मक़बूल की हुसेनी क़लम

जब हम एक लेखक की ‘आत्मकथा’ पढ़ते हैं तो वह उन्हीं के शब्दों के माध्यम से अपनी ‘कहानी’ कहता है जो उसने अपनी कविताओं, उपन्यासों में प्रयोग किए थे किंतु जब एक चित्रकार या संगीतज्ञ अपने जीवन के बारे में कुछ कहता है तो उसे अपनी सृजन भाषा से नीचे उतर कर एक ऐसी भाषा का आश्रय लेना पड़ता है, जो एक दूसरी दुनिया में बोली जाती है, उससे बहुत अलग जिसमें उसकी कलात्मा अपने को व्यक्त करती है. वह एक ऐसी दुनिया है, जहां वह है भी और नहीं भी, उसे अपनी नहीं, अनुवाद की भाषा में बात कहनी पड़ती है. हम शब्दों की खिड़की से एक ऐसी दुनिया की झलक बातें हैं, जो ‘शब्दातीत’ है – जो बिंबों, सुरों, रंगों के भीतर संचारित होती है. हम पहली बार उनके भीतर उस मौन को मूर्तिमान होते देखते हैं, जो लेखक अपने शब्दों के बीच खाली छोड़ जाता है.

हुसेन की आत्मकथा की यह अनोखी और अद्भुत विशेषता है, कि वह ‘अनुवाद’ की बैसाखी से नहीं, सीधे चित्रकला की शर्तों पर, बिंबों के माध्यम से अपनी भाषा को रूपांतरित करती है. ऐसा वह इसलिए कर पाते हैं क्योंकि उसमें चित्रकार हुसेन उस ‘दूसरे’ से अपना अलगाव और दूरी बनाए रखते हैं, जिसका नाम ‘मक़बूल’ है, जिसकी जीवन- कथा वह बांचते हैं, जिसने जन्म लेते ही अपनी मां को खो दिया, जो इंदौर के गली-कूचों अपना बचपन गुज़ारता है, बंबई की चौराहों पर फ़िल्मी सितारों के होर्डिंग बनाता है, कितनी बार प्रेम में डूबता है, उबरता है, उबर कर जो बाहर उजाले में लाता है, उनकी तस्वीरें बनाता है…. धूल-धुसरित दूसरे असंख्य ब्यौरे, जिनके भीतर से एक लड़के की भोली, बेडौल, निष्छल छवि धीरे-धीरे एम.एफ.हुसेन की प्रतिमा में परिणत होती है.

मक़बूल और हुसेन – इस आत्मकथा के दोनों ही सहयोगी लेखक हैं. जो कुछ मक़बूल के जीवन में घटता है, होता है, दुख, वासनाएं, तृष्णा और संघर्ष – उसे हुसेन अपने जीवंत बिंबों में रूपांतरित करते जाते हैं. मेरी समझ में हुसेन के चित्रों, शब्दों, ब्यौरों का जादू इस एक शब्द रूपांतरण में समाहित किया जा सकता है. एक जादूगर की तरह कोई भी उनके हाथों में आते ही अपना रूप बदल लेती है, कायाकल्प कर लेती है, रूसी गुड़िया की तरह उसके भीतर से अनेक लिलिपुटियन गुड़ियाएं एक के बाद नए आकारों में प्रकट होने लगती हैं. यह संयोग नहीं, हुसेन की आत्मकथा अपने प्राणवत्ता छोटे-छोटे ब्यौरों, तफ़सीलों में ग्रहण करती है. ज़रा देखिए उसकी शुरुआत, जैसे आप शब्दों के भीतर से फ़िल्म का कोई सीन देख रहे हों,

‘मिट्टी का घड़ा, चारपाई पर रखा. छत से लटकती लालटेन ख़ामोश. तकिए के नीचे किताब का चौदहवां पन्ना खुला, टीन के संदूक में बेजोड़ कपड़े… गर्द के मैले रंग की नीली कमीज़, साइकिल की टूटी चेन, मलमल का नारंगी दुपट्टा, बांस की बांसुरी. गुलाबी पतंग के कागज़ की पुड़िया में अंगूठी.’

बचपन की यह कच्ची स्मृतियां समय के साथ पकती जाती हैं और मुद्दत बाद यह लालटेन, यह घड़ा, मलमल का दुपट्टा आपको कभी हुसेन की किसी फ़िल्म, किसी पेंटिंग, किसी कविता के भीतर दुबके दिखाई दे जाते हैं. ज़िंदगी के प्रवाह में बहता हुआ कोई अदना-सा टुकड़ा, कोई भूला हुआ शब्द, कोई भोला-सा चेहरा विस्मृति के अंधेरे में ग़ायब नहीं होता, बरसों बाद खोए हुए मुसाफिर की तरह लौटकर हुसेन की वर्कशॉप में आश्रय पा ही लेता है.

एक पुरानी यहूदी कहावत है – ‘ईश्वर का वास तफ़सीलों में रहता है.’ ईश्वर के बारे में यह सच हो न हो, हुसेन की कला का सच यही है. उनकी आत्मकथा पढ़ते हुए जो चीज़ तुरंत आंखों को पकड़ती है, वह कोई भारी-भरकम विराट सत्य नहीं, वह छोटी, नगण्य, निरीह चीज़ें हैं, जिन्हें इतिहास और राजनीति किनारे छोड़ जाती है, पर एक कलाकार एक स्कूली बच्चे की तरह जेबों में भरकर ले आता है. कोई भी तफ़सील इतनी ग़ैर-जरूरी नहीं, जो हुसेन की आंखों से ओझल हो सके – यहां तक कि बरसों बाद उन्हें यह भी नहीं भूला कि तकिए के नीचे किताब का चौदहवां पन्ना खुला था. रूसी-अमेरिकी उपन्यासकार नाबोकोव ने एक महान कलाकार के लक्षण बताते हुए लिखा था कि वह उस आदमी की तरह है, जो मकान की नवीं मंज़िल से नीचे गिरता हुआ अचानक दूसरी मंज़िल की एक दुकान का बोर्ड देखकर सोचता है – ‘ अरे, इसके तो हिज्जे ग]लत लिखे हैं.’ हुसेन क्या उससे कम हैं? एक जगह लिखते हैं, ” यदि फ़िल्म बनाते समय मैं शराब के गिलासों की शक्ल से संतुष्ट नहीं होता, तो तुरंत बाज़ार चला जाता था और इच्छा के अनुरूप गिलास खरीद कर ले आया करता था.”

शायद यही कारण है, हुसेन की आत्मकथा अन्य चित्रकारों के पत्रों, डायरी, जर्नल्स से इतनी अलग दिखाई देती है, वह सीधे-सीधे अपने चित्रों के बारे में कुछ नहीं कहती. वह उनके जीवन में होने वाली घटनाओं, सुदूर देशों की की यात्राओं, ख़ूबसूरत अविस्मरणीय लोगों की स्मृतियों और सबसे ज्यादा ख़ुद अपने भीतर की भूलभुलैय्यों में भटकने का लेखा-जोखा हैं. अजीब बात यह है, कि उसे पढ़ते हुए दुबारा से हमारे स्मृति-पटल पर वे चित्र जीवित होने लगते हैं, जिन्हें मुद्दत पहले हमने किसी गैलरी, किसी संग्रहालय, किसी प्रदर्शनी में देखा था. अतीत की धूल के ऊपर उठते हुए दिखाई देते हैं, वे खिलौने, जो बरसों पहले कनॉट प्लेस की गैलरी में देखे थे, और तभी पहली बार हुसेन का नाम कानों में पड़ा था. याद आती है वह ज़मीन, जो आज भी राष्ट्रीय संग्रहालय में देखी जा सकती है, और यद्यपि आज भूल गया हूं कि वह कौन सी प्रदर्शनी थी, जिसमें उस चित्र को देखा था, ‘स्पाइडर एंड दि लैंप’, जिसके चेहरे मुझे आज भी वैसे ही हॉन्ट करते हैं, मानो वे उनकी आत्मकथा में से निकल कर अभी अभी बाहर आए हों. अमृता शेरगिल के बाद शायद हुसेन पहले भारतीय चित्रकार हैं, जिनके चित्रों को अपने विशिष्ट अलगाव में याद किया जा सकता है, जैसे हम किसी लेखक की अलग-अलग कृतियों को याद करते हैं, हुसेन की आत्मकथा पढ़ते हुए एक अद्भुत अनुभूति होती है. हम उनके चित्रों के माध्यम से उनके अतीत की ओर उन्मुख होते हैं, जबकि हुसेन के अतीत में अभी उन चित्रों का जन्म भी नहीं हुआ था.

हुसेन का समय एक लीक पर अग्रगामी दिशा में नहीं चलता. वहां बहुत सी दिशाएं एक-दूसरे में गुंथी दिखाई देती हैं, विभिन्न कालखंडों का बहुआयामी ‘कोलाज’. उनका अतीत कोई बीता हुआ विगत नहीं है, वह एक नदी की तरह उनके वर्तमान के पाटों पर बहता है – सतत प्रवाहमान – जो कभी था, वह अब भी है, वहां कुछ भी नहीं बीता, न पंढरपुर की पोटली, न दादा की अचकन, न अपनी नई मां के नंगे कोमल पैर, जो उनके घाघरे से बाहर निकल आज भी उन्हें चलती ट्रेन के डिब्बे में दिखाई दे जाते हैं, वह अपने दादा के इतने चहेते थे कि एक दूसरे बिना रह नहीं सकते थे. जब छुटपन में किसी ने उनसे पूछा, ‘तुम कहां से आए?’ तो उत्तर देने में वह एक क्षण नहीं हिचहिचाए, ‘दादा के पेट से.’ हुसेन की दुनिया एक कार्निवल, एक उत्सव, एक मेला, एक सर्कस का मिला-जुला समारोह है – वहां सब कुछ संभव है.

समय की इसी उलटफेर के कारण हुसेन की ‘आत्मकथा’ चालू अर्थ में ‘अतीत का संस्मरण’ नहीं जान पड़ती. हुसेन अपने बचपन को नहीं याद करते बल्कि स्वयं बच्चे की आंख से दुनिया को देखने लगते हैं, बीते को याद करने की बजाय उसे दोबारा से जीने लगते हैं और यह ‘दुबारा’ भी पहली बार की ताज़गी और टटकापन लेकर आता है, क्योंकि बीता समय अब इस ‘बड़े बच्चे’ की आंखों से एक नया समय जान पड़ता है….सनातन और चिरंतन, जो कभी बूढ़ा, पुराना या बासी नहीं होता.

इसीलिए हुसेन की जीवनी को ‘आत्मकथा’ कहते हुए दुविधा होती है… ‘आत्म’ इसलिए नहीं, क्योंकि वह हुसेन के व्यक्ति में एकनिष्ठ न होकर निरंतर रामलीला के मुखौटों के रंग-बिरंगे वैविध्य में विभाजित होती दिखाई देती है- चाहे वह बचपन की जमना हो या टेलर मास्टर, निज़ामुद्दीन के शकुरा मिस्त्री हों या पोस्टमैन मोहम्मद नासिर. ‘आत्म’ का स्वरूप एक में नहीं, अनेक में प्रतिबिंबित होता है… सच्चे भारतीय अर्थ में शायद असली ‘आत्म’ यही है, एक होकर भी अनेक में दिखाई देता हुआ, जिस के मर्म को हुसेन ने पकड़ा है. इस ‘आत्म’ की कथा एक अनुक्रमणिक नियम के लगे-बंधे पैटर्न में नहीं चलती, जहां समय की अपनी सीढ़ियों का सोपान है, एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक जाती हुई. हुसेन की आत्मकथा को हम एक व्यक्ति की कहानी की तरह नहीं, एक पेंटिंग की तरह देखते हैं, जहां सफ़े पलटने के बजाय सब तरफें एक साथ मौजूद है, एक के बाद एक नहीं, एक साथ एककालिकता में. यहां अनेक चेहरों की पोर्ट्रेट गैलरी एक साथ दिखाई देती है, न कहीं से शुरू होती हुई, न कहीं जाती हुई. कोई चेहरा, कोई दृश्य, कोई कथा अपने पूरेपन में नहीं, खंडित टुकड़ों में दिखाई देती है, सिर्फ़ उड़ान की एक झलक, एक संकेत, रेत पर गड़े पदचिन्ह में ही कोई कला-सत्य अपनी स्मृति, अपना सौंदर्य, अपना स्वप्न पीछे छोड़ जाता है.

हुसेन संपूर्णता से कभी आकर्षित नहीं होते, उसके पीछे नहीं भागते. संपूर्णता का मतलब है – अंत, समाप्ति, मृत्यु – जबकि हुसेन की कला का सत्य उसकी संपूर्णता में नहीं, उसके सातत्य में है, निरंतरता के प्रवाह में कोई चीज़ पूरी हो, कि अगली लहर का उन्मेष उसे आगे बहा ले जाता है. आश्चर्य नहीं, जब राजस्थान की पृष्ठभूमि में अपनी फ़िल्म – ‘थ्रू द आइज़ ऑफ़ ए पेंटर’ बनाने के लिए फ़िल्म डिवीजन के अधिकारी ने उनसे पूछा, ‘फ़िल्म की कहानी क्या होगी?’ हुसेन का उत्तर था, ‘कोई कहानी, किस्सा नहीं, सिर्फ़ इंप्रेशन. सुर हो, लय हो, कुछ शक्लें, कुछ सूरतें – एक छतरी, एक लालटेन, एक राजस्थानी जूता. पास में खड़ी गाय….’

हुसेन की दृष्टि में हर चीज़ का अपना ओज है, अपना आलोक, अपना ईश्वरीय अक्स. चीज़ की उपस्थिति में ही उसकी पवित्रता निहित है – जैसे अस्तित्व में इबादत हो और इबादत में उसका अर्थ. लोगों की आम आदत है कि लालटेन को देखने की बजाय चारों ओर उसकी मौजूदगी की वजह ढूंढते हैं. वह जल रही है तो रात, वह बुझी है तो दिन. यह कोई नहीं देखता लालटेन कि लालटने किस नाज़-ओ-अदा से जमीन पर टिकी है, उसके पेंदे की गोलाई से उठती दो संतुलित बाहों के बीच धरी शीशे की चिमनी…गुंबद की गोलाई और संपूर्ण ब्रह्मांड का सिमटा हुआ उजाला.

यह हुसेन हैं, जो सिमटे हुए उजाले में सारा ब्रह्मांड देख लेते हैं. उनके लिए सुंदरता उसमें नहीं है जिसका कोई प्रयोजन है, वह ख़ुद उसके होने में है, चाहे वह आकाश में उड़ते हुए पहाड़ ले जाते हुए हनुमान हों या दो पहियों की साइकिल पर सवार हुसेन. साइकिल का जादू क्या पहाड़ की भव्यता से कम है? देखिए उनकी साइकिल स्तुति:

‘साइकिल की सीट इंसानी मुखड़ा. हैंडल दो बाहें, पैडल दो पैर… लड़का (हुसेन ख़ुद) पीछे कैरियर पर सवार साइकिलिंग किया करता – जैसे पूरी साइकिल उसकी गोद में हो या लड़का साइकिल की गोद में. यह नहीं कह सकते कौन किसे गोद में लिए प्यार कर रहा है.’

प्यार की यह पहेली वह केंद्रबिंदु है, जिसके चारों ओर हुसेन का संसार घूमता है… वहां स्त्रियों के प्रति अनुराग प्रकृति के एक अभेद्य रहस्य , एक प्रछन्न राग की तरह अनुगूंजित होता रहता है, हुसेन के यहां कुछ भी निषिद्ध नहीं है – वहां बड़े-छोटे, ऊंच-नीच, पांच सितारा होटल के गलियारे और निज़ामुद्दीन के ढाबों से उठता धुआं – किसी के बीच कोई भेद, कोई अंतर नहीं रहता. उनके लिए आधुनिकता का मर्म जीवन के प्रति इस सूफ़ियाना दृष्टि में ही सन्निहित है, वह बाहर पश्चिम से आयातित होकर नहीं आता. एक बार हैदराबाद के ढाबे में समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया से बहस करते हुए हुसेन ने आधुनिकता की बिल्कुल निराली परिभाषा खोज निकाली. निराली और ठेठ, शुद्ध भारतीय परिभाषा. ‘मॉडर्न आर्ट का एक मज़ेदार पेचीदा पहलू यह है कि देखने वाला अपनी मर्ज़ी और मिज़ाज में तस्वीर को ढालने का हक़ रखता है…एक लिहाज़ से मॉडर्न आर्ट का मिज़ाज अमीराना नहीं, ‘डेमोक्रेटिक’ है. जैसे कि देखने में व्यक्तित्व शहाना हो, लकीरों का तनाव खुद्दारी का ऐलान करता हो, रंगों की शोख़ी स्वाभिमान से संपूर्ण हो.’

लोहिया जी कुछ देर हुसेन को देखते रहे – आधुनिक कला का यह लोकतांत्रिक, लोक पक्ष उन्होंने पहली बार देखा था. उन्होंने उनकी पीठ थपथपाई और उत्साह में आकर बोले, ‘यह तो ठीक है, लेकिन यह जो तुम बिरला और टाटा के ड्राइंगरूम में लटकने वाली तस्वीरों के बीच घिरे हो, इनसे बाहर निकलो. रामायण को पेंट करो. इस देश की सदियों पुरानी कहानी है… गांव गांव इसका गूंजता गीत है, संगीत है… गांव वालों की तरह तस्वीरों के रंग घुल-मिल कर नाचते-गाते नहीं लगते?’

जिस तरह आधुनिक कला की परिभाषा सुनकर लोहिया सकते में आ गए थे, उसी तरह रामायण के बारे में लोहिया का कथन हुसेन को ‘तीर की तरह चुभ गया.’ बरसों तक वह उसके बारे में सोचते रहे और लोहिया जी की मृत्यु के बाद उनकी स्मृति में बदरीविशाल पित्ती, जो लोहिया के मित्र और हिन्दी साप्ताहिक पत्रिका ‘कल्पना’ के सुविख्यात संपादक थे – उनके मोती भवन को रामायण के लगभग डेढ़ सौ चित्रों से भर दिया. कोई दाम नहीं मांगा – सिर्फ़ लोहिया जी का मान रखा.

क्या यह अजीब विडंबना नहीं है, कि हुसेन के भीतर पहली बार जिस व्यक्ति ने भारतीय संस्कृति के महाकाव्यों – रामायण और महाभारत – के प्रति प्रेम जगाया था, वह एक नास्तिक समाजवादी हिन्दू थे – उनसे कितना अलग – जिन्होंने कुछ वर्षों बाद उसी ‘संस्कृति’ के नाम पर अहमदाबाद की गुफ़ा में उनके चित्रों को तहस-नहस कर जाला था.

हुसेन के जीन में धर्म ने उसी तरह चुपचाप प्रवेश किया था, जिस तरह ‘सौंदर्य’ ने. बचपन में नाना के प्रभाव से उनके भीतर धर्म, दीन, अध्यात्म के प्रति एक गहरी आस्था उत्पन्न की थी. क़ुरान की आयतें उन्हें ज़ुबानी याद थीं. उनके चित्रकार मित्र रामकुमार बताते हैं, कैसे मॉस्को के होटल के कमरे में एक रात उनकी नींद खुली, तो हैरत में देखा, हुसेन नमाज़ पढ़ रहे हैं. हुसेन उस अर्थ में ‘धार्मिक कलाकार’ नहीं हैं, जहां किसी मत या मसीहाई संदेश का अनुकरण किया जाता है. वह अनुकरण करते हैं, तो सिर्फ़ अपनी कल्पना का, जो सौंदर्य के हर आवास को ‘पवित्र स्पेस’ में परिणत कर देती है. ‘तस्वीर का बुनियादी ढांचा, एक ईंट, एक क़दम से शुरू होता है – वह चाहे महाभारत हो या कर्बला.’

यह हुसेन के शब्द हैं, जिनके लिए एक चित्र की तीर्थयात्रा इसी एक क़दम, एक ईंट से शुरू होती है.

(साभार | वाणी प्रकाशन से छपी ‘एम.एफ़ हुसेन की कहानी, अपनी ज़ुबानी’ में निर्मल वर्मा का लिखा आमुख.)

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