व्यंग्य | भोगीलाल कवि और नवीन कविता रहस्यम्

आज सुबह-सुबह शर्मा जी घर आ धमके. हाथ में अख़बार लिए थे. बोले, “आपने आज का अख़बार देखा? ये देखिए क्या छपा है!” अख़बार देख कर मैं भी उछल पड़ा.

अख़बार में आगामी रविवार को आयोजित होने वाले एक कवि सम्मेलन का विज्ञापन दिया हुआ था. विज्ञापन में आमंत्रित कवियों में भोगीलाल जी का भी नाम छपा था.

इस अविश्वसनीय ख़बर की विश्वसनीयता जाँचने के लिए तत्काल भोगीलाल जी को फ़ोन लगाया और पूछा, “ये क्या नया ड्रामा है? तुम कवि कब और कैसे बने?” भोगी भाई ने कहा कि कहानी लम्बी है, फ़ोन पर नहीं बताई जा सकती. और कुछ ही देर में अपनी कहानी सुनाने के लिये वो घर पर पधार गए.

मैंने अख़बार का विज्ञापन उनको दिखा कर पूछा- “ये क्या है?”

“देखिए प्रिय! मोहल्ला कवि सम्मेलनों में तो अपन जा ही रहे थे. थोड़ा बहुत इधर-उधर से ‘प्रेरित’ कविताएं भी सुना देते थे. पर छंद में कविता लिख नहीं पा रहे थे. अब कब तक ‘प्रेरित’ कविता सुनाते? गुरुजी बोले …”

“गुरुजी? अब ये गुरुजी कौन हैं?”

“रौनक के पापा. हिन्दी महासभा वाले. हमने उनको गुरु बनाया है. तो गुरुजी बोले कि ये छंद-फंद के दंद-फंद में क्यों पड़ते हो? ज़माना नई कविता का है. फिर उन्होंने हमें परम् गोपनीय ‘नवीन कविता रहस्य’ दिया. जिसके पालन से व्यक्ति अतिशीघ्र प्रतिष्ठित कवियों में प्रतिष्ठित होता है. बस उसी का ये फल है कि अपन आमंत्रित प्रतिष्ठित कवियों में प्रतिष्ठित हुए. गुरु जी की जय हो!” यह बोल कर भोगीलाल जी ने दाहिने हाथ से अपने दोनों कान स्पर्श किए और अपनी आँखें बंद कर हाथ जोड़ लिए.

“अब ये नौटंकी बंद कर के ज़रा मुझे बताओगे कि ये ‘नवीन कविता रहस्य’ क्या है?” मैंने कहा.

“देखिए प्रिय! ये रहस्य अत्यंत गोपनीय है. सबसे पहले ये रहस्य मैंने सूर्य को बता…”

“ऐ भाई!” मैंने बीच में टोका “पहले ही बोला था नौटँकी नहीं चलेगी, अब सीधे-सीधे बताओ!”

“ठीक है, दो बियर की बोतल लूँगा.” भोगी भाई ने अपने नेक इरादे बता दिए.

इस देश में फ़िल्मी हीरो, क्रिकेटर के बाद ,लोग कवि ही बनना चाहते हैं. परन्तु पहली दो लालसाओं के विपरीत ये तीसरी वाली लालसा अधिकतर प्रच्छन्न ही रहती है. कहीं किसी बारात में ख़ुद को शशि कपूर मान कर नाच लिए, फिर वधू पक्ष की कन्याओं को कनखियों से देख लिया, बस, हीरो बनने की आधी इच्छा तृप्त हो गई. इसी तरह गली में क्रिकेट खेलते हुए लपेटा शॉट मारा, फिर किसी बड़े खिलाड़ी की तरह दो-तीन बार कवर ड्राइव की भाव-भंगिमा बनाई, मानो अगली गेंद सीधे बल्ले से ही खेलेंगे, बस, क्रिकेटर बनने की आधी इच्छा तृप्त हो गई. पर कवि बनने के मामले में ऐसा नहीं है.

कवि बनना किसी अकवि की सर्वाधिक दमित इच्छाओं में से एक होता है. क्योंकि इसमें बेइज़्ज़ती का बहुत बड़ा ख़तरा निहित होता है, अतः वह अकवि प्रच्छन्न कवि बना रहता है. पर कवि बनता अवश्य है. कवि बनने पर तुला ये अकवि वे सभी कार्य करने पर उतर आता है, जिन्हें भारतीय दंड संहिता में अपराध कहा जाता है. इन कार्यों में चौर्य कर्म सर्वाधिक महत्वपूर्ण है.

वह कहीं से कोई पंक्तियां उठाता, कहीं से कोई मिसरे. फिर उन्हें अकवियों के कवि-सम्मेलन में सुना-सुना कर वाहवाही लूटता. ऐसे न जाने कितने शेर, दोहे, कविताएं, हृदय के अनगिनत उद्गार, उन कवियों ने लिखे और रद्दी वालों ने खरीदे. और लोगों ने उन पर पकौड़े और वड़ा-पाव रख कर खाए. कहना नहीं होगा कि शर्मा जी तत्काल दो बोतल बियर के लिये राज़ी हो गए. और भोगी भाई ने अपना गुरु द्वारा प्रदत्त रहस्य खोलना प्रारम्भ किया.

“देखिए प्रिय! गुरुजी कहते हैं – कविता में अपनी रेंज दिखाओ! नई कविता का अर्थ है दुनिया को अपनी रेंज बताना. कविता की शुरुआत कुछ कठिन और जटिल शब्दों से होनी चाहिए. कविता की पहली पंक्तियां शुरुआती ओवर की तरह हैं. तो मंजे हुए प्रारम्भिक बल्लेबाज़ की तरह ओपनिंग धमाकेदार हो. जैसे आप कहो – मत्सरता के इस निविड़ जगत में घिरता हूँ मैं. गुरुजी कहते हैं कि वो कवि ही क्या जिसकी पहली दो पंक्ति में शब्दकोश न देखना पड़े.“

“वाह! वाह! क्या बात कही है गुरुजी ने!” शर्मा जी बोले. आगे?”

“आगे आप अपनी जियोग्राफिकल रेंज दिखाओ. मतलब इसमें एक-आध विदेशी लेखक या किताब का नाम आए. आप कह सकते हो – फैले हैं चारो ओर अगाथा क्रिस्टी के पात्र.”

“ये कौन हैं?” शर्मा जी उछले.

“मैं बता दूँगा, अभी शांत रहो!” मैंने कहा. मेरा भी कौतूहल बढ़ रहा था.

“अब पूंजी को गाली दो. गुरुजी कहते हैं कि भले ही तुम कविता इंटरनेट पर डालो और उसे सब पढ़ें भी इंटरनेट पर. परन्तु पूंजी को गाली देनी है. आप कह सकते हो – पूंजी के ओलीगार्क.”

“काहे का बेड़ाग़र्क?” शर्मा जी फिर कूदे.

“ग़र्क नहीं, गार्क. ओलिगार्क. अब इस शब्द का मतलब मत पूछना यार शर्माजी. गुरुजी बोलते रहते हैं तो मैंने भी सीख लिया,” भोगी भाई बोले, “अब आगे इसमें ‘इलाहाबादी बोली’ डालो.”

“इलाहाबादी? ये कौन सी बोली है? इतनी बोलियाँ सुनी, पर ये इलाहाबादी तो पहली बार सुन रहा हूँ.” मुझे अपने ज्ञान पर संदेह होने लगा.

“अरे इलाहाबादी नहीं जानते आप? ये अवधी, भोजपुरी और लख़नवी उर्दू का घपड़-सपड़ है. नवीन कविता में इसका प्रयोग अनिवार्य है. गुरुजी कहते हैं – तत्सम शब्दों के बीच इलाहाबादी का प्रयोग गज़ब प्रभाव उत्पन्न करता है. जैसे आप कहें – तप्त धरा पर कृषक का तप्त तन होता है लहालोट.”

“लहालोट?” शर्मा जी ने प्रश्नवाचक चिह्न लगाया.

“अरे जो बचपन में लोटपोट होता है न, वही बड़े होकर लहालोट हो जाता है,” भोगी ने स्पष्ट किया. “पर ये याद रहे कि केवल इलाहाबादी का ही प्रयोग करना है. अन्य बोलियों का प्रयोग वर्जित है. सोचिए आप कहें – उस पर घलते हैं लू के थपेड़े. नो! बुंदेलखंडी इज़ नॉट एलाऊड. आप कहेंगे -उस पर बरपा होते हैं लू के थपेड़े. या आप कहें जिस दिन ठाड़ा होगा वह दिनमणि को लेगा ठूँस. नो! बृज भाषा इज़ ऑल्सो नॉट एलाऊड. आप कहेंगे जिस दिन खड़ा होगा वह दिनमणि को लेगा भकोस.”

“वाह! वाह!” शर्मा जी मुग्ध थे और भोगी भाई जारी…

“गुरुजी कहते हैं कि ये लहालोट और भकोस हर दूसरी कविता में आने चाहिए. इन एव्री सेकिंड पोयम.”

“बड़ी अंग्रेज़ी झड़ रही है आज?” मैं ने टोका.

“नई कविता लिखने वाला अंग्रेज़ी में बात करता है.” भोगी आज अलग ही अवतार में था. “आगे गुरुजी ने हिन्दी महीने और ऋतुएँ रटवा दीं हैं. वे भी कविता में आने चाहिए. जैसे आप कहो – माघ की मावठ से लेगा शीतलता.”

“मावठ? ये तो राजस्थानी शब्द हुआ, इलाहाबादी नहीं.” मैंने आपत्ति ली.

“अब जो नई कविता में आ गया तो इलाहाबादी हो गया. वैसे भी आजकल कुछ आलोचक-कवि उस साइड से आ रहे हैं, तो उस लिहाज से भी ये शब्द ठीक है. हाँ तो कहाँ था मैं?”

“आप हिन्दी महीने और ऋतु के बारे में बता रहे थे.” शर्मा जी ने याद दिलाया. शर्मा जी आज पूरी काकचेष्ठा और वकोध्यानम से आए थे.

“हाँ तो गुरुजी कहते हैं – हिन्दी महीने और फ़सल हर हाल में डालो. जिससे ‘कद्दू का पेड़’ खोजने वाली आज की पीढ़ी जब कविता पढ़ेगी, तो समझने में एक पैकिट इलेक्ट्रॉल तो लगेगा ही कम से कम.”

“मैं एक मिनट में काग़ज़-पेन ले आऊँ?” शर्मा जी कुछ ज़्यादा ही गम्भीर हो रहे थे. मुझे टोकना पड़ा-
“उसकी आवश्यकता नहीं है शर्मा जी. मैं सुन रहा हूँ. हाँ तो आगे भोगी भाई?”

“हाँ तो गुरुजी कहते हैं कि हर मौसम में खिलने वाले फूलों, उगने वाले पौधों की लिस्ट बनाओ. कविता में लिखो – खिलेगा पारिजात, मुस्कुराएगा लाजवंती. भले ही कवि को उसके दिल्ली वाले कड़कड़डूमा के फ़्लैट से बाहर झाँकने पर सूखते हुए चड्डी-बनियान के अलावा कुछ न दिखता हो. पर लिखना यही है. और फूल अगर लाल रहे तो और भी बढ़िया.”

“वाह! वाह! आगे?” शर्माजी आज, भोगी के शब्दों में, लहालोट हुए जा रहे थे.

“अब इसमें अपनी टेम्पोरल रेंज दिखाओ. जैसे कहो- पर अभी मुझे बनना होगा निकेटर. इसमें सेल्यूकस को खा जाओ. या फिर- जलाना होगा ख्वाबों को बख़्तियार की तरह. इसमें ख़िलजी खा जाओ. लोगों को ख़ुद समझने दो. गुरुजी कहते हैं नई कविता इलीट के लिए है. क्लासेस के लिए.”

“पर ये दोनों ही क्यों?” मैंने पूछा.

“गुरु जी कहते हैं लव द् यवन्स! यवनों से प्यार करो!” भोगी ने सीधे दिमाग़ पर दी, “अब कविता में अंतरराष्ट्रीय रेंज दिखाने का वक़्त आ गया है- मुझे बनना होगा केट्सबी, करना होगा गन पाउडर प्लॉट.”

“अब ये क्या था भाई?” ये आखिरी पंक्ति शर्मा जी और मेरे, दोनों के ऊपर से निकल गई.

“हे,हे,हे! वो कविता ही क्या जिसमें इनसाइक्लोपीडिया न देखना पड़े- गुरुजी कहते हैं . अब बारी है इसमें अपनी फ़िलोसॉफ़िकल रेंज बताने की. रेंज का ही तो खेल है सारा. तो मैं कहूँगा – मेरे अंदर के सार्त्र को ध्वस्त करना चाहता है, मेरे अंदर घुसता किर्क़ेगार्ड.”

“ये अस्तित्ववाद तो मैंने पढ़ाया था तुम्हें! यहाँ घुसेड़ दिया?” मैं ने चौंक कर कहा.

“हे,हे! आदमी पहले इंटरनेट पर सार्त्र खोजेगा, फिर किर्केगार्ड. फिर उन दोनों में अंतर समझने से पहले ही हाँफ जाएगा और अपने को कोई बड़ा-भारी कवि मान लेगा.”

“वाह! जय हो! जय हो!” शर्मा जी का लहालोटना निरन्तर था.

“जिसे रोकता हूँ मैं अपनी पैल्विक गर्डिल से” इधर भोगी का रहस्योद्घाटन भी जारी था, “देखा प्रिय! कैसे अपनी साइंटिफिक रेंज दिखाई मैंने!”

“मानता हूँ भाई, मानता हूँ!” मैंने हाथ जोड़ कर कहा.

“अब इसमें कुछ अख़बारी बयान डालो और एक माइनॉरिटी एंगल. जैसे – फैलता है भ्रष्टाचार, होती है मॉब लिंचिंग, दहलता है वह, धीमी आवाज़ में कहता है अजान.”

“ओए, होए, होए! क्या लाइनें हैं. वाह!वाह!” ये फिर से शर्मा जी थे.

“अब एक सेफ़ गेम खेलो.”

“सेफ़ गेम? ये क्या है?”

“देखिए प्रिय! सेफ़ गेम का अर्थ है सरकार को गाली देना, सरकार को कोसना. गुरुजी कहते हैं कि सरकारें तो हमेशा रहेंगी. तो कविता भी हमेशा प्रासंगिक रहेगी. किसी सींकिया पहलवान की संसद के सामने कपड़े फाड़ कर ताल ठोंकने की कल्पना किसे रोमांचित नहीं करेगी भला? भले ही वो केवल कल्पना ही क्यों न हो. जैसे – ऐ तख़्तनशीं! तुझ में ताक़त बहुत होगी, पर हिम्मत मेरे पास है. आपने एक चीज़ नोटिस की प्रिय?”

“क्या?” मैंने कहा.

“किस चतुराई से मैंने नफ़ासत वाली उर्दू मिक्स की इसमें!”

“हाँ! वो तो है.”

“अब कविता मुक्कमल है –

मत्सरता के इस निविड़ जगत में घिरता हूँ मैं
फैले हैं चारों ओर अगाथा क्रिस्टी के पात्र
पूंजी के ओलिगार्क
तप्तधरा पर कृषक का तप्त तन होता है लहालोट
उस पर बरपा होते हैं लू के थपेड़े
जिस दिन खड़ा होगा वह दिनमणि को लेगा भकोस
माघ की मावठ से लेगा शीतलता
खिलेगा पारिजात, मुस्कुराएगा लाजवंती
पर अभी मुझे बनना होगा निकेटर
जलाना होगा ख़्वाबों को बख़्तियार की तरह
मुझे बनना होगा केट्सबी
करना होगा गन पाउडर प्लॉट
पर मेरे अंदर के सार्त्र को ध्वस्त करना चाहता है मेरे अंदर घुसता किर्केगार्ड
जिसे रोकता हूँ मैं अपनी पैल्विक गर्डल से
फैलता है भ्रष्टाचार होती है मॉब लिंचिंग
दहलता है वह, धीमी आवाज़ में कहता है अजान
ऐ तख़्तनशीं! तुझ में ताक़त तो बहुत होगी
पर हिम्मत मेरे पास है
जानता हूँ मैं चाँद का मुँह टेढ़ा है
जल्द जलेगा लकड़ी का रावण”

“ये आख़िरी दो पंक्तियों की तो कोई चर्चा ही नहीं हुई थी! ये कहाँ से घुसी?” मैंने सवाल किया.

“ये हथौड़ा है, हथौड़ा! गुरुजी कहते हैं कि कविता की आख़िरी दो पंक्तियां जज के हथौड़े की तरह होनी चाहिए. अपनी कविता का निर्णय ख़ुद ही सुनाती हुई. पूरी कविता को गाली देता आलोचक जब इन आख़िरी दो पंक्तियों पर पहुँचेगा तो आलोचना लिखने में एक बार तो उसके हाथ कांपेंगे. फिर वो सौम्य तरीके से लिखेगा- कविता शुरू में कमज़ोर है पर बाद में सशक्त होकर उभरती है.”

“और कोई हिदायत?” मंत्रमुग्ध से शर्मा जी बहुत देर बाद बोले.

“हाँ! गुरुजी कहते हैं ऐसी दो कविताएँ रोज़ – एक सुबह, ख़ाली पेट गुनगुने पानी से, और एक शाम को ख़ाली पेट गुनगुनी रम से- लिखनी हैं. जो महीने भर में तेरा काव्य संकलन न छप कर आया तो मुझे मुँह मत दिखाना बैंजो!”

इतना कह कर भोगी भाई चुप हो गए. हम दोनों सुन्न से कुछ देर बैठे रहे. फिर धीमी आवाज़ में शर्मा जी बोले-
“ये बैंजो तो वाद्य यंत्र है न?”

“हाँ! इसको भी कविता में डाल सकते हैं- बजता है उसका बैंजो,” भोगी ने कहा,” इति श्री नवीन कविता रहस्यम सम्पूर्णम.” यह कह कर भोगी भाई ने फिर से दाहिने हाथ से अपने दोनों कान स्पर्श किए और हाथ जोड़ लिए. फिर रौनक से मिलने की अनुमति लेकर, वे प्रस्थान कर गए. उनके जाते ही शर्मा जी भी उठने लगे तो मैंने टोका-

“आप कहाँ चले?”

“दो मिनट में आता हूँ प्रिय. बस एक कविता लिख आऊँ फटाफट.”

हमने शर्मा जी को प्रणाम किया.

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