बस इत्तेफ़ाक़ से मंच पर आईं और छा गईं अख़्तरी बाई
बिब्बी की उम्र तब सात साल थी, जब वह टूअरिंग थिएटर ग्रुप की गायिका चंद्रा बाई की आवाज़ की दीवानी थीं, मगर घर वालों ने पहले उन्हें सारंगी के उस्ताद इमदाद ख़ाँ से तालीम लेने के लिए पटना भेज दिया और फिर उस्ताद मोहम्मद अत्ता खान के पास पटियाला. अपनी माँ के साथ कलकत्ता चले जाने के बाद उन्होंने मोहम्मद ख़ाँ और अबदुल वहीद ख़ाँ से सीखा. और फिर उस्ताद झंडे ख़ाँ की शागिर्द हुई.
यही बिब्बी बड़ी हुईं तो अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी कहलाईं, अपने फ़न से जो नाम और शोहरत पाई तो बेगम अख़्तर हो गईं. मगर जमाना तो उन्हें ‘मल्लिका-ए-ग़ज़ल’ कहता है.
पटियाला घराने के उस्ताद मोहम्मद अत्ता खान की इस शागिर्द ने पहली बार मंच पर गाया तो वह इत्तेफ़ाक से. दरअसल वह किसी और की एवजी में मंच पर चली आई थीं.
यह बात 1934 की है, भीषण भूकंप में तबाह हुए मुंगेर और मुजफ़्फ़रपुर के लोगों की मदद के लिए फंड इकट्ठा करने को एक कंसर्ट हुआ. एक नामचीन गायक वायदा करके भी कंसर्ट में नहीं पहुंचे तो उस्ताद के कहने पर अख़्तरी बाई को उनकी जगह गाने के लिए मंच पर भेज दिया गया. बीस बरस की उस युवती की मनःस्थिति का अंदाज़ ही लगाया जा सकता है, जिसे उस्तादों के साथ रियाज़ के अलावा भीड़ के बीच गाने का न कोई तजुर्बा था और न तैयारी.
उस जलसे में उन्होंने ग़ज़ल छेड़ी – तूने बुत-ए-हरजाई कुछ ऐसी अदा पाई/ तकता है तेरी ओर हर एक तमाशाई. महफ़िल में उनकी आवाज़ का जादू छा गया. चार ग़ज़लें गाकर उठीं तो वहाँ उन्हें सुन रही सरोजिनी नायडू उठकर शाबाशी देने आईं और खादी की एक धोती उन्हें तोहफ़े में दे गईं.
इस जलसे के बाद पूरी ज़िंदगी अख़्तरी बाई को बेशुमार शोहरतें मिलती रहीं, ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव से पार में जूझती रहीं मगर उनकी आवाज़ पुरकशिश बनी रही, ज़माने में उनकी आवाज़ की दीवानगी बनी रही. 1945 में जब उन्होंने लखनऊ के बैरिस्टर इश्तियाक़ अहमद अब्बासी से ब्याह कर लिया तो उनके गाने पर पाबंदी लग गई. यह सिलसिला क़रीब पाँच साल तक चला मगर यह दौर उन पर बहुत भारी गुज़रा. वह अवसाद में चली गईं और बीमार पड़ गई.
डॉक्टरों ने मशविरा दिया कि गाना ही दरअसल उनका इलाज है और इस तरह 1949 में वह वापस आवाज़ की दुनिया में लौट सकीं. आकाशवाणी के लखनऊ स्टुडियो में उन्होंने तीन ग़ज़लें और एक दादरा रिकॉर्ड कराया. फिर रेडियो के लिए वह नियमित गाने लगीं. और ताउम्र गाती रहीं.
गुलाबबाड़ी | फैज़ाबाद की वह कोठी जहां अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी यानी बेगम अख़्तर कभी रहा करती थीं. अब इसे हमदानी कोठी के नाम से जाना जाता है और पूरा मोहल्ला कोठी के नाम से. कुछ लोग इसे भूतिया कोठी भी कहते हैं क्योंकि बरसों तक इसमें कोई रहा नहीं. इधर क़रीब साल भर से एक कुनबा यहां आबाद हुआ है.
फ़ोटो | मंजरी सिंह
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