रिपोर्ताज | कभी भाँड़ भी थे शेरगढ़ की पहचान

  • 5:17 pm
  • 17 March 2023

लोकश्रुति में शेरगढ़ के भाँड़ों की बहुत अहमियत रही है. भाँड़ का मतलब यों तो विदूषक या मसख़रा ही होता है मगर भूरे यानी ग़ुलाम हसन को इस लफ़्ज़ से ही परहेज़ है. ज़माने ने भाँड़ लफ़्ज़ कुछ इस तरह बरता है कि अब उन्हें यह अपमानजनक लगता है, यह दीगर बात है कि अवाम की ज़बान पर शेरगढ़ के भाँड़ और उनके हुनर और फ़न के क़िस्से तारीफ़ के तौर पर ही आते हैं. फिर भी वह ख़ुद को नक़्क़ाल कहते हुए ही ज़्यादा सहज महसूस करते हैं. शेरगढ़ में ब्लॉक दफ़्तर के सामने एक चायख़ाने की बेंच पर बैठकर बात शुरू करते हुए उन्होंने बड़े एहतियात से अपना यह नज़रिया ज़ाहिर भी कर दिया.

बरेली-लालकुआं लाइन पर सफ़र करने वाले बहुतेरे लोगों ने देवरनियां स्टेशन की एक बेंच पर पीली पट्टी पर काले रंग की वह इबारत कभी न कभी ज़रूर पढ़ी होगी, जो देवरनियां से शेरगढ़ की दूरी के साथ ही वहां शेरशाह सूरी के बनवाए क़िले के अवशेष का पता देती है. पिछली सदी के आख़िर में क़िले के अवशेष देखने के मोह में जब मैं शेरगढ़ गया था तो मालूम हुआ कि वे अवशेष तो वर्षों पहले ही शेष हो चुके थे, वहां की ईंटें तमाम घरों की दीवारों में समा चुकी थीं. जो बचा हुआ था, वे मिट्टी के नीचे-ऊंचे टीले भर थे.

क़स्बे के बाहरी हिस्से से अंदर दाख़िल होने पर एकाध किलोमीटर की दूरी पर रानी का तालाब कहे जाने वाले तालाब की क़रीब 80 बीघे में फैली अथाह जलराशि और किनारे एक टीले पर बना छोटा-सा मंदिर देखकर और तालाब में पुरइन के पत्तों पर चलकर पूजा के लिए मंदिर तक आने वाली राजा बेन और उनकी रानी की कहानी सुनकर लौट आया था.

वही रानी कमलापति, सेठ की पत्नी के आभूषण देखकर, जिनके मन में इस क़दर मोह जागा कि घिस चुके हल के फल और निष्प्रयोज्य फावड़े-कुदाल के राज-कर से ही संतुष्ट राजा को उनकी ज़िद पर अपनी जनता पर अर्थ-कर थोपना पड़ा ताकि वो रानी के लिए गहने बनवा सकें. और गहनों से लदी-फदी वही रानी जब पूजा का थाल लेकर मंदिर जाने के लिए निकलीं तो उस रोज़ पुरइन के पत्तों ने उन्हें रास्ता नहीं दिया. उन्होंने पत्तों पर पांव रखा और डूब गईं. क़िस्से गढ़ने में लोक का कोई सानी नहीं है, मगर इस दुखांत कहानी में भी ईमान की महिमा, श्रम की महत्ता और शासक की मर्यादा का बखान करना वह नहीं भूलता.

शेरगढ़ क़स्बे में रानी का तालाब

प्राचीन इतिहास के पन्नों में काबर कहा जाना वाला यह इलाक़ा कभी कठेरिया राजपूतों का गढ़ था. सन् 1540 में शेरशाह सूरी ने वहां एक क़िला बनवाया था और तब इस इलाक़े का नाम बदलकर शेरगढ़ हो गया. और तब वह तालाब उसके एक सिपाहसालार खवास ख़ान मसनद अली के नाम से जाना जाता था. 1863 में यहां आए एलेक्ज़ेडर कनिंघम को यहां नवीं और दसवीं सदी के कुछ सिक्के और दो मूर्तियां मिलीं थीं, जिनमें से एक दुर्गा की थी.

ख़ैर, तो इस बार शेरगढ़ जाना पुराने दौर के भाडों से मुलाक़ात के इरादे से था. बहेड़ी से शुएब को साथ लेकर मवई क़ाज़ियान में सज रही हाट पर निगाह मारते हुए हम शेरगढ़ पहुंच गए. शुएब ने रेहान से पहले से बात कर रखी, और वह मिल भी गए. उनकी रिहाइश उसी इलाक़े में है, जहां अर्से से भाँड़ परिवार आबाद हैं. चायख़ाने में उन्होंने जिन दो लोगों से मुलाक़ात कराई, भूरे उन्हीं में से एक थे. उनके साथ आए दूसरे शख़्स रईस के बारे में मालूम हुआ कि बिरादरी में पुरानी पीढ़ी के जो दो बुज़ुर्ग़ हयात हैं, वह उन्हीं में एक माशूक साहब के बेटे हैं. हमारी पूरी बातचीत में वह ख़ामोश ही बने रहे. अलबत्ता यह ज़रूर बताया कि फ़ालिज़ की वजह से बिस्तरदराज़ उनके वालिद अगर बोल पाते तो शेरगढ़ के भांडों के पुराने दिनों के बारे में हमें ज़रूर बताते.

भूरे ने बताया कि गुज़रे दौर में नवाबों-रईसों की महफ़िलों में नक़लें उतारकर और दिलचस्प क़िस्से सुनाकर उनका मनोरंजन करके घर चलाने वाले उनकी बिरादरी के लोग अब ब्याह-बारात या बच्चों की पैदाइश, अक़ीक़ा के मौक़े पर अपने यजमानों के घर जाकर गाते-बजाते हैं और जो बख़्शीश मिल जाए, उसी में गुज़र करते हैं. ख़ुद वह इनमें शामिल नहीं हैं.

शुरुआत में मुख़्तलिफ़ ब्रास बैंड के लिए बाजा बजाते हुए जब मौक़ा मिला तो वह मुज़फ़्फ़रपुर चले गए. वहां तवायफ़ों की महफ़िलों में बाजा बजाते रहे. यों उन्हें ढोल बजाना भी आता है. क़रीब बीस सालों तक वहीं आबाद रहे. फिर टीवी और वीसीआर की आमद हुई तो ब्याह-बारात के मौक़े पर सजने वाली तवायफ़ों की महफ़िलें उजड़ने लगीं. तवायफ़ों ने बंबई और कलकत्ते जैसे बड़ों शहरों का रुख़ किया और भूरे ने अपने वतन का.

वहां से निकलकर थोड़े संकरे रास्ते से गुज़रकर हम जिस खुली जगह पर पहुंचे, वहां मिट्टी के ऊंचे टीले पर रेहान की नई बनी रिहाइश थी, जिसे अभी आबाद होना है. वहीं बरामदे में पड़े एक तख़्त और कुर्सियों पर हमारी महफ़िल जमी. भूरे के एक मामू क़रारउद्दीन से मिलते हुए कुछ पुराना जान पाने की उम्मीद जगी थी मगर वह कुछ ख़ास नहीं बता सके. हालांकि भूरे से तफ़्सील से हुई बातचीत में मालूम हुआ कि गुज़रे ज़माने में चांदा (सुल्तानपुर) में भी तवायफ़ें आबाद थीं, जहां एक सीज़न रहकर उन्होंने संगत की थी.

उस दौर में बिहार की बारातें अपनी तमाम तड़क-भड़क के साथ ही बारातियों की तुनकमिज़ाजी और ऐसे में घरातियों के अपनी ताक़त का इज़हार करने के लिए भी जानी जाती थीं. भूरे ने बताया – हाँ, कई बार झगड़े-झंझट की नौबत भी आ जाती थी, मगर ग़नीमत यह थी कि लोग बाई जी और उनके साजिंदों की इतनी इज़्ज़त करते थे कि आपस में भले लट्ठ चल जाएं, हम लोगों की तरफ़ कोई निगाह उठाकर नहीं देखता था. डेढ़ दिन-दो दिन के लिए जाते थे, दो-तीन महफ़िले जमतीं. ठुमरी, दादरा और रात को ग़ज़लों की फ़रमाइश होती. और हमें तो बस बाजा होता था.

बारातों में और बाई जी के डेरों पर लगने वाली महफ़िलों में एक बड़ा फ़र्क़ तो ये ही था कि डेरे पर महफ़िल में जाने-माने रईस आते और गाना सुनकर नौ-दस बजे तक लौट जाते. बारातों में तो गाना-बजाना देर रात तक चलता. बक़ौल भूरे, मुज़फ़्फ़रपुर से लौटने के बाद उन्होंने बच्चों की तालीम पर ध्यान दिया और अब उनके दोनों बेटों उवैद और फ़ैज़ ने मिलकर कव्वाली का ग्रुप बना लिया है. वक़्त होता है तो वह भी साथ चले जाते हैं.

हमारे इसरार पर उन्होंने अपने घर से बाजा और ढोल मंगाया. कुछ गाने सुनाए, बाद में उवैद ने भी दो ग़ज़लें सुनाईं. इस बीच ख़बर पाकर पुराने साथी नेत्रपाल भी आ जुटे. थोड़ी देर बाद भूरे के साथ संगत कर रहे रईस उठे और यह बताकर निकल गए कि आज उन्हें दो गांवों की बारातों में सेहरा गाने जाना है. जाते-जाते यह ज़रूर कह गए कि अगर हम लोग पहले से बताकर आए होते तो सारे भाँड़ हमें गाँव में ही मिल जाते. हम भी एक बार फिर लौटने का वायदा कर आए हैं.

कवर | उवैद और भूरे

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