रिपोर्ताज | सूदनपुर की रामलीला में केवट संवाद

  • 9:00 am
  • 5 December 2022

अलीगंज क़स्बे का सूदनपुर गांव वैसा ही है, जैसे कि उत्तर भारत के दूसरे गांव – ईंट के मकान, ईंट का खड़ंजा (कहीं-कहीं आरसीसी सड़क भी) और ट्रैक्टरों की होड़ में बचे रहे थोड़े-बहुत मवेशी, गलियों में खेलते-दौड़ते बच्चे, कहीं घर के बाहर निर्विचार चेहरे वाली बुजुर्ग औरतों की महफ़िल तो कहीं बीड़ी का धुंआ उड़ाते ज़ोर-ज़ोर से बतियाते लोग. गैनी से आगे आकर एक तिराहा मिलता है, जहां सामने की चौड़ी कच्ची-पक्की सड़क खेतों से होकर रामगंगा तक चली जाती है, और फिर उसे पार करके बरेली पहुंचा जा सकता है, और उल्टे हाथ मुड़कर आगे बढ़ने पर जो रास्ता मिलता है, वहां कभी सड़क ज़रूर रही होगी मगर अब उसके निशान भर मिलते हैं. साइकिलें और बैलगाड़ियां तो खरामा-खरामा गुज़र जाती है, ई-रिक्शा भी झूलते-पेंग मारते निकल जाते हैं, हां, फर्राटा भरने के आदी मोटरसाइकिल वालों की सारी शेखी यहां आकर मिट्टी में मिल जाती है, सो संभलकर चलते हैं, इसलिए भी कि बाईं ओर रास्ते के साथ दूर तक चला गया गहरा खड्ड है. एक नज़र में इसके नाला या नहर होने का भ्रम होता है मगर यह दोनों ही नहीं है. बारिश में या फिर सैलाब आने पर कुछ दिनों तक इसमें पानी दिखाई भी देता है. गांव में घुसने के पहले दाहिनी तरफ़ पाकड़ के कुछ नए, कुछ पुराने पेड़ हैं, जिन्हें घेरकर बने चबूतरों पर बैठे बतियाते-सुस्ताते लोग, और कुछ दुकानें हैं – पकौड़े और चाय का ठिकाना, तेल पेरने का कोल्हू, बीज और कीटनाशक की दुकान, धर्मकांटा, एकाध आढ़त और बायें हाथ हरे रंग की आभा वाला, कूड़े से अंटा वह बड़ा गड्ढ़ा जो कभी तालाब हुआ करता था.

गांव में दाख़िल होने पर धीरे-धीरे संकरा होता रास्ता तंग गलियों में तब्दील हो जाता है, जिसके दोनों तरफ़ मकान, मवेशी और जहां-तहां फसलों की हरियाली भी दिखाई दे जाती है. यही रास्ता पकड़कर बाईं तरफ़ मुड़ते-मुड़ते हम शिव मंदिर पहुंच गए. मंदिर के सामने और पीछे की तरफ़ के रास्ते अंदर आबादी में जाते हैं, और इसके साथ ख़ाली पड़ी जगह पर इन दिनों तम्बू तना हुआ है. सामने बने ऊंचे चबूतरे पर परदे की कई परतें हवा से फड़फड़ा रही थीं. अंदर कुछ नौजवान बैठे बतिया रहे थे, एकाध लेटे हुए भी थे. उस इतवार हमारा ठिकाना यह परिसर ही था. अभी तो वहां दौड़ते-भागते शोर मचाते बच्चों की दुनिया आबाद थी मगर रात में वहां जादू जगाया जाना था – अभिनय का जादू, संगीत का जादू और जिसे देखने-सुनने के लिए गांव के ढेर सारे लोग जुटने वाले थे. इन दिनों वहां रामलीला चल रही है. उस रोज़ शाम को ‘केवट संवाद’ होना था.

दशहरा कब का बीत चुका है, दिवाली भी. सुमित ने जब अपने गांव की रामलीला के बारे में बताया था, तो दिवाली बाद की इस रामलीला को लेकर थोड़ी जिज्ञासा जागी. कोई हैरानी इसलिए हुई नहीं कि बरेली में बमनपुरी की रामलीला तो होली के मौक़े पर होती है. शास्त्रीय और लोक का भेद भी शायद यही है, लोक में शास्त्रीयता का अनुशासन काम नहीं आता और उसे इस बात की परवाह भी नहीं कि आप शास्त्रीय के मुक़ाबले उसे कमतर मानते हैं. लोक की मान्यताएं उसकी अपनी ज़रूरतें तय करती हैं, और बने चाहे जो भी, उसे लोक-जीवन की तरह ही बेलौस और उन्मुक्त होना चाहिए. शाम को यह बात और पुष्ट हो जानी थी.

ख़ैर, यहां की रामलीला की पृष्ठभूमि समझने के इरादे से हमने मंदिर के महंत से बात करने की सोची. मंदिर के एक हिस्से में बनी कोठरी के बाहर बरामदे में पड़े दो तख़्तों पर गेरुए कपड़ों में दो लोग सो रहे थे, एक बड़ी उम्र के और दूसरे उनसे कुछ कम उम्र के. उन्हें जगाना थोड़ा अटपटा लग रहा था मगर मैं कुछ सोच पाता इसके पहले ही पूरनलाल और सुमित उन्हें जगा चुके थे. आंखें मलते वे उठ बैठे, दुआ-सलाम के बाद मैंने उनसे रामलीला की पृष्ठभूमि के बारे में समझना चाहा तो उन्होंने हाथ जोड़ लिए और पूरनलाल की ओर इशारा किया. बताया कि वे तो पांच साल पहले ही यहां आए हैं, इस बारे में तो ये लोग ही बताएंगे. मैं झेंप गया कि उन्हें नाहक ही जगाया. पूरनलाल मौर्य गांव की रामलीला कमेटी के अध्यक्ष हैं. महंत को हाथ जोड़कर हम बाहर निकल आए और मंच की ओर बढ़े. ज़मीन पर जाजिम बिछी हुई थी, सामने की तरफ़ से ओढ़नी संभालते आते हुए एक शख्स ने अभिवादन किया और तम्बू संभालने वाले लोहे के पाइप से सटकर सिकुड़ता गया. मंच पर लगे पर्दे हवा से फड़फड़ा रहे थे, बाहर की ओर राजदरबार की छवि वाले पर्दे में नीचे एक बड़ी चीर देखकर पूरनलाल ने कहा था कि अब कितनी रखबारी करैं, जे बच्चे मानतेई नांय हैं. पर्दा पकड़ के लटक जाते हैं, तो ये फट जाते हैं. उनकी आवाज़ से ज़ाहिर था कि फटा हुआ पर्दा वह पहली बार नहीं देख रहे थे, उनकी यह उलाहना दरअसल हमें समझाने के लिए थी.

मंच पर जुटी महफ़िल से मा’ज़रत के साथ दरख़्वास्त की कि अगर ख़ामोशी मुमकिन न हो तो थोड़ी देर के लिए हमें अकेला छोड़ दें. दो-तीन उठकर चले गए, दो-चार लोग कुर्सियां खींचकर थोड़ी दूरी पर जम गए, निगाह अलबत्ता हम पर ही थी. कैमरा-माइक दुरुस्त करके बात हमने अध्यक्ष से बोलने के लिए कहा. बमुश्किल चार लाइन बोल पाए थे कि पर्दे की आड़ से किसी के ज़ोर-ज़ोर से बोलने की आवाज़ आई, फिर लहराती-सी काया वाला एक नौजवान नमूदार हुआ. फ़ोन पर वह किसी से बात करने में जुटा था और मना करने या वहां से चले जाने के आग्रह का उस पर कोई असर नहीं हुआ तो सुमित उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए मंच से नीचे उतार ले गए. बातचीत का सिलसिला फिर शुरू हुआ, तभी मंच पर एक दरोगा को देखा. समझ नहीं पाया कि इस दोपहरी में पुलिस रामलीला मंच पर क्या खोजने चली आई, फिर सोचा कि शायद गांव का ही कोई नौजवान होगा, जो जिज्ञासावश चला आया था.

-2-
वहां थोड़ी देर में हम कई लोगों से मिल सके, कोशिश यही थी कि नए-पुराने लोगों की बातचीत से रामलीला की शुरुआती रूपरेखा और वक्त के साथ हुए बदलावों का एक साफ़ ख़ाका बना पाएंगे, यह भी कि इस दौर में जब पेशेवर कलाकारों की मंडली बुलाकर रामलीला कराने का चलन बढ़ा है, क्या वजह है कि सूदनपुर के लोग अब भी ख़ुद ही रामलीला करते हैं.

तो यह मालूम हुआ कि बहुत पुरानी बात है, तब सूदनपुर वाले आसपास के गांवों में रामलीला देखने जाया करते थे. ऐसे ही एक बार सीपरी से रामलीला देखकर लौटे कुछ लोगों ने तय किया कि उन्हें अपने गांव में भी रामलीला करनी चाहिए. बाबा चोखेलाल और भोलेशंकर ने पहल की, लोगों को जुटाया, संसाधन जुटाए, काग़ज़ के मुकुट और आभूषण बने, लालटेनों और मशालों की रोशनी में सन् 1960 में सूदनपुर के लोगों ने पहली बार अपने गांव में रामलीला देखी, ऐसी लीला जिसमें मंच पर उनके ही बीच के लोग थे. साज़ के नाम पर हालांकि तब बहुत कुछ नहीं जुट सका था, सो ढोलक की ताल अकेला संगीत थी.

रामलाल राणा इस रामलीला के सबसे उम्रदराज़ कलाकार हैं. 76 साल के यह बुजुर्ग अब वशिष्ट और केवट की भूमिकाएं करते हैं, दशरथ और रावण का किरदार भी निभा चुके हैं. पहली बार के मंचन से ही वह रामलीला का हिस्सा रहे हैं. मेघनाथ और मारीच बनने वाले लेखराज यानी मुंशी जी उनसे तीन बरस छोटे हैं और वह भी उसी दौर से गांव की रामलीला मंडली का हिस्सा हैं. बक़ौल रामलाल राणा, कुछ बरस पहले इंतज़ामिया के कुछ लोगों का मन हुआ कि पेशेवर मंडली बुलाकर रामलीला कराई जाए, दो-तीन बार बाहर से मंडली बुलाई भी मगर फिर गांव के लोग पुरानी परंपरा की वापसी को लेकर अड़ गए और मंडली वालों का बहिष्कार कर दिया.

भरत और मेघनाद की भूमिकाएं करते आए केहरी सिंह पहली दफ़ा राम की भूमिका कर रहे हैं. एमए, बीएड हैं और इंटर कॉलेज में हिंदी पढ़ाते हैं. मंच पर अपनी भूमिका की तैयारी के बारे में वह बताते हैं कि कोई स्क्रिप्ट नहीं है, मानस और राधेश्याम रामायण पढ़कर अपने संवाद तय करके याद कर लेते हैं और प्रदर्शन के लिए रामानंद सागर के ‘रामायण’ सीरियल की मदद लेते हैं. बाक़ी का काम तो व्यास कर ही रहे होते हैं. किसी पात्र के लिए अगर कोई अभिनेता मौजूद नहीं होता तो उसकी भरपाई कोमिल राम कर देते हैं. 1977 में उन्होंने पहली बार लक्ष्मण की भूमिका की थी, एक बार सीता भी बने हैं. स्त्री पात्रों का भाव पैदा करने के सवाल पर उनका जवाब है – साड़ी पहनता हूं, चूड़ी पहनता हूं, पूरा श्रृंगार करता हूं. भूमिका के मुताबिक आवाज़ बदलता हूं. गाता भी हूं.

गंगाराम के ज़िम्मे मंच के प्रबंध का काम है, ग्रीन रूम में कलाकारों की तैयारी की देखरेख भी करते हैं, किसी के कपड़ों या मेकअप में कोई कमी लगती है तो दुरुस्त कराते हैं. मंच का ज़िम्मा है तो समय-समय पर वह माइक पर आकर लोगों से मिलने वाले इनाम का उद्घोष भी करते हैं.

रामलीला के जिस किरदार से सबसे बाद में मुलाक़ात हुई, उनका नाम लेखराज है. गांव वाले मुंशी जी कहते हैं और रामलीला में मारीच का किरदार उनकी पहचान है. यों गांव के लोग जब परिचय कराते हैं तो उन्हें अनपढ़ बताते हैं हालांकि उनके तजुर्बे का लोहा भी मानते हैं. बाल कलाकार के तौर पर मंच से वह सन् ’60 में ही जुड़ गए थे. वह मानते हैं कि गांव में रामलीला शुरू होने के बाद एक बड़ा बदलाव यह हुआ कि चोरी-गुंडागर्दी पर अंकुश लगा, साथ ही यह भी कहते हैं कि बीती आधी सदी से ज़्यादा वक़्त में लोग और समाज भी बहुत बदले. पहले लोगों में एका बहुत था, सच्ची श्रृद्धा और भक्ति के भाव से जुटे रहते थे, अब लोगों में वैसा प्रेम भाव नहीं रह गया है.

माया-मृग की भूमिका उन्हें इतनी पसंद है कि अपने हिस्से के संवाद वह चलते-फिरते भी सुना सकते हैं. हमको भी सुनाए, औऱ ख़ूब डूबकर सुनाए. कहते हैं कि जब मारीच बना होता हूं तो मेरे सामने गांव वाले नहीं होते, मैं ख़ुद को जंगल में पाता हूं. मेरे आगे लक्ष्य होता है.

रामलाल राणा और बाक़ी लोगों ने बड़े उत्साह से मंदिर के कमरे में रखा रामलीला का सामान भी दिखाया – कपड़े, मुकुट, आभूषण, धनुष-बाण और हाल ही में मथुरा से ख़रीद लाई गदा भी. रामचरितमानस और राधेश्याम रामायण की प्रतियां भी निकालकर दिखाईं, व्यास जिनकी मदद से मंच पर रामलीला का संचालन करते हैं. बातचीत के दौरान राणा जी ने कहा कि जाने क्यों उन्हें लगता है कि राधेश्याम रामायण की कई चौपाइयां नए संस्करणों में बदल गई हैं.

-3-
क़रीब आठ बजे जब हम दोबारा पहुंचे तो दिन में धूसर और उदास दिखने वाला मंच जगमगा उठा था, बल्बों की रोशनी का उजास कुछ दूर तक फैला हुआ था. आसपास के खंभों पर भी रोशनी का इंतज़ाम था. आख़िरी छोर पर मूंगफली और पॉपकॉर्न के दो ठेले आकर जम चुके थे और मंच के सामने पड़ी जाजम पर सबसे आगे कुछ बच्चे अपनी जगह पक्की करने के लिए बैठ चुके थे. कमेटी के अध्यक्ष पूरनलाल मौर्य कुछ लोगों को साथ लेकर पर्दे दुरुस्त कराने में व्यस्त थे. धनुष-बाण और कंधे पर कपड़ों का झोला लिए किरदार ग्रीनरूम की ओर दौड़-भाग कर रहे थे. मंच पर एक तरफ़ पालथी मारकर बैठे साज़िंदे अपने साज़ों के सुर मिला रहे थे. नक़्क़ारा नए चलन का है, यानी पहले की तरह खाल वाला नहीं, जिसे रात में कई बार आंच के क़रीब रखकर सेंकना पड़ता था. रामलीला कमेटी ने नक़्क़ारा भी ख़रीद लिया हैं, ताकि बजाने वाले को साज़ हर रोज़ ढोना न पड़े. सिरौली के लाखन ढोलकिया हैं, गैनी के लतीफ़ ख़ां नक्कारा बजाते हैं और चंदनपुर के सतवीर सिंह हारमोनियम.

ग्रीनरूम में पीछे की दीवार पर ऊपर की तरफ़ एक तेज़ बल्ब जल रहा था. फ़र्श पर बिछी दरी के एक तरफ़ कपड़ों के बैग थे और दूसरी तरफ़ बैठे कलाकार अपना मेकअप करने में जुटे हुए थे. उनके सिर हिलते या हाथ चलते तो दीवार पर पड़ती उनकी परछाइयां कांप उठती, छाया कठपुतली की तरह. गुलड़िया गौरीशंकर के मोतीलाल वही हैं, जो दिन में दुपट्टा संभालते घूमते मिले थे. वह अपना मेकअप करके कपड़े पहन चुके थे. कैकेई की भूमिका के साथ ही उन्हें मंच पर दूसरी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां भी निभानी है, यह हम बाद में जान पाए. सीता की भूमिका करने वाले संजीव जल्दी-जल्दी अपना मेकअप करने में जुटे हुए थे. केहरी सिंह, रवि राणा और गंगाराम भी आ मिले, मगर उस वक़्त न तो उन लोगों को बात करने की फ़ुर्सत थी और न ही मौक़ा, क्योंकि साज़ तब तक ट्यून हो चुके थे और गाने वाले हारमोनियम लेकर शुरू हो चुके थे.

बाहर निकले तो चेहरे पर फ़ाउण्डेशन लगाए बैठे गिरधरपुर के हेमेंद्र हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे थे. वह भरत बने हैं, और चूंकि मंच पर उनकी भूमिका देर रात को है तो अभी वह संगीत के अपने हुनर का प्रदर्शन कर रहे थे. थोड़ी देर में हारमोनियम पर रखा माइक्रोफ़ोन संभालते हुए सतवीर सिंह नज़र आए, उन्होंने गणपति वंदना की – वक्र तुंड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभः निर्विघ्नं कुरु मे देव शुभ कार्येषु सर्वदा, फिर थोड़ी तान और आलाप के अभ्यास के बाद बड़े भावपूर्ण ढंग से उन्होंने भक्ति गीत गाना शुरू किया – मुझे चरनों में जगह दे मेरे श्याम मुरली वाले. माइक पर उनका स्वर दूर-दूर तक गूंज रहा था. गीत-संगीत का यह पूर्वरंग दरअसल गांव के लोगों के लिए यह मुनादी भी था कि रामलीला अब शुरू होने ही वाली है और घर के काम-धाम जल्दी निपटाकर उन्हें मंदिर पहुंच जाना चाहिए.

भजन-कीर्तन की इस अवरत श्रंखला के बीच मंच के पीछे ग्रीनरूम में गतिविधियां तेज़ हो गई थीं. मेकअप कर रहे हाथ तेज़ी से चल रहे थे. आरती का वक़्त क़रीब आ गया था. राम-लखन के स्वरूप पीत वस्त्र और माला पहने हुए माथे पर पटका बांध रहे थे, मोतीलाल उनकी मदद कर रहे थे. सुमंत बने शिवनरायन वर्मा बार-बार फ़ाउण्डेशन की डिब्बी पोंछ रहे थे, वह सूख गया लगता था. किसी ने मशविरा दिया कि थोड़ा पानी डालना ठीक रहेगा और गिलास में थोड़ा पानी लाकर उन्हें पकड़ा दिया. वह पानी छिड़कर उसे नरम कर रहे थे कि इस बीच किसी ने उनका शीशा उठा लिया. बाहर से आए किन्हीं सज्जन ने रंग की डिब्बियों का एक पैकेट आगे बढ़ाकर पूछा – जे ल्यो, रंग किसे चाहिए? माथे पर रंग-बिरंगी बिंदियां सजाने के लिए इसकी ज़रूरत थी. केहरी सिंह ने लपककर पैकेट ले लिया और बैठकर बाक़ी का काम पूरा करने लगे. पीछे की दीवार से सटकर बैठा काले रंग का कुत्ता इस सारी हड़बड़ी से बेख़बर पैरों में मुंह किए ख़ामोश पड़ा रहा. उसके गले में पड़ा लाल पट्टा इस बात की गवाही देता था कि वह कोई आवारा कुत्ता नहीं है.

बाहर अब गंगाराम गा रहे थे, वह थोड़ी देर माइक पर रहते और फिर मंच पर घूमते. पूरनलाल मौर्य ने पर्दे दुरुस्त करना शुरू किया. मंच के ऐन बीच में लटक रही रस्सियों में एक को खींचना शुरू किया तो दाहिनी तरफ़ बैठे व्यास और साजिंदे आहिस्ता-आहिस्ता राज दरबार वाले पर्दे की ओट में चले गए. फिर दूसरी रस्सी से बाईं ओर का लाल पर्दा खींचा, गंगाराम माइक लेकर और आगे आ गए ताकि पर्दा बिना बाधा के खुल सके. दोनों पर्दों के बीच थोड़ी जगह अब भी बाक़ी रह गई, मगर पर्दों के और खिंचने की अब कोई गुंजाइश नहीं थी तो हाथ से थोड़ा खींच-खांचकर वह उतर आए. बच्चों की तादाद बढ़ गई थी. मर्दों के लिए तय जगह में अभी इक्का-दुक्का लोग ही थे, किनारे खड़े कुछ नौजवान कभी मंच की तरफ़ तो कभी अपने मोबाइल फ़ोन में झांकते थे.

नौ बजने वाले थे. मंच के पर्दे हटे और राम, लक्ष्मण, सीता के स्वरूप मंच पर दिखाई दिए. संजीव का मेकअप शायद तब तक पूरा नहीं सका था इसलिए सीता के स्वरूप में मोतीलाल ही मंच पर आ गए थे. आरती शुरू हो गई. व्यास के साथ ही कोमिलराम और गंगाराम भी आरती में साथ दे रहे थे. दर्शकों में कुछ बुज़ुर्ग महिलाएं भी जुट गई थीं. आरती अभी पूरी नहीं था कि बिजली चली गई. अब वहां थाली में रखे दीये का उजाला था. बिजली आने तक कुछ लोगों ने अपने मोबाइल की टॉर्च जलाकर मंच को रोशन किए रखा.

आरती पूरी हुई और स्वरूप मंच से उठकर ग्रीनरूम में चले गए.

(बाक़ी अगले अंक में)

सम्बंधित

रिपोर्ताज | सूदनपुर की रामलीला और बदली में चांद


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.