रिपोर्ट | एनसीज़ेडसीसी में ‘कौन आज़ाद हुआ’ का मंचन

आज़ादी के अमृत महोत्सव के इस वर्ष में देश अलग-अलग तरह से अपनी आज़ादी की स्मृतियों को ताज़ा कर रहा है. भिन्न-भिन्न रूपों में आज़ादी की याद सामने आ रही है. अतीत की स्मृतियों से गुज़रना सिर्फ़ इतिहास के पन्ने पलट लेना भर नहीं है बल्कि उसके लिए इतिहास दृष्टि का होना ज़रूरी है. ज़ाहिर है कि यह दृष्टि इतिहास की नहीं बल्कि हमारे अपने समय की होगी, जिसके जरिए हम इतिहास की यात्रा करते हैं. पिछले दिनों उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र (एनसीज़ेडसीसी) इलाहाबाद के ऑडिटोरियम में आज़ादी के अमृत महोत्सव और केंद्र की मासिक नाट्य योजना के अंतर्गत ‘यूनिवर्सिटी थिएटर’ की प्रस्तुति ‘कौन आज़ाद हुआ’ का मंचन हुआ. इलाहाबाद में लंबे समय के बाद इतने दर्शकों के साथ किसी नाटक की इस तरह की प्रस्तुति को देखने का मौक़ा मिला. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्राध्यापक डॉ.अमितेश कुमार के निर्देशन में विद्यार्थियों ने यह नाटक प्रस्तुत किया.

यह नाटक नायक विहीन है. पूरे नाटक में मुख्य पात्र की खोज करना व्यर्थ है. सारा ज़ोर इस बात पर दिया गया जान पड़ता है कि नाटक में व्यक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण विचार हैं. अली सरदार जाफ़री के संगीतबद्ध अशआर दर्शकों को कुछ इस तरह बांधते हैं कि नाटक में बहस के विषय के बीच इस बात का अहसास लगातार बना रहता है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद देश में जिस तरह की सामाजिक और राजनैतिक हकीक़त है, क्या उसकी तासीर में आज़ादी के लिए मर मिटने वाले शहीदों के एक आज़ाद मुल्क के लिए देखे गए सपनों की ख़ुशबू भी शामिल है?

समूची परिकल्पना में यह नाटक आज़ादी के कुछ मूल्यों को सामने रखता है. जो सिर्फ़ अतीत के हिस्से की चीज़ भर नहीं हैं बल्कि जिनसे आज की हमारी राजनीति और समाज को देखने की दृष्टि प्रभावित होती है. आज भी आज़ादी के संघर्ष की अनेक धाराओं में से प्रमुख दो – क्रांतिकारी धारा और गांधीवादी धारा के बीच प्रचलित संवादहीनता की स्थिति को यह नाटक इतिहास के तथ्यों के सहारे दर्शकों के ज़ेहन में बात उतारने में सफल होता है कि आज़ादी के आन्दोलन में कम से कम आज की तरह की संवादहीनता तो नहीं ही थी. मुल्क़ की आज़ादी की खोज के रास्ते अलग थे पर देश एक था और अपने सपनों को साकार करने की दिशा में लगे सारे लोग संवादधर्मी थे.

गांधी के साथ भगत सिंह जैसे कुछ क्रांतिकारियों के बारे में फैले भ्रम को भी यह नाटक तोड़ता है. इन दोनों धाराओं के बीच असहमति थी ही नहीं. इतिहास को इस नज़र से देखने की अपनी दिक्कतें हैं और नाटककार इतिहास को इतना रोमांटिक नहीं बनाता है बल्कि वह ऐतिहासिक साक्ष्यों के सहारे मंच पर यह दिखाने की कोशिश में करता है कि विचारों की असहमति के हिस्से में सिर्फ़ संवादहीनता ही नहीं होती बल्कि उसके बीच से ही संवाद की गुंजाइश निकलती है. यह केवल इतिहास की बात भर नहीं है बल्कि नाटककार अपने वर्तमान में भी ऐसी संभावना का संकेत करता चलता है. नेहरू और सान्याल के बीच बातचीत के दृश्य को भी हमें इतिहास की अपनी प्रचलित व्याख्या में विरोध के रूप में न देखकर क्रांतिकारियों के नेहरू पर यक़ीन के रूप में देखा जाना चाहिए.

दर्शक नाटक देखने के बाद जब रंगशाला से बाहर निकलेगा तो उसे कुछ निष्कर्ष मिल जाएगा, यह न तो नाटक की परिकल्पना में है और न ही मंचन के दौरान निर्देशक ऐसा कोई संकेत करता है. लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन क्रांतिकारियों को आम तौर पर लोग अराजक और गांधीवादी रास्ते के विरोधी के रूप में देखते हैं, नाटक में उसकी एक व्याख्या दिखाई पड़ती है. क्रांतिकारी आन्दोलन में अराजकता की प्रचलित अवधारणा के बरक्स एक व्यवस्था और गांधी के विचारों के साथ उनका एक व्यावहारिक रिश्ता भी पूरे नाटक में संकेतित होता चलता है. किसी को यह लग सकता है कि यह गांधी के प्रभाव को क्रांतिकारियों पर आरोपित करने की कोशिश की गई है पर नाटक में इसका संकेत कहीं नहीं है. पूरे नाटक में कारतूस पर किताबें भारी पड़ती है. क्रान्तिकारियों के जीवन का यह एक ऐसा पक्ष नाटक में संकेतित है जो उनके प्रति इस प्रचलित नज़रिये को तोड़ता है जिसमें आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी अक्सर यह कह दिया जाता है कि ‘भारतीय स्वाधीनता के आन्दोलन में यह धारा अराजक थी.’

नाटक ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे आगे बढ़ता है पर पात्रों के बीच संवाद जब बोझिल होने को होता है, तभी निर्देशक पात्रों की बातचीत में कुछ इस तरह के संवाद की गुंज़ाइश की खोज करता है, जहाँ से दर्शकों के बीच यह बात चली जाती है कि वे नाटक कर रहे हैं. नाटक के बीच में अचानक से भगत सिंह का नाटक छोड़कर चले जाना और यह कहना कि “अमितेश सर से कहना कि कोई दूसरा भगत सिंह ढूढ़ लें.” मंच पर केवल पात्रों की आपस में की गई चुहलबाजी भर नहीं है. नाटक में यह एक प्रयोग है और इस प्रयोग की अपनी सीमा होती है. पात्रों के इस तरह के संवाद दर्शकों की एकरसता को तो तोड़ते हैं पर इनसे नाटक की मूल भावना खंडित होने का डर भी रहता है. इसे निर्देशक बख़ूबी समझता है.

ऐतिहासिक घटनाओं और विचारों की नाट्य प्रस्तुति का एक ख़तरा यह होता है कि नाटक कहीं संभाषण की शैली में किया जाने वाला एकालाप न बन जाए, विचार कहीं खुद ही उन स्थितियों के साथ बहस न करने लगे जहाँ से नाटक की निर्मिती के सूत्र निकलते हैं. विचारों और स्थितियों के बीच द्वंद्व की खोज को रंगमंच पर लाना और फिर संवाद और अभिनय की भाषा के जरिए दर्शक के जेहन में बहस को इंजेक्ट कर देना बड़ा काम होता है. इसके लिए ज़रूरी होता है कि नाटक की भाषा बोलचाल की होते हुए भी सांकेतिक ध्वनियों से लैस हो, जिसमें मंचीय स्थितियों के ज़रिए नाटक की अनुभूति सहजता से हो सके. अपनी नाट्य प्रयोगशीलता में नाटककार और निर्देशक काफी दूर तक इसमें सफल हुआ है. ज़ाहिर है कि पात्रों की संख्या ज्यादा होने के चलते मंच के नियोजन और दृश्यों के साथ उनके तालमेल में निर्देशक को काफी मशक्क़त करनी पड़ी होगी लेकिन नाटक मंच पर उपस्थित हुआ तो उसमें बिखराव कहीं नहीं था.

नाटक के पात्र पहली बार मंच पर आ रहे हैं या मंजे हुए अभिनेता-अभिनेत्री हैं, इस तरह की मनोदशा के साथ दर्शक थिएटर में नहीं जाता बल्कि जो कुछ मंच पर घटित होता है उन्हीं स्थितियों के साथ नाटक और नाटक की प्रस्तुति पर अपनी राय कायम करता है. शायद यह बात भी निर्देशकीय कल्पना का हिस्सा है इसलिए यहाँ हर चीज़ को न तो प्रयोग बताया जा रहा है और न ही जरूरी नाट्य प्रयोगों से गुरेज़ ही किया जा रहा है. इस नाटक को खुले मंच पर करना और ऑडिटोरियम में करना – दोनों ही स्थितियों में प्रयोग की अनेक सार्थक युक्तियों की संभावना निर्देशक की परिकल्पना में शामिल है. पात्रों के लिए वे संवाद ज़रूर लंबे हो गये हैं पर दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों को इससे कोई ऊब नहीं होती है. संगीत का संयोजन केवल पार्श्वसंगीत तक नहीं है बल्कि वह मंचन पर अभिनय का एक अभिन्न हिस्सा बनकर सामने आता है. इस तरह पूरे नाटक के दौरान गायन की टोली संगीत के जरिए रिक्त की पूर्ति भर नहीं करती है बल्कि मंच पर हो रही गतिविधियों में उसका सार्थक हस्तक्षेप है. संवाद और भंगिमा दोनों रूपों में. जो लोग नाटक में संगीत को सिर्फ पार्श्व ध्वनि संकेत के रूप में देखने और सुनने के आदी हैं, यह नाटक उनकी इस धारणा में भी बदलाव करता है.

थियेटर में जाने के वक़्त एक पर्चा दर्शकों के हाथ आया, जिसमें नाटक के बारे में नाटककार और निर्देशक की टिप्पणी छपी हुई है. इससे हम सहमत हों यह ज़रूरी नहीं है लेकिन नाटक के बारे में कोई राय बनाने के पहले मंच पर जो कुछ घटित होता दिखाया गया, उसे पर्चे के निर्देशकीय वक्तव्य के साथ जोड़कर देख लेने में कोई गुरेज नहीं करना चाहिए. ख़ासतौर पर नाटक देखने के क्रम में जब इतिहास के कुछ प्रचलित पहलुओं पर प्रश्न बनने लगें. तमाम और बातों के साथ इस पर्चे का निर्देशकीय वक्तव्य है – “हमारा ध्येय यह देखना है कि भारत का क्रान्तिकारी आन्दोलन कैसा था?…हम कहीं पहुँचना नहीं चाहते बल्कि हम अपने अतीत के सामने रखकर अपने ही उलझनों से रूबरू हैं.” कोई भी कला किसी निर्णय पर अपने दर्शक या पाठक को पहुँचाने का दावा नहीं कर सकती, इसका न सिर्फ़ भान निर्देशक को है बल्कि वह पूरे नाटक में इसके लिए कोई सचेत कोशिश भी नहीं करता है.

इतिहास की घटनाओं को मंच पर प्रस्तुत करते हुए वह अपने दर्शकों पर इस बात का पूरा भरोसा रखता है कि नाटक अपने संकेत में भी किसी अनिवार्य निष्कर्ष तक न पहुँचें. लेकिन इसके यह मायने नहीं निकाले जा सकते हैं कि नाटक का कोई उद्देश्य ही नहीं है. इतिहास की यात्रा में आज के तईं चीज़ों को समझने के क्रम में वह स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान स्त्रियों की भागीदारी को वर्त्तमान के इतिहास लेखन में गुमनाम हो जाने के पीछे का तर्क अपने दर्शकों को देता है. ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे कथा की कल्पना करना केवल कठिन काम भर ही नहीं होता बल्कि चुनौती भरा काम भी होता है. विधाओं के व्याकरण के साथ इतिहास की यात्रा करना और फिर उनके बीच से अपने वर्तमान के लिए कुछ सार्थक की खोज कर पाना केवल कल्पना का कार्य नहीं है. ज़िम्मेदारी और जवाबदेही के एहसास के साथ दोनों को साधना बहुत मुश्किल होता है. फिर वह विधा अगर नाटक हो तो यह काम और भी मुश्किल हो जाता है. नाटक संवाद की विधा है. मंचन के बाद जिस तरह से दर्शक नाटक की विषयवस्तु और उसकी प्रस्तुति पर बातचीत करते मिले, वह इस नाटक की सफलता की एक बानगी है.

[डॉ.दीनानाथ नाट्य मर्मज्ञ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक हैं.]
फ़ोटो क्रेडिट | मुकेश और विवेक

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