प्रो.कलीम मानते थे कि जीने के लिए नहीं, नसीहत के लिए ज़रूरी है इतिहास

प्रोफ़ेसर कलीम बहादुर ख़ान रुहेलखंड की क्रांति के अगुवा ख़ान बहादुर ख़ान के प्रपौत्र रहे. बरेली में पले-बढ़े, ईस्टर्न इंग्लिस मेमोरियल स्कूल (ईआईएम और अब आज़ाद इंटर कॉलेज) और बरेली कॉलेज में पढ़े. अंग्रेज़ी में एम.ए. करने के बाद 1960 में शाहजहांपुर के जी.एफ. कॉलेज में पढ़ाने चले गए. वहां दस साल तक लेक्चरर रहे. पॉलिटिकल साइंस में एम.ए. करके जेएनयू से पीएचडी की और वहीं पाकिस्तान स्टडीज़ के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हो गए. साउथ एशियन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर पद से रिटायर होकर दिल्ली में रह रहे थे. कल दिल्ली में उनका इंतकाल हो गया. सन् 2010 में रूहेलखंड की पहली आज़ादी की वर्षगांठ के मौक़े पर छपे एक ख़ास पेज के लिए अमर उजाला के तत्कालीन संपादक प्रभात से बातचीत में उन्होंने यह संस्मरण साझा किया था.

इतिहास महत्वपूर्ण है इसलिए इसे जानना-समझना ज़रूरी है. मगर इतिहास सीखने और नसीहत लेने के लिए है, न कि जीने के लिए. इतिहास के अनुभवों से सबक लेते हुए हमेशा बेहतर भविष्य के लिए काम करना ही समझदारी है.

उन दिनों हम लोग गली नवाबान में रहते थे. इस गोल मोहल्ले में दरअसल पूरा कुनबा ही था ख़ान बहादुर ख़ान का. सब एक दूसरे के रिश्तेदार. मेरे वालिद अहमद बहादुर खान शिक्षक थे. ईआईएम और मिशन स्कूल में पढ़ाते रहे. हमारे घर में एक ख़ानदानी रजिस्टर हुआ करता था. जिसमें ख़ानदान के हर शख़्स के बारे में डेली डायरी की तरह सारी जानकारियां दर्ज होती थीं. 17वीं सदी के छठे दशक में हाफ़िज़ रहमत खां के बेटे ज़ुल्फिक़ार ख़ां ने इसकी शुरुआत की थी. बचपन में और बड़ा होने पर भी इस रजिस्टर को देखा-पढ़ा है. मगर इससे ज्यादा कुछ नहीं.

बरेली का समाज हमेशा से ही बहुभाषी, बहुधर्मी और बहुसांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लोगों का रहा है. शहर के तमाम मोहल्लों में भी ऐसा ही रहा. झगड़ा-टंटा तो तब भी होता था मगर वह व्यक्तिगत होता था, सामूहिक नहीं. दरअसल फ़िरकापरस्ती इस शहर की तबियत में है ही नहीं. बंटवारे के वक़्त भी यहां से जाने वाले तमाम लोग वे थे, जो प्राइवेट कंपनियों में मुलाजमत करते थे और अपनी रोजी की ख़ातिर उन्हें जाना पड़ा.

मेरे चाचा यार मोहम्मद ख़ान रेलवे में काम करते थे. न्यूरिया और दोहना में स्टेशन मास्टर रहे. रेलवे उन दिनों प्राइवेट कंपनियां चलाती थीं सो उन्हें ईस्ट पाकिस्तान भेज दिया गया, और उन्हें जाना पड़ा. ऐसे ही मेरे भाई सलीम बहादुर ख़ान रावलपिंडी गए.

मुझे एक वाक़या याद है – ग़ालिबन 1943 की बात है. चुंगी के इलेक्शन में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के कैंडिडेट आमने-सामने थे. मुहल्ले मेँ पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे भी सुने जाते थे. नतीजा आया तो पता चला कि कांग्रेस के मौलवी अब्दुल वाजिद चुन लिए गए.

होली के तमाम ऐसे दिन याद हैं, जब मैं अपने वालिद की साइकिल पर पीछे बैठा आलमगिरीगंज जैसे इलाक़ों से गुज़रा हूं, जहां ख़ूब रंग चल रहा होता. मगर वालिद को देखते ही कुछ देर को थम जाता. ऐसा नहीं कि उन्हें रंग से कोई परहेज़ था मगर शायद वह लोगों के इज़्ज़त करने का अपना तरीक़ा था.

गली नवाबान में तो अब शायद एक परिवार ही रहता है. बाक़ी तो अपने मकान पांच साल के लिए किराए पर चढ़ाकर जो गए तो फिर वापस कब लौटे? यों अपने कुनबे में मैं अकेला ही बचा हूं यहां. कह सकते हैं कि मुल्क में मेरा कोई रिश्तेदार नहीं. हां, दोस्त ढ़ेर सारे हैं. बरेली में भी हैं. पिछली बार बरेली कॉलेज के बुलावे पर 2001 में आना हुआ था. तो सबसे मुलाक़ात हुई थी. देखिए फिर कब आना होता है!

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