कैटलॉग | इण्डिया – हेनरी कार्तिए-ब्रेसाँ
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की ‘थ्रू अ फ़ोटोग्राफ़र्स आई’ श्रंखला के तहत 1992 में हेनरी कार्तिए-ब्रेसाँ की तस्वीरों की प्रदर्शनी लगाई गई थी. नेशलन गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट में 12-25 नवम्बर तक चली इस प्रदर्शनी के मौक़े पर कैटलॉग तो नहीं, तीन फोल्ड का एक ब्रॉशर अलबत्ता छपा था.
कार्तिए-ब्रेसाँ ने भारत विभाजन के ऐन पहले राजस्थान, दिल्ली, कश्मीर और महात्मा गांधी पर ख़ूब काम किया था. फ़ोटोग्राफ़ी में डिसाइसिव मोंमेट यानी निर्णायक क्षण के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने फ़ोटोजर्नलिज़्म को एकदम नया चेहरा दिया. वह कहते थे कि फ़ोटोग्राफ़ी पेंटिंग की तरह नहीं. कोई महत्व का भाव या घटना क्षणांश में घटती और बीत जाती है, अपने सृजन बोध के बूते फ़ोटोग्राफ़र को उस क्षणांश में ही तय करना होता है कि कैमरे का शटर वह कब दबाये. हालांकि सन् 1970 से उन्होंने ख़ुद कैमरा छोड़कर पेंटिंग पर काम करना शुरू किया और फिर 1975 के बाद फ़ोटोग्राफ़ी बिल्कुल छोड़ दी थी.
फ़ोटोग्राफ़ी की तरह ही उनके काम करने का तरीका भी अपने समय के दूसरे फ़ोटोग्राफ़र से एकदम अलग हुआ करता था. उन दिनों जब प्रेस फ़ोटोग्राफ़र ट्वीन लेंस रिफ़्लेक्स वाले मीडियम फ़ॉर्मेट कैमरे इस्तेमाल करते थे, कार्तिए-ब्रेसाँ को लाइका का 35 मिलीमीटर रेंजफ़ाइंडर पसंद था. 50 मिलीमीटर यानी नॉर्मल लेंस वाले इस कैमरे से काम करते हुए उन्होंने अपना ढंग विकसित किया था. अपने काम के दौरान वह दूसरों को असहज होने से इस क़दर बचाए रखते थे कि किवदंति बन गई थी कि तस्वीरें बनाते समय कार्तिए-ब्रेसाँ अदृश्य हो जाते हैं. फ़्लैश को वह असभ्य आचरण मानते थे. उनका कहना था, ‘यह बिल्कुल वैसे ही है कि किसी कंसर्ट में आप पिस्तौल लेकर चले जाएं.’ सो फ़्लैश का इस्तेमाल उन्होंने कभी नहीं किया.
फ़ोटोग्राफ़ी में मोनोक्रोम के प्रति उनका आग्रह किसी शुद्धतावादी की तरह ही था. यूं भी वह टेक्नीक को बहुत नहीं देते थे. उनका मानना था कि फ़ोटो खींचने से पहले और बाद में सोचना बेहतर मगर फ़ोटो खींचते वक़्त सोचना फ़िजूल है. हड़बड़ी में तस्वीर बनाने के बजाय उस पर वक़्त लगाना उन्हें भाता था, शायद इतना कि आसपास के लोग उनकी मौजूदगी से गाफ़िल हो जाएं. और जब कम्पोज़िशन दिमाग़ में तय हो जाए तो फिर झट से फ़ोटो बना ली जाए. व्यूफाइंडर में ही कम्पोजिशन को लेकर उनका आग्रह इतना ज़बरदस्त था कि निगेटिव से प्रिंट बनाने की प्रक्रिया में वह कोई बदलाव नहीं चाहते थे बल्कि अपनी तस्वीरें बनाने वालों को उन्होंने बता रखा था कि प्रिंट बनाते समय निगेटिव के पर्फ़ोरेशन का कुछ हिस्सा भी प्रिंट में शामिल किया करें ताकि देखने वालों को अंदाज़ हो जाए कि कम्पोज़िशन में बाद में कोई बदलाव नहीं किया गया है.
तस्वीरें बनाने के लिए कार्तिए-ब्रेसाँ ने पूरी दुनिया घूमी, सड़कों-गलियों पर चलते हुए लोगों और उनके आसपास के माहौल पर ग़ौर करते हुए पूरे धीरज से वह उस क्षण का इंतज़ार करते जब लोग उनकी कम्पोज़िशन में इस तरह शामिल होते कि वह सुंदर होने के साथ अर्थवान भी लगती. पहली बार वह 1947 में हिन्दुस्तान आए. हिन्दुस्तानी दर्शन और सांस्कृतिक परम्पराओं से वह बहुत प्रभावित हुए और इसके बाद पांच बार वह फिर यहां आए. हिन्दुस्तान और उपनिषद् के प्रति उनका सम्मान इस हद तक था कि हिन्दुस्तान पर अपनी तस्वीरों की किताब में उन्होंने यूवी वेक़ो का पूरा लेख ‘द यूनिवर्स इज़ अ टेपिंल’ ही छापा है. इसकी भूमिका सत्यजीत रे ने लिखी है.
आवरण फ़ोटो | श्रीनगर में हरि पर्वत पर प्रार्थना
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