हॉकी विश्व कप | 1975 के ख़िताबी मैच की याद

(भारत में 15वां हॉकी विश्व कप 13 से 29 जनवरी के बीच खेला जाएगा. भुवनेश्वर और राउरकेला को इसकी मेज़बानी मिली है. हॉकी विश्व कप की शुरुआत सन् 1971 में हुई. भारत अब तक केवल एक बार ही चैंपियन बन सका है, जब मलेशिया में हुए फ़ाइनल मैच में उसने पाकिस्तान को हराकर ख़िताब अपने नाम किया. यह उसी मैच की स्मृति है. -सं)

वह 1975 का साल था. तारीख़ थी 15. और महीना मार्च का.

भारत में अभी भी आपातकाल की घोषणा होने में तीन महीने का समय बाक़ी था. क्रिकेट के स्वरूप को बदल देने वाले प्रुडेंशियल क्रिकेट विश्व कप के शुरू होने में भी इतना ही समय शेष था. इतना ही नहीं, भारत की हॉकी को श्रीहीन कर देने वाले एस्ट्रोटर्फ़ को पहली बार इंट्रोड्यूस करने वाले मॉन्ट्रियल ओलंपिक के आयोजन में भी अभी साल भर का समय था.

उस समय हमारी आमद बचपन और किशोर अवस्था की संधि बेला में हो चुकी थी, लेकिन टीन ऐज अब भी साल, दो साल की दूरी पर थी. क्रिकेट में हमारी दिलचस्पी थोड़ी बढ़ने लगी थी. दर्शकों की मांग पर छक्का लगाने वाले सलीम दुर्रानी, फ़ॉरवर्ड शार्ट लेग पर फ़ील्डिंग करने वाले असाधारण फ़ील्डर एकनाथ सोलकर और फ़्लाइट के जादूगर प्रसन्ना जैसे खिलाड़ियों के रास्ते क्रिकेट आहिस्ता-आहिस्ता दिल में उतरने लगा था. लेकिन दिल का बड़ा क्या, तक़रीबन सारा का सारा हिस्सा अब भी हॉकी के हवाले ही होता था. ध्यानचंद, केडी सिंह बाबू, पृथ्वी सिंह, रूप सिंह, बलबीर सिंह सीनियर जैसे खिलाड़ियों के जादुई क़िस्सों को सुनते हुए हम बड़े हो रहे थे और अशोक कुमार, गोविंदा, सुरजीत, माईकेल किंडो, फ़िलिप्स गोविंदा और अजीतपाल सिंह जैसा खिलाड़ी बनने का सपना लेकर हॉकी हाथों में लिए रोज़ शाम को खेल मैदान में जाना शुरू हो गया था.

ऐन उस समय भारतीय खेल इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जुड़ रहा था. भारत किसी खेल में पहली बार विश्व चैंपियन बन रहा था. उसके सिर हॉकी के विश्व चैंम्पियन का ताज जो सज रहा था.

वो साल 1975 के मार्च की 15वीं तारीख़ थी. मलेशिया की राजधानी कुआलालंपुर के मर्देका स्टेडियम में खेले गए तीसरे हॉकी विश्व कप के फ़ाइनल में भारत अपने परंपरागत प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान को 2-1 से हराकर न केवल अपना पहला और अब तक का अपना एकमात्र ख़िताब जीत रहा था बल्कि हॉकी के छीजते गौरव को पुनर्स्थापित भी कर रहा था.

हॉकी विश्व कप की ये जीत भारतीय खेल इतिहास का एक ऐसा स्वर्णिम पल था, जो आवाज़ के जादूगर जसदेव सिंह के ज़रिये हमारे दिल पर कभी न मिटने के लिए अंकित हो रहा था. आज भी ऐसा लगता है जैसे ये अभी कल की ही बात हो. क्या ही कमाल है कि जैसे-जैसे हम उम्रदराज़ होते हैं, हमें निकट भूत का बहुत कुछ याद नहीं रहता लेकिन दूर अतीत ऐसे याद आता है जैसे वो कल ही घटा हो. इस विश्व कप की जीत की यादें भी ऐसी ही हैं.

उस समय तक भारत में टेलीविज़न का आगमन तो हो चुका था. लेकिन उसका अस्तित्व आठ-दस बड़े शहरों तक था और वह भी बहुत सीमित-सा. उन दिनों खेलों को हम स्टेडियम के किसी कोने में उपस्थित कमेंटेटरों की आंख से देखा करते थे. उस पूरे टूर्नामेंट को भी हमने ऐसे ही देखा था.

फ़ाइनल मैच हॉकी के परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों भारत और पाकिस्तान के बीच था. उस समय ये दोनों टीमें हॉकी की सबसे बड़ी टीमें हुआ करती थीं. ऐसे में मैच में एक अतिरिक्त तनाव और उत्तेजना का होना स्वाभाविक था. उम्मीद के अनुरूप ही वो ऐतिहासिक फ़ाइनल मैच बहुत तेज़ गति से खेला गया. पाकिस्तान ने शुरूआत में कुछ बेहतरीन मूव बनाए. उसने दूसरे ही मिनट में पेनाल्टी कॉर्नर अर्जित किया और मंज़ूरुल हसन ने गेंद गोल में डाल दी. लेकिन रेफ़री ने गोल नहीं माना क्योंकि गेंद डी पर स्टॉपर द्वारा ठीक से नहीं रोकी गई थी. मैच का पेस और पिच स्थापित हो चुका था. मैदान में जितनी उत्तेजना व्याप गई थी, उससे कहीं अधिक उत्तेजना और तनाव हज़ारों किलोमीटर दूर बैठे मैच का आंखों देखा हाल सुन रहे सैकड़ों हॉकी प्रेमियों के दिलों में व्याप गया था.

एक ओर फ़ॉरवर्ड्स ताबड़तोड़ हमले कर रहे थे, दूसरी और डिफ़ेंडर हार्ड टैकल. छठवें मिनट में हीं मंज़ूरुल के टैकल से अशोक कुमार मैदान में पड़े कराह रहे थे और तेरहवें मिनट में पाकिस्तानी राइट इन समीउल्लाह वरिंदर की स्टिक से ज़मीन पर थे और दाहिने कंधे में चोट खाकर मैदान से और मैच से ही बाहर नहीं हो रहे थे बल्कि पाकिस्तान को भी मैच से बाहर कर रहे थे. समीउल्लाह की जगह सफ़दर अब्बास आए.

सफ़दर अब्बास समीउल्लाह जितने प्रभावी भले ही नहीं रहे हों, पर पाकिस्तान ने आक्रमण जारी रखे और अंततः 18वें मिनट में उसको पहला गोल करने में सफलता मिली. तेज़तर्रार फ़ारवर्ड लेफ़्ट इन मोहम्मद सईद ने वरिंदर सिंह से गेंद छीनी और गोली की गति से डी में घुसे और भारतीय गोलकीपर अशोक दीवान को छकाते हुए पाकिस्तान को 1-0 से आगे कर दिया. भारतीय प्रशंसक सकते में थे. इससे पहले एक गोल अमान्य हो चुका था. उस पेनाल्टी को अर्जित करने वाले भी मोहम्मद सईद ही थे.

इसके बाद भारत ने अपने आक्रमण को दाहिने छोर पर केंद्रित किया और गोल करने के कई मौक़े बनाए, पहले हाफ़ में लेकिन गोल नहीं कर सके. पहला हाफ़ पाकिस्तान के पक्ष में 1-0 पर समाप्त हुआ. ये वो समय था जब मैच 35-35 मिनट के दो हाफ़ का हुआ करता था.

दूसरे हाफ़ में शुरुआती कुछ मौक़ों को छोड़कर भारत ने शानदार खेल दिखाया, जिससे मैच धीरे-धीरे पाकिस्तान के हाथों से छूटने लगा था. भारत के लिए बराबरी का गोल 46वें मिनट में उस समय आया, जब फिलिप्स ने भारत के लिए चौथा पेनाल्टी कॉर्नर अर्जित किया जिसे सुरजीत सिंह ने गोल में बदल कर भारत को बराबरी पर ला दिया.

लगभग आठ मिनट बाद ही अशोक कुमार ने लांग कॉर्नर पर गोल कर भारत को 2-1 से बढ़त दिला दी. यह गोल एक ख़ूबसूरत टीम वर्क था. अजीतपाल ने शॉट लिया. अशोक ने वो शॉट रिसीव किया ड्रिबल कर डी के अंदर गए और पास फिलिप्स को दिया, फिलिप्स ने पास फिर अशोक को दिया और अशोक ने गोल दाग दिया. अंत तक यही स्कोर बना रहा.

इस गोल की तुलना आप 1986 के माराडोना ‘गोल्डन हैंड गोल’ से कर सकते हैं. इसलिए नहीं कि ये गोल ग़लत था या ग़लत तरीके से किया गया था. बल्कि इसलिए कि ये भी उसी गोल की तरह विवादास्पद बना दिया गया और इसलिए भी इस गोल का परिणाम एक इतिहास रच रहा था.

यह एक विवादास्पद गोल था, जिसका पाकिस्तान के खिलाड़ी ये कहकर विरोध कर रहे थे कि गेंद गोलपोस्ट से अंदर नहीं गई है. लेकिन उस मैच के रैफरी विजयनाथन ने बहुत बाद में भी उस गोल को याद करते हुए कहते हैं कि ‘ये साफ़ गोल था. मैं गोलकीपर और स्ट्राइकर के एकदम पास खड़ा था. वीडियो से ये साफ़ हो जाता है कि वो स्पष्ट गोल था. फ़ोटो और वीडियो झूठ नहीं बोलते. उस फ़्रेम में मैं और नौ खिलाड़ी हैं, लेकिन इस्लाउद्दीन कहीं आसपास भी नहीं हैं.’ दरअसल वे उस पाकिस्तानी टीम के कप्तान इस्लाउद्दीन के उस दावे पर अपनी प्रतिक्रिया कर रहे थे कि अशोक कुमार द्वारा किया गया वो गोल स्पष्ट गोल नहीं था, जिसे ग़लत तरीके से भारत को अवार्ड किया गया.

बरसों बाद इस्लाउद्दीन ने अपनी आत्मकथा में भी एक अलग अध्याय ‘गोल जो था ही नहीं’ में भी अपना वही आरोप दोहराया था. वे एक सच को झूठ बनाने की लगातार कोशिश कर रहे थे.

इस जीत के साथ भारत ने अपना पहला विश्व कप ख़िताब जीत लिया था और अपने खोए गौरव को पुनर्स्थापित भी कर दिया था. ये अलग बात है कि वो बहुत ज़्यादा दिनों तक रहा नहीं. ऐसा क्यों हुआ ये फिर कभी. आज बात सिर्फ़ इस जीत की ही.

भारतीय टीम के मैनेजर बलबीर सिंह सीनियर उस जीत के बाद कह रहे थे, ‘पिछले दस वर्षों में ये भारत की पाकिस्तान पर सबसे शानदार जीत है.’ दरअसल ये 1971 में पहले विश्व कप के समय फ़ाइनल में भारत की पाकिस्तान के हाथों हार का स्वीट रिवेंज ही था. उस हार से भारत फ़ाइनल में प्रवेश नहीं कर सका और अंततः केन्या को हराकर उसने कांस्य पदक जीता था. दूसरे विश्व कप में उसने फ़ाइनल में प्रवेश किया. लेकिन वहां नीदरलैंड ने भारत को पेनाल्टी शूटआउट तक गए मैच में 4-2 से हरा दिया था.

1973 की भारतीय टीम बहुत मज़बूत थी. शारीरिक रूप से भी और खेल कौशल की दृष्टि से भी. तभी तो जर्मन कोच ने कहा था, ‘यदि ये टीम मुझे मिल जाए तो इसे मैं इसे विश्व की होने वाली हर प्रतियोगिताओं का विजेता बना दूं.’

1975 की भारतीय टीम भी वैसी ही थी. उसे ग्रुप बी में घाना, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और पश्चिम जर्मनी के साथ रखा गया था. तीन जीत, एक ड्रा और एक हार के साथ भारत अपने ग्रुप में प्रथम स्थान पर रहा था और सेमीफ़ाइनल में भारत का मुक़ाबला मलेशिया से हुआ.

इस प्रतियोगिता का 13 मार्च को भारत और मलेशिया के बीच खेला गया सेमी फ़ाइनल भी एक क्लासिक मैच था, जिसमें मलेशिया ने जीत के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया था. उस भारतीय टीम के कप्तान अजीतपाल सिंह बताते हैं कि ‘मेरे लिए यह उस प्रतियोगिता का सबसे कठिन मैच था.’ उस मैच में भारत खेल ख़त्म होने में लगभग पांच मिनट पहले तक 1-2 से पिछड़ रहा था. भारत का विश्व कप जीतने का सपना टूटने के कगार पर था. तभी कोच बलबीर सिंह सीनियर ने फ़ुल बैक माइकेल किंडो की जगह असलम शेर खान को मैदान में उतारा. उसके कुछ क्षणों बाद ही भारत को पेनाल्टी कॉर्नर मिला. इसे असलम शेर खान ले रहे थे.

आज भी याद आता है कि कमेंटेटर बता रहे थे हिट लेने से पहले उन्होंने गले में पड़े ताबीज़ को चूमा, उसके बाद हिट लिया, गेंद गोल में थी. स्कोर 2-2 हुआ. अतिरिक्त समय मे हरभजन गोल कर भारत को 3-2 से जिताकर फ़ाइनल में पहुंचा दिया था. मलेशिया को ये हार अब तक सालती है. उस मैच में मलेशिया की और से पहला गोल करने वाले दातुन फूक लोक कहते हैं, ‘उस मैच की स्मृति को मिटाना असंभव है. वो हार अब भी उदास करती है.’

दरअसल ये जीत और विश्व विजेता बनना भारत की छीजती गौरवपूर्ण हॉकी परंपरा को रोककर पुनर्स्थापित करने का आख़िरी प्रयास था. 1928 से 1956 तक लगातार ओलंपिक में छह स्वर्ण पदक जीत चुका. उसके बाद की भारत की हॉकी अधोगति की ओर जाती हॉकी थी. 1960 में वो रजत पदक जीत सका था. 1964 में एक बार फिर स्वर्ण पदक जीता, लेकिन उसके बाद 1968 और 1972 में उसे मात्र कांसे के पदक से संतोष करना पड़ा.

उधर, विश्व कप में भी 1971 के पहले संस्करण में तीसरे और 1973 के दूसरे संस्करण में दूसरे स्थान पर रहा था.

1975 के बाद हॉकी केवल एस्ट्रोटर्फ़ पर खेली गई. उसके बाद की हॉकी की कहानी एस्ट्रो टर्फ़, नियमों में परिवर्त्तन, ऑफ़ साइड के नियम की समाप्ति, कलात्मकता को ताक़त और गति द्वारा रिप्लेस करने और भारत व पूरे एशिया की हॉकी की अधोगति की कहानी है. भारत के लिए 1928 से शुरू हुआ एक चक्र 2008 में पूर्ण होता है, जब वो ओलंपिक के लिए अहर्ता भी प्राप्त नहीं कर सका था.

अब एक बार फिर समय बदला है. धीरे-धीरे हॉकी गति पकड़ रही है. पिछले ओलंपिक में कांस्य पदक जीता है. समय का चक्र फिर से घूम रहा है.

अब जब 13 जनवरी 2023 से भारत में 15वां हॉकी विश्व कप आयोजित हो रहा है तो कुछ सपने देखने का और पुरानी ऊंचाइयों को महसूस करने का मौक़ा तो बनता है न!!

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