व्यंग्य | अख़बार में ज़रूरत है

ये एक इश्तिहार है लेकिन चूँकि आम इश्तिहार बाज़ों से बहुत ज़्यादा तवील है इसलिए शुरू में ये बता देना मुनासिब मालूम हुआ वर्ना शायद आप पहचानने न पाते.

मैं इश्तिहार देने वाला एक रोज़नामा अख़बार का एडिटर हूँ. चंद दिन से हमारा एक छोटा सा इश्तिहार इस मज़मून का अख़बारों में ये निकल रहा है कि हमें मुतर्जिम और सब-एडिटर की ज़रूरत है. ये ग़ालिबन आपकी नज़र से भी गुज़रा होगा. उसके जवाब में कई एक उम्मीदवार हमारे पास पहुंचे और बाज़ को तनख़्वाह वग़ैरा चुकाने के बाद मुलाज़िम भी रख लिया गया लेकिन उनमें से कोई भी हफ़्ते-दो हफ़्ते से ज़्यादा ठहरने न पाया. आते के साथ ही ग़लतफ़हमियाँ पैदा हुईं. इश्तिहार का मतलब वो कुछ और समझे थे. हमारा मतलब कुछ और था, मुख़्तसर से इश्तिहार में सब बातें वज़ाहत के साथ बयान करना मुश्किल था. जब रफ़्ता-रफ़्ता हमारा असल मफ़हूम उन पर वाज़िह हुआ या उनकी ग़लत तवक़्क़ुआत हम पर रोशन हुईं तो ताल्लुक़ात कशीदा हुए, तल्ख़कलामी और बाज़-औक़ात दस्तदराज़ी तक नौबत पहुंची. उसके बाद या तो वो ख़ुद ही नाशाइस्ता बातें हमारे मुँह पर कहकर चाय वाले का बिल अदा किए बग़ैर चल दिए या हमने उनको धक्के मार कर बाहर निकाल दिया. और वो बाहर खड़े नारे लगाया किए. जिस पर हमारी अहलिया ने हमको एहतियातन दूसरे दिन दफ़्तर जाने से रोक दिया और अख़बार बग़ैर लीडर ही के शाया करना पड़ा, चूँकि इस क़िस्म की ग़लतफ़हमियों का सिलसिला अभी तक बंद नहीं हुआ इसलिए ज़रूरी मालूम हुआ कि हम अपने मुख़्तसर और मुह्मल इश्तिहार के मफ़हूम को वज़ाहत के साथ बयान करें कि हमें किस क़िस्म के आदमी की तलाश है. उसके बाद जिसका दिल चाहे हमारी तरफ़ रुजू करे, जिसका दिल न चाहे वो बेशक कोई प्रेस अलाट करा के हमारे मुक़ाबले में अपना अख़बार निकाल ले.

उम्मीदवार के लिए सबसे बढ़कर ज़रूरी ये है कि वो कामचोर न हो, एक नौजवान को हमने शुरू में तर्जुमे का काम दिया. चार दिन के बाद उससे एक नोट लिखने को कहा तो बिफर कर बोले कि मैं मुतर्जिम हूँ, सब-एडिटर नहीं हूँ. एक दूसरे साहिब को तर्जुमे के लिए कहा तो बोले में सब-एडिटर हूँ, मुतर्जिम नहीं हूँ. हम समझ गए कि ये नातजुर्बेकार लोग मुतर्जिम और सब-एडिटर को अलग-अलग दो आदमी समझते हैं. हालाँकि हमारे अख़बार में ये क़ायदा नहीं, हमसे बहसने लगे कि आपने हमें धोखा दिया है. दूसरे साहिब कहने लगे कि आपके इश्तिहार में अतफ़ का इस्तेमाल ग़लत है. एक तीसरे साहब ने हमारे ईमान और हमारे सर्फ़-ओ-नहो दोनों पर फुहश हमले किए. इसलिए हम वाज़ह किए देते हैं कि उन लोगों की हमको हरगिज़ ज़रूरत नहीं, जो एक से दूसरा काम करने को अपनी हतक समझते हैं और इसके लिए सर्फ़-ओ-नहो की आड़ लेते हैं. हमारे हाँ जो मुलाज़िम होंगे उन्हें तो वक़तन फ़वक़तन साथ की दुकान से पान भी लाने पड़ेंगे और अगर उन्हें बहस ही करने की आदत है तो हम अभी से कह देते हैं कि हमारे नज़दीक सब-एडिटर के माने ये हैं एडिटर का इस्म मुख़फ़्फ़फ़, अख़बार में एक ओहदेदार का नाम जो एडिटर को पान वग़ैरा ला कर देता है.

ये भी वाज़िह रहे कि हमारा अख़बार ज़नाना अख़बार नहीं, लिहाज़ा कोई ख़ातून मुलाज़मत की कोशिश न फ़रमाएं. पहले ख़्याल था कि इश्तिहार में इस बात को साफ़ कर दिया जाए और लिख दिया जाए कि मुतर्जिम और सब-एडिटर की ज़रूरत है जो मर्द हो लेकिन फिर ख़्याल आया कि लोग मर्द के माने शायद जवाँमर्द समझें और अहल-ए-क़लम की बजाय तरह-तरह के पहलवान नेशनल गार्ड वाले और मुजाहिद पठान हमारे दफ़्तर का रुख़ करें. फिर ये भी ख़्याल आया कि आख़िर औरतें क्यों आएंगी, मर्दों की ऐसी भी क्या क़िल्लत है. लेकिन एक दिन एक ख़ातून आ ही गईं. पुर्जे़ पर नाम लिख कर भेजा, हमें मालूम होता कि औरत है तो बुलाते ही क्यों? लेकिन आजकल कमबख़्त नाम से तो पता ही नहीं चलता. फ़ातिमा ज़ुबेदा, आयशा कुछ ऐसा नाम होता तो मैं ग़ुस्लख़ाने के रास्ते बाहर निकल जाता लेकिन वहां तो नाज़ झाँझरवी या अंदलीब गुलिस्तानी या कुछ ऐसा फैंसी नाम था. आजकल लोग नाम भी तो अजीब-अजीब रख लेते हैं, ग़ुलाम रसूल, अहमद दीन, मौला दाद ऐसे लोग तो नापैद ही हो गए हैं. जिसे देखिए निज़ामी गनजवी और सादी शीराज़ी बना फिरता है. अब तो इस पर भी शुबहा होने लगा कि हरारत अज़ीज़ी, नज़ला खांसी, सालब मिस्री, अदीबों ही के नाम न हों, औरत-मर्द की तमीज़ तो कोई क्या करेगा. बहरहाल हमने अंदर बुलाया तो देखा कि औरत है. देखा के ये मानी हैं कि उनका बुर्क़ा देखा और हुस्न-ए-ज़न से काम लेकर अंदाज़ा लगाया कि उसके अंदर औरत है. हमने बसद अदब व एहतराम कहा कि हम ख़वातीन को मुलाज़िम नहीं रखते. उन्होंने वजह पूछी. हमने कहा ‘पेचीदगियां’. वह कहने लगीं आगे बोलिए. हमने कहा – पैदा होती हैं. भड़क कर बोलीं कि आप भी तो औरत के पेट से पैदा हुए थे, क्योंकि इस अमर का हमारी सवानिह उमरी में कहीं ज़िक्र नहीं इसलिए हम ताईद तर्दीद कुछ न कर सके. मेरी विलादत को उन्होंने अपना तकिया कलाम बना लिया. बहुतेरा समझाया कि जो होना था वो हो गया और बहरहाल मेरी विलादत को आपकी मुलाज़मत से किया ताल्लुक़? और ये तो आप मुझसे कह रही हैं, अगर हमारे प्रोप्राइटर से कहें तो वो आपकी और मेरी हम दोनों की विलादत के मुताल्लिक़ वो वो नज़रिए बयान करेंगे कि आप हक्का-बक्का रह जाएँगी. ख़ुदा-ख़ुदा करके पीछा छूटा.

हमारे अख़बार में प्रोप्राइटर का एहतिराम सबसे मुक़द्दम है. वो शहर के एक मुअज़्ज़िज़ डिपो होल्डर हैं. अख़बार उन्होंने महज़ ख़िदमत-ए-ख़लक़ और रिफ़ाह-ए-आम के लिए जारी किया है, इसलिए ये ज़रूरी है कि पब्लिक उनकी शख़्सियत और मशाग़ल से हर वक़्त बाख़बर रहे. चुनांचे उनके पोते का खतना, उनके मामूं का इंतिक़ाल, उनके साहबज़ादे की मैट्रिकुलेशन में हैरतअंगेज़ कामयाबी (हैरतअंगेज़ इस मानों में कि पहले ही रेले में पास हो गए.)

ऐसे वाक़िआत से पब्लिक को मुत्तला करना हर सब-एडिटर का फ़र्ज़ होगा. हर उस प्रेस कान्फ़्रैंस में जहां ख़ुर्द-ओ-नोश का इंतिज़ाम भी हो, हमारे प्रोप्राइटर मय अपने दो छोटे बच्चों के जिनमें से लड़के की उम्र सात साल और लड़की की पाँच साल है, शरीक होंगे और बच्चे फ़ोटो में भी शामिल होंगे और इस पर किसी सब-एडिटर को लब फ़िक़रे कसने की इजाज़त न होगी. हर बच्चे बहुत ही होनहार हैं और हालात में ग़ैरमामूली दिलचस्पी लेते हैं. कश्मीर के मुताल्लिक़ प्रेस कान्फ़्रैंस हुई तो छोटी बच्ची हिंदुस्तानियों की रेशा दवानियों का हाल सुनकर इतने ज़ोर से रोई कि ख़ुद सरदार इब्राहीम उसे गोद में लिए-लिए फिरे तो कहीं उसकी तबीयत संभली.

हमारे अख़बार का नाम आसमान है. पेशानी पर ये मिसरा मुंदर्ज है कि ‘आसमान बादल का पहले खुर्फ़ा देरीना है’ इस फ़िक़रे को हटाने की कोई सब-एडिटर कोशिश न फ़रमाएं क्योंकि ये ख़ुद हमारे प्रोप्राइटर साहिब का इंतिख़ाब है. हमने शुरू-शुरू में उनसे पूछा भी था कि साहिब इस मिसरे का अख़बार से क्या ताल्लुक़ है. कहने लगे अख़बार का नाम आसमान है और इस मिसरे में भी आसमान आता है. हमने कहा – बजा लेकिन ख़ास इस मिसरे में क्या ख़ूबी है? कहने लगे – अल्लामा इक़बाल का मिसरा है. और अल्लामा इक़बाल से बढ़कर शायर और कौन है? इस पर हम चुप हो गए. पेशानी पर उर्दू का सबसे कसीर उल-इशाअत अख़बार लिखा है. मेरा तजवीज़ किया हुआ है उसे भी बदलने की कोशिश न की जाए क्योंकि उम्र-भर की आदत है, हमने जहां-जहां एडिटरी की अपने अख़बार की पेशानी पर ये ज़रूर लिखा.

बाज़ उम्मीदवार ऐसे भी आते हैं कि साथ ही हमीं से सवालात पूछने लगते हैं. एक सवाल बार-बार दोहराते हैं कि आपके अख़बार की पॉलिसी किया है? कोई पूछे कि आपकी ज़ात क्या है? हमारी पॉलिसी में चंद बातें तो मुस्तक़िल तौर पर शामिल हैं, मसलन हम अरबों के हामी हैं और अमरीका से हरगिज़ नहीं डरते, चुनांचे एक दिन तो हमने प्रेसिडेंट ट़्रूमैन के नाम अपने अख़बार में एक खुली चिट्ठी भी शाया कर दी लेकिन आम तौर पर हम पॉलिसी में जुमूद के क़ाइल हैं, इसीलिए सब-एडिटर को मुसलसल हमसे हिदायात लेनी पड़ेंगी. हफ़्ता रवां में हमारी पॉलिसी ये है कि पिंडी कैंप के हेड मास्टर को मौसम-ए-सरमा से पहले-पहल या तरक़्क़ी दिलवाई जाए या उनका तबादला लाहौर कराया जाए (उनके लड़के की शादी हमारे प्रोप्राइटर की लड़की से तय पा चुकी है और ख़्याल है कि मौसम-ए-सरमा में शादी कर दी जाए).

इंशा के मुताल्लिक़ हमारा ख़ास तर्ज़-ए-अमल है और हर सब-एडिटर और मुतर्जिम को इसकी मश्क़ बहम पहुंचानी पड़ेगी. मसलन पाकिस्तान बना नहीं मारिज़-ए-वजूद में आया है, हवाई जहाज़ उड़ता नहीं मह्व-ए-परवाज़ होता है. मुतर्जिमों को इस बात का ख़ासतौर पर-ख़याल रखना पड़ेगा. एक मुतर्जिम ने लिखा कि कल माल रोड पर दो मोटरों की टक्कर हुई और तीन आदमी मर गए. हालाँकि उन्हें कहना चाहिए था कि दो मोटरों के तसादुम का हादिसा रुनुमा हुआ, जिसके नतीजे के तौर पर चंद अश्ख़ास जिनकी तादाद तीन बताई जाती है, मोहलिक तौर पर मजरूह हुए.

लाहौर कारपोरेशन ने ऐलान किया कि फ़ुलां तारीख़ से हर पालतू कुत्ते के गले में पीतल की एक टिकिया लटकानी ज़रूरी है, जिस पर कमेटी का नंबर लिखा होगा. एक मुतर्जिम ने ये तर्जुमा यूं किया कि हर कुत्ते के गले में बिल्ला होना चाहिए. हालाँकि कारपोरेशन का मतलब हरगिज़ ये न था कि एक जानवर के गले में एक दूसरा जानवर लटका दिया जाए.

सिनेमा के फ़्री पास सब-एडिटर के मुशाहरे में शामिल नहीं. ये पास एडिटर के नाम आते हैं और वही उनको इस्तेमाल करने का मजाज़ है. फ़िलहाल ये प्रोप्राइटर और उनके अह्ल-ए-ख़ाना के काम आते हैं लेकिन अनक़रीब इस बारे में सिनेमा वालों से एक नया समझौता होने वाला है. अगर कोई सब-एडिटर अपनी तहरीर के ज़ोर से किसी सिनेमा वाले से पास हासिल करे तो वो उसका अपना हक़ है लेकिन इस बारे में एडिटर के साथ कोई मुफ़ाहमत कर ली जाए तो बेहतर होगा. अली हज़ा जो अशिया रिव्यू के लिए आती हैं मसलन बालों का तेल, अतरियात, साबुन, हाज़िम दवाईयां वग़ैरा-वग़ैरा, उनके बारे में एडिटर से तस्फिया कर लेना हर सब-एडिटर का अख़लाक़ी फ़र्ज़ होगा.

मुम्किन है इन शराइत को अच्छी तरह समझ लेने के बाद कोई शख़्स भी हमारे हाँ मुलाज़मत करने को तैयार न हो. इसका इमकान ज़रूर मौजूद है लेकिन हमारे लिए ये चंदाँ परेशानी का बाइस न होगा. हमारे प्रोप्राइटर आगे ही दो-तीन मर्तबा कह चुके हैं कि स्टाफ़ बहुत बढ़ रहा है, बहुत बढ़ रहा है और इसी वजह से उन्होंने हमारी तरक़्क़ी भी रोक दी है. अजब नहीं कि जब हम दफ़तर में अकेले रह जाएं तो बात बाहर निकल जाती है. ये मालूम कभी नहीं हुआ कि क्या बात? कौन सी बात? अपने डिपो पर भी वो अकेले ही काम करते हैं और इसकी वजह भी यही बताते हैं कि वर्ना बात बाहर निकल जाती है.

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