इंद्रेश कुमार | जैसे-तैसे निवाले का इंतज़ाम, यह भी कोई ज़िंदगी है

महोबा | पहाड़ों के इर्द-गिर्द बसे बुंदेलखंडी शहर महोबा का पनवाड़ी कस्बा. यहीं के हैवतपुरा मोहल्ले में कुम्हारों के कम से कम दो सौ परिवार रहते हैं. हालांकि इनमें से तीस परिवार ही बचे हैं, जिनका अपने पेशे से रिश्ता बरक़रार है. बाक़ी दूसरे रोजगार में लग गए या फिर नौकरीपेशा हुए.

वे जिन्होंने मिट्टी ने नाता नहीं तोड़ा है, अपनी कला पर मान करते हैं. इनको अपने बनाए कुल्हड़, घड़े, दीये या सुराही देख जितना सुकून मिलता है, बाज़ार में इनकी हैसियत देख कर दिल उतना ही बैठ जाता है.

इंद्रेश कुमार प्रजापति इन्हीं में से एक हैं. हालांकि वे बिरादरी के मुखिया नहीं हैं, लेकिन बातचीत के लिए वही मुफीद लगे. चेहरे पर मुस्कुराहट और बतियाने का तरीक़ा पहली मुलाक़ात में भा गया और बातचीत में झलकी उनकी पीड़ा ने व्यथित भी किया. बस्ती के लोग उनकी तारीफ़ करते हैं तो क्या ग़लत करते हैं. जब चाक संभालते हैं तो बड़े-बड़े उनकी चपलता और हुनर देखते रह जाते हैं.

इंद्रेश बताते हैं- सब कुछ अपने बाप-दादा और नातेदारों से सीखा है. यही हमारे परिवार के भरण-पोषण का ज़रिया है. पत्नी और चारों बेटियां भी काम में साथ लगी रहती हैं. वे पांचों मेरी मुट्ठी हैं और मैं मेरा दिमाग़.

लेकिन तनकर खड़ा यह व्यक्ति अचानक ही भावुक हो जाता है. आंखें बरसने लगती हैं. एक बच्ची संभालने को दौड़ती है – ‘ऐ पापा, रोओ मत.’

‘अरे, रो कहां रहा हूं पगली, ये आंसू ही तो अब अपनी कमाई हैं, नहीं निकलेंगे तो पाका (फोड़ा) बन जाएंगे.’ इंद्रेश ने फटाफट आंसू पोंछ लिए और दौड़कर अपने घर से एक काग़ज़ लाकर सामने रख दिया. यह वह प्रमाणपत्र था, जो तीन दिनों तक चले प्रशिक्षण के बाद उन्हें मिला था.

वह बताने लगे – सरकार ने भी हमें सिखाया-पढ़ाया है. यहां से हम, देवकीनंदन, कामता, संतोष और जगमोहन सीखने के लिए कालपी गए थे. नया-नया ज्ञान मिला, आइडिया सीखा, मगर क्या करें इसका. ये कागज कौन काम आ रहा हमारे. पहले लॉकडाउन ने ही कंगाल बनाकर छोड़ा था. अब दूसरा लग गया. काम-धंधा सब चौपट है और राशन-पानी के दाम आसमान चढ़े हैं.

इंद्रेश ने हफ़्ते भर पहले की बात बताई – महोबा शहर से 1500 कुल्हड़ का ऑर्डर मिला था. कुल 2142 रुपये मिल गए थे. उसी में आने-जाने का ख़र्च भी था. बड़ी मेहनत के बाद जब ये रुपये हाथ में आए थे तो जान में जान आ गई थी. सच्ची बात है कि जब बाज़ार खुले रहें और बिक्री होती रही तो ऐसे ही ख़ुशी होती रही. महीने में पांच से सात हज़ार बचत तो कहीं गई नहीं. जब से कर्फ़्यू लगा है, हम कैसे गुज़ारा कर रहे हैं, क्या बताएं. अब तो कच्चा माल लाने में ही अंटी ढीली हो जाती है. एक आवां लगाने में दो हज़ार का ख़र्च आता है और उसमें आठ हज़ार बर्तन पकते हैं.

इंद्रेश परंपरागत बर्तन तो बनाते ही हैं, खिलौने-शिल्प भी गढ़ते हैं. उनके काम को ख़ूब सराहना भी मिलती है. मगर सिर्फ़ सराहना से न तो पेट भरता है, न जीवन चलता है. वह कहते हैं – सब कुछ ठंडा चल रहा है, आवां भी. जो भी माल पकाया, सबका सब अंदर कोठरी में डंप पड़ा है. लॉकडाउन से कमर टूट गई है. बाज़ार बंद हैं तो माल कौन खरीदेगा. न होटल खुले हैं न मिठाई की दुकान. न शादी न ब्याह, बस हाथ जाम न हो जाएं, इसलिए चाक चला लेते हैं.

इंद्रेश ने कहा कि रोज़ी-रोजगार ठप हो जाने से हमारी बस्ती रो रही है. किसी तरह निवाले का इंतज़ाम कर ले रहे हैं, लेकिन यह भी कोई ज़िंदगी है?

अपनी पत्नी ब्रजकुंवर की ओर इशारा किया – यह दिन-रात हमारे साथ खटती हैं. साधना, स्वेच्छा, अनिच्छा, रेनू को पढ़ाने को कहती है. पढ़ने की उम्र है बेटियों की, इनसे काम कराना हमें भी अच्छा नहीं लगता. पर हम करें क्या. बेटियां हमें परेशान नहीं देख सकतीं. वे हमें देखती हैं और हमारे साथ लग जाती हैं.

ये हैं दुश्वारियां
■ पहले शादी-ब्याह, तिलक-मुंडन या भोज आदि में लोग मिट्टी के बर्तन इस्तेमाल करते थे. इनके तमाम विकल्प बाज़ार में आने से इस रोजगार को तगड़ा झटका लगा. शहर तो क्या, गांवों की दावतों में भी कुल्हड़ या मिट्टी के बर्तन दिखने बंद हो गए हैं. सरकार ने प्लास्टिक पर रोक ज़रूर लगाई है, मगर व्यवहार में क्या यह सचमुच बंद हो गई है?
■ सरकार कुम्हारों की भलाई के लिए जो कहती है, उसे पूरा नहीं करती. कुम्हारों का कहना है कि बर्तन के उपयोग वाली मिट्टी के लिए पट्टे पर जमीन किसी को मिली क्या? मिट्टी मंगाते हैं तो हर ट्रॉली के दो से ढाई हजार देने पड़ते हैं.
■ ठेला-ठेलिया से माल पहुंचाने जाना पड़ता है, वह भी ख़ुद खींच कर. जितना समय बनाने में नहीं लगता, उससे ज्यादा पहुंचाने में लग जाता है.
■ सरकार ने इसे उद्योग का दर्जा दिया है लेकिन उद्योग जैसा बर्ताव नहीं होता. गांवों तो क्या, शहरों में वे अब भी परजा बने हुए हैं.

सम्बंधित

लोग-बाग | लगन से ख़ाली छत्तर बाबा को अब नवरात्र का इंतज़ार

लोग-बाग | हाथ फैलाने की शर्मिंदगी से मशक़्क़त कहीं अच्छी


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.