कहानी एक लफ़्ज़ की | अलमारी

  • 12:05 am
  • 29 August 2020


कहानी एक लफ़्ज़ की | अलमारी बोलते हुए शायद ही कभी आपको लगा हो कि यह लफ़्ज़ पुर्तगाली से हमारी ज़बान में आया. और हमारी ज़बान से अंग्रेज़ी में गया, मुमकिन है कि यह ख़्याल भी न आया हो. यों बोलचाल में यह आलमारी भी कही जाती रही है. पुराने ज़माने में और ख़ासतौर पर देहात में जब अलग से अलमारियों का चलन नहीं था, कच्ची दीवारों में बनने वाली छोटी अलमारियां भंडरिया कहलातीं – भंडारण के काम आती थीं इसलिए भंडरिया.

सिदरा सहर इमरान फ़रमाते हैं,
लकड़ी की दो मेज़ें हैं इक लोहे की अलमारी है
इक शाइर के कमरे जैसी हम ने उम्र गुज़ारी है.

और बक़ौल शरद तैलंग,
जो अलमारी में हम अख़बार के नीचे छुपाते हैं
वही कुछ चन्द पैसे मुश्किलों में काम आते हैं.

और गुलज़ार के तसव्वुर में कुछ इस तरह कि
किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होती.

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