रिपोर्ताज | सूदनपुर की रामलीला और बदली में चांद

  • 9:03 am
  • 5 December 2022

बरेली के सूदनपुर गांव की रामलीला में उस रोज़ राम-केवट संवाद का मंचन हुआ था. रात को सवा बजे तक चली रामलीला, उसके कलाकारों और इतर प्रसंगों के बारे में आप पहले पढ़ चुके हैं. लंबे रिपोर्ताज का यह दूसरा हिस्सा है. -सं

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मोतीलाल मंच पर आए और एक-एक करके सारे साज़ को छूकर हाथ अपने माथे पर लगाया, फिर व्यास के सामने की मेज़ पर रखी रामायण के आगे सिर नवाकर सीधे माइक पर आ गए. गाना शुरू किया, ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम…’ महिलाओं वाली कतार आधी से ज़्यादा भर गई थी. मंच पर अब जंगल के दृश्य वाला पर्दा था. राम के वन गमन प्रसंग वाली दृश्यावली का यह पर्दा अमूमन तमाम रामलीलाओं में दिखाई देता है – उगता हुआ सूरज, दहाड़ता हुआ बाघ, दरख़्त पर सुस्ताते परिंदे और कुलांचे भरते हिरन. मोतीलाल ने अब नाचना शुरू कर दिया था, अपनी काया के लोच से वह किसी कुशल नृत्यांगना की मौजूदगी का भान कराने का भरपूर जतन कर रहे थे. वह नाच रहे थे, साथ ही गा भी रहे थे – ‘बदली से निकला है चांद परदेसी पिया…’ बीच-बीच में गंगाराम माइक पर आकर ‘हैय’ की लंबी तान लेते, पांव रुक जाते, संगीत थम जाता और वह बताते कि फलां-फलां ने गाने पर ख़ुश होकर दस रुपये का इनाम दिया है. यह इनाम इस बात का इशारा भी होता कि वही गाना फिर से होगा, तो बदली से चांद फिर-फिर निकलता रहा, कम से कम दर्जन भर बार तो निकला ही होगा. कुछ देर के लाइव प्रोग्राम के बाद एक तब्दीली यह हुई कि रिकॉर्डेड गाने बजने लगे, मोतीलाल सिर्फ़ परफ़ॉर्म करते. डिस्को वाली रोशनी का इंतज़ाम भी था. झम-झम रंग बदलती रोशनी में मंच किसी सपनीली दुनिया में बदल जाता. ‘ज़िंदगी है मगर पराई है..’ दूसरा ऐसा गाना था, इनाम के साथ जिसकी फ़रमाइश कई-कई बार आई. ऐसा भी होता कि इनाम देने वाले का नाम गुप्त होता, कई बार करेंसी पर ही दाता का नाम-पता दर्ज होता, जिसे पढ़कर मंच से उद्घोष होता. यह सिलसिला कोई घंटे भर या थोड़ा ज़्यादा ही लंबा चला. बिजली इस दौरान आती-जाती रही.

ग्रीनरूम के एक कोने में केहरी सिंह काग़ज़ हाथ में लिए अपने संवाद याद कर रहे थे. उनके साथ खड़े रवि और शिवनरायन ख़ामोश थे. रामलाल राणा केवट की भूमिका के लिए तैयार हो रहे थे, और कोमिलराम भी. उन्हें आज केवट की पत्नी का रोल करना था. उस कमरे में अभी ढेर सारे बच्चे भी थे. मंच पर वे सब अयोध्यावासी होंगे. उनके लिए मेकअप ज़रूरी नहीं था मगर स्त्री-पुरुष वेश के लिहाज से कपड़े पहनने थे. कैमरा अपनी ओर आता देखकर राणा जी उठ खड़े हुए, कहा कि उनकी फ़ोटो मेकअप पूरा होने के बाद बनाई जाए.

बाहर हेमेंद्र पब्लिक से जयकारे लगवा रहे थे. यक़ीन से नहीं कह सकता मगर जयकारे शायद इस बात का संकेत भी थे कि नाच-गाना ख़त्म हुआ, अब रामलीला होगी. सुभाषनगर की रामलीला में भी मैंने ऐसा देखा है. आयोजक तर्क देते हैं कि यह सब पब्लिक के मनोरंजन की ख़ातिर करना पड़ता है. फ़िल्मी मनोरंजन के बारे में बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘ऐसी दलीलें सुनकर माता-पिता चुप अवश्य हो जाते थे, पर उनकी तसल्ली नहीं होती थी. उन्हें इस बात पर विश्वास नहीं होता था कि मनोरंजन करने वाली कोई भी चीज़ इतनी निर्दोष हो सकती है.’ शाम को मुंशी जी से बातचीत के दौरान मैंने इस बारे में पूछा था तो उन्होंने और राणा जी ने जवाब दिया था कि वैसे तो नहीं मगर रावण के दरबार में ज़रूर मनोरंजन के लिए नाच होता है, वह राक्षस था न! उस समय तो बोतल में रंगीन पानी भी भरकर पकड़ा देते हैं. हालांकि मुझको यह सब ख़ालिस लोक की कल्पना का मामला लगता है. नौ चेहरों का मुखौटा पहनकर बैठे पात्र को भी राक्षस का रंग देने के लिए रक्स और रंगीन पानी की ज़रूरत इसके सिवाय और क्या हो सकती है?

मंच पर एक-एक करके अयोध्यावासी आते जा रहे थे, मोतीलाल और हेमेंद्र गाकर प्रसंग समझा रहे थे – ‘आज हमारे राम अयोध्या छोड़ चले.’ थोड़ी देर में राम, लक्ष्मण, सीता के स्वरूप भी मंच पर आ गए. राम बने केहरी सिंह मंच की भीड़ से निकलकर आगे माइक्रोफ़ोन तक आ गए. वह अयोध्या के लोगों को साथ चलने की ज़िद छोड़ने के लिए कह रहे थे. मंच पर पूरे समय लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है और पेशेवर नाटकों के मंच की तरह यहां ‘ब्लॉकिंग’ तो होती नहीं, सो केहरी सिंह ने दाहिनी हाथ में पकड़े तीर से इशारा करके पीछे रह गए सीता और लक्ष्मण को आगे बुलाया. इस बीच मोतीलाल ग्रीनरूम से बाहर निकले, उनके पीछे वह काला कुत्ता भी सधे क़दमों से बाहर निकला. मंच से गुज़रकर वे दोनों किनारे की ओर चले गए, शायद कुत्ते की दिशा-फ़राग़त का वक़्त हो चला था. एक-डेढ़ मिनट बाद कुत्ता मोतीलाल के बग़ैर ही लौट आया और मंच से होकर ग्रीनरूम में ग़ायब हो गया. मंच पर चल रहे प्रसंग के संवाद पूरे चुके थे. पर्दा खींचने के लिए कोई डोरियों से मशक्क़त कर रहा था. लखन के साथ सीता-राम मंच की टूटी हुई ढलुआ सीढ़ी से उतरकर दर्शकों के बीच होते हुए धीरे-धीरे आख़िरी छोर पर खड़े ठेलों तक गए और फिर वापस आकर दर्शकों के आगे की तरफ़ बैठ गए.

मंच पर केवट के साथ अब एक मसखरा था. केवट के स्वगत के साथ ही दर्शकों के मनोरंजन के प्रसंग थे. केवट को भूख लगी है. और एक गाने के बाद उनकी पत्नी सिर पर पोटल लिए नमूदार होती है. यह कोमिलराम थे. पोटली खोलने पर उसमें रोटी की जगह उपले निकले. ग़ुस्साए केवट ने उपले उठाकर मंच पर पटक दिए और चप्पू लेकर पत्नी को मारने दौड़ा. दर्शक दीर्घा में दूर तक हंसी बिखर गई, ख़ासतौर पर आगे बैठे बुज़ुर्ग महिलाओं पर इसमें बहुत आनंद आया. फिर किसी ने सचमुच रोटी-सब्ज़ी लाकर केवट यानी रामलाल राणा को पकड़ा दी. रोटी खाते हुए वह अपने हिस्से के संवाद बोलते गए.

मंच के सामने बैठे देव-स्वरूप अब उठ खड़े हुए. केहरी सिंह ने किसी को बुलाकर धीरे से कुछ कहा. वह दौड़कर मंच तक गया और एक माइक लेकर आ गया. इस माइक में कॉर्ड थी, तभी साउण्ड का इंतज़ाम देखने वालों ने कॉर्डलेस माइक उनके पास भेज दिया. वह माइक पर अपने संवाद बोल रहे थे मगर सुन नहीं पा रहे थे. इधर से साउण्ड वाले और केहरी सिंह के क़रीब खड़े रवि राणा ने बताया कि माइक ऑन नहीं है. केहरी को चूक समझ में आ गई तो झट से माइक ऑन किया और केवट से नदी पार उतारने का आग्रह किया. फिर वे सब धीरे-धीरे मंच की ओर बढ़े. मंच पर पीछे की तरफ़ तख़्त जोड़कर और सामने कपड़ा लगाकर बनी नाव तैयार थी. केवट ने पांव पखारे और अयोध्या के राजकुमार नाव पर सवार हो गए. केवट ने चप्पू संभाल लिया, किसी ने खींचकर माइक्रोफ़ोन उनके सामने कर दिया और केवट ने गाना शुरू किया – ‘सावन का महीना पवन करे सोर….’ इस उम्र में भी स्वर साधने का राणा जी का कौशल क़ायल करने वाला था और भीड़ बड़े ग़ौर से उन्हें सुन रही थी.

गाना पूरा हुआ, नाव दूसरे किनारे पहुंच गई थी. तब तक साढ़े बारह बज गए थे. दर्शकों में पीछे बैठी हुई महिलाएं-बच्चियां अचानक उठ खड़ी हुईं और मुड़कर बाहर की तरफ़ जाने लगीं. उनकी देखादेखी सामने की तरफ़ बैठी महिलाओं ने भी खड़े होकर अपनी चप्पलें संभाली और घूंघट-पल्लू संभालती हुई उसी तरफ़ बढ़ीं. मंच पर अचानक किसी ने माइक संभाला, ‘अरे, कहां जाय रई हौ. इत्ते पैसा खरच करें हैं तुमने और अब पूरी लीला देखे बगैर जाय रई हौ. बैठी जावौ थोड़ी देर और.’ पीछे वाली भीड़ तो निकल चुकी थी मगर आगे बैठी एक बड़ी उम्र की महिला ने पीछे घूमकर देखा और निकलकर रही औरतों को हाथ के इशारे से वापस आकर बैठने को कहा. वे चली आईं, चप्पलें उतारीं और फिर जम गईं. कलाकारों के वेशभूषा बदलने और मंच पर अंतराल के दौरान इस बार मोतीलाल भी नहीं आए. राज़ बाद में खुला जब वह कैकेयी बनकर सामने आए. ख़ैर, मंच पर अब भरत बने हेमेंद्र और मोतीलाल थे.

कैकेयी को भला-बुरा कहते हेमेंद्र को देख-सुनकर लग रहा था कि मंच पर आने की हड़बड़ी में शायद वह अपने मुंह में घुला गुटका थूकना भूल गए थे. राम के वनवास के बारे में जानकर उन्होंने मुकुट, आभूषण और चमचमाता अंगरखा वगैरह उतार फेंका और पछाड़ खाकर गिर पड़े. किसी को अगर ‘पछाड़ खाना’ का शाब्दिक अर्थ न मालूम हो तो हेमेंद्र का गिरना देखकर समझ सकते थे. आठ-दस मिनट के उस प्रसंग में वह इतनी बार पछाड़ खाकर गिरे कि उनके किरदार के प्रति करुणा के बजाय हास्य ज़्यादा पैदा हो गया. उन्हें गिरते हुए देखकर कोई भी आसानी से अंदाज़ लगा सकता था कि उन्होंने इसका डटकर अभ्यास किया था. हर बार जब वह गिरते तो लगता कि शायद अब और नहीं मगर अपना संवाद बोलकर वह फिर गिर पड़ते.

यह प्रसंग पूरा होते-होते दोनों तरफ़ बचे रह गए लोग भी उठ खड़े हुए. सवा बज चुके थे. इस बार माइक से ख़बर दी गई – आज की रामलीला यहीं ख़त्म होती है. भरत मिलाप अब कल होगा.

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उस रोज़ की लीला के उपसंहार के तौर हमें बाजे वाले लोगों से मिलना था. मंच और आसपास की बत्तियां बुझाने का समय हो चला था तो लतीफ़ ख़ां और सतवीर सिंह को साथ लेकर हम मंदिर के बाहर खुले में जा बैठे, वहां थोड़ी रोशनी भी थी. सतवीर के घर में संगीत का माहौल रहा, उनके पिता और भाई दोनों गाते थे. वह छठी में पढ़ते थे, तभी से हारमोनियम सीखने की शुरुआत की. बरेली में अलखनाथ मंदिर के क़रीब वाद्य यंत्रों की दुकान चलाने वाले चुन्नालाल उनके गुरू थे. बक़ौल सतवीर, गुरू जी बढ़िया बाजा बनाते, साथ ही बजाने में भी सिद्धहस्त थे. हर इतवार को वह अपने गांव चंदनपुर से साइकिल चलाकर अलखनाथ तक जाते और घंटा भर उनसे हारमोनियम बजाना सीखते. उनके गुरू अब नहीं रहे, मगर दुकान अब भी है.

लतीफ़ ख़ां से बात करना ख़ासा दिलचस्प तजुर्बा था. उनके घर में किसी का संगीत से कोई वास्ता नहीं रहा. एक भाई हैं, वह सब़्ज़ियां के तिजारती है. नक़्क़ारा बजाना उन्होंने किसी से सीखा नहीं, अपने उस्ताद आप ही हैं. संगीत उनका शौक है, पेशा तो राजगिरी का करते हैं. कहते हैं, ‘ऐसे ही चलते-फिरते सीख लिया. बद के थोड़े ही सीखा. शौक है और कोई चीज़ अगर आप दिल से सीखना चाहें तो सीख ही लेंगे. मंदिरों पर कीर्तन होता तो सुनने के लिए बैठ जाते. वहीं सुनते-सुनते सीख गए, बस!’ रियाज़ करने के सवाल पर कहते हैं – ‘काहे का रियाज़. तीन साल बाद बजा रहा हूं.’ फिर मुस्कराते हुए राणा जी की ओर इशारा करके कहते हैं – ‘वो तो इन लोगों की मोहब्बत में बजाने चला आता हूं, वरना बिरादरी वाले अब एतराज करते हैं, मज़ाक बनाते हैं कि क्या रामलीला में नगाड़ा बजाते फिरते हो?’

जितना निरपेक्ष होकर वह बतिया रहे थे, उनका आख़िरी जुमला भी उतना ही निरपेक्ष था मगर उनकी बात बदले हुए ज़माने का आईना था. मंदिरों पर बैठकर नक़्क़ारे की आवाज़ को दिल में बसाने वाले लतीफ़ और वहां हमारे आसपास बैठे लोगों को यह कोई ख़ास बात नहीं लगी. लोगों के मन-मिज़ाज में धीरे-धीरे आए ऐसे बदलावों को उन्होंने क़बूल कर लिया है. फिर भी मुझसे रहा नहीं गया तो पूछ बैठा कि आप तो राजगीर हैं, अगर मंदिर बनाने का काम मिलेगा तो नक़्क़ारा बजाने का मज़ाक उड़ाने वाले क्या उस पर भी एतराज़ करेंगे? उन्होंने इस सवाल का सीधा जवाब तो नहीं दिया मगर शिव मंदिर की ओर इशारा करके कहा, यह बनाया तो है. कितने ही मंदिर तामीर किए हैं. नक़्क़ारा बजाने के उनके फ़न की तारीफ़ करने पर लतीफ़ ने हाथ ऊपर उठाए, कहा – हम किस लायक़ है. ये तो वो ऊपर वाला बजवा रहा है, या फिर ये मठिया वाले. हम कोई कलाकार थोड़े ही हैं.

इन लोगों से बात करके ख़ाली हुआ तो दोपहर को मंच पर दरोगा के दिखाई देने का राज़फ़ाश भी हुआ. मंच पर लहराने और बड़बड़ाने वाले उस नौजवान के बारे में मोबाइल पुलिस को मिले फ़ोन के बाद दरोगा वहां पहुंचा था. नौजवान का नाम महावीर है और वह मुंशी जी का बेटा है. पुलिस ने उसे ले जाकर थाने में बैठा लिया और अलीगंज के नशा मुक्ति केंद्र को फ़ोन करके उसे साथ ले जाने को कह दिया था. यानी दोपहर को जब हम मंदिर के बाहर बैठे मुंशी जी से बात कर रहे थे, उनका बेटा थाने में बैठा था. उनकी बातचीत से हमें इसका रत्ती भर भी भान नहीं हुआ था. शाम को कह-सुनकर वह उसे थाने से ले आए थे. और रात को हम लोग जब रामलीला देखने के लिए आ रहे थे, दमन सिंह के डेरे के बाहर खड़ी मोटर दरअसल महावीर को लेने आई थी. वहां जुटे लोग इस कोशिश में लगे थे कि महावीर को नशा मुक्ति केंद्र ले जाने से रोका जा सके. वे क़ामयाब भी हुए.

अगले रोज़ सुबह बरेली के लिए निकलते वक़्त रास्ते में कोमिलराम मिल गए. उन्हें देखकर हम ठहर गए. उन्होंने रामलीला के बारे में और अपनी भूमिका के बारे में पूछा. फिर बताया कि पिछली दोपहर जब मैं उनसे बात कर रहा था, वह सहज नहीं थे. शायद कैमरे की वजह से. मगर मेकअप करके एक बार मंच पर पहुंच जाने के बाद उन्हें सब याद आ जाता है. फिर आने का न्योता देकर वह आगे बढ़ गए. इस वक़्त तो वह गन्ने के अपने खेत देखने के लिए निकले थे.

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