अथ सिलेबस कथाः हर्फूलाल पुराण-चतुर्थ क्षेपक

प्रभू हर्रफूलाल तो बहुत दिन से नहीं मिले. उनके पी.ए. मिल गए. मैनें हाल-चाल पूछा तो बोले – “बाबा तो फ़कीर हैं, झोला उठाकर चले गए थे पहाड़ों की तरफ़.” फिर बताया कि पहाड़ तो उनका घर है और बचपन से वो पहाड़ ही बनना चाहते थे. फिर सड़क किनारे की बेंच पर बैठकर विस्तार से बताने लगे अपनी कसोल यात्रा के बारे में. यात्रा से ज़्यादा वहां के सच्चे-खरे माल के बारे में, जिसे अभी थोड़ी देर पहले ही फूंका था.

मैंने प्रभू हर्रफूलाल के बारे में पूछा तो बोले – “समधी.” आश्चर्य से देखते हुए मेरे मुंह से निकल गया – “हांय ! वो तो बाल ब्रह्मचारी !!” …पी.ए.साहब बोले – “अरे वो क्या कहते हैं उसको …..जो करते हैं …अरे जिसमें चले जाते हैं!….आलथी-पालथी मारकर बैठते हैं….आंख बंद !”

“समाधि कहते हैं उसको गुरु जी!” मैंने याद दिलाया.

बोले -“हां वही. समाधि में हैं वो.”

मेरे चेहरे पर चिंता की लकीर देखकर बोले – “कस मे, का हुआ? ऐसा फेसबुकिया चिंतक-सा मुंह काहें बनाए हुए हो ?”

मैंने बताया – “चिंता नहीं, साहित्य चिंतन. उसी की लकीरें हैं. इसीलिए प्रभू हर्रफूलाल की राह देख रहा था.”

बस वहीं चूक हो गई. प्रभु के पी.ए. ठहरे. ईगो तो होगा ही. हर्ट हो गया. बोले – “देखो गालियों का अपना समाजशास्त्र होता है. जिस समाज में गाली नहीं, वो समाज, समाज नहीं. गाली तो मन के कटु उद्दाम आवेग का प्रतिफल है. विरेचन है. कैथार्सिस है. गाली जो है….अब जैसे मां-बहन की गाली है, वो दरअसल..”

मैं समझ गया था कि बस इनका मुझे गाली देने का मन हुआ जा रहा है लेकिन प्रभू हर्रफलाल का अनन्य भक्त होने के नाते बस दे नहीं पा रहे. मैंने तुरंत भूमिका बनाई.
– “ओह मैं भी कितना मूर्ख हूं. मुझ अकिंचन को ध्यान ही नहीं रहा कि मेरे सामने साक्षात् प्रभू हर्रफूलाल के पी.ए. खड़े हैं. आप ही कोई राय दें.”
ईगो पर मरहम लगा. मंद मुस्कुराते हुए बोले – “हां बताओ क्या चिंतन चल रहा है?

मैंने गोरखपुर यूनिवर्सिटी के हिंदी एम.ए. के प्रस्तवित सिलेबस में चयनित रचनाओं का ज़िक्र किया.

उन्होंने गहरी सांस ली, फिर तुरंत छोड़ दी. फिर जेब से अपना बनाया हुआ ताज़ा माल भरा सिगरेट निकाला. सुलगाया, गहरी सांस ली. इतनी गहरी कि मुझे लगा कि ये जो सांस गई है, लौटेगी भी या…… ख़ैर सांस लौटी. फिर बहुत रिलैक्स होकर बोले – “रिलैक्स! रिलैक्स रहना बहुत ज़रूरी है जीवन में. नज़रिया बदलो. कहां फंसे हुए हो! कहां भागे जा रहे हो! पर्सपेक्टिव समझते हो?…उसको बदलने की ज़रूरत है. घूमो! पहाड़ों में घूमने जाओ. हमारे आसपास जो है, उसको देखने का नज़रिया बदल जाएगा. अब गांजे को ही ले लो…बचपन से देखता आया हूं आस-पास उगा ही रहता है. कुछ लोग पीते थे…कुछ लोग खुले-आम, कुछ लोग चोरी-छुपे… मैंने भी पिया… लेकिन सभ्य समाज में कह नहीं पाता था. गिना नहीं पाता था कि इतनी बार पिया. दोष हर कोई गिना देता था उसका, गुण मैं एक भी नहीं बता पाता था…. फिर मैं कसोल पहुंचा. अब गांजा को गांजा नहीं कहता…वीड कहता हूं…उसके और रूप दिखे, फूंका भी… हैश वगैरह. अब जो नया पर्सपेक्टिव मिला है जीवन का, उसने मुझमें आलोचकीय गुण ला दिए हैं. अब मैं गांजे का रूप विवेचन बहुत तात्विक रूप से कर सकता हूं. उसकी वैरायटीज़ बता सकता हूं. उसके अनेक गुण बता सकता हूं. एक नया सौंदयबोध जागा है मुझमें. अब मैं कूल-सा महसूस करते हुए भी हैश और वीड पर सभ्य समाज में बोल सकता हूं. गिना सकता हूं कि कितनी बार, कौन-कौन सा पिया है….अब ये सब बिना गर्व से फूंके और अपनी ज़रूरत के सामान में शामिल किए बिना तो संभव नहीं होता न… मैं तो कहता हूं… ”

पी.ए. और भी न जाने क्या-क्या बोलते जा रहे थे. मैंने उनका ध्यान विषय की ओर दिलाया. बोले – “रिलैक्स! जस्ट बी इन द मोमेंट. वही तो समझा रहा हूं तबसे. पर्सपेक्टिव!”
फिर अचानक एक छोटा-सा कश लेकर आँखें बंद की. फिर मोबाइल पर फेसबुक ओपन किया. उस पर कुछ फटाफट लिखा. फिर मेरी ओर देखा, बोले – “देखो मुझे तो लगता है, एम.ए. के चौथे सेमेस्टर की एक यूनिट में गोरखपुर यूनिवर्सिटी को होली से लेकर बरात और मूर्ति विर्सजन तक में बजने वाले द्विअर्थी गानों को भी शामिल कर लेना चाहिए. आख़िर एम.ए. लेवल का विद्यार्थी इतने परिपक्व सौंदर्यबोध वाला होता ही है कि वो जान सके पंत के सौंदर्यबोध और गुडु रंगीला आदि के सौंदर्यबोध में क्या अंतर है! और अगर नहीं समझ पाता तो बस वहीं से तो हिंदी के प्रोफ़ेसर की महत्त्वपूर्ण भूमिका शुरू होती है कि वो समझाए कि गुडु रंगीला आदि के गानों में समाज, साहित्य, सौंदर्य आदि -इत्यादि कैसे मुखरित होता है. गोरखपुर, महाराजगंज, देवरिया, बस्ती समेत पूरे-पूरे पूर्वांचल में रहने वाले एम.ए. के चौथे सेमेस्टर के विद्यार्थी बिना पढ़ाए ये बात कैसे जान पाएंगे भला, जबकि बचपन से उनके आस-पास ऐसे ही गाने, प्रायः ऐसा ही साहित्य और सिनेमा मौजूद रहा है. क्या हुआ कि साहित्य का विद्यार्थी होने और एम.ए. तक आने की यात्रा में इनमें से कुछ चीज़ें अपने मन से या ज़बरदस्ती सुनता/पढ़ता/ देखता आया हो. उसको सिलेबस में शामिल किए बिना वो तुलनात्मक अध्ययन नहीं कर पाएगा. पुनर्पाठ समझते हो न! बस्स! पर्सपेक्टिव बदलो, चिल करो”
मैंने आह्लादित होकर सिर्फ़ सुन रहा था.

मेरी ज्ञान मुद्रा देखते हुए वो बोलते रहे – “दूसरी बात लोकप्रिय तो साहिर लुधियानवी भी थे, जावेद अख़्तर भी हैं, निदा फ़ाज़ली भी थे और गुड्डू रंगीला भी लोकप्रिय ठहरे. उनसे लेकर अब तक गायकों की, उनके गीतों की एक पूरी परंपरा देखने को मिलती है. साहित्य के विद्यार्थी को उस परंपरा का भी अध्ययन करना चाहिए. इसलिए मैं गुड्डू रंगीला समेत उन जैसे तमाम लोकप्रिय भोजपुरी गायकों के गानों को भी लोकप्रिय साहित्य वाली यूनिट में एक ठो ‘लोकप्रिय लोकगीत’ सब-यूनिट बनाकर उसमें शामिल करने का प्रस्ताव रखता हूं. ऐच्छिक ही सही. खाली एक क्रेडिट प्वाइंट के लिए. मन हो तभी पढ़ें विद्यार्थी. माने प्रस्ताव इसलिए दे रहा हूं कि “वर्दी वाला गुंडा” आदि भी अभी प्रस्तावित ही है. ”
मैं कुछ पूछने के लिए मुंह खोलने ही वाला था कि पाया प्रभू हर्रफूलाल के पी. ए. साहब ट्रिप पर निकल लिए हैं.

वैसे इतनी ज्ञान वर्षा के बाद लग रहा है कि इस पर इतना किचाइन करने की ज़रूरत नहीं है. क्या पढ़ाना है? क्यों पढ़ाना है? कैसे पढ़ाना है? पहले इसकी चिंता सिलेबस बनाने वाले लोग कर लेते थे थोड़ा बहुत, बाक़ी प्रोफ़ेसर नामक जीव, सिलेबस के साथ क्या करना है? क्यों करना है? कितना करना है? और कैसे करना है? आदि, अपने हिसाब से ही तय करते आए हैं. प्रायः.अभी भी ऐसा ही होता है अमूमन. बस हिसाब बदल गया है.

अलबत्ता फ़ेसबुक पर लोकप्रिय साहित्य के लिए उत्साहित विद्वानों का आह्लाद और तर्क देखते ही बन रहा है.

आचार्य अरशद वारसी का एक कथन याद आ रहा है – “कौन हैं ये लोग?” “कहां से आते हैं ये लोग?”

जवाब भी आसान है, ऐसे ही होते हैं लोग. लोग हमेशा से यहीं मौजूद थे. प्रायः ऐसा ही पसंद होता है बहुत से लोगों को, वो तो प्रगतिशील दिखने-दिखाने की रेस में पसंद दरकिनार हो गई थी. अब रेस बदल गई है.

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