किताब | हरम की चकाचौंध के बीच ज़िंदगी के अंधेरों की दास्तान

  • 7:27 pm
  • 13 June 2022

रियासत के दिनों में हरम में रहने वालों की ज़िंदगी बाहर से जितनी चकाचौंध भर लगती थी, क़रीब से देखने पर उनकी आत्मा उतनी ही उदास, ख़ामोश, बेबस और तारीकी में डूबी हुई मिलती. ‘द बेग़म एण्ड द दास्तान’ ताक़त और वैभव के ख़ौफ़ के बीच ख़ुद की ख़ुशियों-आकांक्षाओं को पीछे धकेलकर ज़िंदगी गुज़ार देने वालों की ख़ामोशी को ज़बान देती है.यह रियासतों के दौर में औरतों की ज़िंदगी के अंधेरों की कहानी है और इतिहास भी. इतिहास इस मायने में कि तराना हुसैन ख़ान ने चार सालों तक जिन दस्तावेज़ों, डायरियों, ख़तों और किताबों से हासिल जानकारी की बुनियाद पर इस उपन्यास का ताना-बाना बुना है, वे गुज़रे ज़माने की हकीक़त का हिस्सा हैं. अपने ख़ानदान के बड़ों और तमाम लोगों की मुंहज़बानी उन्होंने नवाबी दौर के जो क़िस्से सुने, उन्हें भी इस दास्तान में पिरोया है. शेरपुर रियासत का निशान और उसका भूगोल इस दास्तान को कल्पना से निकालकर इतिहास की ज़मीन पर उतार लाता है. अलबत्ता यह इतिहास की किताब नहीं है, क्योंकि कहानी की रवानी की ख़ातिर किरदारों के एहसासात को ज़बान तराना हुसैन ख़ान ने दी है.

छह पीढ़ियों के बीच फैले इस क़िस्से के केंद्र में फ़िरोज़ा बेग़म हैं, जिनकी ख़ूबसूरती उनके लिए अज़ाब बन गई. उनकी ख़ुशहाल और बेलौस ज़िंदगी को नवाब को नज़र ऐसी लगी कि पीहर छूटा, घर वाले छूट गए. नवाब की ताक़त और साजिश के मारे शौहर ने तलाक़ दे दिया. और नवाब से निकाह करके फ़िरोज़ा की पूरी ज़िंदगी हरम के अंधेरों में गर्क़ हो गई. हालांकि उनके चारों ओर दौलत की चकाचौंध, ऐश-ओ-आराम के सामान और रास-रंग की बहार थी मगर अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीने वाली फ़िरोज़ा बेग़म ताउम्र नवाब के धोखे और ज़बरदस्ती को भुला नहीं पाईं और नवाब के उनके रिश्ते उम्र भर तल्ख़ ही रहे. अपनी बच्ची से नवाब का गहरा लगाव देखकर उनसे मुहब्बत करने वाली फ़िरोज़ा बेग़म को जब-तब अपने वालिद की याद आती, अपने शौहर की और अपनी बहन की तो वह नफ़रत और ग़ुस्से से भर उठतीं.

बक़ौल लेखक, फ़िरोज़ा का ज़िक्र इतिहास में इसलिए मिल जाता है कि वह बाऔलाद थीं वरना तो कितनी औरतें रियासतों के हरम में गुमनाम जीती रहीं और गुज़र गईं. उनकी ज़िंदगी किसी के लिए कोई मायने नहीं रखती थी, वे औरतें थीं और एक ख़ास तरह की ग़ुलामी-ग़ुमनामी के लिए अभिशप्त थीं. उपन्यास में तीन किरदारों के हवाले से तीन कहानियां समांतर चलती हैं – फ़िरोज़ा बेग़म, दास्तानगो कल्लन मिर्ज़ा और अमीरा की कहानियां.

अमीरा की दादी उसे अपनी पड़दादी यानी फ़िरोज़ा बेग़म की ज़िंदगी की कहानी सुनातीं और इसकी रोशनी में किशोरवय अमीरा की ख़ुद की ज़िंदगी की कहानी है. ‘तिलिस्म-ए-आज़म’ की अपनी दास्तान के बहाने कल्लन मिर्ज़ा फ़िरोज़ा बेग़म और हरम की दूसरी औरतों की कहानी अवाम को सुनाते हैं, तारीक जान के हवाले से उनकी दास्तान नवाब की अय्याशियों और ज़ुल्मों का ख़ाक़ा खींचतीं, उस दुनिया के बारे में लोगों को बताती, जहाँ बाज़ारों में खटने वाले बिना पगड़ी के पठान सिर झुकाए अपने काम में मशगूल मिलते और जिनकी औरतें तहख़ानों के अंधेरों में बसर करतीं. जिन्हें बाज़ार में देखकर अमर अय्यार ने सोचा था – या अल्लाह! ये किस तरह के लोग हैं? शक़्ल से परेशान, बेहिस-ओ-बेजान.

यों फ़िरोज़ा बेग़म की ज़िंदगी की कहानी और वाक़यों को पढ़ते हुए कल्लन मिर्ज़ा की दास्तान अलग से सुनने की ज़रूरत नहीं रह जाती, नवाब का निज़ाम, उनकी कुटिल चालें और रियासत के कारोबार भी अपने आप में किसी तिलिस्मी कथा से कम नहीं लगते. शायरी और संगीत से उनका प्रेम अलबत्ता इंसानी चेहरा लगते हैं मगर ऐसे दरबार और महफ़िलें तो तारीक जान की दुनिया में भी सजतीं, जो ख़ुद को ख़ुदावंद कहलाता.

एक और पहलू है, जिस वजह से इस क़िस्से को इतिहास मान सकते हैं, वह रियासत के दिनों के समाज, रस्मों और रवायतों के दिलचस्प ब्योरे हैं. और ये ब्योरे इतने बारीक और सजीव हैं कि उपन्यास पढ़ते हुए एक पूरा काल खंड आपके भीतर जाग जाता है. और अगर कहीं आप शेरपुर रियासत की सड़कों-गलियों-इमारतों से वाकिफ़ हैं तो इसे पढ़ते हुए आप कभी अमराइयों में होंगे, तंबुओं के बीच खुले में अपनी गोपियों से घिरे नवाब को तरबूज़ लड़ाई में शरीक पाएंगे, अज़ीमुश्शान इमारतों की ऊंची छतों से लटकते झूमरों की रोशनी में जगमग को हैरानी से तक रहे होंगे, क़िले की दीवार और नवाब की मुताह (मियादी) बीवियों की रिहाइशगाह के बीच गुज़रकर इमामबाड़े में ज़रियों के सामने जा खड़े होंगे.

और इन सबके बीच नवाब ख़ानदान को वारिस देने वाली अच्छी बेग़म के ‘कउवा हंकनी’ बनने का वाक़या पढ़कर तड़प उठेंगे. छोटे बालों वाली दीवानी बेग़म के दीवानी कहे जाने की कहानी का असर भी कमोवेश ऐसा ही होता है. आप चाहें तो अमीरा के अब्बा-चाचा और तमाम लोगों की दुकानें हटाकर बने महात्मा मॉल के उद्घाटन के मौक़े पर पहुंचे मिनिस्टर को भी पहचान सकते हैं.

यों उपन्यास फ़िरोज़ा बेग़म की ज़िंदगी का बयान है, पितृसत्ता और अना के पाखंड के तले पिसने वाली ज़िंदगियों की तस्वीर इसमें देख पाना बहुत मुश्किल नहीं और न ही रियासतों के मुखिया का किरदार. नवाब शम्स की बड़ी बेग़म ने फ़िरोज़ा की बेटी नन्हीं को पाला-पोसा, मगर वही नन्हीं जब शिया-सुन्नी सलीक़ों के बीच घुटते अपने शौहर की ख़ातिर शेरपुर छोड़कर बड़ी बेग़म के भाई यानी बसोड़ा के नवाब के यहाँ शरण लेती है तो उसके साथ अच्छा सलूक नहीं होता.

मिस फ़्लोरा की फूहश शायरी और मेरठ वाली बब्बो जान के गले पर निसार नवाब शम्स की शख़्सियत और हरम में औरतों की हैसियत के क़िस्से पन्ने दर पन्ने खुलते जाते हैं, मिर्ज़ा कल्लन की कहानी में गोश्तख़ोर का हुजरा खुलने की तरह. और पूरा उपन्यास पढ़कर जब आप अपनी दुनिया में वापस लौटते हैं, ग़ौर करते हैं तो मिर्ज़ा कल्लन की इस बात पर एतबार करने का मन होता है – अपने आसपास देखो. इस तानाशाह का तिलिस्म क्या ख़त्म हो सकता है? फिर तिलिस्म-ए-आज़म को कैसे बर्बाद किया जा सकता है? ज़ुल्मी राज करते रहेंगे, हमारी औरतों पर ज़ुल्म ढाते रहेंगे और हम यूं ही ख़ामोश पालथी मारकर घरों में दुबके रहेंगे.

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