अपने घर जैसा | इंसानी नफ़्सियात का कोलाज
अगर कोई रचना कालजयी कहलाती है तो उसकी बहुतेरी ख़ूबियों में इंसानी नफ़्सियात और फ़ितरत पर पकड़ का शुमार ज़रूर होता है. काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद के हवाले से इंसान की सारी नफ़्सियात ज़ाहिर नहीं होतीं, सभ्य होने के क्रम में उसने जो कुछ हासिल किया है, श्रेष्ठता और हीनता का बोध उनमें सबसे ऊपर है, ज़माने के साथ बदलती हुई ज़िंदगी ने इस बोध पर कोई ख़ास असर नहीं डाला है.
अनमोल वेल्लानी का नाटक ‘अपने घर जैसा’ इंसान के मनोविज्ञान के ऐसे कितने ही पहलुओं को उजागर करता है, यह नाटक हमारे बुनियादी किरदार की परछाइयों का कोलाज रचता है, जिस पर जहाँ-तहाँ मोह, ममता, स्वार्थ और श्रेष्ठता के छीटें हैं. श्रेष्ठता का वही बोध जो कई बार कोमलता के हमारे बुनियादी स्वभाव और हमारे विवेक को कट्टरता की मोटी चादर से ढाँक देता है. बेरी बेरमांगे के 1967 के अंग्रेज़ी नाटक ‘ओल्डेनबर्ग’ से प्रेरित ‘अपने घर जैसा’ हमारे समय और समाज के गूढ़ मनोविज्ञान को बड़ी शाइस्तगी से परत दर परत उधेड़ता है.
इसे देखते हुए ज़ेहन में कितने ही वाक़ये और कितनी ही तस्वीरें उभरती रहती हैं. मुझे तो कुंभ मेले के दिनों में बदरा सोनौटी में डेरा डाले हिप्पियों की जमात की वह लड़की भी याद आई, जिसने गाँजा भरकर सिगरेट मेरी ओर बढ़ाई थी और मेरे इन्कार करने पर उसने बड़ी हिकारत से कहा था, ‘यू आर लॉट माई काइंड यार’ और झटके से उठकर चली गई थी. सिएटल में जाह्नवी कंडूला की मौत पर ठहाका लगाकर हँसने वाले पुलिस अफ़सर का ख़्याल आया और हाल के वर्षों में महानगरों में मकान बेचने या किराये पर देने वालों के पूर्वाग्रहों का बखान करने वाली ख़बरें भी दिमाग़ में घूम गईं. इंसानी पक्षधरता का मुखौटा अपनी जगह और अपनी श्रेष्ठता, नस्लीय श्रेष्ठता का बोध अपनी जगह, जब जहाँ जैसे जिसकी ज़रूरत पड़ जाए.
नाटक का केंद्रीय तत्व यही है – ‘वह हम जैसा तो नहीं है, हम में से नहीं है’. केंद्रीय भूमिका में पद्मावती राव के किरदार का सारा द्वंद्व यही है. उन्हें अपने घर रहने के लिए आने वाले पेईंग गेस्ट का इंतज़ार है, जिससे फ़ोन पर हुई बातचीत के हवाले से उनके पति ने बताया था कि बहुत शालीन लड़का है. उसकी अगवानी की तैयारी और उसके लिए अपने बेटे का कमरा दुरुस्त करते हुए उस मेहमान के प्रति ममता और दुलार का भाव एक झटके से तिरोहित हो जाता है, जब वह उसके नाम पर जाकर अटक जाती हैं – शकीन. यह भला कैसा नाम हुआ! नाम से मराठी तो नहीं लगता है. उसे अपने बेटे की तरह घर में कैसा रखा जा सकता है?
घंटे भर का यह नाटक अनमोल वेल्लानी ने उसी उधेड़बुन और उन्हीं सवालों के गिर्द बुना है, जिससे चाहे-अनचाहे हम सभी अक्सर टकराते हैं. ऐसा भी नहीं कि समाज ऐसे द्वंद्व से पार पाने लायक़ विवेक से ख़ाली हो, मगर दिमाग़ पर पड़ा वह पर्दा जो अपनी उच्चता के आगे बाक़ी को कमतर समझने पर मजबूर किए रहता है, ख़ासा मज़बूत हो चला है. नाटक के निर्देशक भी वही हैं. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि ऐसे पूर्वाग्रह एकदम नए नहीं हैं, हमारे समाज में तो यह हमेशा से ही मौजूद रहे हैं. वर्ण-व्यवस्था वाले हमारे समाज में जातीयता और छूत-अछूत की रूढ़ियाँ अब भी हमारा पीछा करती हैं.
‘अपने घर जैसा’ का मंचन 13 सितंबर को बंगलौर इंटरनेशल सेंटर में हुआ. इससे पहले इस नाटक के कई शो हो चुके हैं.
फ़ोटो | सोशल मीडिया से
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