व्यंग्य | तारीख़ के चन्द दौर

  • 1:03 pm
  • 10 April 2020

राहों में पत्थर.
जलसों में पत्थर.
सीनों में पत्थर.
अक़लों में पत्थर.
आस्तानों में पत्थर.
दीवानों में पत्थर.
पत्थर ही पत्थर.
यह ज़माना पत्थर का ज़माना कहलाता है.

देगें ही देगें.
चमचे ही चमचे.
सिक्के ही सिक्के.
सोना ही सोना.
पैसे ही पैसे.
चांदी ही चांदी.
यह ज़माना धातु का ज़माना कहलाता था.

एक और ज़माना है आयरन एज.
यानी लोहे का ज़माना.
लोहा वह धातु है,
जिसका सब लोहा मानते हैं.
हल का फल भी लोहा.
कारख़ाने की कल भी लोहा.
लोहा मकनातीस बन जाता है
तो चांदी तक को खींच लेता है.
सौ सुनार की, एक लुहार की.
सोने वाले लोहे वालों से डरते हैं.
लेकिन कोई कहां तक रुकवायेगा.
हमारे यहां भी लोहे का ज़माना आएगा.
कच्चा लोहा और किसी काम का नहीं
बस उससे आदमी बनाते हैं.
जो मरदे-आहन कहलाते हैं.
उनको ज़ंग लग जाता है,
बल्कि खा जाता है.
फिर भी लोग घूरे पर से उठा लाते हैं.
ज़िंदाबाद के नारे से जलाते हैं.

ये और दौर है.
लोग नंगे घूमते हैं.
नंगे नाचते हैं.
नंगे क्लबों में जाते हैं.
एक-दूसरे को जलसों में नंगा करते हैं.
अवाम तक के कपड़े उतार लेते हैं.
बल्कि खाल खींच लेते हैं.
खालों से ज़रे-मबादला कमाते हैं.
गोश्त कच्चा खा जाते हैं.
न चूल्हा है न सीख है
ये ज़ामाना कब्ल-अज़तारीख़ है.

मिलावट की सनअत.
रिश्वत की सनअत.
कोठी की सनअत.
पकौड़ी की सनअत.
हलवे की सनअत.
मांडे की सनअत.
बयानों और नारों की सनअत.
तावीज़ों औऱ गण्डों की सनअत.
ये हमारे यहां का सनअती दौर है.

काग़ज़ के कपड़े.
काग़ज़ के मकान.
काग़ज़ के आदमी.
काग़ज़ के जंगल.
काग़ज़ के शेर.
ज़रा नम हों तो सब के सब ढेर.
काग़ज़ के नोट.
काग़ज़ के ओट.
काग़ज़ का ईमान.
काग़ज़ के मुसलमान.
काग़ज़ के अख़बार.
और काग़ज़ के ही कालमनिगार.
ये सारा काग़ज़ का दौर है.

अब इस आख़िरी दौर को देखिए.
पेट रोटी से ख़ाली.
जेब पैसे से ख़ाली.
बातें बसीरत से ख़ाली.
वादे हक़ीकत से ख़ाली.
दिल दर्द से ख़ाली.
दिमाग़ अक्ल से ख़ाली.
शहर फ़रज़ानों से ख़ाली.
जंगल दीवानों से ख़ाली.
ये खलाई दौर है.
लोग तो ‘हम’ के गुब्बारे फुलाते हैं.
माजूने-फलक सैर खाते हैं.
रुपये हिलाल-कमेटियां बनाते हैं.
आसमान के तारे तोड़ लाते हैं.
डटकर दुम्बे नोश फरमाते हैं.
बैतुलख़ला में मदार पर पहुंच जाते हैं.
यह – हमारे यहां का खलाई दौर यही है.

मकनातीस – चुंबक. मरदे-आहन – लौह पुरुष. ज़रे-मबादला – विदशी मुद्रा. क़ब्ल-अज़तारीख़ – प्राचीन इतिहास का काल. सनअत – व्यापार. बसीरत – समझदारी. फ़रज़ान – बुद्धिमान. खलाई दौर – अंतरिक्ष का ज़माना. माजूने-फलक सैर – छककर. रुपये हिलाल-कमेटी – चांद देखने की तस्दीक़ करने वालों की कमेटी. दुम्बा – भेंड. मदार – धुरी.

अख़बार

यह कौन-सा अख़बार है?
यह रोज़नामा ‘बाग़ो-बहार’ है.
इसकी क्या बात है?
मजमूअए मालूमात है.
यह लोगों को सीधी राह भी बताता है.
ताक़त की अकसीरी दवाएं भी बिकवाता है.
इसमें फ़िल्मी सफ़हा भी होता है.
इसमें इस्लामी सफ़हा भी होता है.
ग़ाज़ियों की तकबीरें भी होती हैं.
हसीनों की तस्वीरें भी होती हैं.

दुनिया भी चुस्त रहती है.
आक़ेबत भी दुरुस्त रहती है,
अख़बार के बड़े फ़ायदे हैं.
अख़बार न हो तो क़ौम की रहनुमाई कैसे हो?

एक्ट्रेसों की रूनुमाई कैसे हो?
लीडर अपनी हवा किसमें बांधे?
हकीम क़ब्ज़ की दवा किसमें बांधे?
पंसारी मिर्चों का पुड़ा किसमें बांधे?

यह अख़बार वाला बड़ा निडर है.
बातिल से नहीं डरता.
लोगों से नहीं डरता.
कभी कभी ख़ुदा से नहीं डरता.
बस सरकार से डरता है.
बड़ा अच्छा करता है.

जब तक ख़ुशनूदिये-सरकार है
रोज़गार है, कोठी और कार है.
पुराने लोग ऐसा नहीं करते.
पुराने लोग भूखे भी तो मरते थे.

फिर भी मियां अख़बार वाले.
अख़बार काला कर.
अपना क़िरदार काला मत कर.
सिर्फ़ अख़बार बेच – ईमान मत बेच.

रहनुमाई – रास्ता बताना. रूनुमाई – चेहरा दिखाना. बातिल – झूठ, बुराई.

व्यंग्य और आवरण चित्रः राजकमल प्रकाशन से छपी ‘उर्दू की आख़िरी किताब’ से साभार

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