यूनिवर्सिटी थिएटर | नाटकों के ज़रिए रेणु को श्रद्धांजलि

प्रयागराज | वह रात्रिकालीन कर्फ़्यू की आहट भरी शाम थी. जब यूनिवर्सिटी थिएटर के विद्यार्थियों ने स्वराज भवन में खुले परिसर में बिना किसी प्रचार के कोविड गाइडलाइंस के मानकों के अनुसार बमुश्किल 60 से 80 दर्शकों के सामने रेणु की तीन कहानियों के नाट्य रूपान्तरण का मंचन किया.

आठ अप्रैल को शाम चार बजे स्वराज विद्यापीठ में फणीश्वर नाथ रेणु की जन्म शताब्दी वर्ष में यूनिवर्सिटी थिएटर की तरफ से कथा-छवि के रूप में रेणु की तीन कहानियों ‘एक अकहानी का सुपात्र’, ठेस’ और ‘पहलवान की ढोलक’ का मंचन किया गया. यह रेणु के जन्म शताब्दी वर्ष में यूनिवर्सिटी थिएटर की तरफ़ से श्रद्धांजलि थी. इस प्रस्तुति की तीन अलग-अलग कहानियों का निर्देशन विद्यार्थियों की अपनी टीम ने सामूहिकता में किया था.

जहाँ मंचन हुआ, वह किसी शास्त्रीय परम्परा का मंच नहीं था और न ही प्रकाश और पर्दे की कोई व्यवस्था. स्वराज भवन का आँगन था. किनारे पर अमरुद के पेड़ के पीछे का गलियारा और बीच में खडंजे से ढंकी ज़मीन पर ही नाटक के दृश्य दर्शकों के सामने आए. इस मंचन में एकबारगी नुक्कड़ नाटक जैसा प्रभाव भी दिखाई दिया. लेकिन यह नुक्कड़ नाटक नहीं था बल्कि उससे अलग हटकर एक नया प्रभाव पैदा कर रहा था.

नाटक के मंचन के लिए आंगन को ही खुले रंगमंच के रूप में प्रयोग किया गया था. इस खुले रंगमंच के तीन ओर दर्शकों के बैठने और दूसरी ओर पेड़ों और झाड़ियों के चलते नेपथ्य के गलियारे की कल्पना बेहतरीन रही. नाटक के बीच में दृश्य बदलने के साथ ही पात्रों का मध्य में आना और फिर गलियारे के उस समूह में शामिल हो जाना जो एक तरह से दर्शक समूह का ही एक्सटेंशन-सा लग रहा था एक नये तरह के नाट्य अनुभव से गुज़रने जैसा रहा.

बीच-बीच में कोरस की लोक धुन नाटक की स्थितियों के संप्रेषण में बहुत सार्थक भूमिका निभा रही थी, जो अपनी अनगढ़ता में भी दर्शकों के बीच एक ताज़गी का स्पर्श दे जाने वाली नाट्य योजना का प्रभाव पैदा कर रही थी.

रेणु की कहानियों के पाठक जानते हैं कि अपनी जातीय स्मृतियों की सघन बुनावट और लोक की संवेदना को गहराई से पकड़ने वाले इस कथाकार में कथाभाषा का जो सूत्र बनता है वह बग़ैर लोक-बिम्ब के जातीय संस्कारों की परख-पहचान के संभव नहीं हो सकता. रेणु इसीलिए अपने पाठकों से एक तैयारी की मांग करते हैं ख़ासतौर पर उस समय जब ये सारी चीज़ें हमारी स्मृति से दूर जा रही हों.

कहानी का नाट्य रूपांतरण एक तरह का अनुवाद होता है लेकिन यह केवल शब्दों का अनुवाद भर नहीं होता बल्कि वातावरण और स्थितियों की सजीवता के साथ प्रस्तुत करना होता है. भाषा इसमें केवल पात्रों के संवाद तक ही नहीं होती है बल्कि वह भंगिमा तक की यात्रा करती है. अपनी इस यात्रा में कहानी जब नाट्यकला के रूप में सामने आती है तो कहानी के पाठक की काल्पनिक स्थितियां, चरित्र और वातावरण सब कुछ साकार हो जाते हैं.

‘पहलवान की ढोलक’ रेणु की दूसरी कहानी है. कहानी में लुट्टन पहलवान ही केंद्रीय चरित्र है पर उस चरित्र को बनाने में जिस परिवेश को रेणु ने अपनी कहानी में बुना है उसके लिए नाट्य भाषा की खोज करना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य लगता है, यूनिवर्सिटी थिएटर के निर्देशकों ने जिसे संभव बनाने की बखूबी कोशिश की. महामारी की विभीषिका और जनता की कराह को नेपथ्य के रूप में गलियारे में खड़े चरित्रों के समवेत स्वर या फिर दंगल के दौरान लुट्टन के पक्ष में की जाने वाली वाहवाही के स्वर बेहद रोचक तरीके से प्रस्तुत किए गए.

महामारी किस तरह पूरे वातावरण को ग़मगीन का देने वाली है यह संदेश इस नाटक के अंत में दो ग्रामीण महिलाओं के कारुणिक विलाप से ख़ूब संप्रेषित हुआ. लुट्टन के चरित्र के साथ ही साथ ‘ठेस’ के सिरचन का चरित्र भी अपनी भंगिमा में दर्शकों को आकर्षित करत रहा था. ठेस कहानी एक अलग वातावरण के साथ सामने आती है. शादी का दृश्य हो या फिर ट्रेन के प्लेटफ़ॉर्म पर आने की स्थितियां सब कुछ सीमित संसाधनों के बावजूद दर्शकों के ज़ेहन में एक नाटकीय बिम्ब गढ़ रहे थे.

यह इन नवोदित नाट्य निर्देशकों की सफलता कही जानी चाहिए कि खुले प्रांगण में दर्शक नाटक की स्थितियों के साथ एक सन्नाटे में खुद को खड़ा पा रहा था. वह एक ऐसा सन्नाटा था जहाँ से दर्शक नाटक से तादात्म्य स्थापित करता है. मुक्ताकाशी मंच में दर्शक और अभिनेताओं के लिए अनुशासन की एक नई चुनौती रहती है. यह चुनौती तब और बढ़ जाती है जब कहीं कोई पर्दा न हो, नेपथ्य के नाम पर झाड़ियों के झुरमुट हों और मंच तथा मंच से बाहर की स्थिति एक निचले गलियारे से परिभाषित होती हो.

दर्शकों की नज़र मंच पर ही रहे पीछे गलियारे पर जाकर न टिक जाए, इसके लिए जरूरी था कि बगैर किसी अंतराल के मंच पर कुछ घटित होती चीजें दिखती रहें. ‘ठेस’ कहानी के मंचन में शादी के उत्सव की योजना या फिर सिरचन का बहू से संवाद में पात्रों की भंगिमा के बीच मंच पर चीजों का बदल देने की योजना भी अच्छी रही. दर्शक का ध्यान भंग भी न हुआ और दृश्य भी बदल गया.

‘एक अकहानी का सुपात्र’ में चाय और पान की दुकान के दृश्य और गाँव से शहर तक की यात्रा में पात्र की बदलती मनोदशा को मंच घटित होते दिखाने के लिए किये गये नाट्य प्रयोग के चलते दर्शकों का तादात्म्य लगातार बना रहा.

इस तरह के मंचन और अभिनय को समझने के लिए जरूरी है कि हम उस कठिन और जरूरी प्रक्रिया को समझने का प्रयास करें जहाँ से कोई कहानी नाटक का रूप लेती है. कहानी कही जाती है और उसका लिखित रूप पढ़ा जाता है. कहानी के शिल्प के साथ कथा की जो छवि हमारे मानस में अंकित होती है, नाटक में वैसा हो यह ज़रूरी नहीं. नाटक दृश्य माध्यम है. यहाँ अमूर्तता की गुंजाइश कम हो इसके लिए कहानी के नाट्य रूपान्तरण के क्रम में नाटककार और निर्देशक नई भाषा और नवीन स्थितियों की योजना लेकर सामने आते हैं. विवरण को संवाद में बदलना और फिर पात्र की भंगिमा की खोज करना, चरित्रों के आपसी संवाद के बीच दृश्य की योजना को साकार करना साथ ही साथ दर्शक के साथ नाट्य स्थितियों का संतुलन बैठा पाना यह सब एक चुनौतीपूर्ण कार्य है.

कहानी को नाटक में ढालना दरअसल कला के दूसरे रूप में उतारना है. यह केवल भाषिक अनुवाद का मसला नहीं है. बल्कि कल्पना की चीजों को दृश्यमान बनाने की कठिन प्रक्रिया है. वह अमूर्तता जो किसी कहानी को पढ़ते समय पाठक के मन में मूर्त रूप ग्रहण करती है. कहानी के नाट्य रूपान्तरण में एक निर्देशक उस अमूर्तता को सामाजिक चरित्र का रूप देता है. ज़ाहिर-सी बात है कि इस प्रक्रिया में जितने महत्त्व की चीज़ शब्द होते हैं उससे कहीं ज्यादा की खोज वातावरण निर्माण और चरित्रों की भंगिमा की सटीक व्याख्या होती है.

‘एक अकहानी का सुपात्र’ का नाट्य मंचन देखते हुए यूनिवर्सिटी थियेटर के नवोदित निर्देशक और युवा रंगकर्मियों के भीतर नाटक और रंगमंच की बेहतरीन समझदारी भी दिखाई पढ़ती है. छोटे से खुले प्रांगण के परिवेश के बीच रेणु की कहानियों के नाट्य मंचन के जरिए नाटक को परिभाषित करना और उसे उन तमाम रूढ़ियों से मुक्त करना जो संसाधनों की जकड़न भरी सुविधाओं की मोहताज होती है – यह देखना बेहतरीन अनुभव रहा. आज के दौर में सामाजिक दूरी की नारे के बीच नाटक जैसी सामाजिक कला जब नए स्पेस की खोज कर रही है तो यूनिवर्सिटी थिएटर के विद्यार्थियों द्वारा खुले रंगमंच पर किए नाट्य मंचन का यह अभिनव प्रयोग अपने कच्चेपन के बावजूद प्रशंसनीय है.

महामारियां अवसाद बुनती हैं तो कलाएं अवसाद से बाहर निकलने का रास्ता सुझाती हैं. मनुष्यता की बुनियादी शर्तों के साथ हमें जीवन की उन ओझल होती सच्चाई के सामने ले जाकर खड़ा करती हैं, जहाँ से भ्रम के जाले तो साफ़ होते ही हैं, हम अपने समय में सार्थक भूमिका के लिए तैयार भी होते हैं. नाटक के जरिए केवल बाहर की सामजिकता ही नहीं निर्मित होती है बल्कि भीतर के हमारे अंतर्द्वंद्व को भी नाटक और रंगमंच झकझोरता है. ज़ेहन में बनती जा रही फैकल्टी की सीमित अवधारणा को भी नाटक विस्तृत करता चलता है.

बमुश्किल तीन साल हुए होंगें जब से हम अपने इन विद्यार्थियों से जुड़े हैं. शहर इलाहाबाद में नाटक और रंगमंच के जरिए इन युवाओं ने अपनी पहचान बनाई है. शिक्षक तो उत्प्रेरक का कार्य ही कर सकता है. बाक़ी सारा कार्य ये ख़ुद ही करते हैं. विभागीय साथी डॉ.अमितेश और डॉ.लक्ष्मण प्रसाद गुप्ता का अपने विद्यार्थियों की संभावित क्षमताओं पर यक़ीन करना और उनके भीतर सीखने की जिज्ञासा को जिलाए रखना अनुकरणीय है. सीखने और कुछ करने की सीमा-रेखा जैसी मिथ्या धारणा को तोड़ती युवाओं की यह पीढ़ी वाकई अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप कर रही है.

नाटक करना केवल मंच पर कुछ संवाद बोल देना भर नहीं होता है. वह हमारी तमाम जड़ताओं को खंडित करता है. जीवन में सहज होने के सूत्र वहां से निकलते हैं. युवाओं के भीतर की तमाम झिझक और बंदिशें तो टूटती ही हैं, साथ में सामाजिक जीवन के कुछ बुनियादी सरोकारों के साथ वे अपने को जोड़ते चलते हैं. यूनिवर्सिटी थिएटर की पूरी टीम को बधाई – शुभकामनाएं ..

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.)

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