व्यंग्य | मरहूम की याद में

एक दिन मिर्ज़ा साहब और मैं बरामदे में साथ-साथ कुर्सियां डाले चुपचाप बैठे थे. जब दोस्ती बहुत पुरानी हो जाए तो गुफ़्तुगू की चंदां ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती और दोस्त एक-दूसरे की ख़ामोशी से लुत्फ़-अंदोज़ हो सकते हैं. यही हालत हमारी थी. हम दोनों अपने-अपने ख़्यालात में ग़र्क़ थे. मिर्ज़ा साहब तो ख़ुदा जाने क्या सोच रहे थे. लेकिन मैं ज़माने की नासाज़गारी पर ग़ौर कर रहा था.

दूर सड़क पर थोड़े-थोड़े वक़्फ़े के बाद एक मोटरकार गुज़र जाती थी. मेरी तबीयत कुछ ऐसी वाक़े हुई है कि मैं जब कभी किसी मोटरकार को देखूं मुझे ज़माने की नासाज़गारी का ख़्याल ज़रूर सताने लगता है और मैं कोई ऐसी तर्कीब सोचने लगता हूं, जिससे दुनिया की तमाम दौलत सब इंसानों में बराबर-बराबर तक़्सीम की जा सके. अगर मैं सड़क पर पैदल जा रहा हूँ और कोई मोटर इस अदा से से गुज़र जाए कि गर्द-व-ग़ुबार मेरे फेफड़ों, मेरे दिमाग़, मेरे मेदे और मेरी तल्ली तक पहुंच जाए तो उस दिन मैं घर आकर इल्म-ए-कीमिया की वो किताब निकाल लेता हूं, जो मैंने एफ़.ए. में पढ़ी थी और इस ग़रज़ से उसका मुताला करने लगता हूँ कि शायद बम बनाने का कोई नुस्ख़ा हाथ आ जाए.

मैं कुछ देर तक आहें भरता रहा. मिर्ज़ा साहब ने कुछ तवज्जो न की. आख़िर मैंने ख़ामोशी को तोड़ा और मिर्ज़ा साहब से मुख़ातिब हो कर बोला, “मिर्ज़ा साहब! हममें और हैवानों में क्या फ़र्क़ है?”
मिर्ज़ा साहब बोले, “भई कुछ होगा ही न आख़िर.”
मैंने कहा, ” मैं बताऊं तुम्हें?”
कहने लगे, ” बोलो.”
मैंने कहा, ” कोई फ़र्क़ नहीं. सुनते हो मिर्ज़ा. कोई फ़र्क़ नहीं. हममें और हैवानों में….कम-अज़-कम मुझमें और हैवानों में कोई फ़र्क़ नहीं. हां-हां मैं जानता हूँ तुम मीन-मीख़ निकालने में बड़े ताक़ हो. कह दोगे हैवान जुगाली करते हैं, तुम जुगाली नहीं करते. उनकी दुम होती है, तुम्हारी दुम नहीं, लेकिन इन बातों से क्या होता है? इनसे तो सिर्फ़ यही साबित होता है. वो मुझसे अफ़जल हैं लेकिन एक बात में, मैं और वो बिल्कुल बराबर हैं. वह भी पैदल चलते हैं और मैं भी पैदल चलता हूं. इसका तुम्हारे पास क्या जवाब है? जवाब नहीं. कुछ है तो कहो. बस चुप हो जाओ. तुम कुछ नहीं कह सकते. जबसे मैं पैदा हुआ हूं उस दिन से पैदल चल रहा हूं.

पैदल! तुम पैदल के मानी नहीं जानते. पैदल के मानी हैं सीना-ए-ज़मीन पर इस तरह से हरकत करना कि दोनों पांव में एक ज़रूर ज़मीन पर रहे यानी तमाम उम्र मेरे हरकत करने का तरीक़ा यही रहा है कि एक पांव ज़मीन पर रखता हूं और दूसरा उठाता हूं. दूसरा रखता हूं, पहला उठाता हूं. एक आगे एक पीछे, एक पीछे एक आगे. ख़ुदा की क़सम इस तरह की ज़िंदगी से दिमाग़ सोचने के क़ाबिल नहीं रहता. हवास बेकार हो जाते हैं. तख़य्युल मर जाता है. आदमी गधे से बद्तर हो जाता है.”

मिर्ज़ा साहब मेरी इस तक़रीर के दौरान कुछ इस बे-परवाई से सिगरेट पीते रहे कि दोस्तों की बेवफाई पर रोने को दिल चाहता था. मैंने अज़हद हिक़ारत और नफ़रत के साथ मुंह उनकी तरफ़ से फेर लिया. ऐसा मालूम होता था कि मिर्ज़ा को मेरी बातों पर यक़ीन ही नहीं आता. गोया मैं अपनी जो तकालीफ़ बयान कर रहा हूं वो महज़ ख़्याली हैं यानी मेरा पैदल चलने के ख़िलाफ़ शिकायत करना क़ाबिल-ए-तवज्जो ही नहीं, यानी मैं किसी सवारी का मुस्तहिक़ ही नहीं. मैंने दिल में कहा, “अच्छा मिर्ज़ा यूं ही सही. देखो तो मैं क्या करता हूं.”

मैंने अपने दांत पच्ची कर लिए और कुर्सी के बाज़ू पर से झुककर मिर्ज़ा के क़रीब पहुंच गया. मिर्ज़ा ने भी सर मेरी तरफ़ मोड़ा. मैं मुस्कुरा दिया लेकिन मेरे तबस्सुम में ज़हर मिला हुआ था. जब मिर्ज़ा सुनने के लिए बिल्कुल तैयार हो गया तो मैंने चबा-चबा कर कहा, “मिर्ज़ा! मैं एक मोटरकार ख़रीदने लगा हूं.”
ये कह कर मैं बड़े इस्तिग़ना के साथ दूसरी तरफ़ देखने लगा.
मिर्ज़ा बोले, “क्या कहा तुम ने? क्या ख़रीदने लगे हो?”
मैंने कहा, “सुना नहीं तुमने? एक मोटरकार ख़रीदने लगा हूं. मोटरकार एक ऐसी गाड़ी है जिसको बाज़ लोग मोटर कहते हैं, बाज़ लोग कार कहते हैं. लेकिन चूंकि तुम ज़रा कुंद-ज़हन हो, इसलिए मैंने दोनों लफ़्ज़ इस्तेमाल कर दिए ताकि तुम्हें समझने में कोई दिक़्क़त पेश न आए.”
मिर्ज़ा बोले, “हूं.”
अब के मिर्ज़ा नहीं, मैं बे-परवाई से सिगरेट पीने लगा. भवें मैंने ऊपर को चढ़ा लीं. सिगरेट वाला हाथ मुंह तक इस अंदाज़ से लाता और ले जाता था कि बड़े-बड़े ऐक्टर इस पर रश्क करें.
थोड़ी देर के बाद मिर्ज़ा बोले, “हूं.”
मैंने सोचा असर हो रहा है. मिर्ज़ा साहब पर रोब पड़ रहा है. मैं चाहता था, मिर्ज़ा कुछ बोले, ताकि मुझे मालूम हो, कहाँ तक मर्ऊब हुआ है लेकिन मिर्ज़ा ने फिर कहा, “हूं.”
मैंने कहा, “मिर्ज़ा जहां तक मुझे मालूम है तुमने स्कूल और कॉलेज और घर पर दो-तीन ज़बानें सीखी हैं और इसके अलावा तुम्हें कई ऐसे अल्फ़ाज़ भी आते हैं जो किसी स्कूल या कॉलेज या शरीफ़ घराने में नहीं बोले जाते. फिर भी इस वक़्त तुम्हारा कलाम “हूं” से आगे नहीं बढ़ता. तुम जलते हो. मिर्ज़ा इस वक़्त तुम्हारी जो ज़हनी कैफ़ियत है, इसको अरबी ज़बान में हसद कहते हैं.”

मिर्ज़ा साहब कहने लगे, “नहीं, ये बात तो नहीं. मैं तो सिर्फ़ ख़रीदने के लफ़्ज़ पर ग़ौर कर रहा था. तुम ने कहा मैं एक मोटरकार ख़रीदने लगा हूं, तो मियां साहबज़ादे! ख़रीदना तो एक ऐसा फ़ेल है कि इसके लिए रुपये वग़ैरा की ज़रूरत होती है. वग़ैरा का बंदोबस्त तो बख़ूबी हो जाएगा. लेकिन रुपये का बंदोबस्त कैसे करोगे?”
ये नुक्ता मुझे भी न सूझा था लेकिन मैंने हिम्मत न हारी. मैंने कहा, “मैं अपनी कई क़ीमती अशिया बेच सकता हूं.”
मिर्ज़ा बोले, “कौन कौन सी मसलन?”
मैंने कहा, “एक तो मैं सिगरेट केस बेच डालूंगा.”
मिर्ज़ा कहने लगे, “चलो दस आने तो ये हो गए. बाक़ी ढाई-तीन हज़ार का इंतजाम भी इसी तरह हो जाए तो सब काम ठीक हो जाएगा.”
इसके बाद ज़रूरी यही मालूम हुआ कि गुफ़्तुगू का सिलसिला कुछ देर के लिए रोक दिया जाए. चुनांचे मैं मिर्ज़ा से बेज़ार हो कर ख़ामोश हो रहा. ये बात समझ में न आई कि लोग रुपये कहां से लाते हैं. बहुत सोचा. आख़िर इस नतीजे पर पहुंचा कि लोग चोरी करते हैं. इससे एक-गोना इत्मिनान हुआ.

मिर्ज़ा बोले, “में तुम्हें एक तर्कीब बताऊं, एक बाइस्किल ले लो.”
मैंने कहा, “ वह रुपये का मसला तो फिर भी जूं का तूं रहा.”
कहने लगे, “मुफ़्त.”
मैंने हैरान होकर पूछा, “मुफ़्त वो कैसे?”
कहने लगे, “मुफ़्त ही समझो. आख़िर दोस्त से क़ीमत लेना भी कहां की शराफ़त है. अलबत्ता तुम ही एहसान क़ुबूल करना गवारा न करो तो और बात है.”
ऐसे मौक़े पर जो हंसी मैं हंसता हूं उसमें मासूम बच्चे की मसर्रत, जवानी की ख़ुशदिली, उबलते हुए फव्वारों की मौसीक़ी और बुलबुलों का नग़मा सब एक दूसरे के साथ मिले होते हैं. चुनांचे मैं ये हंसी हंसा और इस तरह हंसा कि खिली हुई बाछें फिर घंटों तक अपनी अस्ली जग्ह पर वापस न आईं. जब मुझे यक़ीन हो गया कि यकलख़्त कोई ख़ुशख़बरी सुनने से दिल की हर्कत बंद हो जाने का जो ख़तरा होता है इससे महफ़ूज़ हूं तो मैंने पूछा, “है किस की?”
मिर्ज़ा बोले, “मेरे पास एक बाइस्किल पड़ी है. तुम ले लो.”
मैंने कहा, “फिर कहना, फिर कहना!”
कहने लगे, “भई! एक बाइस्किल मेरे पास है. जब मेरी है तो तुम्हारी है. तुम ले लो.”

यक़ीन मानिए मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया. शर्म के मारे मैं पसीना-पसीना हो गया. चौधवीं सदी में ऐसी बेग़र्ज़ी और ईसार भला कहां देखने में आता है. मैंने कुर्सी सरकाकर मिर्ज़ा के पास कर ली. समझ में न आया कि अपनी निदामत और मम्नूनियत का इज़हार किन अल्फ़ाज़ में करूं.
मैंने कहा, “मिर्ज़ा सबसे पहले तो मैं इस गुस्ताख़ी और दुरुश्ती और बेअदबी के लिए माफ़ी मांगता हूं जो अभी मैंने तुम्हारे साथ गुफ़्तुगू में रवा रखी. दूसरे मैं आज तुम्हारे सामने एक एतराफ़ करना चाहता हूँ और उम्मीद करता हूं कि तुम मेरी साफ़गोई की दाद दोगे और मुझे अपनी रहमदिली के सदक़े माफ़ कर दोगे. मैं हमेशा तुमको अज़हद कमीना, मुम्सिक, ख़ुदग़र्ज़ और अय्यार इंसान समझता रहा हूं. देखो नाराज़ मत हो. इंसान से ग़ल्ती हो ही जाती है. लेकिन आज तुमने अपनी शराफ़त और दोस्त परवरी का सबूत दिया है और मुझ पर साबित कर दिया है कि मैं कितना क़ाबिल-ए-नफ़रत, तंग ख़्याल और हक़ीर शख़्स हूं. मुझे माफ़ कर दो.”
मेरी आंखों में आँसू भर आए. क़रीब था कि मैं मिर्ज़ा के हाथ को बोसा देता और अपने आंसुओं को छुपाने के लिए उसकी गोद में सर रख देता.

मिर्ज़ा साहब कहने लगे, “वाह इसमें मेरी फ़य्याज़ी क्या हुई, मेरे पास एक बाइस्किल है, जैसे मैं सवार हुआ वैसे तुम सवार हुए.”
मैंने कहा, ” मिर्ज़ा मुफ़्त में न लूंगा. ये हर्गिज़ नहीं हो सकता.”
मिर्ज़ा कहने लगे, “बस मैं इसी बात से डरता था. तुम हस्सास इतने हो कि किसी का एहसान लेना गवारा नहीं करते. हालांकि ख़ुदा गवाह है, एहसान इसमें कोई नहीं.”
मैंने कहा, ” ख़ैर कुछ भी सही, तुम सचमुच मुझे इसकी क़ीमत बता दो.”
मिर्ज़ा बोले, “क़ीमत का ज़िक्र करके तुम गोया मुझे कांटों में घसीटते हो और जिस क़ीमत पर मैंने ख़रीदी थी, वह तो बहुत ज़्यादा थी और अब तो वह इतने की रही भी नहीं.”
मैं ने पूछा, “तुमने कितने की ख़रीदी थी?”
कहने लगे, “मैंने पौने दो सौ रुपये में ली थी लेकिन उस ज़माने में बाइस्किलों का रिवाज ज़रा कम था, इसलिए क़ीमतें ज़रा ज़्यादा थीं.”
मैंने कहा, “क्या बहुत पुरानी है?”
बोले, “नहीं, ऐसी पुरानी भी क्या होती. मेरा लड़का उस पर कॉलेज आया जाया करता था और उसे कॉलेज छोड़े अभी दो साल भी नहीं हुए. लेकिन इतना ज़रूर है कि आजकल की बाइस्किलों से ज़रा मुख़्तलिफ़ है. आजकल तो बाइस्किलें टीन की बनती है. जिन्हें कॉलेज के सरफिरे लौंडे सस्ती समझ कर ख़रीद लेते हैं. पुरानी बाइस्किलों के ढांचे मज़बूत हुआ करते थे.”
“मगर मिर्ज़ा पौने दो सौ रुपये तो मैं हर्गिज़ नहीं दे सकता. इतने रुपये मेरे पास कहाँ से आए? मैं तो इससे आधी क़ीमत भी नहीं दे सकता.”
मिर्ज़ा कहने लगे, “तो मैं तुमसे पूरी क़ीमत थोड़ी मांगता हूं. अव्वल तो क़ीमत लेना नहीं चाहता लेकिन……”
मैंने कहा, ” न मिर्ज़ा! क़ीमत तो तुम्हें लेनी पड़ेगी. अच्छा तुम यूं करो मैं तुम्हारी जेब में कुछ रुपये डाल देता हूँ. तुम घर जा के गिन लेना. अगर तुम्हें मंज़ूर हुए तो कल बाइस्किल भेज देना वर्ना रुपये वापस कर देना. अब यहां बैठ कर मैं तुम से सौदा चुकाऊं, ये तो कुछ दुकानदारों की सी बात मालूम होती है.”
मिर्ज़ा बोले, “भई जैसे तुम्हारी मर्ज़ी. मैं तो अब भी यही कहता हूं कि क़ीमत-वीमत जाने दो. लेकिन मैं जानता हूं कि तुम न मानोगे.”

मैं उठकर अंदर कमरे में आया. मैंने सोचा इस्तेमाल शुदा चीज़ की लोग आम तौर पर आधी क़ीमत देते हैं लेकिन जब मैंने मिर्ज़ा से कहा था कि मिर्ज़ा मैं तो आधी क़ीमत भी नहीं दे सकता तो मिर्ज़ा इस पर मोतरिज़ न हुआ था. वो बेचारा तो बल्कि यही कहता था कि तुम मुफ़्त ही ले लो, लेकिन मुफ़्त मैं कैसे ले लूं? आख़िर बाइस्किल है, एक सवारी है. फिट्नों और घोड़ों मोटरों और तांगों के ज़ुमरे में शुमार होती है. बक्स खोला तो मालूम हुआ कि हस्त-व-बूद कुल छियालीस रुपये हैं. छियालीस रुपये तो कुछ ठीक रक़म नहीं. पैंतालीस या पच्चास हों जब भी बात है. पच्चास तो हो नहीं सकते और अगर पैंतीलीस ही देने हैं तो चालीस क्यों न दिए जाएं. जिन रक़मों के आख़िर में सिफ़र आता है वो रक़में कुछ ज़्यादा माक़ूल मालूम होती हैं. बस ठीक है, चालीस रुपये दे दूंगा. ख़ुदा करे मिर्ज़ा क़ुबूल कर ले.

बाहर आया चालीस रुपये मुट्ठी में बंद करके मैंने मिर्ज़ा की जेब में डाल दिए और कहा, ” मिर्ज़ा इसको क़ीमत न समझना. लेकिन अगर एक मुफ़लिस दोस्त की हक़ीर सी रक़म मंज़ूर करना तुम्हें अपनी तौहीन मालूम न हो तो कल बाइस्किल भेजवा देना.”
मिर्ज़ा चलने लगे तो मैंने फिर कहा कि मिर्ज़ा कल ज़रूर सुबह ही सुबह भेजवा देना, रुख़्सत होने से पहले. मैंने फिर एक दफ़ा कहा, “कल सुबह आठ-नौ बजे तक पहुंच जाए. देर न कर देना….ख़ुदा-हाफ़िज़…और देखो मिर्ज़ा, मेरे थोड़े से रूपों को भी ज़्यादा समझना….ख़ुदा-हाफ़िज़…..और तुम्हारा बहुत बहुत शुक्रिया. मैं तुम्हारा बहुत मम्नून हूँ और मेरी गुस्ताख़ी को माफ़ कर देना. देखो न कभी-कभी यूं ही बेतकल्लुफ़ी में….कल सुबह आठ-नौ बजे तक…ज़रूर….ख़ुदा-हाफ़िज़….”
मिर्ज़ा कहने लगे, “ज़रा उसको झाड़-पोंछ लेना और तेल वग़ैरा डलवा लेना. मेरे नौकर को फ़ुर्सत हुई तो ख़ुद ही डलवा दूंगा, वर्ना तुम ख़ुद ही डलवा लेना.”
मैंने कहा, “हां-हां. वो सब कुछ हो जाएगा. तुम कल भेज ज़रूर देना और देखना आठ बजे तक या साढे़ सात बजे तक पहुंच जाए. अच्छा….ख़ुदा-हाफ़िज़!”

रात को बिस्तर पर लेटा तो बाइस्किल पर सैर करने के मुख़्तलिफ़ प्रोग्राम तजवीज़ करता रहा. ये इरादा तो पुख़्ता कर लिया कि दो-तीन दिन के अंदर अंदर इर्द-गिर्द की तमाम मशहूर तारीख़ी इमारात और खंडरों को नए सिरे से देख डालूंगा. इसके बाद अगले गर्मी के मौसम में हो सका तो बाइस्किल पर कश्मीर वग़ैरा की सैर करूंगा. सुबह-सुबह की हवा-ख़ोरी के लिए हर रोज़ नहर तक जाया करूंगा. शाम को ठंडी सड़क पर जहां और लोग सैर को निकलेंगे, मैं भी सड़क की साफ़ शफ़्फ़ाफ़ सतह पर हल्के-हल्के ख़ामोशी के साथ हाथी दांत की एक गेंद की मानिंद गुज़र जाऊंगा. डूबते हुए आफ़ताब की रौशनी बाइस्किल के चमकीले हिस्सों पर पड़ेगी तो बाइस्किल जगमगा उठेगी और ऐसा मालूम होगा जैसे एक राजहंस ज़मीन के साथ-साथ उड़ रहा है. वह मुस्कुराहट जिसका मैं ऊपर ज़िक्र कर चुका हूं, अभी तक मेरे होंटों पर खेल रही थी. बारहा दिल चाहा कि अभी भाग कर जाऊं और इसी वक़्त मिर्ज़ा को गले लगा लूं.

रात को ख़्वाब में दुआएं मांगता रहा कि ख़ुदाया मिर्ज़ा बाइस्किल देने पर रज़ामंद हो जाए. सुबह उठा तो उठने के साथ ही नौकर ने ये ख़ुशख़बरी सुनाई के हुज़ूर वो बाइस्किल आ गई है. मैंने कहा, “इतनी सवेरे?”
नौकर ने कहा, “वो तो रात ही को ही आ गई थी. आप सो गए थे, मैंने जगाना मुनासिब न समझा और साथ ही मिर्ज़ा साहब का आदमी ये ढिबरियां कसने का एक औज़ार भी दे गया है.”
मैं हैरान तो हुआ कि मिर्ज़ा साहब ने बाइस्किल भेजवा देने में इस क़द्र उज्लत से क्यों काम लिया लेकिन इस नतीजे पर पहुंचा कि आदमी निहायत शरीफ़ और दयानतदार हैं. रूपये ले लिये थे तो बाइस्किल क्यों रोक लेते.
नौकर से कहा, “देखो ये औज़ार यहीं छोड़ जाओ और देखो बाइस्किल को किसी कपड़े से ख़ूब अच्छी तरह झाड़ो और ये मोड़ पर जो बाइस्किलों वाला बैठता है, उससे जा कर बाइस्किल में डालने का तेल ले आओ और देखो….अबे भागा कहां जा रहा है. हम ज़रूरी बात तुमसे कह रहे है. बाइस्किल वाले से तेल की एक कुप्पी भी ले आना और जहां-जहां तेल देने की जगह है, वहां तेल दे देना और बाइस्किल वाले से कहना कि कोई घटिया सा तेल न दे दे जिससे तमाम पुर्जे़ ही ख़राब हो जाएं. बाइस्किल के पुर्जे़ बड़े नाज़ुक होते हैं और बाइस्किल बाहर निकाल रखो. हम अभी कपड़े पहन कर आते हैं. हम ज़रा सैर को जा रहे हैं और देखो साफ़ कर देना और बहुत ज़ोर-ज़ोर से कपड़ा भी मत रगड़ना, बाइस्किल का पॉलिश घिस जाता है.”

जल्दी-जल्दी चाय पी. ग़ुस्लख़ाने में बड़े जोश-व-ख़रोश के साथ “चल-चल चम्बेली बाग़ में” गाता रहा. इसके बाद कपड़े बदले, औज़ार को जेब में डाला और कमरे से बाहर निकला. बरामदे में आया तो बरामदे के साथ ही एक अजीब-व-ग़रीब मशीन पर नज़र पड़ी. ठीक तरह से पहचान न सका कि क्या चीज़ है? नौकर से दर्याफ़्त किया, “क्यों बे ये क्या चीज़ है?”
नौकर बोला, “हुज़ूर ये बाइस्किल है.”
मैंने कहा, “बाइस्किल? किसकी बाइस्किल? ”
कहने लगा, ” मिर्ज़ा साहब ने भेजवाई है आप के लिए.”
मैंने कहा, ” और जो बाइस्किल रात को उन्होंने भेजी थी वो कहां गई? ”
कहने लगा, ” यही तो है.”
मैंने कहा, “क्या बकता है, जो बाइस्किल मिर्ज़ा साहब ने कल रात को भेजी थी वो बाइस्किल यही है?”
कहने लगा, “जी हाँ.”
मैंने कहा, “अच्छा,” और फिर उसे देखने लगा. “उसको साफ़ क्यों नहीं किया?”
“उसको दो-तीन दफ़ा साफ़ किया है? ”
“तो ये मैली क्यों है?”
नौकर ने इसका जवाब देना शायद मुनासिब न समझा.
“और तेल लाया?”
“हां हुज़ूर लाया हूं.”
“दिया?”
“हुज़ूर वह तेल देने के छेद होते हैं वह नहीं मिलते.”
“क्या वजह?”
“हुज़ूर धुरों पर मैल और ज़ंग जमा है. वो सुराख़ कहीं बीच ही में दब-दबा गए हैं.”

रफ़्ता-रफ़्ता मैं उस चीज़ के क़रीब आया. जिसको मेरा नौकर बाइस्किल बता रहा था. उसके मुख़्तलिफ़ पुर्ज़ों पर ग़ौर किया तो इतना तो साबित हो गया कि बाइस्किल है लेकिन मुजमल हैय्यत से ये साफ़ ज़ाहिर था कि हल और रहट और चर्ख़ा और इसी तरह की ईजादात से पहले की बनी हुई है. पहिए को घुमा-घुमा कर वो सुराख़ तलाश किया, जहां किसी ज़माने में तेल दिया जाता था. लेकिन अब उस सुराख़ में से आमद-व-रफ़्त का सिलसिला बंद था. चुनांचे नौकर बोला, “हुज़ूर वो तेल तो सब इधर-उधर बहा जाता है. बीच में तो जाता ही नहीं.”
मैंने कहा, “अच्छा ऊपर ऊपर ही डाल दो. ये भी मुफ़ीद होता है.”

आख़िरकार बाइस्किल पर सवार हुआ. पहला ही पांव चलाया, तो ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई मुर्दा अपनी हड्डियां चटख़ा- चटख़ा कर अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ ज़िंदा हो रहा है. घर से निकलते ही कुछ थोड़ी सी उतराई थी उस पर बाइस्किल ख़ुद-बख़ुद चलने लगी लेकिन इस रफ़्तार से जैसे तारकोल ज़मीन पर बहता है और साथ ही मुख़्तलिफ़ हिस्सों से तरह-तरह की आवाज़ें बरामद होनी शुरू हुईं. उन आवाज़ों के मुख़्तलिफ़ गिरोह थे. चीं, चां, चूं की क़िस्म आवाज़ें ज़्यादातर गद्दी के नीचे और पिछले पहिए से निकलती थीं. खट, खड़-खड़, खड़ड़, के क़बील की आवाज़ें मड-गार्डों से आती थीं. चर-चर्रख़, चर-चर्रख़ की क़िस्म के सुर ज़ंजीर और पैंडल से निकलते थे. ज़ंजीर ढीली-ढीली थी. मैं जब कभी पैडल पर ज़ोर डालता था, ज़ंजीर में एक अंगड़ाई सी पैदा होती थी जिससे वो तन जाती थी और चड़-चड़ बोलने लगती थी और फिर ढीली हो जाती थी. पिछला पहिया घूमने के अलावा झूमता भी था यानी एक तो आगे को चलता था और इसके अलावा दाहिने से बाएं और बाएं से दाहिने को भी हर्कत करता था. चुनांचे सड़क पर जो निशान पड़ जाता था उसको देखकर ऐसा मालूम होता था जैसे कोई मख़्मूर सांप लहराकर निकल गया है.
मड-गार्ड थे तो सही लेकिन पहियों के ऐन ऊपर न थे. इनका फ़ायदा सिर्फ़ ये मालूम होता था कि इंसान शिमाल की सिम्त सैर करने को निकले और आफ़ताब मग़रिब में ग़ुरूब हो रहा हो तो मड-गार्डों की बदौलत टायर धूप से बचे रहेंगे. अगले पहिए के टायर में एक बड़ा सा पैवंद लगा था जिसकी वजह से पहिया हर चक्कर में एक दफ़ा लम्हा भर को ज़ोर से ऊपर उठ जाता था और मेरा सर पीछे को यूं झटके खा रहा था जैसे कोई मुतवातिर ठोड़ी के नीचे मुक्के मारे जा रहा हो. पिछले और अगले पहिए को मिला कर चूं चूं फट, चूं चूं फट…..की सदा निकल रही थी. जब उतार पर बाइस्किल ज़रा तेज़ हुई तो फ़िज़ा में एक भूचाल सा आ गया और बाइस्किल के कई और पुर्जे़ जो अब तक सो रहे थे. बेदार हो कर गोया हुए. इधर उधर के लोग चौंके, माओं ने अपने बच्चों को सीने से लगा लिया, खड़ड़-खड़ड़ के बीच में पहियों की आवाज़ जुदा सुनाई दे रही थी लेकिन चूंकि बाइस्किल अब पहले से तेज़ थी इसलिए चूं-चूं फट, चूं-चूं फट की आवाज़ ने अब चचों फट, चचों फट, की सूरत इख़्तियार कर ली थी. तमाम बाइस्किल किसी अदक़ अफ़्रीक़ी ज़बान की गर्दानें दोहरा रही थी.

इस क़दर तेज़ रफ़्तारी बाइस्किल की तबा-नाज़ुक पर गिरां गुज़री. चुनांचे इसमें यकलख़्त दो तब्दीलियां वाक़े हो गईं. एक तो हैंडल एक तरफ़ को मुड़ गया, जिसका नतीजा ये हुआ कि मैं जा तो सामने को रहा था लेकिन मेरा तमाम जिस्म दाएं तरफ़ को मुड़ा हुआ था. इसके अलावा बाइस्किल की गद्दी दफ़अतन छः इंच के क़रीब नीचे बैठ गई. चुनांचे जब पैंडल चलाने के लिए मैं टांगें ऊपर-नीचे कर रहा था तो मेरे घुटने मेरी ठोड़ी तक पहुंच जाते थे. कमर दोहरी हो कर बाहर को निकली हुई थी और साथ ही अगले पहिए की अठखेलियों की वजह से सर बराबर झटके खा रहा था.

गद्दी का नीचा हो जाना अज़-हद तकलीफ़देह साबित हुआ. इसलिए मैंने मुनासिब यही समझा कि इस को ठीक कर लूं. चुनांचे मैंने बाइस्किल को ठहरा लिया और नीचे उतरा. बाइस्किल के ठहर जाने से यकलख़्त जैसे दुनिया में एक ख़ामोशी सी छा गई. ऐसा मालूम हुआ जैसे मैं किसी रेल के स्टेशन से निकल कर बाहर आ गया हूं. जेब से मैंने औज़ार निकाला. गद्दी को ऊंचा किया. कुछ हैंडल को ठीक किया और दोबारा सवार हो गया.

दस क़दम भी चलने न पाया था कि अब के हैंडल यकलख़्त नीचा हो गया. इतना कि गद्दी अब हैंडल से कोई फ़ुट भर ऊंची थी. मेरा तमाम जिस्म आगे को झुका हुआ था. तमाम बोझ दोनों हाथों पर था जो हैंडल पर रखे थे और बराबर झटके खा रहे थे. आप मेरी हालत को तसव्वुर करें तो आप को मालूम होगा कि मैं दूर से ऐसा मालूम हो रहा था जैसे कोई औरत आटा गूंध रही हो. मुझे इस मुशाबहत का एहसास बहुत तेज़ था जिसकी वजह से मेरे माथे पर पसीना आ गया. मैं दाएं-बाएं लोगों को कनखियों से देखता जाता था. यूं तो हर शख़्स मील भर पहले ही से मुड़-मुड़ कर देखने लगता था लेकिन इनमें कोई भी ऐसा न था, जिसके लिए मेरी मुसीबत ज़ियाफ़त-ए-तबा का बाइस न हो.

हैंडल तो नीचा हो ही गया था. थोड़ी देर के बाद गद्दी भी फिर नीची हो गई और मैं हमातन ज़मीन के क़रीब पहुंच गया. एक लड़के ने कहा, “देखो ये आदमी क्या कर रहा है.” गोया उस बदतमीज़ के नज़दीक मैं कोई करतब दिखा रहा था. मैंने उतरकर फिर हैंडल और गद्दी को ऊंचा किया. लेकिन थोड़ी देर के बाद इनमें से एक न एक फिर नीचा हो जाता. वो लम्हे जिनके दौरान में मेरा हाथ और मेरा ज़िस्म दोनों ही बुलंदी पर वाक़े हों बहुत ही कम थे और उनमें भी मैं यही सोचता रहता था कि अबकि गद्दी पहले बैठेगी या हैंडल? चुनांचे निडर होकर न बैठता बल्कि जिस्म को गद्दी से क़द्रे ऊपर ही रखता लेकिन इस से हैंडल पर इतना बोझ पड़ जाता कि वो नीचा हो जाता.

जब दो मील गुज़र गए और बाइस्किल की उठक-बैठक ने एक मुक़र्रररा बाक़ायदगी इख़्तियार कर ली, तो फ़ैसला किया कि किसी मिस्त्री से पेंच क़सवा लेने चाहिए. चुनांचे बाइस्किल को एक दुकान पर ले गया. बाइस्किल की खड़-खड़ से दुकान में जितने लोग काम कर रहे थे सब के सब सर उठा कर मेरी तरफ़ देखने लगे लेकिन मैंने जी कड़ा कर के कहा, “ज़रा इसकी मरम्मत कर दीजीए.”
एक मिस्त्री आगे बढ़ा. लोहे की एक सलाख़ उसके हाथ में थी जिससे उसने मुख़्तलिफ़ हिस्सों को बड़ी बेदर्दी के साथ ठोक-बजा कर देखा. मालूम होता था उसने बड़ी तेज़ी के साथ सब हालात का अंदाज़ा लगा लिया है लेकिन फिर भी मुझसे पूछने लगा, “किस-किस पुर्ज़े की मरम्मत कराइएगा?”
मैंने कहा, “बड़े गुस्ताख़ हो. तुम देखते नहीं कि सिर्फ़ हैंडल और गद्दी को ज़रा ऊंचा करवाके क़सवाना है बस और क्या? इनको मेहरबानी करके फ़ौरन ठीक कर दो और बताओ कितने पैसे हुए? ”
मिस्त्री कहने लगा, “मड गार्ड भी ठीक न कर दूं?”
मैंने कहा, “हां, वो भी ठीक कर दो.”
कहने लगा, “अगर आप बाक़ी चीज़ें भी ठीक करा लें तो अच्छा हो.”
मैंने कहा, “अच्छा कर दो.”.
बोला, “यूं थोड़ी हो सकता है. दस-पंद्रह दिन का काम है. आप इसे हमारे पास छोड़ जाइए.”
“और पैसे कितने लोगे?”
कहने लगा, “बस चालीस रुपये लगेंगे.”
हमने कहा, “बस जी जो काम तुमसे कहा है, कर दो और बाक़ी हमारे मामलात में दख़ल मत दो.”
थोड़ी देर में हैंडल और गद्दी फिर ऊंची करके कस दी गई. मैं चलने लगा तो मिस्त्री ने कहा, “मैंने कस तो दिया है लेकिन पेच सब घिसे हुए हैं. अभी थोड़ी देर में फिर ढीले हो जाएंगे.”
मैंने कहा, “हैं बदतमीज़ कहीं का. तो दो आने पैसे मुफ़्त में ले लिए? ”
बोला, “जनाब आपको बाइस्किल भी मुफ़्त में मिली होगी. ये आपके दोस्त मिर्ज़ा साहब की है ना? लल्लू ये वही बाइस्किल है, जो पिछले साल मिर्ज़ा साहब यहां बेचने को लाए थे. पहचानी तुमने? भई सदियां ही गुज़र गईं लेकिन इस बाइस्किल की ख़ता माफ़ होने में नहीं आती.”
मैंने, “वाह मिर्ज़ा साहब के लड़के इस पर कॉलेज आया जाया करते थे और उनको अभी कॉलेज छोड़े दो साल भी नहीं हुए.”
मिस्त्री ने कहा, “हां वो तो ठीक है लेकिन मिर्ज़ा साहब ख़ुद जब कॉलेज में पढ़ते थे तो उनके पास भी तो यही बाइस्किल थी.”

मेरी तबीयत ये सुनकर कुछ मुर्दा सी हो गई. मैं बाइस्किल को साथ लिए आहिस्ता-आहिस्ता पैदल चल पड़ा. लेकिन पैदल चलना भी मुश्किल था. इस बाइस्किल के चलाने में ऐसे-ऐसे पुठों पर ज़ोर पड़ता था जो आम बाइस्किलों के चलाने में इस्तेमाल नहीं होते. इसलिए टांगों और कंधों और कमर और बाज़ुओं में जा-बजा दर्द हो रहा था. मिर्ज़ा का ख़्याल रह-रहकर आता था, लेकिन मैं हर बार कोशिश करके उसे दिल से हटा देता था. वर्ना मैं पागल हो जाता और जुनून की हालत में पहली हर्कत मुझसे ये सर्ज़द हुई कि मिर्ज़ा के मकान के सामने बाज़ार में एक जलसा मुनअक़िद करता जिसमें मिर्ज़ा की मक्कारी, बेईमानी और दग़ाबाज़ी पर एक तवील तक़रीर करता. कुल बनी-नौ-इंसान और आईन्दा आने वाली नस्लों की नापाक फ़ितरत से आगाह कर देता और उसके बाद एक चिता जलाकर उसमें ज़िंदा जल कर मर जाता.

मैंने बेहतर यही समझा कि जिस तरह हो सके अब इस बाइस्किल को औने-पौने दामों में बेचकर जो वसूल हो उसी पर सब्र शुक्र करूं. बला से दस पंद्रह रुपये का ख़सारा सही. चालीस के चालीस रुपये तो ज़ाया न होंगे. रास्ते में बाइस्किलों की एक और दुकान आई वहां ठहर गया.
दुकानदार बढ़कर मेरे पास आया लेकिन मेरी ज़बान को जैसे क़ुफ़्ल लग गया था. उम्र भर किसी चीज़ के बेचने की नौबत न आई थी. मुझे ये भी मालूम नहीं कि ऐसे मौक़े पर क्या कहते हैं. आख़िर बड़े सोच बिचार और बड़े ताम्मुल के बाद मुंह से सिर्फ़ इतना निकला कि ये “बाइस्किल” है.
दुकानदार ने कहा, “फिर?”
मैंने कहा, “लोगे?”
कहने लगा, “क्या मतलब? ”
मैंने कहा, “बेचते हैं हम.”
दुकानदार ने मुझे ऐसी नज़र से देखा कि मुझे ये महसूस हुआ कि मुझ पर चोरी का शुबा कर रहा है. फिर बाइस्किल को देखा. फिर मुझे देखा. फिर बाइस्किल को देखा. ऐसा मालूम होता था कि फ़ैसला नहीं कर सकता. आदमी कौन सा है और बाइस्किल कौन सी है? आख़िरकार बोला, “क्या करेंगे आप इसको बेच कर?”
ऐसे सवालों का ख़ुदा जाने क्या जवाब होता है. मैंने कहा, “क्या तुम ये पूछना चाहते हो कि जो रुपये मुझे वसूल होंगे इनका मसरफ़ क्या होगा?”
कहने लगा, “वो तो ठीक है मगर कोई इसको लेकर करेगा क्या? ”
मैंने कहा, ” इस पर चढ़ेगा और क्या करेगा.”
कहने लगा, ” अच्छा चढ़ गया, फिर? ”
मैंने कहा, ” फिर क्या? फिर चलाएगा और क्या? ”
दुकानदार बोला, “अच्छा? हू. ख़ुदाबख़्श ज़रा यहां आना. ये बाइस्किल बिकने आई है.”
जिन हज़रत इस्म-ए-गिरामी ख़ुदाबख़्श था उन्होंने बाइस्किल को दूर ही से यूं देखा जैसे बू सूंघ रहे हों.

उसके बाद दोनों ने आपस में मश्विरा किया. आख़िर में वह जिनका नाम ख़ुदाबख़्श नहीं था, मेरे पास आए और कहने लगे, “तो आप सचमुच बेच रहे हैं?”
मैंने कहा “तो और क्या, महज़ आप से हमकलाम होने का फ़ख़्र हासिल करने के लिए मैं घर से ये बहाना गढ़कर लाया था?”
कहने लगा, “तो क्या लेंगे आप?”
मैंने कहा, “तुम ही बताओ.”
कहने लगा, “सचमुच बताऊं? ”
मैंने कहा, “अब बताओगे भी या यूं ही तरसाते रहोगे? ”
कहने लगा, “तीन रुपये दूंगा इसके.”
मेरा ख़ून खौल उठा और मेरे हाथ-पांव और होंट ग़ुस्से के मारे कांपने लगे. मैं ने कहा, “ओ सनअत-व-हिर्फ़त से पेट पालने वाले निचले तबक़े के इंसान! मुझे अपनी तौहीन की परवाह नहीं लेकिन तूने अपनी बेहूदा-गुफ़तारी से इस बेज़बान चीज़ को जो सदमा पहुंचाया है इसके लिए मैं तुझे क़यामत तक माफ़ नहीं कर सकता,” ये कह कर मैं बाइस्किल पर सवार हो गया और अंधा-धुंद पांव चलाने लगा.

मुश्किल से बीस क़दम गया हूंगा कि मुझे ऐसा मालूम हुआ कि जैसे ज़मीन यक-लख़्त उछल कर मुझसे आ लगी है. आसमान मेरे सर पर से हट कर मेरी टांगों के बीच में से गुज़र गया और इधर-उधर की इमारतों ने एक दूसरे के साथ अपनी-अपनी जगह बदल ली है. हवास बजा हुए तो मालूम हुआ कि मैं ज़मीन पर इस बेतकल्लुफ़ी से बैठा हूं गोया बड़ी मुद्दत से मुझे इस बात का शौक़ था जो आज पूरा हुआ. इर्द-गिर्द कुछ लोग जमा थे जिनमें अक्सर हंस रहे थे. सामने वो दुकान थी जहां अभी अभी मैंने अपनी नाकाम गुफ़्त-व-शुनीद का सिलसिला मुन्क़ते किया था. मैंने अपने गिर्द-व-पेश पर ग़ौर किया तो मालूम हुआ कि मेरी बाइस्किल का अगला पहिया बिल्कुल अलग हो कर लुढ़कता हुआ सड़क के उस पार जा पहुंचा है और बाक़ी बाइस्किल मेरे पास पड़ी है. मैंने फ़ौरन अपने आप को संभाला. जो पहिया अलग हो गया था उसको एक हाथ में उठाया दूसरे हाथ में बाक़ी मांदा बाइस्किल को थामा और चल खड़ा हुआ. ये महज़ एक इज़्तिरारी हर्कत थी वर्ना हाशा वकुल्ला वो बाइस्किल मुझे हर्गिज़ इतनी अज़ीज़ न थी कि मैं उसको इस हालत में साथ-साथ लिए फिरता.
जब मैं ये सब कुछ उठाकर चल दिया तो मैंने अपने आप से पूछा कि ये तुम क्या कर रहे हो? कहां जा रहे हो? तुम्हारा इरादा क्या है? ये दो पहिए काहे को ले जा रहे हो?
सब सवालों का जवाब यही मिला कि देखा जाएगा. फ़िलहाल तुम यहां से चल दो. सब लोग तुम्हें देख रहे हैं. सर ऊंचा रखो और चलते जाओ. जो हंस रहे हैं उन्हें हंसने दो. इस क़िस्म के बेहूदा लोग हर क़ौम और हर मुल्क में पाए जाते हैं. आख़िर हुआ क्या? महज़ एक हादसा. बस दाएं-बाए मत देखो. चलते जाओ.

लोगों के नाशाईस्ता कलिमात भी सुनाई दे रहे थे. एक आवाज़ आई, “बस हज़रत ग़ुस्सा थूक डालिए!” एक दूसरे साहब बोले, “बेहया बाइस्किल! घर पहुंच के तुझे मज़ा चखाऊंगा.” एक वालिद अपने लख़्ते जिगर की उंगली पकड़े जा रहे थे. मेरी तरफ़ इशारा करके कहने लगे, “देखा बेटा ये सर्कस की बाइस्किल है. इसके दोनों पहिए अलग-अलग होते हैं.”

लेकिन मैं चलता गया. थोड़ी देर के बाद मैं आबादी से दूर निकल गया. अब मेरी रफ़्तार में एक अज़ीमत पाई जाती थी. मेरा दिल जो कई घंटों से कशमकश में पेच-व-ताब खा रहा था अब बहुत हल्का हो गया था. मैं चलता गया, चलता गया हत्ता कि दरिया पर जा पहुंचा. पुल के ऊपर खड़े होकर मैंने दोनों पहियों को एक-एक करके इस बेपरवाई के साथ दरिया में फेंक दिया, जैसे कोई लेटर-बॉक्स में ख़त डालता है और वापस शहर को रवाना हो गया.

सबसे पहले मिर्ज़ा के घर गया. दरवाज़ा खटखटाया. मिर्ज़ा बोले, “अंदर आ जाओ.”
मैंने कहा, “आप ज़रा बाहर तशरीफ़ लाइए. मैं आप जैसे ख़ुदा रसीदा बुज़ुर्ग के घर वज़ू किए बगै़र कैसे दाख़िल हो सकता हूं.”
बाहर तशरीफ़ लाए तो मैंने वो औज़ार उनकी ख़िदमत में पेश किया जो उन्होंने बाइस्किल के साथ मुफ़्त ही मुझको इनायत फ़रमाया था और कहा, “मिर्ज़ा साहब आप ही इस औज़ार से शौक़ फ़रमाया कीजिए. मैं अब इससे बेनियाज़ हो चुका हूं.”

घर पहुंच कर मैंने फिर इल्म-ए-कीमिया की उस किताब का मुताला शुरू किया जो मैंने एफ़.ए. में पढ़ी थी.

आवरण फ़ोटोः katheats.com से साभार

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