रिपोर्ट | ‘सड़क’ का सवाल, आख़िर यह किसका विकास

  • 8:45 pm
  • 10 December 2022

प्रयागराज | एक सड़क है जो तोड़ दी गई है, किसने तोड़ी? इसका मुकदमा अदालत में है. उद्योगपतियों और ग्रामीणों के बीच यह मुकदमा अदालत में विकास किसके लिए और क्यों की बहस में बदल जाता है. आख़िर में जज गाँव वालों से कहते हैं कि अपने तरीके से विकास करने के लिए पढ़ो, लिखो और सक्षम बनो. यह सब एक दिलचस्प रंगभाषा में सामने आया प्रयागराज में यूनिवर्सिटी थिएटर की ओर से हबीब तनवीर के लिखे नाटक ‘ सड़क’ में, जिसका निर्देशन अमितेश कुमार ने किया था. मंचन नौ दिसंबर को स्वराज विद्यापीठ में हुआ.

यह प्रसिद्ध रंग निर्देशक हबीब तनवीर की जन्म शताब्दी का वर्ष है और यूनिवर्सिटी थिएटर ने इस प्रस्तुति के माध्यम से भारतीय रंगमंच में उनके योगदान को याद किया.

यह नाटक विकास की तर्ज पर विलुप्त होते हुए जंगल-ज़मीन की समस्या को हास्य-व्यंग्य के ज़रिये दर्शकों के सामने लाता है. सड़क, जिसे विकास का पैमाना माना जाता है, और जो वास्तव में भ्रष्टाचार की बुनियाद है, इस नाटक के केंद्र में है. सड़क के टूट जाने पर उद्योगपति वर्ग अशिक्षित गांव वालों पर आरोप लगाते है, उन्हें दोषी ठहराते हैं. इस मामले की सुनवाई अदालत में होनी है. गांव के लोग सड़क टूट जाने पर ख़ुश हैं क्योंकि इस सड़क ने उनकी आजीविका (जंगल, जमीन, पशु, फल) को ख़त्म कर दिया है. वहीं उद्योगपति और ठेकेदार, जो विकास के लिए आई रक़म अपनी जेब में रखकर नाममात्र की सड़क बनाते हैं; औऱ फिर सड़क के टूटने का दोष ग्रामीणों के मत्थे मढ़कर ख़ुद साफ़ बच जाना चाहते हैं.

सड़क के टूटने की वजह आख़िर क्या है? यह तो नाटक नहीं बताता, इसे वह अपने प्रबुद्ध दर्शकों के ऊपर छोड़ देता है लेकिन न्याय-व्यवस्था इस बात पर जोर देती है कि गांव का असली विकास तो गांव के लोगों के हाथ में ही है. कहाँ तो हर चुनाव में सड़क बनवाना जनता की मुख्य मांग रहती है और कहाँ इस नाटक में जनता सड़क के ही ख़िलाफ़ है. दावा यह है कि यह सड़क ही विकास की सड़क है. यहां हबीब तनवीर विकास की अवधारणा को ही समस्या मानते दिखते हैं. नाटक सीधा सवाल करता है कि विकास किसका? और इस विकास की क़ीमत क्या है?

गांव के लोगों का मानना है कि सड़क उनके विकास के लिए नहीं, उद्यागपतियों के विकास के लिए बनी है. वे तमाम बातों के हवाले से बताते हैं कि सड़क बनने से उनका क्या-क्या नुक़सान हुआ है? विकास की होड़ में पर्यावरण और परिवेश को हो रही क्षति पर यह नाटक सीधे टिप्पणी करता है.

नाटक की सफलता में पात्रों और उनकी संवाद योजना की बड़ी भूमिका होती है: रंगकर्मियों ने इस भूमिका को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया. इस नाटक के मूल संवाद छत्तीसगढ़ी में है लेकिन प्रस्तुति में उन संवादों की योजना अवधी और भोजपुरी में की गई है ताकि दर्शक नाटक से जुड़ सकें और अभिनेता भी अपनी मातृभाषा में सहज रहें. संवाद, दर्शकों को गुदगुदाते हैं और हंसते-हंसाते ही उनका ध्यान उस समस्या की ओर ले जाते हैं, जिससे भारत के अधिकांश गांव जूझ रहे हैं.

प्रस्तुति का एक उल्लेखनीय पक्ष संगीत भी है. जुगेश के संगीत में तबले पर हर्ष और ढोलक पर अजीत ने जबरदस्त समां बांधा, कोरस ने भी भरपूर साथ दिया. प्रस्तुति में हबीब तनवीर के गीतों के अलावा जनकवि कैलाश गौतम के मशहूर गीत‘कचहरी न जाना’को भी शामिल किया गया.

नाटक के निर्देशक अमितेश कुमार ने नवीन प्रयोग करके, संवादों की भाषा में परिवर्तन, ‘हिरमा की अमर कहानी’ से गीतों का चयन और सफल पात्र योजना से कम संसाधनों में भी नाटक का मंचन किया. नाटक ने शुरू से अंत तक दर्शकों को जोड़ कर रखा.

मंच पर सक्षम, शिवानी, माधवी, शानु, पूजा, पूनम, दीक्षा, सोमेश, मोहित, आर्यन, शुभम, दीपशिखा, निमिता, राहुल, पल्लवी, मनीषा, प्रियंका, आदित्य, अंकित, राल्फ, प्रज्ञा, आदित्य राज, हृतिका, कुणाल, अजीत, मंजीत, सूर्यांश आदि अभिनेता के रूप में मौजूद थे. मंच के पीछे पीयूष, अनुज, सलोनी, नीतेश, अमिता, शिवानी, रविकांत, अंकित, उत्पल, अंशिका, शिवम और आदर्श ने सहयोग किया.

इस मौक़े पर प्रो.आर.पी.सिंह, सुमन शर्मा, प्रो.आर.सी. त्रिपाठी, डॉ.प्रचेतस, डॉ.कमल कुमार, डॉ.प्रकाश चित्तुर, डॉ.स्मृति सुमन, डॉ.स्वप्निल श्रीवास्तव, कृष्ण स्वरूप आनंदी, रंगकर्मी अनिल रंजन भौमिक, अजीत बहादुर और प्रवीण शेखर भी मौजूद रहे. लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता ने मेहमानों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया.

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