दो लफ़्ज़ों की कहानी | मिश्रित बोली हिन्दुस्तानी
बटाटा-कांदा | पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों से कमाने के लिए बंबई गए कामगार जब लौटते तो अपने ही लोगों के बीच जिन वजहों से ठिठोली की वजह बन जाते, उसमें उनकी ज़बान पर आने वाले कुछ नए लफ़्ज़ शामिल होते. थाली लेकर खाने बैठे पिता चीखते, “अरे, तुमको बोला था न कांदा लाने को, दिया क्यूं नहीं?” प्याज़ छील रही घरवाली मुंह दबाकर और बच्चे हा-हा, हा-हा करते हँस पड़ते. प्याज़ को कांदा कोई और तो कहता नहीं. उन सबका यही हाल तब होता, जब वह हुक्म देते, “शाम को बटाटा-वड़ी का सब्ज़ी बनाओ. उधर की वड़ी का टेस्ट अइसा अच्छा नहीं क्या.”
अभी बात ही इनकी चली है वरना ऐसे कितने ही नमूने मिल सकते हैं. बम्बइया बाबू अगर बटाटा कहते तो ग़लत क्या है? सिवाय इसके कि दो अलग-अलग इलाक़ों में एक ही शै को अलग नामों से पुकारते आए हैं. हिन्दुस्तान में इसकी आमद का श्रेय पुर्तगालियों को है और उनकी ज़बान में यह बटाटा ही है. कुछ अर्से बाद अंग्रेज़ सौदागर बड़े पैमाने पर खेती कराने के इरादे से इसे बंगाल लेते गए और बंगालियों ने इसे आलू पुकारा. यही तमिल में किडली केलंगू, मलयालम् में उरूलक्कीलन और कन्नड़ में आलूगड्डे है. तो क्या?
प्याज़ के मूल स्थान को लेकर विद्वान एकमत नहीं है, अलबत्ता हिन्दुस्तान में पांच हज़ार साल पुराना है. फ़ूड हिस्ट्री के विद्वान ही बता पाएंगे कि यह हमेशा ही रुलाने के किरदार में था या इंसानों की सोहबत में आकर सीख लिया.
फ़ारसी में यह पियाज़ है, एक तरह का कंद जो खाया जाता है. हिन्दुस्तानी ज़बान में यह प्याज़ हुआ (इसी के रंग से हम प्याज़ी रंग की पहचान भी करते हैं). और चूंकि यह कंद है, इसलिए इसका एक और नाम कांदा होना न तो हैरानी और न ही परेशानी की वजह होनी चाहिए. यही प्याज़ तमिल में वेंकायम है, उड़िया में पियाजा, कन्नड़ में उली, गुजराती में डुंगरी और मलयालम् में सवाला. तो फिर?
शौक़ बहराइची को पढ़िए और याद भी रखिए,
रहज़न लिबास-ए-राहबरी में न छुप सका
आलू ने लाख चाहा पे घोईआँ न हो सका.
फ़क़ीर वह है, जो विरक्त हो, माया जिसे बाँध न सके, मनमौजी और बेपरवाह, ज़माना दरकिनार करके अपनी धुन में मगन इंसान. माया के फेर में पड़ता नहीं, इसीलिए मंगता या भिक्षुक भी है. ज़रूरत भर का माँग लिया और वापस अपनी दुनिया में मशगूल. तभी न, फ़क़ीर न तो एक लफ़्ज़ भर है, न लिबास और न ही कोई ओहदा. यह ख़ुद तय किया हुआ जीने का सलीका है, अक़ीदा है.
ख़ास क़िस्म की ख़ुद्दारी मिज़ाज में हमेशा बनी रहती है, जो दुनिया में कभी सनक तो कभी हेकड़ी के तौर पर देखी-समझी जाती है. फ़क़ीर के मिज़ाज की ख़ुद्दारी का नमूना देखना हो तो यह शेर मुलाहिजा हो,
दर पे शाहों के नहीं जाते फ़क़ीर अल्लाह के
सर जहाँ रखते हैं सब हम वाँ क़दम रखते नहीं.
फ़क़ीर और फ़क़ीरी को शायर लोग भी तरह-तरह से समझने-समझाने की कोशिश करते ही आए हैं. मसलन मीर अनीस का कहा ग़ौर कीजिए,
करीम जो तुझे देना है बे-तलब दे दे
फ़क़ीर हूँ प नहीं आदत-ए-सवाल मुझे.
फ़क़ीरी मायने सधुक्कड़ी, फ़क़ीर सा मिज़ाज. फ़क़ीराना – साधुओं की तरह का. फ़क़ीरमनिश – साधुओं की तरह सीधे-सादे आचार-व्यवहार वाला.
फ़क़ीरदोस्त – साधु-संतों की सोहबत, उनमें भक्ति भाव रखने वाला.
और यह रहा फ़िराक़ गोरखपुरी का नज़रिया,
सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग
हम लोग भी फ़क़ीर इसी सिलसिले के हैं.
प्रेमचंद के वक़्त तक तो यह दारोग़ा ही लिखा-पढ़ा जाता रहा. उनकी कहानी ‘नमक का दारोग़ा’ इसकी सनद है. जाने कब बोलने में यह दरोगा हुआ तो फिर मूल खो गया और यही असल बन गया. वैसे भी मामला पुलिस का हो तो किसी ‘भाषा विज्ञानी’ की बिसात क्या? वे जो कह दें, वही सही.
‘नमक का दारोग़ा’ मई 1925 में छपी थी और ‘मुग़ले आज़म’ 5 अगस्त 1960 को रिलीज़ हुई. और इस फ़िल्म के एक दृश्य में क़नीज़ से ख़फ़ा होकर फड़कते होठों से जलालुद्दीन अकबर ने जिसे आवाज़ लगाई थी, वह दारोग़ा-ए-ज़िंदाँ था. ज़िदाँ यानी कारावास और दारोग़ा तो आप जानते ही हैं. माने वह अपने क़ैदख़ाने के अफ़सर यानी जेलर को हुक़्म दे रहे थे. इससे अंदाज़ भर लगाया जा सकता है कि दारोग़ा के पदनाम में तब्दीली सन् 60 के बाद ही हुई होगी. पक्का इसलिए नहीं कहा जा सकता कि वह पीरियड फ़िल्म थी.
बहरहाल आप दारोग़ा कहें या दरोगा, लफ़्ज़ फ़ारसी हो या कि ख़ालिस हिन्दुस्तानी, कश्मीर से कन्याकुमारी तक इस ओहदे पर बैठा आदमी अपने नीचे वालों से तो ताक़तवर होता ही है, ऊपर वाले भी उससे जल्दी नहीं उलझते.
परसाई के मातादीन दरोगा से प्रोमोट होकर ही इन्स्पेक्टर बने रहे होंगे. आपको याद होगा कि चाँद के सफ़र में अंतरिक्ष यान के रवाना होने पर उन्होंने पहला सवाल यान चालक के ड्राइविंग लाइसेंस को लेकर ही किया था. और काग़ज़ पूरे नहीं होने पर चालान करने की धमकी भी दी थी. इस ओहदे पर तैनात आदमी वर्दी की जगह क़िरदार पहनता है. क़िरदार जो महकमे के उसके पुरखों ने विरासत में छोड़ा होता है.
यों आपको यह सब क्या बताना!! आप तो आलोक श्रीवास्तव का यह शेर देखिए,
ग़नीमत है नगर वालों लुटेरों से लुटे हो तुम,
हमें तो गांव में अक्सर, दरोगा लूट जाता है.
दाग़ अच्छे हैं..बताकर डिटर्जेंट बेचने वाले ख़ुश हो सकते हैं. बहुत से लोग उनकी नक़ल करके भी ख़ुश हो लेते हैं मगर अमल में न तो दाग़ के मायने अच्छे लगने वाले हैं और न ही दाग़ी के. यों फलों के ख़राब होने का निशान दाग़ है और किसी को खो देने का ग़म भी, अपराध या दोष के साथ ही कलंक और रंज भी. इसमें दाग़े दिल साफ़तौर पर शामिल नहीं क्योंकि दिल पर दाग़ का साया शायरों को ही नज़र आ पाता है. अलबत्ता फ़ैज़ का वह शेर मुख़्तलिफ़ मायने और मेटाफ़र वाला है, जिसे आपने भी बारहा सुना होगा,
ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं.
कचहरी को दाग़गाह इसलिए कहा गया क्योंकि वहाँ काग़ज़ात पर मुहर लगाई जाती है, और ऐब वालों को, अपराध में शामिल शख़्स या धब्बों वाले फल इसलिए दाग़दार कहे जाते हैं. न मिटने वाली छाप – किरदार पर, बदन के किसी हिस्से पर, दिल पर, काग़ज़ पर, दीवार पर…ग़र्ज ये कि दिखने वाली शै से लेकर न दिखाई देने वाली सोच तक यह अपना असर रख सकता है.
और कभी दिल्ली में बसर करने वाले एक हजरत जो ‘दाग़’ तख़ल्लुस रखते थे, कहा करते थे – दाग़ इक आदमी है गर्मा-गर्म/ ख़ुश बहुत होंगे जब मिलेंगे आप.
वही दाग़ देहलवी यूं भी कहा करते थे,
हज़रत-ए-दाग़ जहाँ बैठ गए बैठ गए
और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले.
नज़ीर अकबराबादी का लिखा ‘आदमी-नामा’ यों आदमी की हज़ारों शक़्लों से बनी ऐसी मुकम्मल तस्वीर है कि उसे पढ़ते हुए बेशुमार आदमी अपनी पहचान के निकल आते हैं. थोड़ी लंबी नज़्म है इसलिए यहां उसकी बानगी,
याँ आदमी पे जान को वारे है आदमी / और आदमी पे तेग़ को मारे है आदमी/ पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी/ चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी/ और सुन के दौड़ता है सो है वो भी आदमी.
बाक़ी आदमीयत के मायने तो आप जानते ही हैं – मनुष्यता, इंसानियत, मानवता, सभ्यता, शिष्टता. और प्रंसगवश, इसका एक समानार्थी लफ़्ज़ इंसान है न, यह भी हमारी ज़बान में अरबी से ही आया है.
यों अल्ताफ़ हुसैन हाली तो दर्ज कर गए हैं कि,
जानवर आदमी फ़रिश्ता ख़ुदा
आदमी की हैं सैकड़ों क़िस्में.
और बक़ौल दुष्यंत कुमार,
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है.
फ़ारसी ज़बान से आया है मगर इसके मायने किसी भी ज़बान में ख़ूब समझे जाते हैं. यह लफ़्ज़ तबाह की क्रिया है. तबाहहाल यानी की मुसीबत का मारा, दरिद्र इंसान और तबाहकार माने बरबादी फैलाने वाला, ज़ालिम. तबाहे रोज़गार का मतलब ज़माने की गर्दिश का शिकार इंसान.
कौसर नियाज़ी के इस शेर में गुज़रे ज़माने का हवाला है शायद,
तबाही की घड़ी शायद ज़माने पर नहीं आई
अभी अपने किए पर आदमी शर्मा ही जाता है.
मुनीर नियाज़ी इससे अलग तरह से सोचते थे. कहा कि
क्यूँ ‘मुनीर’ अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा
जितना तक़दीर में लिक्खा है अदा होता है.
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