दिलों के दरम्यान पुल बांधने वाले निदा फ़ाज़ली

  • 12:05 pm
  • 12 October 2020

दोहे जो किसी समय सूरदास, तुलसीदास, मीरा की ज़बान से निकलकर लोक जीवन का हिस्सा बना, हमें हिन्दी पाठ्यक्रम की किताबों में मिले. थोड़ा ऊबाऊ. थोड़ा बोझिल. लेकिन खनकती आवाज़, भली सी सूरत वाला एक शख़्स, जो आधा शायर रहा और आधा कवि, दोहों से प्यार करता रहा. अमीर ख़ुसरो के ‘जिहाल ए मिसकीन’ से लेकर कबीर के ‘हमन है इश्क़ मस्ताना’ में नये फ्लेवर और तेवर के साथ कहने वाले इस शायर का नाम है निदा फ़ाज़ली.

निदा याने आवाज़. फ़ाज़ली बना फ़ाज़ला से. कश्मीर का एक इलाक़ा जो उनके पुरखों का है. यह उनका तख़ल्लुस है. असल नाम था मुक़्तदा हसन. पैदाइशः ग्वालियर, अक्टूबर 12,1938.

मुक़्तदा हसन से निदा फ़ाज़ली बनने तक के सफ़र में मां ‘साहिबा’ की ममता, बाप ‘दुआ डिबाइवी’ की शायराना मिज़ाजी शफ़क़त के साथ खुले आँगन, बड़े दालानों, ऊंचे पेड़ों, कच्चे-पक्के छप्परों, गहरे कुँओं-तालाबों, ख़्वाजा की दरगाहों, कोने वाले मंदिर, मुल्क़ में कमज़ोर पड़ती अंग्रेज़ी हुकूमत, नये जन्मे पाकिस्तान और गर्ल्स कॉलेज में पढ़ने वाली एक ख़ुशशक्ल हसीं का भी योगदान था. निदा जिसकी मुहब्बत में एकतरफ़ा गिरफ़्तार थे.

एक दिन कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर उसकी मौत की ख़बर ने निदा को हिला कर रख दिया. स्थानीय स्तर पर एक स्थापित शायर होने के बावजूद इस रंज के लिए वह एक शे’र तक न कह सके. हत्ता कि पूरे उर्दू साहित्य में अपने दुःख के मुक़ाबिल उन्हें कुछ न मिला. मिला तो एक सुबह किसी मंदिर के पुजारी की आवाज़ में सूरदास का भजन-
मधुबन तुम क्यौ रहत हरे/ बिरह बियोग स्याम सुन्दर के/ ठाढ़े क्यौं ना जरे? वे ठहर गए. हिन्दुस्तानी साहित्य को तरजीह देते हुए अमीर ख़ुसरो से लेकर नज़ीर अकबराबादी तक को घोल के पी डाला. निष्कर्ष निकाला. गहरी बात सादे शब्दों में असरदार हो सकती है. तब महबूबा को सीधे, सरल और शायद सबसे ख़ूबसूरत लहजे में निदा ने याद किया – बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता/ जो बीत गया है वह गुजर क्यों नहीं जाता/ वह इक चेहरा तो नहीं सारे जहां में/ जो दूर है वह दिल से उतर क्यों नहीं जाता.

निदा अल्फाज़ की दाढ़ी नहीं तराशते. न चोटी-जनेऊ पहनाते हैं. वे नास्तिक नहीं हैं. ख़ास आस्तिक भी नहीं. सेक्यूलर हिन्दुस्तानी नज़रिया लिये दोनों धर्म की खामियों पर चोट करते हैं – अंदर मूरत पर चढ़े, घी, पूरी, मिष्ठान/ मंदिर के बाहर खड़ा/ ईश्वर मांगे दान. या कि घर से मस्जिद बहुत दूर है/ चलो कुछ यूँ करें/ किसी रोते हुए बच्चे को/ हंसाया जाए.

इस पर बवाल ही हो जाता है. स्टेज से उतरते ही टोपियाँ और कुर्ते घेर कर सवालों की बौछार करते हुए पूछते हैं, क्या वे किसी बच्चे को अल्लाह से बड़ा समझते हैं? निदा अपनी भारी और ठहरी हुई आवाज़ में जवाब देते हैं – मैं समझता हूं कि मस्जिद को इन्सान के हाथ बनाते हैं. बच्चे को ख़ुद अल्लाह बनाता है.

धर्म को केन्द्र में रखकर लिखी अपनी ग़ज़लों के लिए निदा अक्सर ट्रोल किए गए. बेलौसियत और अनासक्ति की अपनी आदत से वे ट्रोलर्स को ट्रीट कर लेते हैं.

निदा सजदा नहीं करते. हम्द कहते हैं. हम्द याने ईश्वर की शान में पढ़ी जाने वाली नज़्म को उनके के अंदाज़ में देखिए – नील गगन पर बैठे/ कब तक/ चांद सितारों से झांकोगे/ पर्वत की ऊंची चोटी से/ कब तक/ दुनिया को देखोगे/ आदर्शों के बंद ग्रंथों में/ कब तक/ आराम करोगे/ मेरा छप्पर टपक रहा है/ बनकर सूरज इसे सुखाओ/ ख़ाली है आटे का कनस्तर/ बनकर गेहूं इसमें आओ/ मां का चश्मा टूट गया है/ बनकर शीशा इसे बनाओ/ चुप-चुप हैं आंगन में बच्चे/ बनकर गेंद इन्हें बहलाओ/ शाम हुई है/ चांद उगाओ/ पेड़ हिलाओ/ हवा चलाओ/ काम बहुत है हाथ बंटाओ/ अल्लाह मियां/ मेरे घर भी आ ही जाओ/ अल्लाह मियां!

साठ के दशक में निदा के वालिदैन का पाकिस्तान चले जाने पर एक दोस्त ने उनसे पूछा, तुम ही क्यूँ यहां हो. साथ चले जाओ सबके. देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट बाँटने वाले खोखले देशभक्तों पर निदा का जवाब सुनना लाज़िम होना चाहिये – ‘यार इन्सान के पास कुछ चीजें बहोत सी हो सकती हैं. लेकिन मुल्क़ तो एक ही होना चाहिए. वह दो कैसे हो सकता है.’

मां-बाप पर मुल्क़ को तरजीह देने वाले निदा से बड़ा वतनपरस्त कौन हो सकता है भला! उनके लिये दिल के एक कोने में ताउम्र मुहब्बत का दिया रोशन रखने वाले निदा ग़ज़ल की नाज़ुक नायिका से माँ को रिप्लेस करते हुए लिखते है – बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ/ याद आता है चौका-बासन, चिमटा, फुकनी जैसी माँ. या और/ मैं रोया परदेस में भीगा मां का प्यार/ दुःख ने दुःख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार.

पिता की मौत पर लाहौर न पहुँच पाने की कसक में नज़्म “फातेहा” शायद ही किसी स्टेज पर सुने बग़ैर उन्हें जाने दिया गया हो. ग़ज़ल में गालिब – मीर, नज़्म में फ़ैज़ के समकक्ष होने के बाद भी उनकी शख़्सियत की शिनाख़्त दोहों से की जाएगी. जहाँ ज़िंदगी के फलसफ़े और समीकरणों के घटजोड़ में वे पूरी मज़बूती से कबीर के बगल जा खड़े होते हैं – सीधा-सादा डाकिया/ जादू करे महान/ एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान. सूफी का कौल हो/ या पंडित का ज्ञान/ जितनी बीते आप पर/ उतना ही सच जान. गीता बांचिये/ या पढ़िये कुरान/ मेरा-तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान. सातों दिन भगवान के/ क्या मंगल क्या पीर/ जिस दिन सोए देर तक/ भूखा रहे फ़क़ीर. सीता रावण राम का/ करें विभाजन लोग/ एक ही तन में देखिये/ तीनो का संजोग.

रुकिये अभी. निदा की कहन एक और पहलू अभी बाक़ी है. फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ का गाना ‘तेरा हिज्र मेरा नसीब है’ याद है न. ‘सरफ़रोश’ की ग़ज़ल ‘होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है’ या ‘तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है’ जैसे ज़हन में गहरे बैठ गए फ़िल्मी गीत भी उन्हीं की क़लम से निकले. यूँ लगता है चेहरों के जंगल मुंबई में भी निदा ग्वालियर का वह चेहरा नहीं भूले, जिससे अबोले इश्क़ का रिश्ता ज़िंदगी भर निभाते रहे.

यही निदा का कमाल है. वे एक ही वक़्त में अम्मा-अब्बा के प्यारे बेटे होते हैं. मालती जोशी के शौहर भी. बिटिया के लिये शॉपिंग करते “शॉपिंग” लिखते बाबा. पहली प्रेमिका के नक़्श को आहिस्ता से कुरेद कर ताज़ा कर लेते प्रेमी भी. पान से होंठ लाल किए, ताली मार स्टेज पर पढ़ते शायर. समाज, धर्म, राजनीति की कमियों पर लिखते-पढ़ते, टिप्पणी करते सतर्क, जागरूक नागरिक भी. सबसे बढ़कर साहित्य अकादमी और पद्मश्री से सजे सेक्यूलर हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व करते ख़ालिस हिन्दुस्तानी.

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