संवाद बुकशेल्फ़ | कविता की किताबें

संवाद बुकशेल्फ़ | ऐसे में जब शहरी लैंडस्केप से किताबों की दुकानें ग़ायब होती जा रही हैं और ऑनलाइन ठिकाने या प्रकाशक ही किताबें ख़रीदने का अकेला ज़रिया बनते जा रहे हैं, यह स्तंभ हिंदी और अंग्रेज़ी की ताज़ा छपी किताबों से आपको परिचय कराने और उनके बारे में मुख़्तसर जानकारी देने की कोशिश है. इनमें संपादक की पसंद की किताबें भी शामिल होंगी. पढ़ने वालों की सहूलियत के लिए किताबों की ऑनलाइन उपलब्धता के लिंक उनके शीर्षक में ही निहित हैं. इस बार का अंक कविता की नई किताबों पर केंद्रित है. -सं

सीपियाँ | दोहा | विचार | आलोचना

    दोहा कहने की रवायत हिंदुस्तान में सदियों से रही है, कवियों ने अपनी मनीषा का उपयोग करते हुए समाज को अपनी तरह से सचेत करने और समझाने के लिए दोहों में अपनी बात कही. ये दोहे कभी हमारी ख़ामियों की ओर इशारा करते हैं तो कभी रहबर बन जाते हैं और कभी ऐसी सच्चाई से साक्षात्कार करा देते हैं, जिसे हमारी दुनियावी निगाहें देखकर भी नहीं देख पाती हैं. किताब में कबीर, तुलसी, वृंद और रहीम के चुनींदा दोहे हैं, जावेद अख़्तर ने आमफ़हम ज़बान में जिनके निहितार्थ ज़ाहिर किए हैं. बक़ौल प्रो.पुरुषोत्तम अग्रवाल, जावेद अख़्तर को ये दोहे सीपियों से लगे, जिनके अर्थ में मोती छिपे हैं. इन टिप्पणियों से गुज़रने के बाद इन मोतियों की आब को और क़रीब से महसूस किया जा सकेगा.

बस चाँद रोएगा | कविता

    मदन कश्यप के इस संग्रह में 66 कविताएं हैं, जो हाल के वर्षों में लिखी गई हैं. ये कविताएं विजय पर शांति को तरजीह देती हैं और वीरता के ऊपर जीवन के सातत्य को. ये कविताएं कहती हैं कि ईश्वर हो, लेकिन वह उतना इच्छित भी नहीं जितना कि मनुष्यों में मनुष्यता. मनुष्यता की क़ीमत पर ईश्वर नहीं चाहिए जिसे वे लोग मनमाने ढंग से इस्तेमाल कर सकें, जो ख़ुद ईश्वर होना चाहते हैं. इनमें देश का वर्तमान, वर्तमान को अपने स्वार्थों के अनुसार गढ़ती-बदलती राजनीति और कोरोना जैसी महामारीऔर युद्धों से पैदा हुई विडम्बनाओं के चिह्न भी मौजूद हैं, और इस माहौल में अपनी व्यक्तिगत पीडाओं और मानवीय सरोकारों के साथ जीता मनुष्य भी, और वह प्रेम, वह उम्मीद भी जो विनाश की तमाम कोशिशों के बाद भी बचे रह जाते हैं.

क़ब्रिस्तान के नल पर | नज़्में

    उर्दू में यह संग्रह ‘अपने तमाशे का टिकट’ नाम से छपा था और उसी का हिंदी लिप्यंतरण यह संग्रह है, जिसमें 2008 से 2010 के बीच लिखी गई सौ नज़्में शामिल हैं. ग़ैर-रस्मी क़िस्म की ये नज़्में मौज़ू के लिहाज़ से अवामी ज़रूर हैं, पर इसमें उतरने के लिए ख़ास तवज्जो की माँग करती हैं. ये नज़्में इतनी सादा हैं, आम ज़बान का खुरदुरापन भी इनमें नुमायां होता है. किताब की प्रस्तावना में शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी ने लिखा है कि शारिक़ कैफ़ी ने बातें सब कही हैं, पर ज़ोर किसी बात पर नहीं दिया है यानी बीमारी तो वह ढूँढ निकालते हैं, पर कोई नुस्ख़ा तजवीज़ नहीं करते हैं. आमतौर पर ग़ज़लों के लिए पहचाने जाने वाले शारिक़ कैफ़ी का यह संग्रह नज़्म की कहन में उनकी सादगी और शास्त्रीयता के मेल की नज़ीर पेश करता है.

आवाज़-बेआवाज़ | कविता

    कविताओं के रंग और तेवर के मुताबिक़ तीन खंडों में बंटे इस संग्रह में कुल 48 कविताएं शामिल हैं. इंसानी और सियासी सरोकारों का विशाल वितान रचने वाली ये कविताएं कश्मीर से लेकर फ़लस्तीन तक हर उस कोने में खड़ी दिखाई देती हैं, जहाँ मनुष्यता पर संकट है, जहाँ सर्वसत्तावादी सियासत इंसान की ज़िंदगी को अपना चारा बनाने पर आमादा है. इन कविताओं के बेशुमार बिम्ब देश-दुनिया के मौजूदा परिदृश्य में मनुष्यता के आगे खड़ी चुनौतियों पर सवाल करते हैं, सच्चाइयों को बेनक़ाब करते हैं, विद्रूप को रेखांकित करते हैं, इंसानियत की ख़ामोश पुकार को शब्दों की गरिमा देते हैं, साथ ही प्रेम की सघन अनुभूतियों की तस्वीरें गढ़ते हैं, जो कि दरअसल मनुष्य की मूल प्रवृति है.

    सारी पृथ्वी मेरा घर है | कविता

      विनोद पदरज की कविताओं के बारे में कवि प्रभात लिखते हैं कि वे लोक कवि नहीं है लेकिन उनकी कहन में उच्चकोटि की लोक कविताओं सरीखी विरल सादगी है और उनकी कविताओं का एक लोक है. पूर्वी राजस्थान के तलैटी, पचवारा, माड़, जगरौटी अंचल के जनजीवन की उदात्तताओं के हर्ष और छिछलेपन से उपजे शोक का गान उनकी कविताओं में इस तरह सुनाई देता है कि उसके प्रभाव से बाहर आना असम्भव होता है. उनकी कई कविताओं को पढ़ते हुए अपनी भाषा और अपने लोक से उनका प्यार रसूल हमजातोव के ‘मेरा दागिस्तान’ की याद दिला देता है. उन्होंने कभी बनी-बनाई प्रतिबद्धताओं को नहीं ढोया, अपने जीवन अनुभवों, साहित्य, इतिहास और अन्य अनुशासनों से सीखते हुए अपनी प्रतिबद्धताएं ख़ुद तय कीं और यह उनकी कविताओं में साफ़ झलकता है.
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