कैफ़ी की याद | तुम बनाओ तो ख़ुदा जाने बनाओ कैसा

  • 2:38 pm
  • 10 May 2020

कैफ़ी आज़मी यानी तरक्क़ीपसंद तहरीक के अगुआ और उर्दू अदब के अज़ीम शायर. इंसानी बराबरी, हुकूक, इंसाफ़ और भाईचारे के हामी. 14 जनवरी, 1919 को आज़मगढ़ के गांव मिजवां में पैदा हुए. घर वालों ने नाम दिया – अतहर हुसैन रिज़वी. शायरी की तरफ़ रुझान के बारे में उन्हीं की ज़बानी, ‘‘मैंने जिस माहौल में जन्म लिया, उसमें शायरी रची-बसी थी, पूरी तरह. मसलन मेरे पांच भाइयों में से तीन बड़े भाई बाक़ायदा शायर थे. मेरे वालिद ख़ुद शायर तो नहीं थे, लेकिन उनके शायरी का ज़ौक बहुत बुलंद था और इसकी वजह से घर में उर्दू-फ़ारसी के उस्तादों के तमाम दीवान मौजूद थे, जो उस वक़्त मुझे पढ़ने को मिले, जब कुछ समझ में नहीं आता था. जिस उम्र में बच्चे आम तौर पर ज़िद करके, अपने बुज़ुर्गों से परियों की कहानियां सुना करते, मैं हर रात ज़िद करके अपनी बड़ी बहन से मीर अनीस का क़लाम सुना करता था. उस वक़्त मीर अनीस का क़लाम समझ में तो ख़ाक आता था, लेकिन उसका असर दिल-ओ-दिमाग़ में इतना था कि जब तक मैं दस-बारह बन्द उस मरसिए के रात को न सुन लेता था, मुझे नींद नहीं आती थी. इन हालात में मेरी ज़हनी परवरिश हुई और इन्हीं हालात में शायरी की इब्तिदा हुई.’’ तो ग्यारह बरस का होते-होते उन्होंने पहली ग़ज़ल कह डाली, ‘‘इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े/ हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े/ जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म/ यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े.’’ बहुत बाद में बेग़म अख़्तर ने इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ दी. और उस ज़माने में यह ख़ूब मकबूल भी हुई.

उनके घर वालों की मर्ज़ी थी कि कुनबे में एक मौलवी हो, लिहाजा उन्हें लखनऊ के मशहूर ‘सुल्तानुल मदारिस’ में पढ़ने के लिए भेजा गया. पर कैफ़ी तो कुछ और करने के लिए बने थे. अफ़सानानिगार आयशा सिद्दिकी के अल्फाज़ में,‘‘कैफ़ी साहब को सुल्तानुल मदारिस भेजा गया कि वहां फ़ातिहा पढ़ना सीखेंगे. लेकिन कैफ़ी साहब वहां से मजहब पर ही फ़ातिहा पढ़कर निकल आए.’’ मौलवी बनने का ख्याल तो उन्होंने छोड़ दिया, लेकिन अपनी पढ़ाई जारी रखी और उर्दू, फ़ारसी और अरबी के आलिम हुए. किसी कॉलेज में सीधे एफ. ए. में दाख़िला लेकर वे अंग्रेजी पढ़ना चाहते थे, लेकिन सियासत और शायरी का जुनून इस क़दर सिर चढ़ा कि पढ़ाई पीछे छूट गई. अली अब्बास हुसैनी, एहतिशाम हुसैन और अली सरदार ज़ाफरी की सोहबत मिली तो मार्क्सवाद का ककहरा सीखा. बाद में ट्रेड यूनियन की राजनीति से जुड़ गए. मजदूर आंदोलनों और सियासी सरगर्मियों के बीच उनका पढ़ना-लिखना जारी रहा. मजदूरों-किसानों के संघर्ष से प्रेरणा लेकर उन्होंने उस वक़्त कई शानदार नज़्में कहीं.

उस दौर में रुमानी शायरी करने के चलन से हटकर उन्होंने अपनी नज़्मों-ग़ज़लों को वक़्त की मुश्किलों के सांचे में ढाला. वह दौर था, जब पूरे मुल्क में आज़ादी की लड़ाई निर्णायक मोड़ पर थी. अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ जहां-तहां आंदोलन चल रहे थे. किसानों और कामगारों के ग़ुस्से को तरक्क़ीपसंद तहरीक ने दिशा देने का काम किया. दूसरे शायरों की तरह कैफ़ी आज़मी ने भी अपनी नज़्मों से प्रतिरोध की आवाज़ बुलंद की और ख़ूब पसंद किए जाने लगे. डेढ़ सौ अश्आर की उनकी मस्नवी ‘खानाजंगी’ को हज़ारों लोगों का मजमा दम साधे हुए सुनता रहता.

कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़कर ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता के तौर पर 1943 में जब वे बम्बई पहुंचे, तब वह 23 साल के थे. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बम्बई इकाई नई-नई कायम हुई थी. वे पार्टी के होलटाइमर के रूप में काम करने लगे. पार्टी के दीगर कामों के अलावा उन्हें उर्दू दैनिक ‘क़ौमी जंग‘ और ‘मजदूर मुहल्ला‘ के संपादन की ज़िम्मेदारी मिली. इस दरमियान उन्होंने उर्दू अदब की पत्रिका ‘नया अदब‘ का भी सम्पादन किया. पार्टी कम्यून में एक कमरे का उनका छोटा सा घर-दफ़्तर भी हुआ करता था. जहां हमेशा यूनियन लीडरों और पार्टी कार्यकर्ताओं का जमघट लगा रहता. साम्यवादी नजरिये का ही असर है कि उनकी शायरी में प्रतिरोध का बुलंद स्वर मिलता है. कभी बर्तानवी हुकूमत, सामंतशाही, पूंजीवाद और साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ जमकर लिखा. ‘तरबियत‘में लिखते हैं – ‘‘मिटने ही वाला है ख़ून आशाम देव-ए-जर का राज़/ आने ही वाला है ठोकर में उलट कर सर से ताज.” कैफ़ी  की शायरी के बारे में कृश्न चंदर का ख़्याल था,‘‘वही व्यक्ति ऐसी शायरी कर सकता है, जिसने पत्थरों से सिर टकराया हो और सारे जहान के ग़म अपने सीने में समेट लिए हों.’’

साल 1944 में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह ‘झनकार’ छपा. प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सदस्य सज्जाद ज़हीर ने इस संग्रह के बारे में जो बात लिखी, वह उनके तमाम क़लाम की जैसे अक्काशी है,’‘आधुनिक उर्दू शायरी के बाग़ में नया फूल खिला है, एक सुर्ख़ फूल.’’ ‘आखिर-ए-शब‘, ‘इबलीस की मजलिसे शूरा’ और ‘आवारा सज्दे‘ कैफ़ी  आज़मी के दीगर संग्रह है. उन्होंने इंकलाब और आज़ादी के हक़ में ख़ूब लिखा और इसके एवज में कई तरह की पाबंदियां और तकलीफें भी उठाईं. लेकिन उन्होंने अपने तेवर नहीं बदले. कॉलमनिगार के तौर पर उनका लिखा कॉलम उर्दू साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ में ‘नई गुलिस्तां’ नाम से छपता. इस कॉलम में वह सम-सामयिक राजनीतिक मसलों पर व्यंग्य किया करते थे. ये कॉलम ‘नई गुलिस्तां’ नाम से ही एक किताब के रूप में छपे भी. तक़रीबन 600 पेज की यह किताब दो खंडों में है. ‘नई गुलिस्तां’ के अनुवादक और संपादक नरेश ‘नदीम’ कैफ़ी के गद्य की ख़ासियत बयान करते हुए लिखते हैं,‘‘इस पूरे संकलन को नज़्म में लिखी गई नस्र (गद्य) का नाम दें, जो तथाकथित नस्री नज़्म (गद्य काव्य) से कहीं बहुत ऊंचे दर्जे की चीज़ है, तो कुछ गलत नहीं होगा. इस पूरे संकलन में शायद ही आपको ऐसा कोई वाक्य मिले जिसमें कैफ़ी ने अपनी शायराना फ़ितरत छोड़ी हो और काफ़ियापैमाई न की हो. यानी कि कैफ़ी की नस्र भी बड़े ठस्से के साथ यह कहती नज़र आती है कि मैं किसी नस्रनिगार की नहीं, एक शायर की रचना हूं.’’

शादी के बाद ज़रूरतों और मजबूरियों के चलते कैफ़ी ने बम्बई के एक व्यावसायिक अख़बार ‘जमहूरियत’ के लिए रोज़ाना एक नज़्म लिखी. फ़िल्मों में गीत लिखना शुरू किया. सन् 1948 में शाहिद लतीफ़ की फ़िल्म ‘बुज़दिल‘ में उन्होंने अपना पहला फ़िल्मी गीत लिखा. क़रीब 80 फ़िल्मों में गीत लिखने वाले कैफ़ी के गीतों में ज़िंदगी के सभी रंग दिखते हैं. फ़िल्मों में आने के बाद भी उन्होंने अपनी शायरी का मेयार कभी बदलने नहीं दिया. ‘प्यासा’, ‘काग़ज़ के फूल’ ‘अनुपमा’, ‘हक़ीकत’, ‘हंसते ज़ख्म’, ‘पाकीज़ा’ वगैरह फ़िल्मों के गीतों ने उन्हें फ़िल्म की दुनिया में स्थापित कर दिया. ‘हीर-रांझा’ में कैफ़ी ने न सिर्फ़ गीत लिखे, बल्कि शायरी में पूरी फ़िल्म के डॉयलॉग भी लिखे. हिन्दी फ़िल्मों में यह अपनी तरह का पहला प्रयोग था. यो फ़िल्मों से उनका रिश्ता आजीविका तक ही सीमित रहा. अपनी शायरी और उसूल उन्हें हमेशा ही ज़्यादा प्रिय रहे. उनके फ़िल्मी गीत लिखे, ‘मेरी आवाज सुनो’ नाम से छपी किताब में संकलित हैं. साल 1973 में देश के बंटवारे पर बनी फ़िल्म ‘गरम हवा‘ की कहानी, संवाद और पटकथा लिखने के लिए उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड मिला. इसी फ़िल्म के संवाद के लिये उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला.

कैफ़ी ने बम्बई में प्रगतिशील लेखक संघ क़ायम करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और बड़ा संगठन खड़ा किया. तरक्क़ीपसंद तहरीक़ के अहम् लीडर के तौर पर उन्होंने देश भर में दौरे किए और लोगों को अपने साथ जोड़ा. वह ‘भारतीय जननाट्य संघ’ (इप्टा) के संस्थापक सदस्य थे और कई साल तक राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे. इप्टा को वे आम जन तक अपनी बात पहुंचाने का सार्थक और सरल तरीका मानते थे. बंटवारे और साम्प्रदायिकता के वह सख़्त ख़िलाफ़ थे. भारत-पाक विभाजन के समय पार्टी ने फैज़ अहमद फैज़ को जहां पाकिस्तान पहुंचा दिया, वहीं क़ैफी ने हिन्दुस्तान में ही रहकर काम किया. उन्होंने लिखा,‘‘टपक रहा है जो ज़ख्मों से दोनों फिरकों के/ ब ग़ौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं/ तुम इसका रख लो कोई और नाम मौंजू सा/ किया है ख़ून से जो तुमने वो वजू तो नहीं/ समझ के माल मेरा जिसको तुमने लूटा है/ पड़ोसियों! वो तुम्हारी ही आबरू तो नहीं.’’ (‘लखनऊ तो नहीं’) कै़फ़ी बम्बई की चॉल में रहते थे, वहां आसपास बड़ी तादात में मजदूर और कामगार रहते थे. उनके बीच रहते हुये उन्होंने उनके दुःख, दर्द को समझा और क़रीब से देखा. मजदूरों, मजलूमों का यही संघर्ष उनकी कविताओं में साफ झलकता है,‘‘सब उठो, मैं भी उठूं, तुम भी उठो, तुम भी उठो/ कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी.‘‘ (‘मकान’) अली सरदार जाफ़री की तरह कै़फ़ी ने भी शायरी को हुस्न, इश्क और जिस्म से बाहर निकालकर आम आदमी के दुख-दर्द, संघर्ष तक पहुंचाया. अपनी शायरी को जिंदगी की सच्चाइयों से जोड़ा.

आज़ादी के बाद कैफ़ी ने समाजवादी भारत का तसव्वुर किया था. स्वाधीनता के पूंजीवादी स्वरूप की उन्होंने हमेशा आलोचना की. अपनी नज्म ‘क़ौमी हुक़्मरां‘ में उन्होंने कहा,‘‘रहज़नों से मुफाहमत करके राहबर काफ़िला लुटाते हैं/ लेने उठे थे ख़ून का बदला हाथ जल्लाद का बंटाते हैं.” कैफ़ी के यही आक्रामक तेवर आगे भी बरकरार रहे. उनकी शायरी में समाजी, सियासी बेदारी साफ-साफ दिखाई देती है. स्त्री-पुरूष समानता और स्त्री स्वतंत्रता के हिमायती क़ैफी आजमी अपनी मशहूर नज़्म ‘औरत‘ में लिखते हैं,‘‘तोड़ कर रस्म का बुत बंदे-कदामत से निकल/ ज़ोफे-इशरत से निकल, वहमे-नज़ाकत से निकल/ नफ़्स के खींचे हुये हल्क़ाए-अज़मत से निकल/ यह भी इक क़ैद ही है, क़ैदे-मुहब्बत से निकल/ राह का खार ही क्या, गुल भी कुचलना है तुझे/ उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे.’’

उनका नज़रिया और उनके तेवर समझने के लिए कोई सी नज़्म पढ़ी जा सकती है,‘‘तुम बनाओ तो ख़ुदा जाने बनाओ कैसा/ अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी.” (‘सोमनाथ’). साल 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद बहुचर्चित नज़्म ‘दूसरा बनवास‘ लिखी, ‘‘पांव सरजू में अभी राम ने धोये भी न थे/ कि नज़र आये वहां ख़ून के गहरे धब्बे/ पांव धोये बिना सरजू के किनारे से उठे/ राम ये कहते हुये अपने द्वारे से उठे/ राजधानी की फ़िज़ा आई नहीं रास मुझे/ छः दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे.’’ ‘तेलांगना’, ‘बांगलादेश’, ‘फरघाना’, ‘मास्को’, ‘औरत’, ‘मकान’, ‘बहूरूपिणी’, ‘दूसरा वनबास’, ‘जिंदगी’, ‘पीरे-तस्मा-पा’, ‘आवारा सज्दे’, ‘इब्ने मरियम’ और ‘हुस्न’ नज़्में हर ज़ाने में बार-बार पढ़ी जाने वाली हैं.

क़ैफी आज़मी को पद्मश्री के साथ ही ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का ‘संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार’, ‘अफ्रो-एशियन पुरस्कार’, ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’, विश्व भारती यूनिवर्सिटी से ‘डी लिट्’ की उपाधि और बेशुमार ख़िताब मिले. फिर भी उनके नज़दीक़ सबसे बड़ा सम्मान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का लाल कार्ड था, जिसे वह हमेशा जेब में रखते. वामपंथी विचारधारा में उनका अक़ीदा आख़िर तक रहा. वे अक्सर कहा करते कि ‘‘मैं ग़ुलाम हिन्दुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद भारत में जिया और समाजवादी भारत में मरूंगा.‘‘ गो उनका यह सपना अधूरा ही रहा. 10 मई, 2002 को यह इंकलाबी शायर इस दुनिया से चल गया.

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