा पढ़ने का लुत्फ़ महसूस करतीं और तभी उनकी कहानियों में पाठकों को भी लुत्फ़ आता है. एक बार जो कोई उनकी कहानी उठाता है, तो अधूरी शायद ही छोड़ पाए. अपनी कहानियों में मुश्किल अल्फ़ाज़ से वह बचती थीं. घरों में बोली जाने वाली ज़बान ही उनकी कहानियों की ज़बान है, जिसमें उर्दू और हिन्दी शामिल है, ठेठ मुहावरेदार और गंगा-जमुनी ज़बान. लहज़े की बेकतकल्लुफ़ी और तंज़िया चुटकी उनसे नहीं छूटती. उनका यह अंदाज कुछ-कुछ मंटो की तरह का है.
इस्मत के कहानी संग्रह ‘चोटें’ के आमुख में कृश्न चंदर लिखते हैं, ‘‘सम्मत को छुपाने में, पढ़ने वाले को हैरतो इज्तिराब में ग़म कर देने में, और फिर यकायक आख़िर में उस इज्तिराबो-हैरत को मसर्रत में मुबद्दल कर देने की सिफ़्त में इस्मत और मंटो एक-दूसरे के बहुत क़रीब हैं और इस फ़न में उर्दू के बहुत कम अफ़सानानिगार उनके हरीफ़ हैं.’’ बयान में अल्फ़ाज़ को बक़द्रे क़िफायत इस्तेमाल करना इस्मत आपा की नुमायां ख़ासियत रही है. उनका कोई अफ़साना देख लीजिए, कितना सोच-समझकर अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल करती हैं.
उनके लेखन के तरीके के बारे में मंटो लिखते हैं, ‘‘इस्मत पर लिखने के दौरे पड़ते हैं. न लिखें तो महीनों गुज़र जाते हैं, पर जब दौरा पड़े तो सैकड़ो सफ़्हे उसके क़लम के नीचे से निकल जाते हैं. खाने-पीने, नहाने-धोने का कोई होश नहीं रहता. बस हर वक्त चारपाई पर कोहनियों के बल पर औंधी अपने टेड़े-मेढ़े आराब और इमला से बेनियाज़ ख़त में काग़ज़ों पर अपने ख़्यालात मुंतकिल करती रहती हैं. ‘टेढ़ी लकीर’ जैसा तूल-तवील नाविल, मेरा ख़्याल है, इस्मत ने सात-आठ निशस्तों में ख़त्म किया था.’’ (दस्तावेज़ – 5, पेज 65)
मंटो ने इमला से जिस बेनियाज़ी का ज़िक्र किया, लाहौर के रेल के सफ़र में शाहिद देहलवी के कातिब के साथ इस्मत आपा की बातचीत का ब्योरा ग़ौर कीजिए – हम दूसरी पेशी का बड़ी बेक़रारी से इन्तज़ार करने लगे. चाहे फाँसी भी हो तो कोई परवाह नहीं, अगर लाहौर में हुई तो शहादत का गौरव मिलेगा. और लाहौर वाले बड़ी धूम से हमारी अर्थियाँ उठायेंगे. दूसरे पेशी नवम्बर के गुलाबी मौसम में पड़ी. यानी सन् 46 में. शाहिद अपनी फ़िल्म में उलझे हुए थे. सीमा की आया बहुत होशियार थी, और अब सीमा भी खूब मोटी-ताज़ी हो गयी थी. इसलिए मैंने उसे बम्बई में छोड़ा और ख़ुद हवाई जहाज से दिल्ली और वहाँ से शाहिद देहलवी और उनके कातिब के साथ रेल में गयी. कातिब साहब से बड़ी शर्मिन्दगी होती थी. वह बेचारे मुफ़्त में घसीट लिए गये. बड़े चुप-चुप से, तरस आ जाने वाली सूरत बनाये रहते. हमेशा आँखें झुकी, चेहरे पर उकताहट, उन्हें देखकर अपराध-बोध एकदम उभर आता था. मेरी किताब की किताबत में फँस गये. मैंने उनसे पूछा, “आपकी क्या राय है, क्या हम मुकदमा हार जायेंगे?”
“मैं कुछ कह नहीं सकता, मैंने कहानी नहीं पढ़ी.”
“मगर कातिब साहब आपने किताबत की है.”
“मैं शब्दों को अलग-अलग देखता हूँ और लिख देता हूँ. इनके अर्थों पर ध्यान नहीं देता.”
“कमाल है! छपने के बाद भी नहीं पढ़ते.”
“पढ़ता हूँ, कहीं गलती तो नहीं रह गयी.”
“अलग-अलग शब्द!”
“जी हाँ,” उन्होंने पछतावे में सिर झुका लिया. थोड़ी देर बाद बोले,
“एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानेगी.”
“नहीं”
“आप के यहाँ वर्तनी की बहुत गलतियाँ होती हैं.”
“हाँ, वह तो होती है. असल में सीन, से, और साद में गड़बड़ा जाती हूँ. जो, ज़ाद, ज़े, ज़ाल में भी बहुत कंफ्यूजन होता है. यही हाल छोटी हे, बड़ी हे, दो चश्मी हे का है.”
“आपने तख्तियाँ नहीं लिखीं?”
“बहुत लिखीं, और लगातार उन्हीं गलतियों पर बहुत मार खाई है मगर…”
“दरअसल जैसे मैं शब्दों पर ध्यान देता हूँ, अर्थ की तरफ ध्यान नहीं देता. इसी तरह आप अपनी बात कहने में ऐसी उतावली होती हैं कि वर्ण पर ध्यान नहीं देतीं.”
“ऊँह! अल्लाह कातिबों को जीता रखे, वह मेरी आबरू रख लेंगे.” मैंने सोचा और टाल दिया.
इस्मत के बयान की रफ़्तार के बारे में कृश्न चंदर लिखते हैं, ‘‘अफ़सानों के मुतालों से एक और बात जो ज़हन में आती है, वह है घुड़दौड़. यानि रफ़्तार, हरकत, सुबुक खरामी और तेज गामी. न सिर्फ़ अफ़साना दौड़ता हुआ मालूम होता है, बल्कि फिक्रे, किनाए और इशारे और आवाज़ें और क़िरदार और जज़्बात और अहसासात, एक तूफ़ान की सी बलाख़ेज़ी के साथ चलते और आगे बढ़ते नज़र आते हैं.’’ लेकिन इन सब बातों से इतर इस्मत चुग़ताई ख़ुद अपने लेखन के बारे में कहती थीं, ‘‘लिखते हुए मुझे ऐेसा लगता है, जैसे पढ़नेवाले मेरे सामने बैठे हैं, उनसे बातें कर रही हूं और वो सुन रहे हैं. कुछ मेरे हमख़्याल हैं, कुछ मोतरिज हैं, कुछ मुस्करा रहे हैं, कुछ ग़ुस्सा हो रहे हैं. कुछ का वाकई जी जल रहा है. अब भी मैं लिखती हूं तो यही एहसास छाया रहता है कि बातें कर रही हूं.’’
वह हद दर्जे की बातूनी थीं. सच बात तो यह है कि कहानी कहने का हुनर उन्होंने लोगों की बातों से ही सीखा. वह हर शख़्स से बात कर सकती थीं और ज़रा सी देर में उसकी ज़िंदगी का बहुत कुछ जान लेती. जब वह अलीगढ़ में थीं, तो उनके घर एक धोबी आता था और वह उससे घंटों गप्पें मारा करतीं. उस धोबी से उन्होंने न सिर्फ़ बहुत सारे क़िस्से-कहानियां सुनीं, बल्कि नीचे का तबका किस तरह की ज़बान बोलता है, वह भी सीखी. ज़ाहिर है कि ज़िंदगी के यही तजुर्बात बाद में उनकी बहुत सी कहानियों में काम आए.
कहानियों-उपन्यासों के ज्यादातर क़िरदार उन्होंने अपने आस-पास से ही लिए. यही वजह है कि उनके क़िरदार इतने प्रभावी और जानदार बन सके. कहानी ‘दोज़खी’ उनके बड़े भाई अजीम चुग़ताई के ऊपर है. परंपरावादियों ने इस कहानी की बड़ी आलोचना की, लेकिन यह कहानी अपने प्यारे भाई को याद करने का उनका अपना तरीक़ा था. ‘दोज़खी’ की तारीफ़ में मंटो लिखते हैं, ‘‘दोज़खी’ इस्मत की मुहब्बत का निहायत ही लतीफ़ और हसीन इशारा है, वह जन्नत जो उस मजमून में आबाद है, उन्वान उसका इश्तिहार नहीं देता.’ (दस्तावेज – 5, पेज 65) इस्मत की कहानियों में एक अजीबो-ग़रीब ज़िद या इंकार आम बात है. यह ज़िद इसलिए भी दिखाई देती है, क्योंकि उनके मिज़ाज में भी बला की ज़िद थी. जो ठान लेतीं, उसे पूरा करके ही दम लेतीं थीं.
रशीदजहां के लेखन वह बहुत प्रभावित रहीं. किशोर उम्र में ही उन्होंने चोरी-छिपे ‘अंगारे’ में छपी रशीदजहां की कहानी पढ़ ली थी. अलीगढ़ में उनकी पढ़ाई के दौरान जब ‘अंगारे’ का विरोध हुआ, तो तमाम तरक़्क़ीपसंदों के साथ वह भी इस किताब के हक़ में खड़ी हो गईं. किताब के हक़ में उनका एक बड़ा जज़्बाती मजमून ‘अलीगढ़ गजट’ में छपा और पसंद भी किया गया. ‘काग़ज़ी है पैरहन’ में वह इस बात की तस्दीक़ करती हैं, ‘‘रशीदजहां ने मुझे कमसिनी में ही बहुत मुतास्सिर किया था. मैंने उनसे साफ़गोई और ख़ुद्दारी सीखने की कोशिश की.’’ रशीदजहां ने ही चुग़ताई के अंदर आत्मविश्वास पैदा किया. लिखने में उनका मार्गदर्शन किया और ऐसी कई महत्वपूर्ण किताबों से उनका तआरुफ कराया, जिन्हें एक लेखक को पढ़ना बेहद जरूरी था.
उनके बड़े भाई अजीम चुग़ताई भी एक अच्छे अफ़सानानिगार थे, उन्होंने कहानी कहने का हुनर उनसे भी सीखा. ‘काग़ज़ी है पैरहन’ में ही वह लिखती हैं, ‘‘उनसे मैंने सीखा कि अगर कुछ कहना है तो कहानियों, किस्सों में लपेटकर कहो, कम गालियां मिलेंगी. ज्यादा लोग पढ़ेंगे और मुतास्सिर होंगे. कहानियां लिखने से पहले मैंने कई मजामीन लिखे जो छपे भी, मगर किसी ने तवज्जोह न दी. दो-चार कहानियां लिखी थीं कि ले-दे शुरू हो गई. जैसे टेलीफ़ोन पर आप जो चाहे कह दीजिए, कोई थप्पड़ नहीं मार सकता. वैसे ही कहानियां में कुछ भी लिख मारिए, कोई हाथ आपके गले तक नहीं पहुंचेगा.’’ यह अलग बात है कि बाद में वे अजीम भाई की कहानियों की आलोचक हो गईं. उनकी कहानियों के बारे में इस्मत आपा का कहना था कि ‘‘उनमें उनकी ज़िदगी के कर्ब (पीड़ा) का कोई शायबा (अंश) न था.’’
कहानियों को मिली तारीफ़ के बाद इस्मत चुग़ताई ने आलेख लिखना छोड़ दिया. उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘बचपन’ शीर्षक से लिखी और उसे पत्रिका ‘तहजीबे-निस्बां’ में छपने के लिए भेजा. कुछ दिन के बाद कहानी वापस आ गई और साथ ही ‘तहजीबे-निस्बां’ के एडिटर मुमताज़ अली का डांट-फटकार वाला ख़त भी, जिसमें उन्होंने इस कहानी में किरअत का मज़ाक उड़ाने पर इस्मत की निंदा की थी और उनकी इस हरकत को अधार्मिकता और गुनाह बताया था. बाद में जब इस्मत की कहानियां तमाम जगह छपने और तारीफ़ बटोरने लगीं, तो यह कहानी ‘साकी’ पत्रिका में छपी और बहुत पसंद भी की गई. उनका पहला नाटक ‘फ़सादी’ और शुरूआती कहानियां ‘नीरा’, ‘लिहाफ़’, ‘गेंदा’ वगैरह ‘साकी’ में ही छपीं. ‘लिहाफ़’ के अलावा उन्होंने कितनी ही अच्छी कहानियां लिखीं, लेकिन ‘लिहाफ़’ पर जितनी चर्चा और विवाद रहा, उतना किसी और पर नही. ‘चौथी का जोड़ा’ और ‘मुगल बच्चा’ कहानियां पढ़कर लगता है कि इस्मत चुग़ताई क्यों अज़ीम अफ़सानानिगार हैं.
अपने दौर के तमाम रचनाकारों की तरह वह भी अपनी कहानियों के ज़रिए समाजवाद का पैग़ाम देती हैं. ‘कच्चे धागे’, ‘दो हाथ’ और ‘अजनबी’ उनकी ऐसी ही कहानियां हैं. इंसानों के बीच समानता की वह घोर पक्षधर थीं. औरत और मर्द के बीच में भी असमानता देखकर वह हमलावर हो जाती थीं.‘‘मसावात (समानता) का फुकदान (अभाव) अमीर-गरीब के मामले में ही नहीं, औरत और मर्द के मुकाबले में तो और भी ज्यादा है. मेरे वालिद तो रोशनख़्याल थे. उसूलन भी लड़कों से लड़कियों के हुकूक का ज्यादा ख़्याल रखते थे, मगर वही बात थी जैसे हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई. लड़का-लड़की बराबर. चंद नारे थे जिनकी लेप-पोत निहायत जरूरी समझी जाती थी.’’ (काग़ज़ी है पैरहन, पेज-13)
‘काग़ज़ी है पैरहन’ यों इस्मत चुग़ताई की आत्मकथा है, लेकिन स्त्री विमर्श के नुक़्ते इसमें जगह-जगह बिखरे पड़े हैं. अपनी बातों और विचारों से वह कई जगह पितृसत्तात्मक मुस्लिम समाज की बखिया उधेड़ती हैं. इस किताब का हर एक अध्याय मुकम्मल अफ़साना है. ‘उन ब्याहताओं के नाम’ में उन्होंने ‘लिहाफ़’ कहानी पर लाहौर में चले मुक़दमे और उसके बारे में तफ़्सील से बात की है, तो ‘अलीगढ़’ में ‘अंगारे’ के प्रसंग का जिक्र किया है. ‘उलटे बांस बरेली’ उनके बरेली के दिनों का यादनामा है, जिसमें उन्होंने उस दौरान अपनी ज़िंदगी की जद्दोजहद, तजुर्बात और सोच के बेशुमार ख़ाक़े खींचे हैं. ‘नन्हे मुन्ने’ में उन्होंने अपने भाइयों की शख़्सियत का शानदार ख़ाक़ा खींचा है.
उन्होंने कई नाटक भी लिखे, लेकिन उन्हें वह शोहरत नहीं मिली जो उनकी कहानियों को हासिल है. उनके ड्रामों पर मंटो लिखते हैं,‘‘इस्मत के ड्रामें कमज़ोर हैं. जगह-जगह उनमें झोल है. इस्मत प्लाट को मनाजिर में तक़सीम करती है, तो नापकर कैंची से नहीं कतरती, यूं हीं दांतों से चीर-फाड़कर चीथड़े बना डालती है.’’ (दस्तावेज – 5, पेज 73) इस्मत चुग़ताई के पति शाहिद लतीफ़ अपने ज़माने के मशहूर फ़िल्म लेखक और निर्देशक थे. इस्मत भी फ़िल्मों से जुड़ी रहीं. उनकी कई कहानियों पर फ़िल्में बनीं. उन्होंने पटकथा भी लिखी. फ़िल्म ‘जुगनू’ में अभिनय किया. एमएस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ इस्मत चुग़ताई की कहानी पर ही बनी, जिसके लिए कैफी आज़मी के साथ उन्हें सर्वश्रेष्ठ कहानी का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड संयुक्त रूप से मिला.
जन्म | 21 अगस्त, 1915. निधन | 24 अक्टूबर, 1991.
प्रमुख कहानी संग्रह | ‘चोटें’, ‘छुईमुई’, ‘एक बात’, ‘कलियाँ, ‘एक रात’, ‘दो हाथ’, ‘दोज़खी’, ‘शैतान’.
उपन्यास | ‘ज़िद्दी’, ‘टेढ़ी लकीर’, ‘एक क़तरा-ए-ख़ून’, ‘दिल की दुनिया’, ‘मासूमा’, ‘बहरूप नगर’, ‘सैदाई’, ‘जंगली कबूतर’, ‘अजीब आदमी’, ‘बांदी’.
सम्मान | पद्मश्री, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘ग़ालिब अवार्ड’, ‘इक़बाल सम्मान’, ‘मख़दूम अवार्ड’.
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