व्यंग्य | अतिथि! तुम कब जाओगे

  • 10:43 am
  • 5 April 2020

तुम्हारे आने के चौथे दिन, बार-बार यह प्रश्न मेरे मन में उमड़ रहा है, तुम कब जाओगे अतिथि! तुम कब घर से निकलोगे मेरे मेहमान!
तुम जिस सोफ़े पर टांगें पसारे बैठे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर लगा है, जिसकी फड़फड़ाती तारीख़ें मैं तुम्हें रोज़ दिखा कर बदल रहा हूं. यह मेहमानवाज़ी का चौथा दिन है, मगर तुम्हारे जाने की कोई संभावना नज़र नहीं आती. लाखों मील लंबी यात्रा कर एस्ट्रोनॉट्स भी चांद पर इतने दिन नहीं रुके जितने तुम रुके. उन्होंने भी चांद की इतनी मिट्टी नहीं खोदी जितनी तुम मेरी खोद चुके हो. क्या तुम्हें अपना घर याद नहीं आता? क्या तुम्हें तुम्हारी मिट्टी नहीं पुकारती?

जिस दिन तुम आए थे, कहीं अंदर ही अंदर मेरा बटुआ कांप उठा था. फिर भी मैं मुस्कराता हुआ उठा और तुम्हारे गले मिला. मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते किया. तुम्हारी शान में ओ मेहमान, हमने दोपहर के भोजन को लंच में बदला और रात के खाने को डिनर में. हमने तुम्हारे लिए सलाद कटवाया, रायता बनवाया और मिठाइयां मंगवाईं. इस उम्मीद में कि दूसरे दिन शानदार मेहमानवाज़ी की छाप लिए तुम रेल के डिब्बे में बैठ जाओगे. मगर, आज चौथा दिन है और तुम यहीं हो. कल रात हमने खिचड़ी बनाई, फिर भी तुम यहीं हो. आज हम उपवास करेंगे और तुम यहीं हो. तुम्हारी उपस्थिति यूं रबर की तरह खिंचेगी, हमने कभी सोचा न था.

सुबह तुम आए और बोले,‘‘लॉन्ड्री को कपड़े देने हैं.’’ मतलब? मतलब यह कि जब तक कपड़े धुल कर नहीं आएंगे, तुम नहीं जाओगे? यह चोट मार्मिक थी, यह आघात अप्रत्याशित था. मैंने पहली बार जाना कि अतिथि केवल देवता नहीं होता. वह मनुष्य और कई बार राक्षस भी हो सकता है. यह देख मेरी पत्नी की आंखें बड़ी-बड़ी हो गईं. तुम शायद नहीं जानते कि पत्नी की आंखें जब बड़ी-बड़ी होती हैं, मेरा दिल छोटा-छोटा होने लगता है.

कपड़े धुल कर आ गए और तुम यहीं हो. पलंग की चादर दो बार बदली जा चुकी और तुम यहीं हो. अब इस कमरे के आकाश में ठहाकों के रंगीन गुब्बारे नहीं उड़ते. शब्दों का लेन-देन मिट गया. अब करने को चर्चा नहीं रही. परिवार, बच्चे, नौकरी, राजनीति, रिश्तेदारी, पुराने दोस्त, फ़िल्म, साहित्य. यहां तक कि आंख मार-मार कर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी ज़िक्र कर लिया. सारे विषय ख़त्म. तुम्हारे प्रति मेरी प्रेम भावना गाली में बदल रही है. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि तुम कौन-सा फ़ेविकोल लगा कर मेरे घर में आए हो?

पत्नी पूछती है, ‘‘कब तक रहेंगे ये?’’ जवाब में मैं कंधे उचका देता हूं. जब वह प्रश्न पूछती है, मैं उत्तर नहीं दे पाता. जब मैं पूछता हूं, वो चुप रह जाती है. तुम्हारा बिस्तर कब गोल होगा अतिथि?
मैं जानता हूं कि तुम्हें मेरे घर में अच्छा लग रहा है. सबको दूसरों के घर में अच्छा लगता है. यदि लोगों का बस चलता तो वे किसी और के घर में रहते. किसी दूसरे की पत्नी से विवाह करते. मगर घर को सुंदर और होम को स्वीट होम इसीलिए कहा गया है कि मेहमान अपने घर वापिस लौट जाएं.

मेरी रातों को अपने खर्राटों से गुंजाने के बाद अब चले जाओ मेरे दोस्त! देखो, शराफ़त की भी एक सीमा होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है जो बोला जा सकता है.
कल का सूरज तुम्हारे आगमन का चौथा सूरज होगा. और वह मेरी सहनशीलता की अंतिम सुबह होगी. उसके बाद मैं लड़खड़ा जाऊंगा. यह सच है कि अतिथि होने के नाते तुम देवता हो, मगर मैं भी आख़िर मनुष्य हूं. एक मनुष्य ज़्यादा दिनों देवता के साथ नहीं रह सकता. देवता का काम है कि वह दर्शन दे और लौट जाए. तुम लौट जाओ अतिथि. इसके पूर्व कि मैं अपनी वाली पर उतरूं, तुम लौट जाओ.

उफ़! तुम कब जाओगे, अतिथि!

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