विंडरमेयर रंग उत्सव | लफ़्ज़ जो बोले जा चुके हैं, हमेशा रहेंगे
बरेली | पिछले तीन दिनों में तमाशा थिएटर के चार नाटक देखे हैं और हर बार थिएटर से बाहर निकलते हुए रविश सिद्दीक़ी का वह शेर ज़ेहन में गूंजता – किस से पूछें तिलिस्म-ए-हस्ती में/ हम तमाशा हैं या तमाशाई.
रंग विनायक रंगमंडल की ओर से विंडरमेयर में आयोजित ‘रेट्रोस्टपेक्टिव सुनील शानबाग’ में शामिल होना सिर्फ़ नाटक देखना नहीं था, एक दर्शक के तौर पर यह ख़ुद से मुलाक़ात भी थी, मंच पर आ रहे कलाकारों को देखते हुए, उन्हें सुनते हुए लगातार अपने अंतस में झांकने की यात्रा थी, उस मौन से साक्षात भी था जो हमने तब अख़्तियार कर रखा है, जब हमसे बोलने की उम्मीद की जाती है. और यह बात तो पूरे यक़ीन से कह सकता हूँ कि ऑडिटोरियम से बाहर आने वाला हर शख़्स वही नहीं था, जो अंधेरे में डूबे मंच को देखते हुए ऑडिटोरियम में दाख़िल होते वक़्त था.
‘स्टोरीज़ इन अ साँग’ की प्रस्तुति के लिए सुनील छह बरस पहले विंडरमेयर आए थे. वह नाटक देखने के पहले तक मेरे जैसे लोगों के लिए उनके नाम का ज़िक्र ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ या ‘यात्रा’ देखते हुए टेलीविज़न स्क्रीन पर स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर चमकने वाला नाम भर था. यह ‘स्टोरीज़ इन अ साँग‘ का ही असर था कि उनके नज़रिये और काम के बारे में ज़्यादा जानने-समझने की जिज्ञासा जागी, ख़ासतौर पर नाटक तैयार करने से पहले उनकी रिसर्च के तौर-तरीक़े में. इतवार को इस बारे में विस्तार से बातचीत के लिए उन्होंने समय दिया भी था, मगर बारिश ने कुछ ऐसा माहौल बना दिया कि घर से बाहर निकलना तक मुमकिन न हुआ – तमाशा-गाह-ए-जहाँ में मजाल-ए-दीद किसे…
दिन भर इस मलाल में गुज़रा कि शाम को भी विंडरमेयर न पहुंच सका तो! नाटक के वक़्त से पहले डॉ. ब्रजेश्वर सिंह के फ़ोन ने कुछ ऐसा कर दिया कि पहुंच ही गया. विंडरमेयर पहुंचकर देखा तो लोग वहाँ रोज़ की तरह ही जुटे हुए थे. मौसम ने शहर पर जो क़हर ढाया था, उसकी कोई परछाईं नाटक देखने वालों में नहीं दिखाई देती थी.
दूसरे दिन के नाटक की वीडियो रिपोर्ट देखकर शहर से दूर रहने वाले एक बरेलवी ने अपनी राय दी थी कि ऐसे नाटक देखकर उसे समझने में बरेली वालों को अभी लंबा वक़्त लगेगा. मैं सोच रहा था कि काश वह यहाँ होते और यह मंज़र ख़ुद देख पाते. वसुधा से मिल पाते तो वह अपनी यह राय ज़रूर बदल देते, जिसने ज़िंदगी में पहली बार नाटक देखा था और पहले दिन जो दूसरे नाटक के लिए तब भी रुकी रहीं, जब उनकी माँ को किसी ज़रूरी काम से घर लौटना पड़ा. दूसरे दिन वह फिर नाटक देखने आईं.
‘तमाशा थिएटर’ की ये प्रस्तुतियाँ कोई एक कहानी या एक मौज़ूँ नहीं हैं, किसी एक ज़बान में भी नहीं हैं. ये तो थिएटर के स्पेस की तरह अपरिमित हैं, असीमित – हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, बंगाली, उड़िया, कन्नड़ और कोंकणी में कहानी, कविता, ख़त, ख़बरें, डायरी, नाट्य-अंश, कजरी, ठुमरी, भक्ति, सूफ़ी और लोक संगीत का समुच्चय हैं. ये प्रस्तुतियाँ भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता और भारतीयता का उत्सव हैं, अल्फ़ाज़ की हुरमत का जश्न हैं, हिंदुस्तानी मानस की अना की आवाज़ हैं. ये प्रस्तुतियाँ हमारे समय की परछाइयाँ हैं, सवाल हैं, विमर्श हैं. और चूंकि यह सब मंच पर घटित होता है, तो ज़ाहिर है कि रंगकर्मियों के अनुभव-कौशल, उनकी मेहनत और उनके नज़रिये का आइना भी हैं.
नाटकों के थोड़े-बहुत प्रसंग मैंने रिकॉर्ड किए. यह दरअसल उनके लिए था, जो ऑडिटोरियम में मौजूद नहीं थे. मगर जितनी देर तक मैं अपने कैमरे के स्क्रीन में झांक रहा होता था, फ़्रेम के बाहर की दुनिया छूट जाने का अफ़सोस भी करता. आप कितना भी पैन या टिल्ट करें, किसी कैमरे का फ़्रेम थिएटर के उस पूरे स्पेस को कहाँ देख-दिखा पाता है, जहाँ ज़रूरत पड़ने पर अक्षौहिणी सेना समा जाती है, जहाँ बैठे-बैठे आप ईरान-तूरान तक हो आते हैं. पल भर पहले उमर ख़ैयाम के मुक़दमे का क़िस्सा सुनते हुए पैदा हुई कसक और ‘लिहाफ़’ को लेकर लाहौर में मुक़दमे के इस्मत चुग़ताई के बयान से पैदा गुदगुदी में जम्हूरियत से भूख के सवाल की कचोट आ मिलती है. अहसास की ज़मीन पर इसे न तो लिखकर बयान किया जा सकता है और न ही कैमरे की मार्फ़त साझा किया जा सकता है. इसे महसूस करने के लिए तो ऑडिटोरियम में मौजूदगी ज़रूरी थी, जब ये सारे किरदार मंच पर अपना बयान दर्ज करा रहे थे.
बहुत मुख़्तसर कहना हो तो ये हमारी दुनिया का तमाशा हैं, ऐसा तमाशा जिसमें से कुछ हम देख और महसूस कर पाते हैं, कुछ अनदेखा और अनकहा भी छूट जाता है और जिसकी टीस लिए हम लौट आते हैं. और नाटक में इस्तेमाल हुई लाल सिंह दिल की वह कविता ज़ेहन में नक़्श रह जाती है,
वर्ड्स हैव बीन अटर्ड
लाँग बिफ़ोर अस
एण्ड विल बी
लाँग आफ़्टर व्ही आर गॉन
चॉप ऑफ़ एवरी टंग
इफ़ यू कैन
बट द वर्ड्स विल स्टिल
हैव बीन अटर्ड.
लफ़्ज़ जो बोले जा चुके हैं, हमेशा रहेंगे, इस क़ायनात के रहने तक.
कवर कोलाज | prabhatphotos
सम्बंधित
रेट्रोस्पेक्टिव | सुनील शानबाग के चार नाटक
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