राजेंद्र यादव | ग़ायब रहकर भी चर्चा में बने रहने का हुनर आता था

  • 10:46 am
  • 28 October 2020

राजेंद्र यादव अपनी ख़ामियों-ख़ूबियों से ख़ूब वाक़िफ़ थे और इसे लेकर काफी सचेत भी. उनकी यह ख़ूबी आयुपर्यंत बनी रही कि जहां वे होते, वहां तो उनकी उपस्थिति उनके तेवर और उनकी बेबाक़ी से महसूस की ही जाती मगर ग़ायब रहकर भी चर्चा के केंद्र में बने रहने का हुनर उन्हें ख़ूब हासिल था.

बात के सिलसिले में पहली बार अपने मन की बात कमलेश्वर को बता दी. अपनी डायरी ले जाकर उसका वह पत्र निकालकर दिखाया जिसमें दो तरफ़ मुंह किए दो इंजनों का जिक्र है और जो कि ‘स्याह और सफ़ेद’ शीर्षक उपन्यास का अन्त होता. भाई राजेंद्र यादव को बता दिया था कि उपन्यास का अन्त इस तरह से करना चाहता हूं. नतीजा यह हुआ कि कुछ दिनों बाद भाई ने ‘जब प्रेत बोलते हैं’, ‘सारा आकाश’ के नाम से छपवाया, तो वह आइडिया वहां मार दिया – इस उपन्यास का अन्त लगभग उसी तरह करके. इससे मन इतना ख़राब हुआ कि ‘स्याह और सफ़ेद’ का बाक़ी हिस्सा लिखा ही नहीं. बल्कि उसे दो हिस्सों में तोड़ दिया और पीछे का हिस्सा ही ‘नीली रोशनी की बाहें’ शीर्षक से लिखना शुरू किया. पहले हिस्से के 200 टाइप किए पन्ने ज्यों के त्यों रखे हैं. कमलेश्वर को यह भी बताया कि यह बात उस आदमी से मैंने आज तक नहीं कही….मगर ‘नया मकान” वाला आइडिया बताने पर जब उसने उस पर ‘अपनी’ कहानी लिख ली थी, तो उतनी तक़लीफ़ नहीं हुई थी, और उससे कह भी दिया था. पर इस बार…इतनी नफ़रत हुई कि उससे कुछ कहा नहीं. ‘मेरा दिल उस आदमी से फट चुका है’ मैंने कमलेश्वर से कहा. ‘मैं अब सिर्फ निभा रहा हूं…जैसे-कैसे भी!’. कमलेश्वर ने डायरी का वह अंश पढ़ा – सन्‌ 58 का लिखा हुआ. उससे आगे का रिफरेंस भी उसे दिखाया. वह सुन्‍न होकर बैठा रहा.

मोहन राकेश की डायरी में दर्ज यह प्रसंग 4 नवम्बर 1964 का है. आधुनिक हिन्दी साहित्य में नई कहानी आंदोलन की जिस तिकड़ी का जिक्र बार-बार होता है, वे तीनों ही इस प्रसंग में मिलते हैं. राजेंद्र यादव इस बातचीत में शामिल न सही, मगर इसके केंद्र में वही हैं. उनकी यह ख़ूबी आयुपर्यंत बनी रही. जहां वे होते, वहां तो उनकी उपस्थिति उनके तेवर और उनकी बेबाक़ी से महसूस की ही जाती मगर ग़ायब रहकर भी चर्चा के केंद्र में बने रहने का हुनर उन्हें ख़ूब हासिल था. उनके लेखन, उनकी टिप्पणियों-वक्‍तव्यों में कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर होता कि उसे पढ़ने-सुनने वाला निरपेक्ष नहीं बना रह सकता था और उस पर आने वाली प्रतिक्रियाएं भी उनका मक़सद होतीं. पढ़ने-लिखने की दुनिया में ख़ामोशी नहीं, हमेशा मुखरता के हामी रहे राजेंद्र यादव. उनकी इसी आदत ने समय- समय पर तमाम विवाद खड़े किए, साहित्य और साहित्य के बाहर की दुनिया में विरोधियों की बड़ी फौज खड़ी कर दी मगर वे थे कि इस सबसे निस्पृह बने रहकर अपना काम करते रहे. साहित्य और समाज हमेशा उनके चिंतन के केंद्र में रहे और इसकी ख़ातिर उन्होंने जो कुछ भी ठाना, करके रहे. अपनी धुन के बहुत पक्के इंसान थे. उनके क़रीबी उनकी ख़ूबियां गिनाते हुए उन्हें वक्त और ज़बान का पक्का मानते हैं.

‘नई कहानियां’ पत्रिका खरीदने, को-ऑपरेटिव बनाने, अपना प्रकाशन शुरू करने के उनके इरादे को उनके दोस्तों ने तब भी बचकाना माना था, जब वे अपनों की महफ़िल में यह इरादा ज़ाहिर करते थे और तब भी जब इसके लिए कर्ज़ जुटाने को वह कलकत्ते हो आने की बात कहते. दोस्तों ने उनके इस संकल्प को भले हल्के में लिया मगर राजेंद्र यादव ने यह धुन कभी नहीं छोड़ी. पूरे 22 साल लगे उन्हें अपने इस सपने को पूरा करने में. सन्‌ 1986 में अक्षर प्रकाशन बना और ‘हंस’ का प्रकाशन फिर शुरू हुआ. अपनी प्रतिबद्धता और सम्पादकीय कौशल से ‘हंस’ को उन्होंने उन ऊंचाइयों तक पहुंचाया, जहां यह पत्रिका हिन्दी साहित्य में सृजन और विचारों का जीता जागता मंच बन गई. सम्पादकीय में उठाए जाने वाले मुद्दों और कई बार चेतना को झकझोर देने वाले वैचारिक विश्लेषणों ने राजेंद्र यादव को साहित्य संपादकों की मौजूदा जमात से अलग दर्जा दिलाया. यह बात सभी मानते हैं कि एकदम नए लेखकों को तराशने और उनके लिए ज़मीन तैयार करने और साहित्य की दुनिया में उन्हें पहचान दिलाने में ‘हंस’ का अनूठा योगदान रहा है. और यह सब संभव हो सका राजेंद्र यादव के विशिष्ट नज़रिये से, जो साहित्य के विस्तार के साथ ही उसे परंपरागत वैशिष्ट्य से अलग पहचान दिलाने के पक्ष में रहते थे. आलोचक नामवर सिंह ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा, ‘प्रेमचंद के ‘हंस’ को निकालने की ज़िम्मेदारी लेकर उन्होंने साहित्य जगत के लिए बहुत बड़ा काम किया. यदि उन्होंने इसके अलावा कुछ भी न किया होता तो भी वह साहित्य जगत में अमर हो जाते.’

उनके विचारों की दुनिया में लोगों की असहमतियां और ख़ुद की साफ़गोई सबसे बड़ी ताकत थी और यही वजह है कि विवादों से, मतभेदों से वह न कभी घबराये, न परेशान हुए. उनके तमाम कटु आलोचक उनकी शख़्सियत के इस पहलू के क़ायल हैं कि मतभेद, आलोचनाएं, विवाद सब अपनी जगह, पर व्यक्तिगत तौर पर उन्होंने कभी किसी की कटुक्तियों का या आलोचनाओं का बुरा नहीं माना. जो ठीक माना, वही कहा, बिना लाग-लपेट के कहा और फिर उस पर डटे भी रहे. इसके बाद किसी और बात की परवाह किए बग़ैर आगे बढ़ गए. उनकी पत्नी और कहानीकार मन्नू भंडारी इसी शख़्सियत का एक और पहलू बयान करती हैं. उन्होंने लिखा है कि ऐसा नहीं कि राजेंद्र अहंवादी या सेंसिटिव नहीं हैं. हैं, और बहुत ज्यादा हैं, पर वे स्तर, वे बातें दूसरी ही हैं, जहां इनका अहं आहत होता है. जो बात किसी भी रूप में इन्हें थोड़ी-सी भी हीनता का बोध करा दे, वह इनके बर्दाश्त से बाहर होती है. लेखन के मामले में ये कुछ ज्यादा ही आश्वस्त हैं. अपनी सामर्थ्य पर इन्हें पूरा भरोसा है और इसीलिए इस क्षेत्र में किसी भी मज़ाक या अपने लिखे हुए की कटु से कटु आलोचना पर भी ये अपने मित्रों की तरह बौखलाए हुए नहीं फिरते.

राजेंद्र यादव अपनी ख़ामियों-ख़ूबियों से ख़ूब वाक़िफ़ थे और इसे लेकर काफी सचेत भी. 60वीं वर्षगांठ के मौक़े पर आगरा में मित्रों के बीच दिया गया वक्‍तव्य उनकी आत्मकथा ‘मुड़ मुड़ के देखता हूं’ में शामिल है. उन्होंने कहा था – क्या सारे बहुरूपिये अपने मूल चेहरे को कहीं सुरक्षित जगहों पर छोड़ आते हैं और सिर्फ़ मुखाटों के सहारे ही ज़िंदगी काट देते हैं? एक विशेष मेकअप में रहने वाली सुंदरी जब लोगों को अपने रूप पर मुग्ध होते देखती है तो कहीं यह आशंका भी उसको लगातार कचोटती ही होगी कि किन्हीं आत्मीय क्षणों में इनमें से किसी ने ‘असली रूप’ को देख लिया तो? क्या गुजरेगी उस पर…? और वह आत्मीय क्षण हमेशा स्थगित होता रहता है, अभिनंदन और प्रशंसाएं बटोरता ‘मेकअप’ ही हम सबके लिए असली व्यक्ति बन जाता है. बहरहाल, जो कुछ मैं हूं, वह प्रतिलिपि हो, मेकअप हो, मुखौटा हो या सचमुच अपना विस्तार हो…आप सबका दिया हुआ है. मैं अपनी आंतरिक ईमानदारी से स्वीकार करता हूं कि जो कुछ ग़लत, ख़राब या अरुचिकर है – वह सब मेरी अपनी कमाई है. चाहें तो इसे आत्मस्वीकृति कह लें कि मैं तहेदिल से आप सभी का बहुत कृतज्ञ हूं और यह कृतज्ञता ही मेरा बल है.

एक मायने में यह सच भी है. उनके तमाम आत्मीय उनके कई फ़ैसलों, उनकी कई मान्यताओं और उनके कई कारनामों को मुखौटों की आड़ मानते-बताते ही रहे हैं. उनके रहते हुए और अब उनके जाने के बाद भी. यों अपने यहां दिवंगत के बारे में कुछ भी कटु या आलोचनात्मक कहने का रिवाज़ नहीं है मगर राजेंद्र यादव तो इसका भी अपवाद निकले. साहित्यकार अजित कुमार से उनकी दोस्ती छह दशकों से ज्यादा पुरानी थी. बिना आत्मीयता के कोई रिश्ता इतने लम्बे समय तक बना नहीं रह सकता. राजेंद्र यादव के जाने के बाद जनसत्ता में छपे एक लेख में अजित कुमार व्यक्ति के तौर पर उन्हें बेहद आत्मीयता से याद करते हैं. पर ‘हंस’ के शुरूआती दिनों की एक घटना का ज़िक्र भी करते हैं, जब किसी कहानी प्रतियोगिता के निर्णय को लेकर बखेड़ा खड़ा हो गया तो उनसे पूछे या बताए बग़ैर राजेंद्र यादव ने हंस’ में छाप दिया था कि यह फ़ैसला अजित कुमार का था. यह लेख इस तरह पूरा हुआ है, ‘राजेंद्र के व्यक्तित्व को दो-चार शब्दों में समेटना चाहूं तो कहूंगा कि वे अपने लेखन के प्रति समर्पित…दूसरों के प्रति सामान्यतः निर्मम जब तक कि वे सर्वथा स्वयं उनको समर्पित न हों….अमॉरल’…’अनस्क्रुपुलस’…हठी हिसाबी-किताबी…मर्दवादी…प्रदर्शनप्रिय…उत्सवधर्मी…नारीवाद-जनवाद-दलितोद्धार के मुखौटे के पीछे अपने लिए सुख सुविधाएं और ‘हंस’ के लिए सुनिश्चित ‘कॉन्सटीटुएन्सी’ विकसित करने वाले चतुर, व्यवहार कुशल, अंततः सफल व्यवसायी…शौक़ीन…ख़ूबसूरत, बेहद प्यारे व्यक्ति थे, जो तमाम लोगों से ‘डियरनेस अलाउंस’ वसूलते रहे और हम सब ख़ुशी-ख़ुशी उनको वह देते भी आए.’

सोचकर देखें, जो शख़्स नारी-विमर्श और दलित-विमर्श को लेकर प्रतिष्ठा पाता है, बतकही और लिखा-पढ़ी में कटुता के बावजूद जिसकी छवि दूसरों के प्रति सह्रदयता बनाए रखने की हो, उसी राजेंद्र यादव की शख़्सियत का यह बखान आपको चौंकाने वाला नहीं लगता? मगर वह ख़ुद भी तो हमेशा ऐसा ही चाहते और करते रहे. हां, उनके तमाम करतब इसी तरह के असामान्य होते थे, जो दूसरों को अक्सर चौंकाते. परेशान भी करते. उनकी लोकतांत्रिक तबीयत के मूल में कई बार चौंकाने वाला तत्व ही प्रेरक का काम करता था. फिर चाहे मान्यताओं के खंडन की बात हो या फिर समकालीन राजनीतिक सामाजिक मुद्दों पर किसी नई अवधारणा की. आतंकवाद के मसले पर पटना में दिए गए उनके जिस वक्‍तव्य पर ख़ासा बवाल खड़ा हुआ था, उसमें अगर हनुमान उर्द्धत न हुए होते तो क्या सचमुच किसी बवाल की गुंजाइश थी? यों सुनने में बात सीधी ही लगती है आतंकवाद आख़िर है क्या? जब कभी किसी असंगत व्यवस्था के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ उठाता है, तो व्यवस्था उसे आतंकवादी करार देती है जैसे कभी लंका में हनुमान को आतंकवादी कह दिया गया होगा.’

मगर वह बख़ूबी जानते थे कि वह क्‍या कह रहे हैं और क्यों कह रहे हैं. वह चाहते थे कि हल्ला-गुल्ला होता रहे और इस बीच वह अपनी मान्यताएं-अवधारणाएं स्थापित करते चलें. उनके भीतर का रचनाकार इससे कमतर पर संतुष्ट ही नहीं होता था शायद. यही वजह है कि वह हमेशा विवादों में घिरे रहते. एक विवाद ख़त्म नहीं होता कि दूसरा शुरू हो जाता. हां, विवाद ख़त्म करने का कोई जतन उन्होंने अपनी और से शायद ही किया हो. कथाकार मदनमोहन ने झांसी के एक आयोजन का क़िस्सा साझा किया, जहां संचालन वही कर रहे थे. बताया कि राजेंद्र यादव ने उन्हें अपने क़रीब बुलाकर कहा, ‘सब कुछ बड़ा नीरस चल रहा है. तुम ऐसा करो कि मुझे और शैलेश मटियानी को भिड़ा दो. शैलेश दक्षिणपंथी हैं और मैं वामपंथी. गोष्ठी में थोड़ी गरमाहट तो आएगी.’ उनका मक़सद यक़ीनन शैलेश मटियानी को उकसाने का ही रहा होगा. इसके बाद तो ख़ुद उनके वक्तव्य के लिए बाक़ायदा माहौल बन ही जाना था. जनपक्षधरता की अपनी छवि की चिन्ता उन्हें इस क़दर रहती कि नितांत निजी ज़िंदगी में वह मन्‍नू जी को भी दक्षिणपंथी ठहराने से बाज़ न आए. जीने की उनकी अपनी शर्तें थीं – सार्वजनिक ज़िंदगी में और निजी ज़िंदगी में भी. और इसे लेकर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया.

इतने सबके बाद भी वह अपने समय और समाज को लेकर हमेशा सजग बने रहे. वर्तमान ही नहीं, भविष्य को लेकर भी. बीमारी के हाल में जब वह अस्पताल में भर्ती थे तो मिलने के लिए आने वालों से बीमारी के बारे में कभी बात नहीं की. उनकी बातचीत के केंद्र में साहित्य और समय ही होता. इन्हीं दिनों में नई पीढ़ी के रचनाकारों को लेकर उन्होंने अपनी यह राय साझा की थी कि उनके लेखन में गहराई का बहुत अभाव दिखाई देता है और इसकी वजह यह है कि वे लोगों के बीच जाकर ख़ुद अनुभव करने से बचते हैं, अपने बहुस्तरीय समाज को अच्छी तरह जानते ही नहीं. और ऐसा नज़रिया उस शख़्स का ही हो सकता है, जो युवाओं की रचनाएं न सिर्फ़ धैर्य से पढ़ता बल्कि उसे संवारने का मशविरा देता और छापता भी. ऐसे लोगों की लम्बी फ़ेहरिस्त है, जिनके लेखकीय जीवन की शुरूआत उनकी मदद से ही संभव हो सकी. वह हर उम्र के लोगों से एक-सी आत्मीयता से मिलते. लोगों से मिलना (जिसे उनके आत्मीय मजमा लगाना भी कहते रहे), उनसे बोलना-बतियाना उन्हें प्रिय था. और शायद यही वजह है कि लेखकों की तीन पीढ़ियों में वह बराबर मक़बूल रहे, पुरानों के बीच भी नए बने रहे.

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