हब्शी हलवा | शाही दस्तरख़्वान से अवाम तक

  • 12:29 pm
  • 29 April 2022

रामपुर रियासत के ज़ाइक़ों और दस्तरख़्वान पर इतराने वाले तमाम शहरी नवाबी दौर की जिन चीजों पर अब भी नाज़ करते हैं, हब्शी हलवा सोहन उन्हीं में से एक है. कहने को तो यह मिठाई है मगर बहुतों के लिए दवाई भी है. हकीम का तोहफ़ा जो है!! और हलवे की रेसिपी पर ग़ौर करेंगे तो आपको भी इस बात पर यक़ीन आ जाएगा – समनक (अंकुरित गेहूँ), कई तरह के मेवे, दूध, केसर, केवड़ा और ढेर सारा देसी घी. अब हलवे की तासीर का अंदाज़ा आप ख़ुद लग सकते हैं. रियासत की सरपरस्ती में यहाँ के ख़ानसामों ने कभी शाही दस्तरख़्वान के लिए कितनी ही तरह के ऐसे हलवे ईजाद किए, जो कहीं और न सुने, और न चखे गए – मसलन अदरक का हलवा, नीम का हलवा या मछली का हलवा. और इन सब में जो अव्वल है और अवाम को आसानी से मयस्सर है, और जिसे ‘हलवों का बादशाह’ कहा गया, वह हब्शी हलवा ही है.

इसकी ईजाद यों रामपुर में ही मानी जाती है, हालांकि ईजाद को लेकर कई तरह के क़िस्से चलन में हैं. अफ़गानिस्तान में समनक हलवे की लोकप्रियता से अंदाज़ लगाया जाता है कि इसकी रेसिपी रोहिलों के साथ रामपुर तक पहुंची और फिर ख़ानसामों ने शाही ज़ाइक़े के मुताबिक इसमें बदलाव किए. वक़्त गुज़रा तो लज़्ज़त और सेहत की मिसाल यह हलवा शाही रसोई से निकलकर आम लोगों के बीच आ गया. शहर में नए-पुराने कई ठिकाने हैं. शाहबाद गेट पर हकीमजी हब्शी हलवा सोहन वाले ठिकाने पर मिले सुहैल ख़ान इसकी शुरुआत का श्रेय अपनी दादा अब्दुल हकीम ख़ान को देते हैं.

उनकी दुकान पर लगा बोर्ड हकीमजी के साथ ही सन् 1930 से इसकी शुरुआत की मुनादी भी करता है. बक़ौल सुहैल, नवाब हामिद अली ख़ाँ ने अपने अफ़्रीका के दौरे में जो हलवा खाया था, वह उन्हें इतना पसंद आया कि ख़ानसामां को अपने साथ लेते आए थे. उसी ख़ानसामें से शाही रसाई के बावर्ची ने इसे बनाना सीखा. उनके दादा को यह रेसिपी उसी से मालूम हुई.

हब्शी हलवा कभी सिर्फ़ सर्दियों की मिठाई हुआ करता था मगर अब तो हर मौसम मिल जाता है. और हलवे की दुकानें भी अब सिर्फ़ हलवे की नहीं रही हैं, दुकानों में और मिठाइयों का शुमार भी हो गया है. दुकानदारों को लगता है कि उनके पास आने वालों को अगर और मिठाइयाँ भी ख़रीदनी हों तो एक जगह ही सब मिल जाएं.

सुहैल दिल्ली से एमबीए करके रामपुर लौटे हैं. लॉकडाउन ने उन्हें यह मौक़ा दिया कि अपने शहर में रहकर ही अपना पुश्तैनी काम देखें और उन्होंने इसे चुनौती की तरह स्वीकार कर लिया. उनका मानना है कि हलवे के क़द्रदान बेशुमार हैं मगर सिर्फ़ एक शहर तक सीमित रहने की वजह से इसे अब तक वह पहचान नहीं मिल सकी है, जिसका यह हक़दार है. कहते हैं, ‘मेरी कोशिश है कि रामपुर को चाक़ू से नहीं, हलवे से भी पहचाना जाए, वैसे ही जैसे कि ताजमहल के साथ ही पेठा भी आगरा की पहचान है, मथुरा के पेड़ों की अपनी अलग पहचान है.’ उनकी इस मुहिम का नतीजा है कि रामपुर में बाज़ार नसरुल्ला ख़ाँ के साथ ही उन्होंने कोतवाली के क़रीब और शाहबाद गेट पर तो हकीम जी के ठिकाने बनाए ही, दिल्ली में अब भी दो जगहों पर हकीम जी का हब्शी हलवा सोहन मिलने लगा है.

अब्दुल हकीम ख़ान के बाद उनके बेटे कमाल ख़ान ने हलवे की पहचान बनाए रखी और अब तीसरी पीढ़ी इस काम में जुटी हुई है. उन्होंने हलवे की परंपरागत रेसिपी में प्रयोग करके एक और क़िस्म तैयार की है, जिसमें ढेर सारे नट्स का इस्तेमाल भी होता है. जहाँ भी मौक़ा मिलता है, सुहैल और उनके भाई लोगों को हलवा चखाने में आगे रहते हैं. हुनर हाट में जाते हैं, वहाँ स्टॉल लगाते हैं. इस महीने चंड़ीगढ़ में लगने वाली हुनर हाट में भी जा रहे हैं. ओखला में दुकान की शुरुआत के बारे में सुहैल एक दिलचस्प वाक़या बताते हैं – वहाँ के लोगों को हलवा चखाने के लिए हमने दुकान के बाहर एक छोटा-सा स्टॉल लगाया था. हलवा खाकर आगे बढ़ जाने वाले लोग कुछ दूर चलकर लौट आते, मालूमात करते और फिर ख़रीदकर ले जाते.

ज़ाइक़े के पुराने क़द्रदान बताते हैं कि पुराने दिनों में यह रवादार हलवा ढेर सारे ख़ालिस घी में बना होने के बावजूद ऐसा होता था कि न तो उंगलियों में लगता था और न ही दाँतों में. बाहर से घी का भी अंदाज़ नहीं होता था, हाँ, हलवे में उंगली धंसाने पर घी का पता चलता था. अब इसके स्वाद में थोड़ा बदलाव ज़रूर लगता है. सुहैल बताते हैं कि इसमें घी की मात्रा चीनी के बराबर ही होती है, कई बार ज़्यादा भी और तीन-चार घंटे तक लगातार फेंटने-पकाने के बाद ही इसमें लज़्ज़त पैदा होती है. इसी वजह से हलवे में एक और ख़ूबी यह पैदा होती है कि इसे लंबे तक समय तक सहेजा जा सकता है. फ़्रिज में रखने की ज़रूरत नहीं, बाहर रखने पर भी इसका स्वाद ख़राब नहीं होता.

नए ज़माने में हलवे के नाम को लेकर जब-तब होने वाली बहसों के बारे में सुहैल की बात पर यक़ीन करें तो नवाब अपने साथ अफ़्रीका से ख़ानसामां लाए थे और उसके बनाए हलवे को उसके साथ जोड़कर पहचाना गया. आज के इथियोपियो के क़रीब कभी अल-हबश नाम का मुल्क हुआ करता था, जहाँ के लोगों को हब्शी कहा जाता था. लफ़्ज़ ‘हब्शी’ पर रेख़्ता डिक्शनरी में दिए मायने ग़ौर करने लायक़ हैं – हबश का निवासी. देश का निवासी जिसका रंग काला होता है (आजकल इसका प्रयोग निषिद्ध है). एक ऐसा अंगूर जो बड़ा और काला होता है.

ज़ाहिर है कि हलवे ने अपनी रंगत की वजह से नहीं, इसके बनाने वाले से अपनी पहचान पाई थी तो इसका नामकरण करने वाले लोक का इरादा ख़ालिस पहचान का ही रहा होगा, रंग या नस्ल भेद का तो हरगिज़ नहीं. और कम से कम हलवे के मुरीद तो इसमें ज़ाइक़े के सिवाय कुछ और तलाश नहीं करते.

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