पार्वती तिर्की की कविताएं

इस साल के साहित्य अकादेमी युवा पुरस्कार की हिंदी किताबों की श्रेणी में पार्वती तिर्की का कविता-संग्रह ‘फिर उगना’ को पुरस्कार के लिए चुना गया है. 2023 में राधाकृष्ण प्रकाशन से छपे उनके इस पहले कविता-संग्रह को हिन्दी कविता के समकालीन परिदृश्य में एक नई और ज़रूरी आवाज़ के रूप में देखा गया है. उनकी कविताओं में आदिवासी जीवन-दृष्टि, प्रकृति और सांस्कृतिक स्मृतियों का अनगढ़ रूप बेहद सहजता से व्यक्त होता है. यहाँ उनकी चुनींदा कविताएं,

    ख़ेख़ेल

    एक
    ‘जलचर हमारे अगुवा हैं’—
    ऐसा कहते हुए
    पुरखों ने
    एक लंबी कहानी
    सुनाई—
    धरती की रचना के क्रम में
    सबसे पहले कछुआ
    समुद्र के अंतस्तल पर गया
    और अपनी पीठ पर
    मिट्टी लादकर
    ऊपर आया
    फिर
    केकड़ा गया
    और अपने आठ हाथों से
    मिट्टी को उठाया
    अब जोंक की बारी आई
    उसने अपने पेट में
    मिट्टी भरी
    और ऊपर लाकर
    उगल दी—
    ऐसे बनी ज़मीन
    और पहाड़!

    दो
    इसके बाद
    मनुष्य ने ज़मीन को
    वर्षों तक
    जोतकर बनाए
    खेत!
    और
    पहाड़ को
    वर्षों तक
    सींचकर उगाए—
    केंवरा के फूल!

    तीन
    केंवरा के फूल से
    जंगल महक उठे
    और
    इससे आकर्षित होकर
    जंगलों में
    दईत आए!
    चार
    फिर
    खेत के समीप
    मनुष्य ने—
    चालाटोंका बनाया
    चालाटोंका से
    दईतों से संवाद किया
    अब जंगल में
    दईतों का राज्य हुआ!
    और
    टोंका, खेत और ड़ाँड़ में
    मनुष्यों का राज्य हुआ.

    वे पुरुष

    वे पुरुष
    जिन्होंने स्त्रियों से प्रेम किया
    पंछियों के प्रति अधिक विनम्र हुए
    और धरती की ओर
    अधिक झुके हुए दिखे

    वे पुरुष
    अपनी पीठ पर
    बच्चे को बेतराए हुए
    और उन्हें खेलाते हुए दिखे

    वे पुरुष
    जो स्त्रियों के गीतों को
    दोहराते हुए सुनाई पड़े
    वे पुरुष
    जिन्होंने स्त्रियों से प्रेम किया
    पुरुष होते हुए अधिक स्त्री हुए.

    लकड़ा

    पुरखे गोत्र उत्पत्ति की कई कहानियाँ सुनाते हैं—
    हे भई!
    तुम क्यों मेरा रास्ता रोकते?
    मैं तुम्हारा ही
    भाई हूँ —
    जंगल से गुज़रते हुए
    बाघ से सामना होने पर
    किसी ने ऐसा कहा!
    फिर
    बाघ ने उसका रास्ता
    कभी नहीं रोका
    उस दिन से
    वह मनुष्य और बाघ
    एक कुल के हुए.

      पार्वती तिर्की की फ़ेसबुक वॉल से साभार

    माख़ा

    जब मनुष्य
    खेत, टोंका और ड़ाँड़
    बनाने में
    अनंत दिनों तक
    जुटा रहा,
    अनंत दिनों की
    थकान को ढोए रहा,
    उसने धर्मेश से
    विनती की!
    तब
    धर्मेश ने
    उनको ‘रात’ दिए!
    फिर मनुष्य रात में सोए
    और दिन में खेत कोड़े!

    सुकरा-सुकराइन
    आसमान में सुकरा और सुकराइन तारे जब पास होते, तब कुड़ुख आदिवासी ब्याह के गीत गाते हैं,

    एक

    बारिश
    चाँद
    और
    आसमान का अकेला तारा—
    सुकरा!
    मानो सभी
    सुकरा के साथ
    प्रतीक्षारत हैं.

    दो
    सुकरा तारा
    हल्दिया रहा है,
    हल्दी रंग का हो रहा है
    ब्याह के लिए
    अब वह तैयार है
    आसमान का
    सबसे चमकीला तारा—
    सुकरा
    सुकराइन तारे से
    ब्याह रचेगा!
    भिनसारिया
    दोनों पास होंगे
    और
    अब बेंजा राग के
    गीत गाए जाएँगे.

    निरन्तर

    इस जंगल में
    चिड़ियों और मनुष्य का संवाद
    नदी की तरह क़ायम था—
    निरन्तर…

    बारिश से पहले
    जंगल गए लोग घर लौट आते थे
    बारिश के पहाड़ पर उतरने से पहले
    मनुष्य पहाड़ से उतर जाता था।

    इस जंगल में
    जाइनसाला पक्षी का डेरा था,
    बारिश से पहले वह बोल देती थी—

    ‘ओ मनुष्य, देखो!
    बारिश होने वाली है,
    तुम जल्दी अपने घर चले जाओ.’

    जाइनसाला का सन्देश
    आज भी लोगों को अनचाहे भीगने नहीं देता
    वे बारिश से पहले जंगल से घर लौट आते हैं.

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