प्रसंगवश | द ग्रेट डिक्टेटर का समापन भाषण

  • 1:41 pm
  • 1 February 2021

हिटलर को केंद्र में रखकर बनाई गई ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ चार्ली चैपलिन की मशहूर फ़िल्मों में से एक है. इसे बनाने के दौरान उन्हें ख़ासी मुश्किलें पेश आईं, ऐसे मशविरे भी मिले कि वे यह फ़िल्म बनाएं ही न. इसी फ़िल्म के आख़िर में ट्रैम्प का एक भाषण है. फ़िल्म आने पर इसे लेकर ख़ूब बवाल भी मचा.

अपनी आत्मकथा में चार्ली चैपलिन ने फ़िल्म बनाने के दौरान हुए अनुभवों के बारे में विस्तार से लिखा है. इसके प्रदर्शन के बारे में लिखा है – द ग्रेट डिक्टेटर ने कैपिटल में ख़ुशी से मस्त दर्शकों के सामने शानदार ढंग से खाता खोला. दर्शक दिल खोलकर हँस रहे थे और उनके उत्साह की कोई सीमा नहीं थी. ये फ़िल्म न्यू यार्क में दो थिएटरों में पंद्रह हफ़्ते तक चलती रही और उस वक़्त तक मेरी सभी फ़िल्मों की तुलना में सबसे ज़्यादा कमाई करके देने वाली फ़िल्म साबित हुई.

लेकिन समीक्षाएं जो थीं, वे मिली-जुली थीं. अधिकतर समीक्षकों को अंतिम भाषण पर एतराज़ था. द न्यू यार्क डेली न्यूज़ने लिखा कि मैंने दर्शकों की तरफ़ साम्यवाद की उंगली उठाई है. हालांकि अधिकांश समीक्षकों ने भाषण पर ही एतराज किया था और कहा कि ये चरित्र में नहीं था. आम तौर पर जनता ने इसे पसंद किया, और मुझे उसकी तारीफ़ में कई ख़त मिले.

द ग्रेट डिक्टेटर का वह समापन भाषण

‘मुझे खेद है, लेकिन मैं शासक नहीं बनना चाहता. ये मेरा काम नहीं है. किसी पर भी राज करना या किसी को जीतना नहीं चाहता. मैं तो किसी की मदद करना चाहूँगा – अगर हो सके तो – यहूदियों की, गैर यहूदियों की – काले लोगों की – गोरे लोगों की.

हम सब एक दूसरे की मदद करना चाहते हैं. मानव होते ही ऐसे हैं. हम एक दूसरे की ख़ुशी के साथ जीना चाहते हैं – एक-दूसरे की तकलीफ़ों के साथ नहीं. हम एक दूसरे से नफ़रत और घृणा नहीं करना चाहते. इस संसार में सभी के लिए स्थान है और हमारी यह समृद्ध धरती सभी के लिए अन्न-जल जुटा सकती है.

‘जीवन का रास्ता मुक्त और सुन्दर हो सकता है, लेकिन हम रास्ता भटक गए हैं. लालच ने आदमी की आत्मा को विषाक्त कर दिया है – दुनिया में नफ़रत की दीवारें खड़ी कर दी हैं – लालच ने हमें ज़हालत में, ख़ून ख़राबे के फंदे में फंसा दिया है. हमने गति का विकास कर लिया लेकिन अपने आपको गति में ही बंद कर दिया है. हमने मशीनें बनाईं, मशीनों ने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन हमारी माँगें और बढ़ती चली गईं. हमारे ज्ञान ने हमें सनकी बना छोड़ा है; हमारी चतुराई ने हमें कठोर और बेरहम बना दिया है. हम बहुत ज्यादा सोचते हैं और बहुत कम महसूस करते हैं. हमें बहुत अधिक मशीनरी की तुलना में मानवीयता की ज़्यादा ज़रूरत है. चतुराई की तुलना में हमें दयालुता और विनम्रता की ज़रूरत है. इन गुणों के बिना, जीवन हिंसक हो जाएगा और सब कुछ समाप्त हो जाएगा.

‘हवाई जहाज और रेडियो हमें आपस में एक-दूसरे के निकट लाए हैं. इन्हीं चीज़ों की प्रकृति ही आज चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है – इन्सान में अच्छाई हो – चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है – पूरी दुनिया में भाईचारा हो, हम सबमें एकता हो. यहाँ तक कि इस समय भी मेरी आवाज़ पूरी दुनिया में लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँच रही है – लाखों करोड़ों हताश पुरुष, स्त्रियां, और छोटे छोटे बच्चे – उस तंत्र के शिकार लोग, जो आदमी को क्रूर और अत्याचारी बना देता है और निर्दोष इन्सानों को सींखचों के पीछे डाल देता है; जिन लोगों तक मेरी आवाज़ पहुँच रही है – मैं उनसे कहता हूँ – ‘निराश न हों’ . जो मुसीबत हम पर आ पड़ी है, वह कुछ नहीं, लालच का गुज़र जाने वाला दौर है. इन्सान की नफ़रत हमेशा नहीं रहेगी, तानाशाह मौत के हवाले होंगे और जो ताक़त उन्होंने जनता से हथियाई है, जनता के पास वापिस पहुँच जाएगी और जब तक इन्सान मरते रहेंगे, स्वतंत्रता कभी ख़त्म नहीं होगी.

‘सिपाहियो! अपने आपको इन वहशियों के हाथों में न पड़ने दो – ये आपसे घृणा करते हैं – आपको ग़ुलाम बनाते हैं – जो आपकी ज़िंदगी के फ़ैसले करते हैं – आपको बताते हैं कि आपको क्या करना चाहिए, क्या सोचना चाहिए और क्या महसूस करना चाहिए! जो आपसे मशक्कत करवाते हैं – आपको भूखा रखते हैं – आपके साथ मवेशियों का-सा बरताव करते हैं और आपको तोपों के चारे की तरह इस्तेमाल करते हैं – अपने आपको इन अप्राकृतिक मनुष्यों, मशीनी मानवों के हाथों ग़ुलाम मत बनने दो, जिनके दिमाग मशीनी हैं और जिनके दिल मशीनी हैं! आप मशीनें नहीं हैं! आप इन्सान हैं! आपके दिल में मानवता के प्यार का सागर हिलोरें ले रहा है. घृणा मत करो! सिर्फ़ वही घृणा करते हैं जिन्हें प्यार नहीं मिलता – प्यार न पाने वाले और अप्राकृतिक!!

‘सिपाहियो! ग़ुलामी के लिए मत लड़ो! आज़ादी के लिए लड़ो! सेंट ल्यूक के सत्रहवें अध्याय में यह लिखा है कि ईश्वर का साम्राज्य मनुष्य के भीतर होता है – सिर्फ़ एक आदमी के भीतर नहीं, न ही आदमियों के किसी समूह में ही अपितु सभी मनुष्यों में ईश्वर वास करता है! आप में! आप में, आप सब व्यक्तियों के पास ताक़त है – मशीनें बनाने की ताक़त. ख़ुशियाँ पैदा करने की ताक़त! आप, आप लोगों में इस जीवन को शानदार रोमांचक गतिविधि में बदलने की ताक़त है. तो लोक॑तंत्र के नाम पर आइए, हम ताक़त का इस्तेमाल करें – आइए, हम सब एक हो जाएं. आइए, हम सब एक नई दुनिया के लिए संघर्ष करें. एक ऐसी बेहतरीन दुनिया, जहाँ सभी व्यक्तियों को काम करने का मौक़ा मिलेगा. इस नई दुनिया में युवा वर्ग को भविष्य और वृद्धों को सुरक्षा मिलेगी.

‘इन्हीं चीज़ों का वायदा करके वहशियों ने ताक़त हथिया ली है. लेकिन वे झूठ बोलते हैं! वे उस वायदे को पूरा नहीं करते. वे कभी करेंगे भी नहीं! तानाशाह अपने आपको आज़ाद कर लेते हैं लेकिन लोगों को ग़ुलाम बना देते हैं. आइए, दुनिया को आज़ाद कराने के लिए लड़ें – राष्ट्रीय सीमाओं को तोड़ डालें – लालच को ख़त्म कर डालें, नफ़रत को दफ़न करें और असहनशक्ति को कुचल दें. आइए, हम तर्क की दुनिया के लिए संघर्ष करें – एक ऐसी दुनिया के लिए, जहाँ पर विज्ञान और प्रगति इन सबको ख़ुशियों की तरफ़ ले जाएगी, लोकतंत्र के नाम पर आइए, हम एकजुट हो जाएं!
हान्नाह! क्या आप मुझे सुन रही हैं?

आप जहाँ कहीं भी हैं, मेरी तरफ देखे! देखें, हान्नाह! बादल बढ़ रहे हैं! उनमें सूर्य झाँक रहा है! हम इस अंधेरे में से निकल कर प्रकाश की ओर बढ़ रहे हैं! हम एक नई दुनिया में प्रवेश कर रहे हैं – अधिक दयालु दुनिया, जहाँ आदमी अपने लालच से ऊपर उठ जाएगा, अपनी नफ़रत और अपनी पाशविकता को त्याग देगा. देखो हान्नाह! मनुष्य की आत्मा को पंख दे दिए गए हैं और अंततः: ऐसा समय आ ही गया है जब वह आकाश में उड़ना शुरू कर रहा है. वह इन्द्रधनुष में उड़ने जा रहा है. वह आशा के आलोक में उड़ रहा है. देखो हान्नाह! देखो!’

(चार्ली चैपलिन की आत्मकथा का हिंदी अनुवाद सूरज प्रकाश ने किया है. उसी से साभार)


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