व्यंग्य | अरुण यह मधुमय देश हमारा

शाम को टहलते हुए सोच रहा था कवि ने ऐसा क्यों कहा- अरुण यह मधुमय देश हमारा? वह कह सकता था -देखो यह मधुमय देश हमारा, अथवा – अहो यह मधुमय देश हमारा. कविगण भूत, भविष्य, वर्तमान एक साथ देखने की क्षमता रखते हैं. वे त्रिकालदर्शी होते हैं. अपना घर छोड़ कर, कवि सब देख लेते हैं. कवि ने यदि ‘अरुण’ कहा है, तो इसका निश्चय ही कोई प्रयोजन होगा. विचार और क़दम साथ-साथ चलते रहे. विधायक निवास के निकट आते-आते यह पंक्तियां कुछ स्पष्ट हुईं और पंक्ति छायावाद की छाया से निकल कर कुछ प्रकाश में आई.

अरुण दरअसल व्यक्तिवाचक संज्ञा है. कवि ने इसको इस प्रकार से प्रयोग किया है कि ये देश-काल के अनुसार अन्य संज्ञाओं से प्रतिस्थापित की जा सके. जैसे कभी दौलत खान लोधी ने कहा होगा- बाबर यह मधुमय देश हमारा. कभी मीर जाफर ने कहा होगा- क्लाइव यह मधुमय देश हमारा. फिर अंग्रेज चले गए तो नब्बे के दशक तक नेता एक दूसरे से कहते रहे- भाईसाहब यह मधुमय देश हमारा. नब्बे के बाद वे एक दूसरे के अतिरिक्त विदेशी कम्पनियों से भी कहने लगे- यूनिलीवर यह मधुमय देश हमारा या वालमार्ट यह मधुमय देश हमारा. नेताओं ने अपनी संतानों को तो अनिवार्यतः बताना (और दिखाना भी) शुरू कर दिया- बेटा देखो यह मधुमय देश हमारा, बेटा चखो यह मधुमय देश हमारा.

यदि देश मधुमय है तो किसी के लिए तो होगा ही. अब यह तो सम्भव नहीं है कि मधु हो, लेकिन कोई उसका स्वाद न ले. पर कौन चखेगा? इसका संकेत शास्त्रों ने दिया -वीर भोग्या वसुंधरा. पहले एक ने स्वाद लिया, पर दूसरा देखता रहा. वह कमज़ोर था. जो ख़ुद नहीं लड़ सकता, वह लड़वा सकता है. उसने तीसरे से कहा- नेताजी यह मधुमय देश हमारा. नेताजी समझ गए. नेताजी ने विधानसभा में ताल ठोंक दी – तुम्हारा ‘मधुमून’ पूरा हुआ, अब हमें मनाने दो. हम भी तो जानें कैसा है यह मधुमय देश हमारा. हम जानना चाहते हैं, हमारे विधायक-कार्यकर्ता जानना चाहते हैं, और कुछ आपकी पार्टी के विधायक भी, जिन्हें ठीक से मधु नहीं दिखाया गया, मधुमय देश के बारे में जानने के इच्छुक हैं. क़दम विधायक निवास के ठीक सामने रुकते हैं.

विधायक निवास सूना पड़ा है. इसके मध्य में शहीद भवन है, जहाँ नाटकों का मंचन होता है. मुझे ज़ोर की हँसी आती है. जहाँ लोकतंत्र के नित नूतन नाटक खेले जाते हों, वहाँ नकली नाटकों को कौन देखेगा भला. और शहीद भवन क्यों? शहीद भवन तो गटर साफ करने वालों की बस्ती में बनाना चाहिये. जगह के हिसाब से इसका नाम मधु भवन होना चाहिये. और विधायक निवास का नाम – मधुप निवास या मधुकर सदन. वहाँ तैनात गार्ड से पूछता हूँ – भाई सब लोग कहाँ हैं? गार्ड कहता है – सब लोग मधुमय देश देखने निकले हैं.

कुछ लोग कवि की इन पंक्तियों पर आपत्ति करेंगे. और क्यों न करें? जब तुलसीदास पर आपत्ति कर सकते हैं तो ये तो नया ही है. वास्तववादी कहेंगे- कवि को लिखना था अरुण यह सूखा देश हमारा, अरुण यह बेरोज़गार देश हमारा, अरुण यह पिछड़ा देश हमारा. मैं कहूँगा उनका यथार्थवाद, अधूरा यथार्थवाद है. वे निश्चित ही कोई मिडिल क्लास, निराशावादी होंगे. वैसे मिडिल क्लास को निराशावादी कहना पुनरुक्ति दोष है. टोटोलॉजी है. यह छायावादी दृष्टि ईश्वर हर किसी को नहीं देता. सत्य यह है कि कुछ विरले ही समाज में इस योग्य होते हैं जो सूखा, बेरोज़गारी, पिछड़ेपन में छिपे मधु को देख लेते हैं. वे ही आह्लादित होकर कहते हैं – पापा यह मधुमय देश हमारा. आप पुल देखते हैं, वे मधु देखते हैं. आप सड़क देखते हैं, वे मधु देखते हैं. आप पहाड़ देखते हैं, वे मधु देखते हैं. आप नदी- नदी की रेत देखते हैं, वे मधु देखते हैं. वे असली मधुरा भक्ति कर रहे हैं. और उन्हें फल भी मिल रहा है.

वे पहले इधर-उधर भटकते थे. दसवीं-बारहवीं में लुढ़क पड़ते थे. वे कहते थे –  इस देश में कुछ नहीं है. कभी झगड़ा कर लेते, कभी अपने ऊपर केस करवा लेते. खेल के नाम पर हॉकी-बेसबॉल-सरिया-तलवार एक साथ  चलाते. हिन्दू होते तो मुसलमान से भिड़ जाते, मुसलमान होते तो हिन्दू से. वे यूँ ही अपनी ज़िंदगी को नष्ट कर रहे थे. फिर एक दिन किसी खादी कुर्ते वाले ने उनका हाथ थामकर कहा- चेले यह मधुमय देश हमारा. बस उस दिन से उनकी ज़िंदगी बदल गई. वे देश के मधु को ताड़ गए. अब वे ये सब गलत काम नहीं करते हैं. करवाते हैं. वे राजधानी में मधु उतारते हैं. उनके पंख निकल आये हैं.

वे राजधानी में, मंत्रालय-सचिवालय में , बंगलों में मधुकर बन कर उड़ रहे हैं. फुल्ल कुसुमित द्रमुदल शोभिनीम वीथिकाओं से गुजरते हैं. कभी वे अनुदान की फ़ाइल पर बैठते हैं, कभी पोषाहार की. उपवन मधु-मकरंद से सुवासित है. कहीं एनजीओ के पुष्प खिले हैं, तो कहीं योजनाओं की कलियां. वे भिनभिनाते हैं- इस फ़ाइल को रोक लो, उस फ़ाइल को उलझा दो. फिर मधुमयी फाइलें जिलों में पहुँचती है. हर जगह अली, कली से ही बिंधा है. आगे का हवाल न्यूज़ चैनलों के मधुकर सुनाते हैं.

गोपियां श्याम की शिकायत मधुकर से करतीं थीं- मधुकर! श्याम हमारे चोर. अब जनता मधुकर की शिकायत श्याम से कर रही है- श्याम! मधुकर हमारे चोर. पूरे मधुमय देश में उल्टा भ्रमर गीत चल रहा है. मंत्रालय के बाहर लटके छत्ते और बड़े, और भारी होते जा रहे हैं.

आप आपत्ति लेते हैं कि देखो कितने बड़े-बड़े छत्ते लटक रहे हैं. इन्हें हटाओ. मधुमक्खियां काट लेंगी. मैं पूछता हूँ कभी आपको काटा? आप हैं ही डरे हुए मनुष्य. सिर्फ कवि ही छायावादी नहीं होते, व्यवस्थाएं भी छायावादी होती हैं. पर आपको समझ आये तब न. मंत्रालय की छत से लटके उन्हीं छत्तों के सामने से निकलता कोई , उन छत्तों को देख कर संकल्प लेता होगा कि एक दिन इस भवन में ज़रूर मंत्री बन कर बैठूंगा. फिर ये मधु मेरा होगा.

अब राज़ पूरा खुल चुका है. मैं अंदाज़ लगा सकता हूँ अरुण कौन है. अरुण अवश्य किसी बड़े नेता या उद्योगपति का बेटा है. जिससे उसके पिताजी कह रहे हैं -अरुण यह मधुमय देश हमारा. पर अब दूसरी समस्या में उलझ गया हूँ.

मधुकर श्याम हमारे चोर – में कवि क्या कहना चाहता है. मामला कृष्ण भगवान का है तो थोड़ी लिबर्टी ली जा सकती है. गोपियां ठगी गई हैं, तो पक्का है कि वे जनता हैं. पर क्यों ठगी गई हैं? हो सकता है उनका कोई काम मथुरा में अटका हो. सम्भव है उन गोपियों ने मिल कर कोई दुग्ध संघ बनाया हो और उसकी सब्सिडी की फ़ाइल मथुरा में अटकी हो. अब वे किस पर भरोसा करतीं? निःसन्देह जिसने बचपन से उनके वस्त्र चुराए, दही-माखन चुराया उस पर. कन्हैया ने कहा होगा – चिंता मत करो, मैं फ़ाइल क्लियर करवा दूँगा और गोपियों ने भरोसा कर लिया होगा. कन्हैया द्वारिका निकल लिए और धरे गए उद्धव. मुझे तो लगता है मधुकर भी कोई थाना प्रभारी श्रीमान मधुकर यादव रहे होंगे, जिन्होंने गोपियों की शिकायत पर उद्धव को थाने में बैठा लिया होगा. भक्तिकाल की रचनाओं का छायावादी मूल्यांकन होना चाहिये. मैं टहलते-टहलते घर पहुँच गया.

इस बारे में कल विचार जाएगा.

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