सानिया मिर्ज़ा | एक जुनूनी खिलाड़ी की टेनिस कोर्ट से विदाई

आख़िर क्या होता है खेल को ‘अलविदा’ कहना. खेल से ‘सन्यास’ लेना. इसे कोई खेल प्रेमी भला कहां समझ पाएगा. और यह इसलिए मुमकिन नहीं होता कि खेल के मैदान से उनका एक चहेता रुख़सत होता है, तो दो और खिलाड़ी उसकी जगह भरने के लिए आ जाते हैं. और प्रशंसक पुराने को भूलकर नए के साथ हो लेते हैं.

पर एक खिलाड़ी के लिए ऐसा कहां संभव है. उसके लिए खेल से सन्यास उसकी सबसे प्रिय वस्तु से विछोह है. एक यात्रा का अंत है. अपने सबसे प्रिय सपने का अचानक लुप्त हो जाना है. ऐसा सपना जो उसके दिल में जन्मा और बरसों बरस तक जिसे बड़े जतन से सहेजा और फिर अचानक एक दिन उससे दूर कहीं बहुत दूर चला जाता है. फिर कभी न मिल पाने के लिए.

ये अंत है. ये विछोह है. ये दुख है. ये संताप है. ये भय भी है.

और इस ‘पर्वत-सी पीर’ को सिर्फ़ खिलाड़ी ही समझ और महसूस कर पाता है, जो विदा लेता है.

इसे समझना है तो एक बार महान इतावली फ़ुटबॉलर फ़्रांचेस्को तोत्ती के विदाई वक्तव्य को याद कर सकते हैं. एएस रोमा से 25 साल खेलने के बाद खेल से अपनी विदाई के मौक़े पर वे कह रहे थे- ‘आपको पता नहीं है पिछले दिनों में पागलों की तरह अकेले में बैठकर कितना रोया हूँ. काश कि मैं कविता लिख पाता. लेकिन ये मुझे नहीं आता. पिछले 25 सालों से में फ़ुटबॉल के मैदान में पैरों की ठोकर से कविता लिखने की कोशिश कर रहा था, और अब सब कुछ ख़त्म हो गया है…अब मैं घास की गंध को इतने क़रीब से महसूस नहीं कर पाऊंगा. अब जब मैं दौडूंगा तो सूर्य मेरे चेहरे को ऊष्मा नहीं देगा. मैं बार-बार ख़ुद से पूछ रहा हूँ कि मुझे इस सपने से क्यूं जगाया जा रहा है. लेकिन ये सपना नहीं सच है, और अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ. मैं डर गया हूँ. मुझे डरने की मोहलत दीजिए.’

सौरव गांगुली अपनी किताब ‘एक सेंचुरी काफी नहीं’ में अपने सन्यास के बारे में लिख रहे थे, “मेरे दिल में तरह-तरह के जज़्बात थे. मैं बेहद ग़मज़दा था, मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा प्यार दूर जा रहा था.”

बीते सितंबर लंदन में लेवर कप के बाद सन्यास लेते समय के महानतम टेनिस खिलाड़ी रोज़र फ़ेडरर को ज़ार-ज़ार रोते हुए देखिए तो एहसास होगा कि एक खिलाड़ी के खेल से सन्यास के मायने क्या होते हैं.

फिर, बीते शुक्रवार, 27 जनवरी 2023 को मेलबर्न पार्क के रॉड लेवर अरीना में भारत की सानिया मिर्ज़ा की आँखों से बहते पानी को देखिए. और एक खिलाड़ी को खेल से विदा कहने का मतलब समझिए.

उस दिन मिश्रित युगल के फ़ाइनल में ब्राज़ील के लुईसा स्तेफ़ानी और राफ़ेल मतोस की जोड़ी से 6-7(2-7),2-7 से हार जाने के बाद ट्रॉफ़ी प्रेजेंटेशन स्पीच में सानिया के साथी खिलाड़ी रोहन बोपन्ना कह रहे थे, ‘यह सच है, सानिया के साथ खेलना स्पेशल है. हमने पहला मिश्रित युगल उस समय साथ खेला था, जब वो 14 साल की थीं और ख़िताब जीता था. आज यहां हम आख़िरी ग्रैंड स्लैम मैच खेल रहे हैं. दुर्भाग्य से हम ख़िताब नहीं जीत सके. लेकिन शुक्रिया उस सब के लिए जो तुमने भारतीय टेनिस के लिए किया.’ पास खड़ी सानिया थी कि अपने आँसुओं को बहने से रोकने की कोशिश किए जा रही थीं. और आंसू थे कि बहे जाते थे.

सानिया की आंखों के ये आंसू हार के आंसू नहीं थे बल्कि ये अपने जुनून, अपने सपने, अपनी ज़िंदगी के सबसे अज़ीज हिस्से के विछोह से उपजे दुःख के आंसू थे. हालांकि वो कह रही थीं, ‘अगर मैं रो रही हूँ तो ये दुःख के नहीं ख़ुशी के आँसू हैं. मैं विजेताओं की खुशी के रंग में भंग नहीं करना चाहती.’ वे ऐसी ही हैं. इतनी ही उद्दात्त. दुःख ऐसे ही उद्दात्त बना देता है मनुष्य को.

36 वर्षीय सानिया का यह आख़िरी ग्रैंड स्लैम मैच था. उनके 18 साल लंबे खेल जीवन का समापन. खेल से सन्यास. भले ही औपचारिक रूप से उनकी आख़िरी प्रतियोगिता फरवरी में दुबई इंटरनेशनल हो. पर वास्तव में उनके खेल जीवन का वास्तविक समापन यही था.

उन्होंने खेल से विदा कहने के लिए वही मैदान चुना, जहां से उन्होंने साल 2005 में अपने ग्रैंड स्लैम कॅरियर की शुरुआत की थी. तब वे तीसरे राउंड तक पहुंची थी. और तब वह उस साल की चैंपियन सेरेना विलियम्स से हार गईं थी. वे हार ज़रूर गई थीं. लेकिन इस हार ने उनमें विश्वास भरा था कि उनके उड़ान भरने के लिए एक खुला आसमान सामने है. उस मैच के बाद सेरेना ने रिपोर्टर्स से बात करते हुए कहा था, ‘मैं विशेष रूप से भारत से एक खिलाड़ी को इतना अच्छा खेलते हुए देखकर रोमांचित हूँ. उसका खेल बहुत सॉलिड है और वह अभी केवल 18 साल की है. उसका भविष्य उज्जवल है.’

छह साल की उम्र से टेनिस खेलना शुरू करने वाली सानिया सीनियर वर्ग में खेलने से पहले ही जूनियर स्तर पर अनेक उपलब्धि हासिल कर चुकी थीं. जूनियर लेवल पर 10 एकल और 13 युगल ख़िताब वह जीत चुकी थीं, जिसमें 2003 का जूनियर विम्बलडन युगल ख़िताब भी शामिल था, जो उन्होंने एलिसा क्लेबिनोवा के साथ जीता था.

2005 में ऑस्ट्रेलियन ओपन में खेलने के बाद फ़रवरी में हैदराबाद में डब्ल्यूटीए ख़िताब जीता और कोई डब्ल्यूटीए ख़िताब जीतने वाली वह पहली भारतीय महिला बनी. उसी साल वे यूएस ओपन में प्री-क्वार्टर फ़ाइनल तक पहुंची जहां अंततः चैंपियन मारिया शारापोवा से हारीं. उस साल की सफलता पर उन्हें 2005 की ‘डब्ल्यूटीए नवोदित खिलाड़ी’ के ख़िताब से नवाज़ा गया. उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपने और देश के लिए अनेक उपलब्धियां हासिल कीं.

अगस्त 2007 में उन्होंने 27वीं रैंकिंग हासिल की. सौ के अंदर रैंकिंग हासिल करने वाली वे पहली भारतीय महिला थीं. इससे पहले केवल दो भारतीय पुरुष खिलाड़ी, रमेश कृष्णन (उच्चतम 23वीं) और विजय अमृतराज (उच्चतम 18वीं), 30 के अंदर रैंकिंग हासिल कर सके थे. अगले चार सालों तक वे 35वीं रैंकिंग के भीतर रहीं और दुनिया की श्रेष्ठ महिला खिलाड़ियों में उनकी गणना होती रही. 2012 में कलाई में चोट के बाद एकल को छोड़कर पूरी तरह युगल खिलाड़ी बन गईं. उन्हें अपने कॅरियर के शीर्ष पर जो पहुंचना था. उन्होंने डबल्स में 6 ग्रैंड स्लैम ख़िताब जीते. 2009 में ऑस्ट्रेलियन ओपन और 2012 में फ्रेंच ओपन महेश के साथ और 2014 में यूएस ओपन ब्राज़ील के ब्रूनो सोरेस के साथ मिश्रित युगल के तीन ख़िताब.

महिला युगल में भी उन्होंने तीन ग्रैंड स्लैम जीते. उनकी सबसे सफल और शानदार जोड़ी स्विट्जरलैंड की मार्टिना हिंगिस के साथ बनी, जिसे ‘संतीना’ के नाम से जाना गया (सानिया के नाम का SAN और मार्टिना का TINA). इस जोड़ी ने न केवल 14 ख़िताब जीते, जिसमें 2015 के विम्बलडन और यूएस तथा 2016 का ऑस्ट्रेलियन ख़िताब शामिल हैं बल्कि लगातार 44 मैच जीतने का रिकॉर्ड भी बनाया.

इस दौरान वे 91 हफ्तों तक डबल्स की नंबर एक खिलाड़ी रहीं और अपने खेल जीवन में कुल 43 डब्ल्यूटीए ख़िताब जीते.

वह एक असाधारण खिलाड़ी हैं, जिन्होंने अपनी उपलब्धियों और अपने खेल से भारत में टेनिस के स्वरूप को ही बदल दिया. वे मार्टिना नवरातिलोवा और स्टेफ़ी ग्राफ़ के खेल को देखते हुए बड़ी हो रही थीं और उनके समय तक विलियम्स बहनें परिदृश्य पर आ चुकी थीं. उन्होंने भी आक्रामक खेल को अपनाया. उनके फ़ोरहैंड शॉट बहुत शक्तिशाली होते थे. वे उनके समकालीन किसी खिलाड़ी जितने ही शक्तिशाली होते. सर्विस रिटर्न्स भी बहुत शक्तिशाली और कोणीय होते. दरअसल उनके खेल की एक कमज़ोरी थी कोर्ट में मूवमेंट की. उनका कोर्ट में मूवमेंट बहुत धीमा था और इसकी भरपाई वह अपने शक्तिशाली फ़ोरहैंड और आक्रामक खेल से करतीं. उनके पहले तक भारत में टेनिस एक कुलीन और नर्म मिज़ाज खेल था, जिसे सानिया ने पावर और रफ़-टफ़ खेल में बदल दिया.

आक्रामकता, बिंदासपन और साफ़गोई उनमें जन्मजात थी और उनके स्वाभाविक चारित्रिक गुण. वे जितनी आक्रामक मैदान में प्रतिद्वंद्वी के प्रति होती, उतनी ही आक्रामक मैदान के बाहर अपने विरोधियों के प्रति. वे अपेक्षाकृत संभ्रांत परिवार से थीं, इसलिए उन्हें उस तरह से संसाधनों के अभावों का सामना नहीं करना पड़ा जैसे अमूमन भारतीय महिला खिलाड़ियों को करना पड़ता है. फिर उनके माता पिता हर समय उनके साथ खड़े रहे.

दरअसल उनके संघर्ष दूसरी तरह के थे. वे महिला थी और मुस्लिम भी. और वे एक ऐसा मोहक खेल चुन रही थीं, जिसके ड्रेसकोड को लेकर रूढ़िवादी-परंपरागत मुस्लिम समाज सहज नहीं हो सकता था. उनका विरोध होना स्वाभाविक था. और ख़ूब हुआ भी. उनके ख़िलाफ़ फ़तवे जारी किए गए. 2005 में वे केवल 18 साल की थीं और उस साल सितंबर में कोलकाता में सनफ़ीस्ट ओपन खेलने गईं तो उनके कपड़ों को लेकर पहला फ़तवा जारी किया गया. लेकिन वे गईं वहां. वे वहां कड़ी सुरक्षा में रहीं. एक 18 साल की लड़की, जो चारों ओर से सुरक्षा घेरे में रहती हो, कैसी मानसिकता में जी और खेल रही होगी. लेकिन वो किसी और मिट्टी की बनी थीं. उसने हार नहीं मानी. उसने टेनिस के ऑफ़िशियल ड्रेसकोड का पालन किया. स्कर्ट और शॉर्ट में खेली. उसने साहसिक इबारत वाली टी-शर्ट पहनने से भी गुरेज नहीं किया. “सदाचरण करने वाली लड़कियों ने शायद ही कभी इतिहास बनाया हो” स्लोगन मानो उनका उनके जीवन का तकिया कलाम बन गया हो.

विवाद और विरोध उसके साथ साये की तरह बने रहे. फिर चाहे वो हॉफ़मैन कप के एक मैच के दौरान राष्ट्रीय ध्वज के अपमान का आरोप हो, विवाह पूर्व संबंधों का या पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मलिक का उनके साथ विवाह पूर्व हैदराबाद में रहना हो या उनके साथ विवाह का हो, उन्होंने दृढ़ता से सामना किया और आगे बढ़ीं. खेल प्रशासन और टीम कम्पोज़िशन को लेकर भी विवाद हुए. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने हर बार स्टैंड लिया और स्पष्ट स्टैंड लिया.

उनका सबसे बड़ा और स्पष्ट स्टैंड महिलाओं की स्थिति को लेकर था. अख़बारों ने लिखा कि सानिया मिर्ज़ा मानती हैं, ‘भारत में स्त्रियों का सम्मान नहीं होता.’ इस बात पर उनकी कड़ी आलोचना हुई. पर उन्होंने कहा, ‘मैने यह नहीं कहा भारत में स्त्रियों का सम्मान नहीं होता. अगर ऐसा होता तो मैं आज यहां नहीं होती. लेकिन मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, बहुत ज़्यादा. लेकिन हज़ारों अन्य स्त्रियां इतनी भाग्यशाली नहीं हैं. उनका शारीरिक और यौन शोषण होता है और उन्हें अपने सपनों को पूरा करने की आज़ादी नहीं है क्योंकि वे स्त्रियां हैं.’ आज भी उनका स्टैंड स्पष्ट है.

पीटी उषा के बाद वे भारत की सबसे बड़ी स्पोर्ट्स वीमेन आइकॉन थीं. सानिया मैरी कॉम और साइना नेहवाल के साथ स्टार स्पोर्ट्स वूमेन की त्रयी बनाती हैं. पीवी सिंधु उनके बाद आईं. अपने साहसिक, कभी हार न मानने, सतत संघर्षशील और फ़ेमिनिस्ट सानिया नई पीढ़ी की भारतीय महिला खिलाड़ियों के लिए एक बड़ी प्रेरणा स्रोत हैं. तभी तो स्टार रेसलर विनेश फोगाट, जिन्होंने खुद खेल प्रशासन और डब्ल्यूएफआई के बाहुबली और दबंग माने जाने वाले अध्यक्ष के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला है, उनके सन्यास पर इतनी ख़ूबसूरत बात कह सकीं कि “शुक्रिया सानिया, युवा भारतीय लड़कियों की एक पूरी पीढ़ी को यह बताने के लिए कि सपने कैसे देखे जाते हैं. उनमें से मैं भी एक हूँ. आप तमाम चुनौतियों के बीच पूरे जुनून के साथ खेलीं. आपका दाय भारतीय महिला खिलाड़ियों के लिए बहुत मायने रखता है. सम्मान और बधाई!”

खेल मैदान में हमेशा तुम्हारी कमी खलेगी. नई पारी के लिए बहुत बधाई सानिया.

कवर | विनोद दिवाकरन/ विकिमीडिया कॉमन्स

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