व्यंग्य | कॉफ़ी

मैंने सवाल किया, “आप कॉफ़ी क्यों पीते हैं?”
उन्होंने जवाब दिया, “आप क्यों नहीं पीते?”
“मुझे उसमें सिगार की सी बू आती है.”
“अगर आपका इशारा उसकी सोंधी-सोंधी ख़ुश्बू की तरफ़ है तो ये आपकी क़ुव्वत शामा की कोताही है.”
गो कि उनका इशारा सरीहन मेरी नाक की तरफ़ था, ताहम रफा-ए-शर की ख़ातिर मैंने कहा, “थोड़ी देर के लिए ये मान लेता हूँ कि कॉफ़ी में से वाक़ई भीनी-भीनी ख़ुश्बू आती है. मगर ये कहां की मंतिक़ है कि जो चीज़ नाक को पसंद हो वो हलक़ में उंडेल ली जाए. अगर ऐसा ही है तो कॉफ़ी का इतर क्यों ना कशीद किया जाए ताकि अदबी महफ़िलों में एक दूसरे के लगाया करें.”
तड़प कर बोले, “साहिब! मैं माकूलात में माक़ूलात का दख़ल जायज़ नहीं समझता, ता वक्ते के इस घपले की असल वजह तलफ़्फ़ुज़ की मजबूरी न हो, कॉफ़ी की महक से लुत्फ़अंदोज़ होने के लिए एक तर्बीयत याफ़्ता ज़ौक़ की ज़रूरत है. यही सोंधापन लगी हुई खीर और धुनगारे हुए रायता में होता है.”
मैंने माज़रत की, “खुरचन और धुनगार दोनों से मुझे मतली होती है.”
फ़रमाया, “ताज्जुब है! यूपी में तो शरीफ़ा बड़ी रग़बत से खाते हैं.”
“मैंने इसी बिना पर हिन्दोस्तान छोड़ा.”
चरानदे होकर कहने लगे, “आप क़ाइल हो जाते हैं तो कजबहसी करने लगते हैं.”
जवाबन अर्ज़ किया, “गर्म ममालिक में बहस का आग़ाज़ सही माअनों में क़ाइल होने के बाद ही होता है. दानिस्ता दिल-आज़ारी हमारे मशरब में गुनाह है. लिहाज़ा हम अपनी असल राय का इज़हार सिर्फ़ नशा और ग़ुस्से के आलम में करते हैं. ख़ैर, ये तो जुमला मोतरिज़ा था, लेकिन अगर ये सच है कि कॉफ़ी ख़ुश-ज़ायक़ा होती है तो किसी बच्चे को पिला कर उसकी सूरत देख लीजिए.”
झल्लाकर बोले, “आप बहस में मासूम बच्चों को क्यों घसीटते हैं?”

मैं भी उलझ गया, “आप हमेशा बच्चों से पहले लफ़्ज़ मासूम क्यों लगाते हैं, क्या इसका ये मतलब है कि कुछ बच्चे गुनहगार भी होते हैं. ख़ैर, आपको बच्चों पर एतराज़ है तो बिल्ली को लीजिए.”
“बिल्ली ही क्यों, बकरी क्यों नहीं”, वो सचमुच मचलने लगे.
मैंने समझाया बिल्ली इसलिए कि जहां तक पीने की चीज़ों का ताल्लुक़ है, बच्चे और बिल्लियां बुरे-भले की कहीं बेहतर तमीज़ रखते हैं.”
इरशाद हुआ, “कल को आप ये कहेंगे कि चूंकि बच्चों और बिल्लियों को पक्के गाने पसंद नहीं आ सकते, इसलिए वो भी लगो हैं.”
मैंने उन्हें यक़ीन दिलाया, “मैं हरगिज़ ये नहीं कह सकता. पक्के राग उन्हीं की ईजाद हैं. आपने बच्चों का रोना और बिल्लियों का लड़ना…”
बात काट कर बोले, “बहरहाल सक़ाफ़ती मसाइल के हल का नतीजा हम बच्चों और बिल्लियों पर नहीं छोड़ सकते.”

आपको यक़ीन आए या न आए, मगर ये वाक़िया है कि जब भी मैंने कॉफ़ी के बारे में इस्तिस्वाब-ए-राय किया उसका अंजाम इसी क़िस्म का हुआ.
शायक़ीन मेरे सवाल का जवाब देने की बजाय उल्टी जिरह करने लगते हैं. अब मैं इसी नतीजे पर पहुंचा हूँ कि कॉफ़ी और क्लासिकी मौसीक़ी के बारे में इस्तिफ़सार राय आम्मा करना बड़ी ना-आक़िबत अंदेशी है. ये बिल्कुल ऐसी ही बदमज़ाक़ी है जैसे किसी नेक मारुफ़ की आमदनी या ख़ूबसूरत औरत की उम्र दरयाफ़्त करना (उसका मतलब ये नहीं कि नेक मर्द की उम्र और ख़ूबसूरत औरत की आमदनी दरयाफ़्त करना ख़तरे से ख़ाली है).
ज़िंदगी में सिर्फ़ एक शख़्स मिला जो वाक़ई कॉफ़ी से बेज़ार था, लेकिन उसकी राय इस लिहाज़ से ज़्यादा क़बिल-ए-इल्तिफ़ात नहीं कि वो एक मशहूर कॉफ़ी हाउस का मालिक निकला.
एक साहब तो अपनी पसंद के जवाज़ में सिर्फ़ ये कह कर चुप हो गए कि;
छुटती नहीं मुंह से ये कॉफ़ी लगी हुई
मैंने वज़ाहत चाही तो कहने लगे, “दरअसल ये आदत की बात है. ये कमबख़्त कॉफ़ी भी रिवायती चने और डोमनी की तरह एक दफ़ा मुंह से लगने के बाद छुड़ाए नहीं छूटती. है नां.”
इस मुक़ाम पर मुझे अपनी माज़ूरी का एतिराफ़ करना पड़ा कि बचपन ही से मेरी सेहत ख़राब और सोहबत अच्छी रही. इसलिए इन दोनों ख़ूबसूरत बलाओं से महफ़ूज़ रहा.

बाज़ अहबाब तो इस सवाल से चराग़ पा हो कर ज़ातियात पर उतर आते हैं. मैं ये नहीं कहता कि वो झूटे इल्ज़ाम लगाते हैं. ईमान की बात है कि झूटे इल्ज़ाम को समझदार आदमी निहायत एतिमाद से हंसकर टाल देता है मगर सच्चे इल्ज़ाम से तन-बदन में आग लग जाती है. इस ज़िम्न में जो मुतज़ाद बातें सुनना पड़ती हैं, उनकी दो मिसालें पेश करता हूं.
एक करम फ़रमा ने मेरी बेज़ारी को महरूमी पर महमूल करते हुए फ़रमाया,
हाय कमबख़्त तू ने पी ही नहीं
उनकी ख़िदमत में हलफ़िया अर्ज़ किया कि दरअसल बीसियों गैलन पीने के बाद ही ये सवाल करने की ज़रूरत पेश आई. दूसरे साहिब ने ज़रा खुल कर पूछा कि कॉफ़ी से चिढ़ की असल वजह मेदे के वो दाग़ (अल्सर) तो नहीं जिनको मैं दो साल से लिए फिर रहा हूं और जो कॉफ़ी की तेज़ाबियत से जल उठे हैं.
और इसके बाद वो मुझे निहायत तशख़ीसनाक नज़रों से घूरने लगे.

इस्तिस्वाब राय आम्मा का हश्र तो आप देख चुके. अब मुझे अपने तास्सुरात पेश करने की इजाज़त दीजिए.
मेरा ईमान है कि क़ुदरत के कारख़ाने में कोई शय बेकार नहीं. इन्सान ग़ौर-ओ-फ़िक्र की आदत डाले (या महज़ आदत ही डाल ले) तो हर बुरी चीज़ में कोई न कोई ख़ूबी ज़रूर निकल आती है. मिसाल के तौर पर हुक़्क़ा ही को लीजिए.
मोतबर बुज़ुर्गों से सुना है कि हुक़्क़ा पीने से तफ़क्कुरात पास नहीं फटकते, बल्कि मैं तो ये अर्ज़ करूँगा कि अगर तंबाकू ख़राब हो तो तफ़क्कुरात ही पर क्या मौक़ूफ़ है, कोई भी पास नहीं फटकता. अब दीगर मुल्की अश्या-ए-ख़ुर्द-ओ-नोश पर नज़र डालिए.
मिर्चें खाने का एक आसानी से समझ आ जाने वाला फ़ायदा ये है कि उनसे हमारे मशरिक़ी खानों का असल रंग और मज़ा दब जाता है. ख़मीरा गाव ज़बान इसलिए खाते हैं कि बग़ैर राशन कार्ड के शक्कर हासिल करने का यही एक जाइज़ तरीक़ा है.
जोशांदा इसलिए गवारा है कि इसके न सिर्फ़ एक मुल्की सनअत को फ़रोग़ होता है बल्कि नफ़स-ए-अमारा को मारने में भी मदद मिलती है. शलग़म इसलिए ज़हर मार करते हैं कि उनमें विटामिन होता है, लेकिन जदीद तिब्बी रिसर्च ने साबित कर दिया है कि कॉफ़ी में सिवाए कॉफ़ी के कुछ नहीं होता. अह्ल-ए-ज़ौक़ के नज़दीक यही उसकी ख़ूबी है.
मालूम नहीं कि कॉफ़ी क्यों, कब और किस मर्दुम आज़ार ने दरयाफ़्त की, लेकिन ये बात वसूक़ के साथ कह सकता हूं कि यूनानियों को इसका इल्म नहीं था. अगर उन्हें ज़रा भी इल्म होता तो चराइता की तरह ये भी यूनानी तिब्ब का जुज़्व-ए-आज़म होती.
इस क़ियास को इस अमर से मज़ीद तक़वियत पहुँचती है कि कस्बों में कॉफ़ी की बढ़ती हुई खपत की ग़ालिबन एक वजह ये भी है कि अताइयों ने “अल्लाह शाफ़ी अल्लाह कॉफ़ी” कह कर मोअख़्ख़र-उल-ज़िक्र का सफ़ूफ़ अपने नुस्ख़ों में लिखना शुरू कर दिया है.
ज़माना-ए-क़दीम में इस क़िस्म की जड़ी बूटियों का इस्तेमाल अदावत और अक़्दे सानी के लिए मख़सूस था. चूंकि आजकल इन दोनों बातों को मायूब ख़्याल किया जाता है, इसलिए सिर्फ़ इज़हार-ए-ख़ुलूस-ए-बाह्मी के लिए इस्तेमाल करते हैं.

सुना है कि चाय के बाग़ात बड़े ख़ूबसूरत होते हैं. ये बात यूं भी सच मालूम होती है कि चाय अगर खेतों में पैदा होती तो एशियाई ममालिक में इतनी इफ़रात से नहीं मिलती बल्कि ग़ल्ले की तरह ग़ैर ममालिक से दरआमद की जाती.
मेरी मालूमात-ए-आम्मा महदूद हैं मगर क़ियास यही कहता है कि कॉफ़ी भी ज़मीन ही से उगती होगी क्योंकि उसका शुमार इन नेअमतों में नहीं जो अल्लाह-तआला अपने नेक बंदों पर आसमान से बराह-ए-रास्त नाज़िल करता है. ताहम मेरी चश्म-ए-तख़य्युल को किसी तौर ये बावर नहीं आता कि कॉफ़ी बाग़ों की पैदावार हो सकती है और अगर किसी मुल्क के बाग़ों में ये चीज़ पैदा होती है तो अल्लाह जाने वहां के जंगलों में क्या उगता होगा.
ऐसे अर्बाब-ए-ज़ौक़ की कमी नहीं जिन्हें कॉफ़ी इस वजह से अज़ीज़ है कि ये हमारे मुल्क में पैदा नहीं होती. मुझसे पूछिए तो मुझे अपना मुल्क इसीलिए और भी अज़ीज़ है कि यहां कॉफ़ी पैदा नहीं होती.
मैं मशरूबात का पारिख नहीं हूँ, लिहाज़ा मशरूब के अच्छे या बुरे होने का अंदाज़ा उन असरात से लगाता हूँ जो उसे पीने के बाद रुनुमा होते हैं. इस लिहाज़ से मैंने कॉफ़ी को शराब से बदरजहा बद्तर पाया. मैंने देखा है कि शराब पी कर संजीदा हज़रात बेहद ग़ैरसंजीदा गुफ़्तगू करने लगते हैं जो बेहद जानदार होती है.
बरख़िलाफ़ इसके कॉफ़ी पी कर ग़ैर संजीदा लोग इंतहाई संजीदा गुफ़्तगू करने की कोशिश करते हैं. मुझे संजीदगी से चिड़ नहीं बल्कि इश्क़ है. इसीलिए मैं संजीदा आदमी की मस्ख़रगी बर्दाश्त कर लेता हूँ, मगर मस्ख़रे की संजीदगी का रवादार नहीं. शराब के नशे में लोग बिला वजह झूट नहीं बोलते. कॉफ़ी पी कर लोग बिला वजह सच नहीं बोलते.
शराब पी कर आदमी अपना ग़म औरों को दे देता है मगर कॉफ़ी पीने वाले औरों के फ़र्ज़ी ग़म अपना लेते हैं. कॉफ़ी पी कर हलीफ़ भी हरीफ़ बन जाते हैं.
यहां मुझे कॉफ़ी से अपनी बेज़ारी का इज़हार मक़सूद है, लेकिन अगर किसी साहिब को ये सुतूर शराब का इश्तिहार मालूम हों तो उसे ज़बान-ओ-बयान का इज्ज़ तसव्वुर फ़रमाएं.कॉफ़ी के तरफ़दार अक्सर ये कहते हैं कि ये बे-नशे की प्याली है. बिलफ़र्ज़ मुहाल ये गुज़ारिश अह्वाल-ए-वाक़ई या दावा है तो मुझे उनसे दिली हमदर्दी है. मगर इतने कम दामों में आख़िर वो और क्या चाहते हैं.

कॉफ़ी हाउस की शाम का क्या कहना! फ़िज़ा में हर तरफ़ ज़ेह्नी कोहरा छाया हुआ है. जिसको सरमायादार तबक़ा और तलबा सुर्ख़-सवेरा समझ कर डरते और डराते हैं. शोर-ओ-शग़ब का ये आलम कि अपनी आवाज़ तक नहीं सुनाई देती और बार-बार दूसरों से पूछना पड़ता है कि मैंने क्या कहा. हर मेज़ पर तिश्नगान-ए-इल्म कॉफ़ी पी रहे हैं और ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब से ग़रारे तक, या अवाम और आम के ख़वास पर बोक़राती लहजे में बहस कर रहे हैं.
देखते ही देखते कॉफ़ी अपना रंग लाती है और तमाम बनी नौ इन्सान को एक बिरादरी समझने वाले थोड़ी देर बाद एक दूसरे की वलदियत के बारे में अपने शकूक का सलीस उर्दू में इज़हार करने लगते हैं, जिससे बैरों को कुल्लियतन इत्तफ़ाक़ होता है. लोग रूठ कर उठ खड़े होते हैं लेकिन ये सोच कर बैठ जाते हैं कि,
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि घर जाएंगे
घर में भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे
कॉफ़ी पी-पी कर समाज को कोसने वाले एक इंटेलेक्चुअल ने मुझे बताया कि कॉफ़ी से दिल का कंवल खिल जाता है और आदमी चहकने लगता है. मैं भी इस राय से मुत्तफ़िक़ हूं. कोई माक़ूल आदमी ये सय्याल पी कर अपना मुंह नहीं बंद रख सकता. उनका ये दावा भी ग़लत नहीं मालूम होता कि कॉफ़ी पीने से बदन में चुस्ती आती है. जभी तो लोग दौड़-दौड़ कर कॉफ़ी हाउस जाते हैं और घंटों वहीं बैठे रहते हैं.
बहुत देर तक वो ये समझाने की कोशिश करते रहे कि कॉफ़ी निहायत मुफ़र्रेह है और दिमाग़ को रोशन करती है. इसके सबूत में उन्होंने ये मिसाल दी कि “अभी कल ही का वाक़िया है. मैं दफ़्तर से घर बेहद निढाल पहुंचा. बेगम बड़ी मिज़ाज हैं. फ़ौरन कॉफ़ी का ‘टी-पॉट’ ला कर सामने रख दिया.”
मैं ज़रा चकराया, “फिर क्या हुआ”, मैंने बड़े इश्तियाक़ से पूछा.
“मैंने दूध दान से क्रीम निकाली”, उन्होंने जवाब दिया.
मैंने पूछा, “शक्करदान से क्या निकला?”
फ़रमाया, “शक्कर निकली, और क्या हाथी घोड़े निकलते.”
मुझे ग़ुस्सा तो बहुत आया मगर कॉफ़ी का सा घूंट पी कर रह गया.
उम्दा कॉफ़ी बनाना भी कीमियागरी से कम नहीं. ये इसलिए कह रहा हूं कि दोनों के मुताल्लिक़ यही सुनने में आया है कि बस एक आंच की कसर रह गई.

हर एक कॉफ़ी हाऊस और ख़ानदान का एक मख़सूस नुस्ख़ा होता है जो सीना ब सीना, हलक़ ब हलक़ मुंतक़िल होता रहता है. मशरिक़ी अफ़्रीक़ा के उस अंग्रेज़ अफ़सर का नुस्ख़ा तो सभी को मालूम है जिसकी कॉफ़ी की सारे ज़िले में धूम थी. एक दिन उसने एक निहायत पुरतकल्लुफ़ दावत की, जिसमें उसके हब्शी ख़ानसामां ने बहुत ही ख़ुश-ज़ाएक़ा कॉफ़ी बनाई. अंग्रेज़ ने बनज़र हौसला-अफ़ज़ाई उसको मुअज़्ज़िज़ मेहमानों के सामने तलब किया और कॉफ़ी बनाने की तरक़ीब पूछी.
हब्शी ने जवाब दिया, “बहुत ही सहल तरीक़ा है. मैं बहुत सा खौलता हुआ पानी और दूध लेता हूँ. फिर उसमें कॉफ़ी मिला कर दम करता हूं.”
“लेकिन उसे हल कैसे करते हो, बहुत महीन छनी होती है.”
“हुज़ूर के मोज़े में छानता हूँ.”
“क्या मतलब, क्या तुम मेरे क़ीमती रेशमी मोज़े इस्तेमाल करते हो?” आक़ा ने ग़ज़बनाक हो कर पूछा.
ख़ानसामां सहम गया, “नहीं सरकार! मैं आपके साफ़ मोज़े कभी इस्तेमाल नहीं करता.”
सच अर्ज़ करता हूँ कि मैं कॉफ़ी की तुंदी और तल्ख़ी से ज़रा नहीं घबराता. बचपन ही से यूनानी दवाओं का आदी रहा हूं और क़ुव्वत-ए-बर्दाश्त इतनी बढ़ गई है कि कड़वी से कड़वी गोलियां खा के बे-मज़ा न हुआ!
लेकिन कड़वाहट और मिठास की आमेज़िश से जो मोतदिल क़िवाम बनता है वो मेरी बर्दाश्त से बाहर है. मेरी इंतहा पसंद तबीयत उस मीठे ज़हर की ताब नहीं ला सकती. लेकिन दिक़्क़त ये आन पड़ती है कि मैं मेज़बान के इसरार को अदावत और वो मेरे इनकार को तकल्लुफ़ पर महमूल करते हैं.
लिहाज़ा जब वो मेरे कप में शक्कर डालते वक़्त अख़लाक़न पूछते हैं,
एक चमचा तो मजबूरन यही गुज़ारिश करता हूँ कि मेरे लिए शक्करदान में कॉफ़ी के दो चम्मच डाल दीजिए.

साफ़ ही क्यों न कह दूं कि जहां तक अश्या-ए-ख़ुर्द-ओ-नोश का ताल्लुक़ है, मैं तहज़ीब-ए-हवास का क़ाइल नहीं. मैं ये फ़ौरी फ़ैसला ज़ेह्न की बजाय ज़बान पर छोड़ना पसंद करता हूं. पहली नज़र में जो मुहब्बत हो जाती है, उसमें बिलउमूम नीयत का फ़ुतूर कारफ़रमा होता है, लेकिन खाने-पीने के मुआमले में मेरा ये नज़रिया है कि पहला ही लुक़मा या घूंट फ़ैसलाकुन होता है. बदज़ाइक़ा खाने की आदत को ज़ौक़ में तब्दील करने के लिए बड़ा पित्ता मारना पड़ता है. मगर मैं इस सिलसिले में बरसों तल्ख़े काम-ओ-दहन गवारा करने का हामी नहीं, ता वक़्ते कि इसमें बीवी का इसरार या गृहस्ती की मजबूरियां शामिल न हों. बिना बरीं, मैं हर कॉफ़ी पीने वाले को जन्नती समझता हूँ. मेरा अक़ीदा है कि जो लोग उम्र भर हंसी ख़ुशी ये अज़ाब झेलते रहे, उन पर दोज़ख़ और हमीम हराम हैं.
कॉफ़ी अमरीका का क़ौमी मशरूब है. मैं अब बहस में नहीं उलझना चाहता कि अमरीकी कल्चर कॉफ़ी के ज़ोर से फैला, या कॉफ़ी कल्चर के ज़ोर से राइज हुई. ये बईना ऐसा सवाल है जैसे कोई बेअदब ये पूछ बैठे कि “गुबार-ए-ख़ातिर” चाय की वजह से मक़बूल हुई या चाय “गुबार-ए-ख़ातिर” के बाइस.
एक साहिब ने मुझे लाजवाब करने की ख़ातिर ये दलील पेश की अमरीका में तो कॉफ़ी इस क़दर आम है कि जेल में भी पिलाई जाती है. अर्ज़ किया कि जब ख़ुद क़ैदी इस पर एहतिजाज नहीं करते तो हमें क्या पड़ी कि वकालत करें. पाकिस्तानी जेलों में भी क़ैदियों के साथ ये सुलूक रवा रखा जाए तो इंस्दाद जराइम में काफ़ी मदद मिलेगी.
फिर उन्होंने बताया कि वहां ला-इलाज मरीज़ों को बश्शाश रखने की ग़रज़ से कॉफ़ी पिलाई जाती है. कॉफ़ी के सरीअ-उल-तासीर होने में क्या कलाम है. मेरा ख़्याल है कि दम-ए-नज़ा हलक़ में पानी चुआने की बजाय कॉफ़ी के दो-चार क़तरे टपका दिए जाएं तो मरीज़ का दम आसानी से निकल जाये. बख़ुदा, मुझे तो इस तजवीज़ पर भी कोई एतराज़ न होगा कि गुनाहगारों की फ़ातिहा कॉफ़ी पर दिलाई जाए.

सुना है कि बाज़ रवादार अफ़्रीक़ी क़बाइल खाने के मुआमले में जानवर और इन्सान के गोश्त को मुसावी दर्जा देते थे. लेकिन जहां तक पीने की चीज़ों का ताल्लुक़ है, हमने उनके बारे में कोई बुरी बात नहीं सुनी. मगर हम तो चीनियों की रची हुई, हिस्स-ए-शामा की दाद देते हैं कि न मंगोल हुक्मरानों का जब्र-ओ-तशद्दुद उन्हें पनीर खाने पर मजबूर कर सका कि अमरीका उन्हें कॉफ़ी पीने पर आमादा कर सका.
तारीख़ शाहिद है कि उनकी नफ़ासत ने सख़्त क़हत के ज़माने में भी फ़ाक़े और अपने फ़लसफ़े को पनीर और कॉफ़ी पर तर्जीह दी.
हमारा मंशा अमरीकी या चीनी आदात पर नुक्ताचीनी नहीं. हर आज़ाद क़ौम का ये बुनियादी हक़ है कि वो अपने मुंह और मेदे के साथ जैसा सुलूक चाहे, बे रोक-टोक करे. इसके इलावा जब दूसरी कौमें हमारी रसावल, निहारी और फ़ालूदे का मज़ाक़ नहीं उड़ातीं तो हम दख़ल दर माकूलात करने वाले कौन?
बात दरअसल ये है कि तरक़्क़ी याफ़्ता ममालिक में प्यास बुझाने के लिए पानी के इलावा हर रक़ीक़ शय इस्तेमाल होती है. सुना है कि जर्मनी (जहां क़ौमी मशरूब बियर है) डाक्टर बदरजा-ए-मजबूरी बहुत ही तंदुरुस्त-ओ-तवाना अफ़राद को ख़ालिस पानी पीने की इजाज़त देते हैं, लेकिन जिनको आब नोशी का चस्का लग जाता है, वो रातों को छुप-छुप कर पानी पीते हैं.
एक ज़माना था कि पैरिस के कैफों में रंगीन मिज़ाज फ़नकार बोरझ़वा तब्क़े को चिढ़ाने की ग़रज़ से खुल्लम खुल्ला पानी पिया करते थे.
मशरिक़ी और मग़रिबी मशरूबात का मुवाज़ना करने से पहले ये बुनियादी उसूल ज़ेह्न नशीन कर लेना अज़ बस ज़रूरी है कि हमारे यहां पीने की चीज़ों में खाने की ख़सुसियात होती हैं. अपने क़दीम मशरूबात मसलन यख़्नी, सत्तू और फ़ालूदे पर नज़र डालिए तो ये फ़र्क़ वाज़ेह हो जाता है.
सत्तू और फ़ालूदे को ख़ालिस्तन लुग़वी मानों में आप न खा सकते हैं और न पी सकते हैं. बल्कि अगर दुनिया में कोई ऐसी शय है जिसे आप बामुहावरा उर्दू में ब यक वक़्त खा और पी सकते हैं तो यही सत्तू और फ़ालूदा है जो ठोस ग़िज़ा और ठंडे शर्बत के दरमियान नाक़ाबिल-ए-बयान समझौता है, लेकिन आजकल इन मशरूबात का इस्तेमाल ख़ास-ख़ास तक़रीबों में ही किया जाता है. इसका सबब ये है कि अब हमने अदावत निकालने का एक और मुहज़्ज़ब तरीक़ा इख़्तियार किया है.

आपके ज़ेह्न में ख़ुदा-न-ख़ासता ये शुबहा न पैदा हो गया हो कि राक़िम-उल-सुतूर कॉफ़ी के मुक़ाबले में चाय का तरफ़दार है तो मज़मून ख़त्म करने से पहले इस ग़लतफ़हमी का अज़ाला करना अज़-बस ज़रूरी समझता हूँ. मैं कॉफ़ी से इसलिए बेज़ार नहीं हूं कि मुझे चाय अज़ीज़ है बल्कि हक़ीक़त ये है कि कॉफ़ी का जला चाय भी फूंक-फूंक कर पीता है,
एक हम हैं कि हुए ऐसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाय के अरमां होंगे..

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