महकूमी का दर्द, नाटक पुर-असर

  • 5:05 pm
  • 28 January 2022

नाटक देखना और उसकी अनुभूति लिए हुए लौट जाना सहज है. नाटक देख आने के बाद उसके बारे में विस्तार से बात करने का रिवाज़ आम नहीं. गणतंत्र दिवस की शाम को प्रयागराज में हुए नाटक के बारे में यह रिपोर्ट एक दर्शक की प्रतिक्रिया है. इसे पढ़ना दर्शक दीर्घा में बने होने जैसा सुख देता है.

हारमोनियम पर थिरकती उँगलियों और समूह के सस्वर संगीत ने झुरझुरी-सी पैदा कर दी. गीत था-

“तेरी जानिब उठी जो कहर की नज़र
उस नज़र को झुका के ही दम लेंगे हम..
ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी क़सम
तेरी राहों मैं जाँ तक लुटा जायेंगे
ऐ वतन ऐ वतन…”

नाटक का मंचन हो रहा था. दो दृश्यों को संपृक्त करती इस गीत की धुन उसमें अद्भुत मिठास घोल रही थी. गीत की रुकती स्वर लहरी के साथ ही क्रांतिकारियों की महत्ता उजागर करता हुआ एक सवाल दागा गया – “क्या हम भी क्रांतिकारियों की तरह अपना स्कूल, कॉलेज, कॅरिअर, परिवार और प्राणों का मोह छोड़कर क्रांतिकारी बन सकते हैं?” यह एक ऐसा सवाल था जो दर्शकों को यह सोचने पर विवश करता है कि आज़ादी के संग्राम में अपनी जान गंवा देने वाले क्रांतिकारियों को क्या नकार के भाव से स्वीकार किया जाना चाहिए या फिर उनके योगदान पर गहन विचार कर उनको अधिक महत्ता दी जाए.

‘कौन आज़ाद हुआ’ नाटक यूनिवर्सिटी थिएटर ने मंचित किया. यह एक ऐसा नाटक था, जिसने एक साथ अनेक उद्देश्यों और जनसामान्य के बीच उलझे अनेक सवालों और उनके जवाबों को प्रस्तुत किया. विशेष रूप से क्रांतिकारियों के योगदान और आज़ादी के संघर्ष में उनके द्वारा अपनाए गए तरीक़ों पर सवाल करने वाले लोगों को उनके भले इरादों से अवगत कराना इस नाटक के केंद्र में रहा, किन्तु इसके साथ ही अन्य कई आयाम समाहित करने और मंचन में प्रयुक्त रचनात्मक तरीकों ने इसे विशिष्ट बना दिया.

भगत सिंह के क्रांति के समर्थन और गांधी जी द्वारा अहिंसा की महत्ता बताए जाने जैसी दोनों भावनाओं को इस नाटक में स्थान दिया गया. नाटकीय मंचन ने किसी एक के वैचारिक पक्ष की ओर न झुकते हुए सन्तुलित दृष्टि अपनाई. नाटक के किरदारों सान्याल और नेहरू की बातचीत में भी यही नज़रिया बना रहा. इन दृश्यों को देखते हुए कहीं से नहीं लगा कि किसी एक विचार को दूसरे पर थोपा जा रहा हो.

क्रांतिकारियों की गतिविधियों की झाँकी के क्रम में कई घटनाओं का ज़िक्र किया गया. जहाँ काकोरी में ट्रेन लूटने की योजना बनाने, असेंबली में बम फेंकने तथा ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ के भाव को उसके सही संदर्भ में बताया गया, वहीं उनके जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातें भी नाटक में शामिल की गई. बताया गया कि क्रांतिकारियों ने काकोरी में ट्रेन से ख़जाना अपनी गतिविधियों के लिए रक़म जुटाने भर से इरादे से लूटा था; किसी को नुकसान पहुँचाना उनका उद्देश्य हरगिज़ नहीं था. अपने कुछ क्रांतिकारी साथियों की बदले की भावना को देखते हुए बिस्मिल तब तक नेतृत्व करने को तैयार नहीं हुए, जब तक उन लोगों ने यह विचार त्याग नहीं दिया.

ऐसे ही असेंबली में भी बम फेंकने का असली मक़सद अंग्रेज़ी हुकूमत को अपनी बात सुनने के लिए बाध्य करना था, न कि उन्हें क्षति पहुँचाना. नाटक में क्रांतिकारियों के किरदारों ने अराजक नारे के रूप में स्वीकार किए जाने वाले ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ का मतलब समझाते हुए बताया था कि इस नारे और क्रांति का मतलब केवल सशस्त्र संघर्ष और ख़ूनख़राबा नहीं है; इसका असली अर्थ परिवर्तन की भावना और लोक आकांक्षा है. भगत सिंह के किरदार ने क्रांति का उद्देश्य बताते हुए कहा कि “यह जनता द्वारा शासकों से लिया गया न्यायोचित बदला होगा. कायरों को पीठ दिखाकर समझौता और शान्ति की आशा से चिपके रहने दीजिए. हम दया की भीख नहीं मांगेंगे.”

नाटक में इस बात का भी ज़िक्र आया कि हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के नाम में ‘सोशलिस्ट’ शब्द क्यों जोड़ा गया. इसके पीछे मंशा थी कि केवल आज़ादी पा लेना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि आज़ाद मुल्क में सभी के लिए समानता का वातावरण पैदा करना भी बेहद ज़रूरी है. यह भावना इस शब्द से अधिक स्पष्ट होती थी.

ऐसे ही क्रांतिकारियों के तमाम कामों के पीछे छिपी असली भावना से परिचित कराते हुए उनके निजी जीवन की विनोदी बातों के प्रसंग भी नाटक में आते रहे ; मसलन चंद्रशेखर आज़ाद का गोविंद प्रकाश के कहने पर पार्टी के लिए धन का इंतज़ाम करने के उद्देश्य से ज़ायदाद पाने के चक्कर में किसी बूढ़े महंत के यहॉं कुछ दिन रहकर वापस भाग आना तथा राजगुरु का किसी महिला की सुंदर तस्वीर का दीवार पर लगा देना और आज़ाद का उसको वहॉं से हटा देने के प्रसंग.

आज़ाद के वह तस्वीर हटा देने पर उन दोनों के बीच हुए संवाद उनकी विनोदी प्रवृत्ति का प्रमाण देती हैं-
राजगुरुः “इतनी ख़ूबसूरत तस्वीर तो थी.”
आज़ादः “हमको-तुमको ख़ूबसूरती से क्या मतलब?”
राजगुरुः “जो भी ख़ूबसूरत होगा, उसे तोड़ डालेंगे, फाड़ डालेंगे?”
आज़ादः “हाँ, तोड़ डालेंगे.”

एक सवाल “ऐसा हो सकता है कि भगत सिंह, सुखदेव और आज़ाद वाला पार्ट कोई लड़की करे” के साथ ही स्वतन्त्रता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को भी उजागर करने का प्रयास किया गया. इतिहास के पन्नों में गुमनाम-सी हो गईं क्रांतिकारी दुर्गादेवी का ज़िक्र करते हुए इस बात को प्रश्नांकित किया गया कि क्या उन्हें केवल उनके क्रांतिकारी पति भगवतीचरण बोहरा या फिर उनके एच.एस.आर.ए. से जुड़े होने के कारण ही जाना जाए, क्या उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कहने को कुछ नहीं है, क्या आज़ादी के बाद अन्य अनेक क्रांतिकारियों का योगदान विभिन्न माध्यमों से उजागर होने के बाबजूद उनके संघर्ष का गुमनाम हो जाना ठीक है?

वो तो एक स्त्री थीं. उन्होंने तो क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ-साथ परिवार की ज़िम्मेदारी भी सँभाली. एक वाक़ये का ज़िक्र आया कि कैसे लाहौर से कलकत्ता की रेल यात्रा करते हुए उन्होंने अपनी और अपने बच्चे की जान ख़तरे में डाली थी. इस संवाद ने उनके दृढ़ इरादों को और भी मुखर किया, “कोई माँ नहीं चाहेगी कि उसके बच्चे पर कैसा भी ख़तरा हो.”

आज़ादी के संघर्ष में महिलाओं के योगदान को उजागर करने की इस कड़ी में रामप्रसाद बिस्मिल की माँ का भी ज़िक्र आया. बिस्मिल के क्रांतिकारी बनने के बाद उनकी ज़िंदगी में आई मुश्किलों-तकलीफ़ों की तफ़्सील है – धन के अभाव में अपने पुत्र रमेश की बीमारी से मृत्यु के साथ ही पति के भी इस दुनिया से चले जाने के बाद लोगों के आक्षेप सहते हुए और कौड़ी-कौड़ी के लिए तरसते हुए उनकी बाक़ी की ज़िंदगी बड़े ही कष्टों में गुज़री. नाटक का एक संवाद ने बड़े ही मार्मिक ढंग से इसे वास्तविक स्थिति के और नज़दीक ला दिया – ” पुत्र खोया, लाल खोया; अंत में बचा था नाम, वो भी चला गया.”

पूरे उत्साह से संव्यक्त संवाद और संगीत के मध्य नाटक के पात्रों का अपने किरदार से इतर सामान्य बातचीत की शैली अपनाने ने नाटक को और पुरअसर बना दिया. बिल्कुल नए अंदाज़ में नाटक से रूबरू कराने की इस शैली ने शुरुआत में दर्शकों को अचंभित कर दिया. शुरुआत में एक पात्र के अंग्रेज़ी बोलते हुए अटक जाने के बाद शुरू हुई सहज वार्ता तथा बाद में भगत सिंह का किरदार निभा रहे पात्र का एक सवाल से रूठकर चले जाने के साथ ऐसा लगा मानो वास्तव में ये नाटक से अलग कोई अंश है, जो सामान्य बातचीत के रूप में सम्पन्न हो रहा है. हुआ कुछ यूँ था-
भगत सिंह का किरदार कर रहा पात्र (प्रिंस) – “अपने अमितेश सर से कह दीजिएगा कि कोई दूसरा भगत सिंह ढूंढ लें.”
प्रश्न पूछने वाली पात्र – “इतने नखरे हैं; नाम प्रिंस है, ख़ुद को प्रिंस ही समझने लग गया है, गधा कहीं का.”

हालाँकि नाटक के बीच में कुछ अन्य जगहों पर भी ऐसी ही सहज बातचीत ने मुझे बाद में आश्वस्त किया कि ये प्रसंग भी नाटक का ही हिस्सा है. यह पात्रों की एक अलग ही सफलता थी. ऐसे ही तमाम संवादों ने देखने वालों को हँसाया, गुदगुदाया और नाटक के गम्भीर सवालों-जबाबों को समझने के लिए फिर से तैयार किया. ऐसे ही नाटक के बीच में सहजता से आ जाने वाले अन्य संवाद में कुछ जो याद रह गए हैं –
भाई, मैंने सर से पहले ही कहा था कि इन पढ़ाकू बच्चों को ग्रुप में न लें; ये न रिहर्सल करने देंगे, न नाटक होगा इधर.”
क्या यार, जब भी अपने कैरेक्टर पर आता हूँ, तुम इसी तरह बीच में नोंक-झोंक कर देती हो.’

अगर नाटक के बीच-बीच में पिरोए गए संगीत की बात करें तो यही कहना होगा कि संगीत ने नाटक में अनंतिम उत्साह पैदा किया. हारमोनियम की मीठी धुन और ढोलक की थापों के बीच गीतों के सस्वर गायन ने दर्शकों में अपूर्व स्मिति व ताज़गी को बनाए रखी. गीतों ने अपने आप में भी नाटक की तरह ही एक सन्देश गढ़ा. ‘कौन आज़ाद हुआ’ जैसी हृदय में भावों को उद्वेलित करने वाली नज़्म ने नाटक के निहितार्थ को सहजता से पूर्ण करने में महती भूमिका निभाई; जैसे-

किसके माथे से ग़ुलामी की सियाही छूटी?
मेरे सीने मे दर्द है महकूमी का
मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही
कौन आज़ाद हुआ
?”

साथ ही ‘सरफ़रोशी की तमन्ना….’, ‘ये किसका लहू है कौन मरा…’, ‘जागा रे जागा रे सारा संसार..’ और’ऐ वतन ऐ वतन..’ जैसे गीतों ने समाँ बाँध दिया. यह गीतों का ही असर है कि मैं सहज ही दो-चार और भी पँक्तियों का उल्लेख करने से ख़ुद को नहीं रोक पा रहा हूं –

सरफ़रोशी की तमन्ना,अब हमारे दिल में है.
देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है?
वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है
…”

ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी क़सम
तेरी राहों मैं जां तक लुटा जायेंगे
फूल क्या चीज़ है तेरे कदमों पे हम
भेंट अपने सरों की चढ़ा जायेंगे
…”

ऐ रहबरे-मुल्को-कौम बता
आँखें तो उठा नज़रें तो मिला
कुछ हम भी सुने हमको भी बता
ये किसका लहू है कौन मरा
…”

आया जमाना ये अपना जमाना, अपना जमाना
किस्मत का रोना ये गाना पुराना, गाना पुराना
बदलेंगे हम अपने जीवन की नदिया की धार
जागा रे जागा रे जागा सारा संसार
…”

पेड़ की शाख से लटकते रस्सी के फंदों, दीवार पर लगे काले पर्दे, पर्दे की तरफ़ मुँह किए खड़े और संगीत की लहरियों पर किरदारों के बैठने वाले बॉक्सों को लेकर क़दमताल करते पात्रों ने नाटक को पूर्णता प्रदान की. हर पात्र की वेशभूषा कुर्तों, टोपियों और धोतियों से सजी थी. हैट लगाए भगत सिंह, धोती पहने सान्याल और कुर्ते में आज़ाद, बिस्मिल और अशफ़ाक़ ने अलग ही आभा बिखेरी. बिस्मिल की माँ की भूमिका करते हुए द्वैध किरदार निभाने की कला अपूर्व थी. एक-एक प्रसंग को बताने के लिए अलग-अलग पात्र के आने ने नाटक की प्रवाहमयता को बनाए रखा. किसी प्रसंग को एक सवाल से शुरू करना और प्रसंग में उसके जबाब को शामिल करना काफी रोचक रहा.

स्वराज विद्यापीठ के शांत परिसर में कौतूहल-पूरित होकर बैठे दर्शकों, उनकी तालियों और नाटकीय गति का अनुसरण करते उल्लास, स्मिति और गम्भीरता के बीच इस नाटक को देखना बहुत सुखद रहा.

सम्बंधित

कौन आज़ाद हुआ | क्रांति के नायकों की याद


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.