व्यंग्य | चचा छक्कन ने झगड़ा चुकाया

पिछली गर्मियों में इतवार का रोज़ था. हमारे हां चिराग़ में बत्ती पड़ते ही खाना खा लिया जाता है. बच्चे खाना खा कर सो गए थे. चची ने खाना निमटा कर इशा की नमाज़ की नीयत बांधी थी, नौकर बावर्चीख़ाने में बैठे खाना खा रहे थे, चचा छक्कन बनियान पहने, तहमद बांधे, टांग पर टांग रखे, चारपाई पर लेटे मज़े मज़े से हुक़्क़े के कश लगा रहे थे कि दफ़्अतन गली में से शोर व गुल की आवाज़ आई.
बुंदु, अमामी, मोदा खाना छोड़ दरवाज़े की तरफ़ लपके, चचा भी लपक कर उठ बैठे और कोई नज़र न आया तो चची की तरफ़ देखा, चची ने सलाम फेरते हुए मुंह उधर मोड़ा, आंखें चार हुईं तो चचा ने पूछा,
“ये शोर कैसा है?” चची माथे पर तेवरी डाल कर वज़ीफ़ा पढ़ने लगीं.
चचा छक्कन कुछ देर इंतिज़ार करते रहे कि शायद कोई नौकर लड़का पलट कर आए और कुछ ख़बर लाए. वैसे चची से बराबर पूछते रहे.
“कोई आता नहीं! कहां बैठ रहे सब के सब? देखती हो उनकी हरकतें? मालूम नहीं किया वारदात हो गई!”

लेकिन जब न चची ने जवाब दिया और न कोई लड़का वापस आया तो मजबूरी को उठे और जूता पहन कर ख़ुद बाहर निकलने की तैयारी की.
चची बोलीं, “चले हो तो किसी के झगड़े में न पड़ना.”
चचा बोले, “मेरा सर भरा है. बाज़ारी लोगों के झगड़े से हमें क्या सरोकार.”
ज़नानख़ाने से निकल मरदानख़ाने में आए. ड्योढ़ी में क़दम रखा तो देखा घर के सामने भीड़ जमा है. चचा को तवक़्क़ो न थी कि इतनी जल्दी मौक़े पर जा पहुंचेंगे. कुछ घबराए. आगे बढ़ने के लिए अभी तैयार न थे, वापस हटने को जी न चाहता था. चुनांचे आपने जल्दी से दीया गुल करके ड्योढ़ी का दरवाज़ा भेड़ दिया और देर तक दर्ज़ से आंख लगाए सूरत-ए-हाल मुलाहिज़ा फ़रमाते रहे.

मालूम हुआ झगड़ा दो हमसायों के दरमियान है जो सामने के मकान में रहते हैं, एक ऊपर की मंज़िल में, दूसरा नीचे की मंज़िल में. हाथा-पाई तक नौबत पहुंच गई थी लेकिन लोगों ने अब दोनों को अलग अलग कर के संभाल रखा है और मीर बाक़िर अली उन्हें समझा-बुझा कर तक़रीबन ठंडा कर चुके हैं.
चचा से रहा न गया. ये बात उन्हें क्योंकर गवारा हो सकती थी कि उनके होते-साते मुहल्ले का कोई और शख़्स इस क़िस्म के क़िस्सों में पंच बन बैठे, चुनांचे आप तह्मद कस बनियान नीचे खींच दरवाज़ा खोल बाहर खड़े हुए और सरपरस्ताना अंदाज़ में बोले, “अरे भई क्या वाक़िया हो गया?”
मीर बाक़िर अली ने कहा,”अजी कुछ नहीं. यूं ही ज़रा सी बात पर इन ख़ानसाहब और मौलवी साहब में झगड़ा हो गया था, मैंने समझा दिया है दोनों को.”
वो तो समझ गए मगर चचा भला कहाँ समझते थे, मौक़े पर जा पहुंचे, बोले, “मगर क्या बात हुई? ये तो कुछ ऐसा नज़र आता है जैसे ख़ुदा-न-ख़्वास्ता फ़ौजदारी तक नौबत पहुंच गई थी.”
मीर बाक़िर अली ने टालना चाहा. “अजी अब ख़ाक डालिए उस क़िस्से पर, जो होना था हो गया. हमसायों में दिन-रात का साथ, कभी-कभार शिकायत पैदा हो ही जाती है.”
अब भी चचा की तस्कीन न हुई, बोले, “पर ज़्यादती आख़िर किस की तरफ़ से हुई?”
ख़ां साहिब बोले, “पूछिए इन मौलवी साहब से जो बड़े मुत्तक़ी बने फिरते हैं. डाढ़ी तो बालिश्त भर बढ़ा रखी है लेकिन हरकतें रज़ीलों की सी हों तो डाढ़ी से क्या फ़ायदा?”
चचा चौंक कर बोले, “ओहो ये क़िस्सा तो टेढ़ा मालूम होता है!”
अब मौलवी-साहब कैसे चुप रह सकते थे, बोले, “साहिब उनको कोई चुप कराए. मैं बड़ी देर से तरह दिए जा रहा हूं और ये जो मुंह में आए बके चले जाते हैं. इसका नतीजा उनके हक़ में अच्छा न होगा.”
ख़ान साहब कड़क कर बोले, “अबे जा, चार भले आदमी बीच में पड़ गए जो मैं रुक गया, नहीं तो नतीजा तो आज ऐसा बताता कि छट्टी का दूध याद आ जाता.”
मौलवी साहब ने तन कर फ़रमाया, “ताक़त के घमंड में न रहना ख़ान साहिब! अंग्रेज़ का राज है, जी हां, और यहां भी कोई ऐसे वैसे नहीं हैं. हम भी ऐसे हथियारों पर उतर आए तो याद रखिए वर्ना, जी हां.”

ख़ान साहब बेक़ाबू हो गए. मुक्का तान कर आगे बढ़ा चाहते थे कि लोगों ने बीच-बचाओ करके रोक लिया. मौलवी साहब आस्तीनें चढ़ाते-चढ़ाते रह गए, बाक़िर अली साहिब ने परेशान हो कर चचा छक्कन से कहा, “दोनों के दोनों अच्छे ख़ासे समझ गए थे. आपने फिर दोनों को भिड़ा दिया.”
चचा बोले, “लाहौल वला क़ुव्वत. कहने लगे कि आपने भिड़ा दिया. अजी हज़रत मैं तो सिर्फ़ इतना पूछ रहा था कि क़सूर किसका है. आप जो बड़े पंच बन कर घर से निकल खड़े हुए तो इतना मालूम कर लिया होता कि ज़्यादती किसकी है और असल वाक़िया क्या है?”
बाक़िर अली ने फिर बात टालनी चाही. “अजी कहां अब सर-ए-राह क़िस्सा सुनिएगा, जाने दीजिए, जो हुआ सो हुआ मैं तो इन दोनों की शराफ़त की दाद देता हूँ कि जो हमने कहा, इन्होंने मान लिया, बात रफ़्त गुज़श्त हुई, अब आप क्या गड़े मुर्दे उखेड़ने आ गए.”
चचा ने देखा, मीर बाक़िर अली छाए चले जा रहे हैं, आग ही तो लग गई लेकिन संभल कर बोले, “साहब-ए-मन आपको इस मुहल्ले में आए अभी अर्सा ही कितना हुआ. कै आमदी-ओ-कै पीरशदी और हमारी तो नाल इसी मुहल्ले में गड़ी हुई है. अब आप जाने दीजिए न इस बात को, बाज़ी-बाज़ी बारीश बाबा हम बाज़ी? और सर-ए-राह का क्या है, ये झगड़ा हम तक आज न पहुंचता कल पहुंच जाता. सो अब भी क्या मुज़ाइक़ा है. सामने ही तो ग़रीबख़ाना है, अंदर चल बैठें, दो मिनट में क़िस्सा तय हुआ जाता है. मुझे तो ये हर्गिज़ गवारा नहीं कि जिस मुहल्ले में सभी रहते हों वहां हमसायों में सर-ए-बाज़ार जूती पैज़ार हुआ करे.”
ये कह कर चचा ने दाद तलब निगाहों से मज्मे को देखा. बोले, “क्यों साहिब! ख़ुदा लगती कहिए, ये भला कोई शराफ़त है?”
मज्मे में से ताईद की भुनभुनाहट सी सुनाई दी. मीर साहिब ख़ामोश हो के रह गए. चचा बोले, “तो आप दोनों साहिब अंदर तशरीफ़ ले आईए ना. और मीर साहिब अगर चाहें तो मीर साहिब भी आ सकते हैं. बाक़ी लोगों से मुख़ातिब हो कर फ़रमाया. आप लोग जा सकते हैं, यहां कोई भांड तो नाचेंगे नहीं जो आपको मदऊ करूं. आपस के झगड़े तय कराना मग़ज़पाशी का काम है, आप लोग अपने घर जा कर आराम कीजिए.”

लीजिए साहिब चचा क़ाज़ी-उल-क़ज़ा बन गए, मुद्दई और मुद्दआलैह मीर साहिब को साथ लिए घर में आए. घर पहुंच कर पहले मर्दाने ही से फ़रामीन की एक फ़हरिस्त सादर हुई कि बुंदु लैम्प लाए, और मोदा बर्फ़ का पानी बनाए, और अमामी हुक़्क़ा ताज़ा करके पहुंचाए. और बुंदु लैम्प ला चुकने के बाद ख़ासदान लेकर आए, और मोदा पानी ला चुकने के बाद उगालदान ला कर रखे, और अमामी हुक़्क़े से फ़राग़त पा कर पंखा झले.
सबको दीवानख़ाने में बिठाया, ख़ुद ये कह कर अंदर गए कि मैं अभी हाज़िर हुआ. अंदर जा कर बनियान पर चिकन का कुर्ता पहना. पहन ही रहे थे कि चची ने जल्दी-जल्दी रकात ख़त्म करके सलाम फेर के पूछा, “क्या बात है?”
चचा बेपरवाही के अंदाज़ में बोले, “अजब हालत है लोगों की, न दिन को चैन लेने देते हैं न रात को. इन सामने वाले ख़ान साहब और मौलवी साहब का झगड़ा हो गया. मुसीबत में मेरी जान पड़ गई. सब मुसिर हैं कि आप बीच में पड़ के फ़ैसला करा दीजिए. बात टाली भी नहीं जा सकती, मुहल्ले का मुआमला ठहरा. बहरहाल बरसर-ए-औलाद-ए-आदम हर चह आयेद बगुज़र्द. तो तुम नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर पान के कुछ टुकड़े लगा के भेज देना.”
चची जल कर बोलीं, “ये शौक़ भी पूरा कर लीजिए.”

चचा कुर्ते के बटन लगाते हुए बाहर निकले, दीवानख़ाने में पहुंच कर आराम कुर्सी पर दराज़ हो गए, टांगें समेट कर ऊपर धर लीं. बोले, “मैं हाज़िर हूँ, फ़रमाइए क्या बात हुई? सारा वाक़िया बयान कीजिए. लेकिन मुख़्तसर तौर पर.”
मौलवी साहब और ख़ान साहब दोनों की तेवरी चढ़ी हुई थी, मुंह फुलाए लाल-लाल आंखों से एक इस तरफ़ एक उस तरफ़ तक रहा था. चचा का तक़ाज़ा सुन कर दोनों के दोनों कुछ कसमसाए मगर चुप के बैठे रहे. मीर साहिब ने मोहर-ए-सुकूत तोड़ी. “हज़रत बात तो असल में बड़ी मामूली थी.”
चचा ने कहा, “आप तम्हीद को जाने दीजिए, मतलब की बात कहिए.”
मीर साहिब ने ग़ुस्से को पी कर कहा, “तो और क्या कहूं. बात हक़ीक़त में निहायत मामूली है, लेकिन.”
ख़ानसाहब से ज़ब्त न हो सका. कोई आपकी बहू बेटियों को यूं देखता और आप उसे मामूली बात कहते तो जानता.”
चचा कुर्सी पर उकड़ूं बैठ गए. “मस्तूरात का वाक़िया है तो वाक़ई हज़रत उसे मामूली बात कहना तो बड़ी ज़्यादती है आपकी. ख़ान साहब आप ख़ुद ही जो वाक़िया है बयान कीजिए.”
बाक़िर अली साहिब ख़ामोश हो गए. ख़ान साहब की हौसला-अफ़ज़ाई हुई. बोले, “आप सा मुंसिफ़ मिज़ाज बुज़ुर्ग पूछेगा तो बयान करूंगा ही, आपसे क्या पर्दा है.”
चचा फूल गए. कुछ कहना ज़रूरी मालूम हुआ. “नहीं-नहीं कोई बात नहीं. आप बिला तकल्लुफ़ कहिए.”
ख़ान साहब ने कहा, “आपको इल्म ही है कि इस सामने के मकान की निचली मंज़िल में हम रहते हैं और ऊपर की मंज़िल में एक खिड़की है जिससे हमारे मकान के सेहन में नज़र पड़ती है.”
चचा ने बात काट कर फ़रमाया, “जी हां, जी हां, मेरी देखी हुई क्या, मेरे सामने बनी और उस एक खिड़की का क्या ज़िक्र, इस सारे मकान की तामीर में मेरा बहुत कुछ दख़ल रहा. मालिक मकान फ़ज़ल-उर-रहमान ख़ान के मुझसे मरासिम थे. हैदराबाद जाने से पहले हर-रोज़ शाम को मिलने आते थे और सच पूछिए उन्हें ये मश्वरा भी मैंने ही दिया था कि ख़ाली ज़मीन पड़ी है और कौड़ियों के मोल बिक रही है तो कुछ ऐसी सूरत करनी चाहिए कि किराए की एक सबील निकल आए. तो उन्होंने ये गोया मकान बनाया. ख़ैर ये तो जुमला-ए-मोतरिज़ा था, आप बात कहिए.”

ख़ान साहब ने सोचा कि बात कहां तक की थी. बोले, “जी तो ऊपर की मंज़िल में एक खिड़की है कि उससे हमारे हां के सेहन में नज़र पड़ती है. हम उस मकान में पहले से रहते हैं. ये हज़रत बाद में आए. आते ही हमने उनसे कह दिया कि मौलवी साहब इस खिड़की में अगर आप ताला डलवा दें तो मुनासिब है. वर्ना औरतों का सामना हुआ करेगा और मुफ़्त में कोई न कोई क़िस्सा खड़ा हो जाएगा.”
चचा ने दाद दी. “बहुत मुनासिब कार्रवाई की आपने. क़ानूनी नुक़्ता-ए-नज़र से, गोया आपने एक ऐसी पेशबंदी कर ली कि बाद में अगर किसी क़िस्म की भी शिकायत पैदा हो तो आपको गिरफ़्त का जाइज़ मौक़ा मिले. बहुत ठीक. जी तो फिर?”
ख़ान साहब दाद से बहुत मसरूर हुए. “ख़ुदा हुज़ूर का भला करे. मैंने सोचा नए आदमी हैं. क्यों न पहले ही से ख़बरदार कर दूं. सो साहिब उन्होंने भी मुझे यक़ीन दिलाया कि खिड़की में ताला डाल दिया गया है और मैं बेफ़िक्र हो गया. अब जनाब आज सुबह को क्या हुआ..कि…”
“ये लीजिए, ठंडा पानी पीजिए. आप भी लीजिए मौलवी साहब. पानी दे बे, मीर साहिब को. जी तो आज सुबह. अबे रख दे मेज़ पर ख़ासदान, सिर पर क्यों सवार हो गया है. और वो अमामी कहां मर रहा है? अभी तक हुक़्क़ा नहीं भरा गया? जी साहिब आप कहे जाइए. मैं सुन रहा हूँ. हाँ और वो उगालदान? कह भी दिया था, फिर भी याद नहीं रहा. बड़े नालायक़ हो तुम लोग. आप फ़रमाइए न ख़ान साहब?”

ख़ान साहब ने कुछ देर सुकूत का इंतिज़ार किया, आख़िर बोले, “जी तो आज सुबह मैं उधर दुकान पर रवाना हुआ, इधर ऊपर की मंज़िल में एक बच्चे ने खिड़की खोल दी. औरतें सेहन में बैठी थीं, उन्होंने खिड़की बंद करने को कहा तो ये हज़रत ख़ुद खिड़की में आन मौजूद हुए और बदीं रेश-ओ-फ़िश औरतों को देखने लगे. अब आप ही फ़रमाइए कि ये शरीफ़ों और मौलवियों की सी बातें हैं या लुच्चों और शोहदों की सी हरकतें?”
चचा ने आलम-ए-इस्तिजाब में आंखें खोलीं, गर्दन झुका ली. और फिर एक हाकिमाना अंदाज़ में सर फेर कर मौलवी साहब की तरफ़ देखा, बोले, “मौलवी साहब ये तो आपने ऐसी नामुनासिब और ख़िलाफ़-ए-शरा हरकत की जिस पर आपको जिस क़दर इल्ज़ाम दिया जाए बजा है.”
मौलवी साहब देर से ख़ामोश बैठे देख रहे थे कि चचा हमदर्दाना अंदाज़ से ख़ान साहब की गुफ़्तगु सुन रहे हैं. अब चचा ने उन्हें मुख़ातिब किया तो वो भड़क उठे. “सुब्हान-अल्लाह! आप भी अजब सादा-लौह शख़्स हैं. जो कुछ किसी ने इफ़्तिरा बांधा, झट उस पर ईमान ले आए. वाह साहिब वाह!”
चचा को यह अंदाज़-ए-कलाम किसी क़दर नागवार गुज़रा. “तो आपको ये ख़्याल है कि मैं ख़ान साहब की नाजाइज़ हिमायत कर रहा हूँ?”
मौलवी साहब बोले, “नाजाइज़ हिमायत तो है ही. आप पहले मेरी अर्ज़ भी तो सुनिए कि मैं क्या कहता हूँ.”
चचा बे ज़ाब्तगी का इल्ज़ाम सुनकर चिढ़ गये. बोले, “तो बयान कीजिए कि आप क्या अर्ज़ करना चाहते हैं. मगर अर्ज़ हो, तूल न हो, मुझे इख़्तिसार बहुत मर्ग़ूब है.”
मौलवी साहब बोले, “जी मैं बहुत मुख़्तसर तौर पर सब कुछ अर्ज़ किए देता हूँ. हमने मकान में आते ही खिड़की में ताला डाल दिया था. चुनांचे आज तक कभी कोई वजह-ए-शिकायत पैदा नहीं हुई. आज इत्तिफ़ाक़िया बच्चे के हाथ चाबी लग गई और उसने खिड़की खोल दी और खिड़की में खड़ा हो कर इनके बच्चों को आवाज़ें देने लगा. मैंने जब…”
लेकिन बयान ख़त्म होने से पहले ही चचा ने जिरह शुरू कर दी. “तो आपका बयान ये है कि आवाज़ें देने के लिए खिड़की का ताला खोला था, महज़ आवाज़ें देने की लिए, महज़? ख़ूब. इसके लिए भला खिड़की खोलने की क्या ज़रूरत थी?”
मौलवी साहब बोले, “आख़िर बच्चा ही तो था. उसे भला नेक-ओ-बद की क्या तमीज़. उसे थोड़ा ही मालूम था कि साहिब ये ताला न खोलना चाहिए और वह खिड़की बंद रहनी चाहिए. चाबी मिल गई थी, ताले पर नज़र पड़ी, खोल डाला.”

चचा होंठ सिकोड़-सिकोड़ कर और आँख मीच कर मुंह सर हिलाते रहे गोया मौलवी साहब के इस जवाब में भी उन्हें ऐसे-ऐसे मानी नज़र आ रहे हैं जो दूसरों के फ़ह्म से बाला तर हैं.
मौलवी साहब ने अपना बयान जारी रखा. “मैंने खिड़की जो खुली देखी तो फ़ौरन बंद करने को लपका और किवाड़ बंद करके उसी वक़्त ताला लगा दिया.”
चचा ने फिर टोका, “क्यों हज़रत ये आपके घर में ताला खोलना तो बच्चों को भी आता है मगर बंद करना आपके सिवा किसी को नहीं आता? ख़ूब!”
मीर बाक़िर अली साहिब बोले, “हज़रत ये एक इज़तिरारी हरकत थी जिससे ये ज़ाहिर होता है कि उन्हें इस खिड़की के बंद रखने का हर वक़्त ख़्याल रहता था, खुली देखी तो यकलख़्त बंद करने को लपके.”
मौलवी-साहब ने मज़ीद सफ़ाई के ख़्याल से कहा, “ख़ुदा शाहिद है जो मुझे ये गुमान भी गुज़रा हो कि सेहन में मस्तूरात मौजूद होंगी, या मैंने उस तरफ़ नज़र भी डाली हो. ये सरासर बोह्तान है कि मैं खड़ा रहा बल्कि मैंने तो बाद में नीचे कहला भी भेजा कि मुझे बड़ा अफ़सोस है कि बच्चे ने खिड़की खोल दी थी.”
मीर साहिब ने मौलवी साहब के चाल चलन के मुताल्लिक़ शहादत दी. “मौलवी साहब जब से यहां आए हैं, मैं उन्हें जानता हूँ. मेरे बच्चों को पढ़ाते हैं, रोज़ का आना-जाना है और मैं वसूक़ से कहता हूँ कि ये इस क़िस्म के आदमी नहीं, चुनांचे मैंने ख़ान साहब से भी यही कहा था कि मस्तूरात को ग़लतफ़हमी हो गई होगी वर्ना मौलवी साहब से किसी बुरे ख़्याल की तवक़्क़ो नहीं हो सकती.”

लेकिन चचा भला किसी दूसरे की राय को कब ख़ातिर में लाते हैं. बोले, “दिलों का हाल ख़ुदावंद आलम बेहतर जानता है और इसके मुताल्लिक़ कुछ कहने की जुर्रत करना मेरी राय में कुफ़्र है. बहरहाल अभी सब कुछ खुला जाता है. तो जनाब इतवार के रोज़ आप घर ही में रहते हैं? बजा. तो सवाल ये है कि अगर खिड़की खुलनी थी तो इतवार ही के रोज़ क्यों खुली जब आप घर में मौजूद थे? किसी और दिन क्यों न खुली?”
ये कह कर चचा ने नथुने फ़ुला कर फ़ातिहाना अंदाज़ से बारी-बारी सब पर यूं नज़र डाली गोया कोई बड़ा अहम नुक्ता निकाल कर मौलवी साहब को लाजवाब कर दिया है.
मौलवी साहब इस इस्तिदलाल से परेशान से हो गए थे. बोले, “हज़रत! इस बात की अहमियत कुछ वाज़िह तौर पर मेरी समझ में नहीं आई. बाक़ी वाक़िया ये है कि खिड़की की चाबी गुच्छे में है, गुच्छा मेरे पास रहता है जब मैं घर पर हूंगा तभी गुच्छा घर पर होगा और उसी वक़्त खिड़की खुलने का इमकान भी है.”
चचा को इस जवाब की तवक़्क़ो न थी. सर पीछे को डाल कुर्सी पर लेट गए और बोले, “अब ये आपकी कज बहसी है वर्ना हक़ीक़त ये है कि इस बात का जवाब आपके पास कुछ नहीं.”

मौलवी साहब ने नामालूम दानिस्ता या नादानिस्ता चचा को थोड़ा सा रोगन-ए-क़ाज़ मला. बोले, “साहिब जो असल वाक़िया था वो तो मैंने अर्ज़ कर दिया अब आप अपनी इल्मियत और क़ाबिलियत से जो नुक्ता चाहें निकाल सकते हैं और मुझसे जाहिल की क्या बिसात कि बहस में आपसे पेश चल सके.”
चचा ख़ुश हो गए. मौलवी साहब के ख़िलाफ़ जो जज़्बा अंदर ही अंदर काम कर रहा था ठंडा पड़ गया. ऐसे अंदाज़ में हंस पड़े गोया दानिस्ता महज़ तफ़रीह की ग़रज़ से मंतिक़ के शोबदे दिखा रहे थे. मुस्कुरा कर बोले, “मालूम होता है आपको भी मंतिक़ से दिलचस्पी है. ले आया बे हुक़्क़ा? रख दे उधर, अच्छा इधर ही रख दे. लीजिए मौलवी साहब! ना ना लीजीए ना, ज़रा तंबाकू मुलाहिज़ा फ़रमाइएगा, बराह-ए-रास्त मुरादाबाद से मंगवाता हूँ वर्ना यहां का तंबाकू तो आप जानिए निरा गोबर होता है. मुरादाबाद में एक अज़ीज़ हैं, कलक्टरी में पेशकार हैं मगर साहिब उनके रसूख़ का क्या कहना, कभी-कभार याद कर लेते हैं.”
मौलवी साहब ने हुक़्क़े के कश लगाने शुरू किए. ख़ान साहब ने देखा कि चचा तो मौलवी साहब पर रेशा ख़त्मी हुए जा रहे हैं, ग़ुस्से से लाल पीले हो गए. बोले, “जिस बात के लिए आपने हमें बुलाया था वो तो…”
चचा ने बात काट कर कहा, “जी हाँ देखिए, मैं अर्ज़ करता हूँ. तो जनाब-ए-मन बाक़ी रहा इस झगड़े का क़िस्सा, तो ख़ान साहिब मेरी ज़ाती राय पूछिए तो ताली एक हाथ से नहीं बजा करती. दुनिया में आज तक जितने भी झगड़े हुए, हमेशा उनका ताल्लुक़ फ़रीक़ैन से रहा है.”
ख़ान साहब ने बे-इख़्तियार पूछा, “इस झगड़े में मेरा क्या क़सूर था?”
चचा ने जवाब दिया, “अरे भाई कुछ न कुछ होता ही है न. तुम्हारा न सही तुम्हारे घर वालों का सही मसलन अब भला उन्हें उस वक़्त सेहन में बैठने की क्या ज़रूरत थी? कोई वहां बाग़ तो लगा हुआ नहीं. आप कहेंगे कि वो आपके घर का सेहन था. ज़रा देर को मान लिया कि था मगर फिर ऊपर खिड़की की तरफ़ देखना क्या ज़रूर था? वैसे मेरा कोई बुरा मक़सद नहीं, ताहम देखिए न कि बात को बढ़ाया जाए तो कुछ की कुछ हो जाती है. मतलब मेरा यह है कि ऐसे मुआमलों में तो जितना छानो उतनी ही कर निकलती है.”
मीर साहिब इस कार्रवाई से तंग आ चुके थे. बोले, “अजी अब क़सूर एक का था या दोनों का, इस बहस से आख़िर क्या हासिल. आप इस क़िस्से को किसी ऐसी तरह चुकाइए कि आइन्दा इन दोनों साहिबों का इत्मिनान हो जाये. मैंने तो ये तजवीज़ किया था कि आइन्दा की इत्मिनान की ग़रज़ से मौलवी साहब की खिड़की में ख़ान साहब अपना ताला डाल दें.”
चचा साहिब ने कन अंखियों से मीर साहिब की तरफ़ देखकर पूछा, “क्या मुराद?”
मीर साहिब ने कहा, “मुराद ये है कि मौलवी साहब के मकान की वो खिड़की मुक़फ़्फ़ल रहे और उसकी चाबी इत्मिनान की ग़रज़ से ख़ान साहब अपने पास रखें.”

तजवीज़ चचा को माक़ूल मालूम हुई लेकिन चूँकि मीर साहिब की तरफ़ से पेश हुई थी इसलिए क़बूल करने को दिल न चाहा. बोले, “नहीं नहीं, नहीं नहीं. ये तो कुछ. ओहों, कुछ नहीं. कुछ नहीं. इस तरह तो, यानी ख़्वाह-मख़ाह ख़ान साहब अपना एक ताला बेकार कर डालें. और अपने घर में किसी दूसरे का ऐसा दख़ल किसी ग़ैरतमंद को कब गवारा हो सकता है? ये ताला-वाला कुछ नहीं, कोई और तजवीज़ होनी चाहिए, कोई माक़ूल तजवीज़ जो तरफ़ैन के लिए फ़ायदेमंद भी हो और इत्मिनान का बाइस भी हो. क्यों साहिब! अगर खिड़की चुनवा दी जाये तो कैसा है?”
ख़ान साहब बोले, “अव्वल तो मालिक मकान अब यहां है नहीं और अगर उसे लिखा भी जाए तो वो उसे मंज़ूर न करेगा. मैंने एक मर्तबा की थी ये तजवीज़ पेश, वो कहने लगे कि इस खिड़की के बंद होने से कमरा तारीक हो जाएगा.”
चचा ने कहा, “ये दूसरी बात है वर्ना तजवीज़ ख़ूब थी. अपना हमेशा के लिए ये क़िस्सा ख़त्म हो जाता. मसलन आप दोनों के चले जाने के बाद कोई और दो किराएदार आकर आबाद होते तो उनमें किसी क़िस्म की बद मज़गी का इमकान न रहता. आया न ख़्याल शरीफ़ में? मगर ये कमरे में अंधेरा हो जाने का सवाल बेशक टेढ़ा है. ख़ैर न सही यूं, किसी और तरकीब से काम ले लीजिए. तरकीबें बहुत, बेहद-ओ-शुमार, मुझे तो सिर्फ़ आप लोगों की सहूलत का ख़्याल है, वर्ना मैं तो तजवीज़ों का अंबार लगा दूं परेशान कर दूं आपको. बड़े-बड़े क़िस्से चुकाए हैं. इस एक खिड़की बेचारी की क्या हक़ीक़त है. तो यूं क्यों न कीजिए, मसलन आप दोनों में से एक साहिब मकान ख़ाली कर दें और किसी दूसरी जगह जा रहें. क्यों साहिब क्या राय है?”

ख़ान साहब और मौलवी साहब पहले कुछ मुंह ही मुंह में बोले, फिर ख़ान साहब ने कहा, “साहिब मैं तो मकान छोड़ नहीं सकता, कहां नया मकान तलाश करता फिरूं?”
मौलवी साहब ने भी माज़ूरी ज़ाहिर की. “हज़रत मेरे लिए तो ये फ़िलहाल ना-मुम्किन है, इतने किराए में इस क़दर गुंजाइश भला और कहां मिलेगी!”
चचा की बेहद-ओ-हिसाब तजवीज़ों का ज़ख़ीरा इस पहली ही तजवीज़ के बाद ख़त्म हो चुका था. अब यूं आप हर तजवीज़ में मीन मेख़ निकालने लगे तो तय हो चुका आपका झगड़ा यानी मकान बदलने में आख़िर क़बाहत ही किया है? सीधी सी बात है भई नहीं निभती अलग हो जाओ, न रहे बांस न बजे बंसुरी. क्या आपके ख़्याल में इस मकान के सिवा शहर भर में और माक़ूल मकान नहीं? या और मकान बाल बच्चेदार लोगों के रहने के लिए नहीं बनवाए गए? इनकार की कोई वजह भी तो होनी चाहिए, इससे तो ज़ाहिर होता है कि आप लोग सुलह-सफ़ाई पर आमादा नहीं और चाहते हैं कि रोज़ इसी क़िस्म के क़िस्से खड़े हुआ करें. ऐसी हालत में मेरा कोई तजवीज़ पेश करना दुशवार है, आप ख़ुद आपस में निमट लीजिए.
मीर साहिब बेचारे परेशानी के आलम में ये बातें सुन रहे थे और कुर्सी पर बार-बार पहलू बदलते थे आख़िर न रहा गया, हिम्मत कर के बोले, “मैंने तो अर्ज़ किया न कि दोनों के लिए बेहतरीन तरकीब वही है कि खिड़की में ताला लगा रहे और इसकी चाबी.”
चचा जल गए, “अजी आप क्या एक वाहियात सी बात को चिमट गए हैं और बार-बार पेश किए जा रहे हैं. चाबी-ताला, चाबी-ताला यानी आपने तो कुछ ऐसा समझ रखा है जैसे एक ताले की दूसरी कुंजी बनवाई ही नहीं जा सकती.”
मीर साहिब ने भी जल कर जवाब दिया, “फिर यूं तो दीवार की ईंटें निकाल कर भी झांका जा सकता है.”
बात चचा की समझ में न आई. बोले, “तभी तो कहा था कि एक साहिब नक़ल-ए-मकान कर लें. न मानें तो इसका क्या इलाज. अच्छी बात है, वो उनकी औरतों को देखा करें, ये उनकी औरतों को ताका करें.”
ख़ान साहब ताव खा गए, “बिगड़ कर बोले. देखिए साहिब मुंह संभाल कर बात कीजिए, औरतों का नाम यूं ही नहीं लिया जाता, ये नामूस का मुआमला है, हम ग़रीब सही मगर नकटे नहीं.”
चचा कुछ कसमसाए, मीर साहिब घबराए, मौलवी साहब उठ खड़े हुए, बोले, “तो मैं अब इजाज़त चाहता हूँ, घर पर बाल-बच्चे परेशान हो रहे होंगे. जब कोई बात तय हो चुके तो मुझे इत्तिला दे दीजिएगा.”
ख़ान साहब ने उठकर उनका हाथ पकड़ लिया. “तुम्हारे बाल-बच्चे हैं, हमारे बाल बच्चे नहीं? पहले फ़ैसला हो जाए, फिर जाने दूंगा.”
मौलवी साहब ने हाथ छुड़ाना चाहा मगर ख़ान साहब की गिरफ़्त मज़बूत थी, बोले, “तो अपना ताला लाओ और खिड़की में डाल दो.”
ख़ान साहब बोले, “ताला तुम दो, चाबी मेरे पास रहेगी.”
चचा को तो ये तजवीज़ शुरू ही से न मर्ग़ूब थी, बोले, “ताला ये क्यों दें? बेपर्दगी तुम्हारी औरतों की होती है या उनकी?”
चचा की ताईद से मौलवी-साहब को भी हौसला हुआ, बोले. देखिए तो सही.
ख़ान साहब को आग लग गई. बढ़कर मौलवी साहब की गर्दन में हाथ डाला. मौलवी साहब के गले से एक इस क़िस्म की आवाज़ निकली जैसे ज़बह होते हुए बकरे के गले से निकलती है.
मीर साहिब हायं-हायं करते लपक कर उठे.
चचा बोले, “ये हाथा पाई ठीक नहीं.”
ख़ान साहब ने मीर साहिब को धकेला तो वो लड़खड़ाते हुए दीवार से जा लगे.
चचा ने हाथ पकड़ना चाहा तो एक ज़न्नाटे का थप्पड़ उन्हें भी रसीद किया.
मीर साहिब तो चुपके खड़े रह गए. चचा दो क़दम पीछे हट कर बोले, “हाई यू!”
लेकिन ख़ान साहब किस की सुनते हैं, मौलवी साहब को गर्दन से पकड़ कर धकेलते हुए बाहर निकल गए.
मीर साहिब आवाज़ें सुनते ही फिर बाहर को लपके.
चचा चुपचाप जहां थे, वहीं के वहीं खड़े गाल सहलाते रहे.

खड़े ही थे कि पर्दा उठा, चची अंदर आ गईं, ग़ुस्से के मारे चेहरा तमतमा रहा था, बोलीं, “मैं न कहती थी कि पराए क़िस्से में दख़ल न देना मगर मेरी बात इस कान सुन उस कान उड़ा दी. अब आया होगा झगड़ा चुकाने का मज़ा. दो कौड़ी का शख़्स बे-आबरू कर गया.
चचा उसके लिए तैयार न थे, बेक़ाबू हो गए, “देखो इस वक़्त मुंह से बात न करो, वर्ना ख़ुदा जाने में क्या कर बैठूंगा.”
चची जल कर बोलीं, “अब और क्या करोगे, घर की इज़्ज़त ख़ाक में मिला दी, मुहल्ले में किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं छोड़ा, अभी कुछ और करने के अरमान बाक़ी हैं?”
चचा से जवाब बन न पड़ा, “इज़्ज़त थी तो हमारी थी, तुम्हारी न थी, तुम्हें क्या?”
चची बोलीं, “ये उम्र होने को आई, बच्चों के बाप बन गए और बेइज़्ज़त होते शर्म नहीं आती.”
इसके जवाब में चचा ने घर और बच्चों के मुताल्लिक़ इस क़िस्म के ना मुबारक अलफ़ाज़ दहन मुबारक से निकाले जिन्हें बयान करने से मैं क़ासिर हूं. ग़रज़ ये कि मुहल्ले के झगड़े की आवाज़ घर में आ रही थी और घर के झगड़े की आवाज़ मुहल्ले में पहुंच रही थी. मा बख़ैर शुमा ब सलामत.

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