कहानी | भग्गो

रह-रहकर उठती है हूक-सी कलेजे में भग्गो के. झपकाई नहीं है पूरी रात उसने अपनी आँखें. मुंह अंधेरे छोड़कर खाट मन लगाना चाहा रोज़ के कामों में. जंगल फिरने गई तो अंधेरे में वहाँ बैठे-बैठे रुलाई फूटी. न्यार कूड़ा करने गई तो लड़ावनी पर बैठकर दहाड़ मारकर रोने को मन हुआ. पथनहारे में गोबर सानते-सानते खिसियानपट आया अपने आप पर. रात से ही उसे अपने आदमी की बहुत याद आ रही है. आज से पहले उसे कभी नहीं लगा था कि वह बूढ़ी हो चली है या पूरे गाँव के रहते वह इतनी अकेली है. सारी देह बुरी तरह पिरा रही है उसकी. उबासी आ रही है. सिर फटा पड़ रहा है. किससे करे वह अपने मन की बात? उसकी सुनने-समझने वाला पूरे गाँव में अब कोई नहीं रहा है! नौ महीने उसके पेट में पला उसका ख़ून ही जब उसका नहीं रहा तो वह अब और किसे दोष दे? पाला-पोसा, पढ़ाई में ख़ूब ख़र्चा किया. बुरी सोहवत में पड़कर नहीं पढ़ा तो वह क्या करे? घर के कामकाज में लगा दिया. ब्याह-शादी कर दी ख़ूब धूमधाम से. अब और क्या कसर रह गई? बेटा-सा हो जाता तो दस्ठौन भी कर देती. पर सब गुन-अहसान मिट्टी में. काले मूड़ की आई तो भूल गया महतारी को. भूल गया कैसे माँ ने सर्दी देखी न गर्मी, रात-दिन देह बहाई खेती में? पूरे गाँव से कैसे-कैसे झड्ड ली अकेली ने? आज भग्गो की औलाद को ख़िलाफ़ पार्टी बहका दे! उसकी औलाद उससे हिसाब माँगे और तोहमत लगाए अपनी माँ-बहन पर! प्रधान के कहने में आकर भग्गो का पूत थाने में रपट लिखा आए अपनी माँ की! लिखा आए कि हो गई है उसकी माँ पागल और बेचने पर तुली है सब जमीन-जायदाद! रोका नहीं माँ को पुलिस ने जल्दी् ही तो फिर बेटा ही माँ को खा जाएगा. लम्बी भरी साँस भग्गो ने और खड़ी-खड़ी फुसफुसाई—ख़राबी है ज़माने की, करतूत प्रधान की है और सब ब्याधा उसके भाग की है.
बुरे दिन की तो बात ही है कि बेटा उसको कहनी-अनकहनी कहलवाए अपनी लुगाई से. लुगाई की जीभ चले कैंची-सी और मरद होकर बेटा चूँ भी न करे! देख मत रोक चुनुआ तू अपनी लुगाई को. भग्गो तो न तेरे पैर पड़े, न तेरी लुगाई के. पैर तो उसके भी नहीं पकड़े कभी जो ब्याहकर लाया था और भग्गो की कमर पर दिखाकर लठैती अपनी भग्गो का खसम कहलाता था. चुनुआ तू तो भला है किस खेत की मूली? पूरे गाँव ने अपनी नाक का दम लगा लिया, भग्गो किसी के सामने नहीं गिड़गिड़ाई कभी. गिड़गिड़ाएगी वह अब भी नहीं. रोना होगा तो रो लेगी अकेले में बैठकर. चुनुआ! तू अपना ख़ून न होता तो इतना मलाल न होता. गाँव भर ने तो अपनी करनी में कसर नहीं छोड़ी, पर भग्गो को ऐसा मलाल कभी नहीं हुआ. आज उस पर गाज गिरी है गाज! आज अरे कढ़ीखाए चुनुआ तेरी अम्मा की जान रोकर नहीं छूटेगी. उसका मन किसी नदी-पोखर में डूब मरने का हो रहा है चुनुआ! तू ढंग का होता तो आज फिर पूरे गाँव को तेरी महतारी बता देती कि भग्गो किस मिट्टी की बनी है. इनका नाश जाए इनका, जीते-जी न खसम उसका होकर रहने दिया और न अब ये पूत को ही उसका होकर रहने देंगे. भग्गो की आत्मा की आह पड़ेगी इन मुँहझुरसों पर. इनके घरों में भी चौंटनी डालेगा कोई. कोई न कोई तो गाढ़ेगा सेही का काँटा इनके घरों में. कोई कुछ नहीं करेगा तो अब बोएगी इन सबके यहाँ ख़ुद ही भग्गो फूट के बीज!
गाँव की नस-नस से वाक़िफ़ है भग्गो. बूढ़ी हो आई वह यह देखते-देखते. ब्याह होते ही कैसे बाप-बेटों में बजवाने को उधार खाए घूमते हैं लोग-लुगाई? घरों में घुसकर घुसेड़ते हैं अपनी नाक बाप-बेटों और सास-बहुओं के बीच में. हगी-मूती सूँघते हैं नाकों से थूथनी गड़ाकर सूअर की तरह और फिर इधर-उधर उड़ाते-फैलाते घूमते हैं. कोई बन जाता है बाप का हिमायती, कोई बेटे का. कोई सास को बताएगी डाइन तो कोई बहू को कहेगी चुड़ैल. मरीमारों से पूछे कोई कि इनसे कौन कहता है रई बनकर दही को मट्ठा और लोनी की तरह अलग-अलग कर देने को. भग्गो किसी से क्या कहे? जब अपना ही दाम खोटा हो तो परखनहारे का क्या दोष? पत्थर तो चुनुआ की अकल पर पड़े हैं जो बाहर वालों के सिखाए में आकर सब किया-धरा मिट्टी में मिला रहा है. समय रहते नहीं चेता तो भग्गो के बाद बैल-भैंस बिकवाकर कटोरा हाथ में थमा देंगे ये गाँववाले. कौन समझाए इस चुनुआ को अब? घर के कोने में कहीं बैठकर भग्गो का ख़ूब चीख़-चीख़कर रोने को मन हुआ.
पानी के नम्बर की याद आई तो उसे चढ़ी झुरझुरी. मन किया डेढ़ बाँस सूरज चढ़े तक भीतर कोठे में सोए चुनुआ को अभी पैर पकड़कर बाहर घसीट लाए. सारा ठेका क्या भग्गो का ही है? उसके हाथ-पैर क्या लोहे के बने हैं! इसीलिए बनवाए थे उसने दो छप्परों की जगह ये कोठे कि इनमें उसका पूत रात में रतजगा करे लुगाई के संग और दिन में दोपहर चढ़े तक सोया करे? जगे तो लुगाई की सिंकी खाकर चला जाए भंगड़ियों के संग या शराब के ठेके पर. रात को लौटे तो शुरू कर दे माँ से जूझना और सुनाए सारे गाँव को कि माँ डाइन है, अपने बहू-बेटे को मारने घूमती है. घर को बर्बाद करके छोड़ेगी. इसी दिन को तो तुझे इतना बड़ा किया था रे चनुआ! बेहयाई लाद ली है खसम-लुगाई ने. इतना भी ख्याल नहीं कि जवान लड़की घर में है. एक दीवार है बस बीच में. रात में कुछ दिखता नहीं तो उसे सुनाई तो सब पड़ता है, माँ की शर्म न करें, कम से कम बहन की तो करें. यही सब करना है तो ख़ूब करे कौन मना करता है? पर पहले बहन के हाथ पीले कर दे. कहीं किसी से जिकर नहीं करेगा, कोई बताए तो देखने नहीं जाएगा. माँ जाए सब जगह! लड़की को लड़का देखने भी माँ जाए. मर्द-मानुस घर में पसरें और जनानी बात करे शादी-सम्बन्ध की. माँ मुफ्त की है सो करेगी खेत-क्यार की चिंता, खाएगी बैल-भैसों की लात-पूँछ. बिना करे मन नहीं मानता नहीं तो दिखा देती एक ही छमाही में चंदा-तारे इन दोनों मक्खीमारों को.
जल्दी-जल्दी घर बुहारने बैठी तो घुटने और कमर का दर्द बढ़ता लगा कई गुना. सुबह से दलिद्दर पड़ा है घर में. झाड़ू-बुहारी भी करनी पड़ेगी उसी को. महारानी जी ने तो कर लिया हिस्सा बाँट अपने आप. छुट्टी मिली सास-ननद के काम से. कोठे दालान में झूठ-मूठ फिरा दी झाड़ू और हो गई सफ़ाई. जितनी देर रहती है भग्गो घर में, यहाँ-वहाँ फैली गंदगी को देख जलता रहता है उसका ख़ून. उसे क्या ज़रूरत पड़ी है जो एक कहे और दस कहलवाए! उसके आदमी को ही कुछ नहीं दीखता तो वही क्योंं कहे? अपने हिस्से को बुहार लेती है दो-दो बार भग्गो. रही होती कभी गंदगी में तो कुछ भी न कहती भग्गो. सामने बहू को कोठे में उल्टा बुहारते देख लग गई तन-बदन में आग उसके. घर में लक्ष्मी आए भी तो कैसे? बहू के लच्छन उल्टेक. और कोई दिन होता तो भग्गो सुना देती ज़रूर कुछ पर आज वह रह गई ख़ून का सा घूँट पीकर. आज वह किसी से कुछ नहीं कहेगी. इनके जी में आए जैसे रहें. मरें या जीएं उसे क्या? न हुई उसकी सास अनारो जैसी. झोंटा पकड़कर दो-चार लात पड़ते ही आ जाती सब अकल ठिकाने पर. सीख दे उसे कोई जो माने. किसी से नहीं बोलेगी भग्गो. चुप रहेगी आज. ग़ुस्से में और जल्दी बुहारने लगी भग्गो बड़बड़ाती धीरे-धीरे. अनोखी आई है सुतैमन ये झाड़ेगी उल्टा. सौ बार समझाया है देहरी से उल्टा झाड़कर मत ले जाया कर. मना किया है उल्टी बुहारी रखने को. पर वह तो ज़बान खोलते ही काटने दौड़ती है काटने. कटखनी कुतिया की तरह लगती है भौं-भौं करने. भग्गो तो कहे सीख की बात बहू को लगे कि उसकी नाक कट गई. इससे तो कुछ न कहना ही ठीक.
बहू का चूल्हा सुलगते देख भग्गो को ख्याल आया रोटी बनाने का. उसके गले में तो नहीं उतरेगी रोटी आज, पर चमेला सवेरे से खेत पर डो डो-हो हो कर रही है बेचारी. मुंह उठाए देखती होगी कि अम्मा आए तो वह रोटी खाए. बाप के आगे से ही उसके धीय-पूत भूख के बड़े हैं कच्चे. रोज़ चमेला को खिलाकर भेजती थी, पर आज बिना खाए धमका-धमकू के भेजी है चमेला. सवेरे से ही कौआ-तोता टूटते हैं मक्काख में. खसम-लुगाई की गाँठ से कुछ खुले तो मालूम पड़े. मर-खपकर दस-बीस मन मक्का आएगी तो तुरंत छाती पर सवार हो लेंगे आधी बाँटने को! ख़ूब उल्लू बन रही है भग्गो. हाथ-पैर पर मिट्टी भी न लगे और बाँट के वक्तब हाज़िर दोनों के दोनों. आगे से अब नहीं करेगी खेती भग्गो. माँ-धीय का पेट ही बड़ा तो नहीं है जो वे ही खटें रात-दिन. भग्गो की जान को झंझट तभी तक है जब तक चमेला के फेरे नहीं पड़ जाते. फिर तो वह एक तिनका भी न तोड़ेगी अपने हाथ से. हाथ से करने में सास मरती है इसकी, वैसे कहेगा जमीन इसके बाप की है. पूत न होता चुनुआ तू तो बताती तुझे कि कौन रोकता है भग्गो को जमीन बेचने से. दूसरों की सीख-पट्टी में आकर तू बजा लें गाल. तब कहाँ मर गए थे सलाहगीर तेरे, जब बाप ने तेरे छोड़ी नहीं थी जमीन एक हाथ घर में. जुआ-शराब के नाम रख दी थी गिरवी सब बनियों के और प्रधान के. तू तो पिल्लाँ-सा था. तुझे मालूम होगा कैसे? कैसे-कैसे मेहनत की भग्गो ने? लात-घूँसा खाए अपने आदमी के और जैसे-तैसे ज़मीन छुड़ाकर अपनी गृहस्थी बनाई. भग्गो न होती चुनुआ तो तेरा बाप शराब छोड़ता न जुआ. ज़िंदा रहता न इतने दिनों, मर गया होता कब का. भग्गो की ही छाती थी कि गली आँतों भी तेरे बाप को दस साल दिया नहीं मरने. दूर-दूर के नामी डाक्टरों की दवाई चलाई और चुगाई भी की ख़ूब भग्गो अकेली ने. जब तक जिया तेरा बाप घर में लुगाई की तरह बैठाकर खिलाया उसे भग्गो ने. मर गया तो खिलाए सात गाँव भी तेरी इसी महतारी ने. भले बने हैं चाचा-ताऊ और प्रधान आज तेरे. की है खूब ख़ुराफात, पहनाई है पहरावनी सबने. चाहा तो खूब जमे नहीं भग्गो यहाँ, पर भग्गो का कलेजा देख, जमी तो फिर हिली भी नहीं. भग्गो न जम पाती चुनुआ तो न तू होता न चमेला. फिर ये बीस बीघा जमीन तेरी न होकर तेरे ताऊ-चाचा की होती. तू कैसे समझेगा चुनुआ कि इन सबकी आँखें लगी हैं तेरी जमीन पर, तेरे मकान पर. भग्गो बेचेगी नहीं जमीन पर लगान पर उठाएगी जरूर, अगले साल. उस पर अब होती ही नहीं है उतनी मेहनत. तू आधा बाँट लेगा फिर भी मरेगी नहीं भूखी भग्गो. कैसे ही सुन ले चमेला की भगवान बस, फिर नहीं दबेगी किसी से कभी भग्गो.
चूल्हे को साफ कर पोता फिराने बैठी. कंडा और बनौट की लकड़ी डालकर चूल्हेक के पास माँजने को बैठ गई तवा, चिमटा, करछुली. कंडा उठाकर एक कोना तोड़ा उसका और फिर चली चूल्हा सुलगाने को आँच लेने. पहले सोचा बहू से माँग लाए आँच आज, पर फौरन याद आया रात में उसका बकना. न्या रा पूत पड़ोसी दाखिल. अब उसके पास क्योंा जाए भग्गो? जिस बहू ने लगाए लांछन, बिना पूछे रखकर दो ईंटें कर लिया अलग अपना चूल्हा. उसके पास नहीं लेने जाएगी वह आँच. होराम की अम्मा के घर से रखवा लाएगी कंडे पर एक अंगारी. शर्म होती चुनुआ को तो ओमा काका को नहीं भूलता. जिस दिन लगा था डॉड उनके आँगन में और जले थे चूल्हे दो, उसी दिन उठ गया था दुनिया से दाना-पानी उनका. हर तरह मौत भी सोचने वाली की ही है, चुनुआ जैसे लुगाई के गुलाम की नहीं. शर्म होती चुनुआ को तो जलते ही चूल्हे दो कर देता हड्डी-पसली एक मस्तानी लुगाई की या फिर डूब मरता कहीं चुल्लू भर पानी में.
कंडे लगाए चूल्हे में और सुलगाई आँच भग्गो ने. बनौट की रखकर लकड़ी फूँ-फूँ की थोड़ी देर. मीड़ा धुँआ लगी आँखों को और पानी छोड़ती नाक सुड़की. फिर अदहन चढ़ाके बैठ गई आटा माँड़ने भग्गो. अब नहीं इंचता आटा उस पर. आटा माँड़ के चुकी तो कपड़ा जलने की गंध आई. इधर-उधर ताका-झाँका. धोती के छोर से दिखा उठता धुँआँ. फौरन पकड़ मसला धोती का छोर. अँगुलियाँ जलीं तो पानी में डाल दीं. खिसियाकर रह गई भग्गो बुरी तरह. मन किया दे मारे चूल्हे में सिर अपना या फिर बुझाए ही नहीं अपनी धोती की आग, बैठी-बैठी कोस रही होगी कम्बख्त वहाँ. जो जाती जल भग्गो तो हो जाता ठंडा कलेजा इनका. बिलाँदभर से ज्यादा जल गई है नई-निकोर धोती उसकी. खैर मनाई भग्गो ने बचने की अपने. ज्यादा जल जाती और न मरती तो मुँहदेखा होती बहू-बेटे की. ये दोनों तो कभी न आते उसको बचाने. आज का दिन राजी-खुशी बीत जाए तो कथा करेगी भग्गो. रात से ही उसे लग रहा है कि कोई होनी है अनहोनी. जगते ही सबेरे देखा है थूथड़ा बहू अभागी का उसने. मौत तो आनी नहीं भग्गो को राजी से, पर जल जाती ज्यादा तो पहले फाड़ती धोती इस खसम की नानी की और फिर छिड़ककर मिट्टी का तेल लगा देती आग इसमें. जैसे-तैसे मन को समझाया भग्गो ने और फिर मनाई खैर जोड़कर दोनों हाथ अपने. पानी भरके मल्सिया अपने आगे रखी और फाँय-फाँय करके जल्दी-जल्दी सेक लीं कुछ रोटियाँ. पानी में भिगोया छन्ना, उसमें बाँधीं रोटियाँ. कटोरे में पलटी दाल मसूड़ की और दोनों को रखा मंजे कटोरदान में. पानी का घल्ला भरने गईं तो बहू दिखी भरती अपनी बाल्टी. रुक तो गई पर आया बड़ा उसे गुस्सा. पीहर से आकर इसका बाप गड़वा गया था क्या नल? उसके बखत पर मरेगी जरूर आकर. इतनी ही नाकदार है तो लगवा ले नल दूसरा खसम से कहकर. फिर दिन-रात चलाएँ उसे खसम-लुगाई दोनों. भग्गो की जान को तो अभी झंझट हैं पचास. इन महारानी जी की तो बन गई रोटी और अब दिनभर का आराम.
बैठकर धोए हाथ-पर लौटी घल्ला भरके. चूल्हे की बुझाई आग और कोठे में उठाकर रखे बर्तन-भाँड़े सब. रह गया बाहर कुछ तो उठा रख लेगी यह चोट्टिया. पूछने पर ततैया के काटे सी फेंकेगी अपने तब हाथ-पाँव. मुट्ठी-भर नमक और गिलास-कटोरी पर खा जाएगी कसम झूठी अपने बाप-भैया की. सब तरफ अच्छी तरह दौड़ाकर नजर अपनी भग्गो ने बंद किया दरवाजा कोठे का धड़ाक से. भग्गो को लगा जैसे निकल गई उसकी थोड़ी-सी गुस्सा बाहर. कोसती है भाग्य को भग्गो अपने. बहू-बेटे पर नहीं सकती निकाल अपना गुस्सा वह ईंट कौरों और दरवाजों पर तो सकती है निकाल खूब. रहा है भर बहुत उसमें आज गुस्सा. पटकती है इधर-उधर अपने पैर बार-बार और देखती है बहू के कोठे को ओर. जोर-जोर से उठा-उठाकर रख रही है चारपाई और बाल्टियाँ. ईडुरी बनाती है कपड़े की गोल-गोल. सिर पर रखती है पहले पानी का घल्लाी और तब उसके ऊपर रखती है कटोरदान. भुनभुनाती है मन-मन में और चल देती है खेत में पानी लगाने के लिए फावड़ा अपने कंधे पर लटकाकर.
आते ही घर से बाहर लगा भग्गो को ऐसा जैसे आई हो निकल किसी बड़े भाड़ से वह. अच्छे-खासे उसके घर को बना दिया है भाड़ बहू-बेटे ने उसके. रास्ते में रोज की तरह कहती जा रही है वह—पाँय लागूँ चाची, पाँय लागूँ काकी, पाँय लागूँ जीजी. देती जा रही है भरे गले और भारी मन से ‘भग्गो चाची राम-राम, भग्गो भाभी राम-राम, भग्गो अम्मा राम-राम का उत्तर— करूए नीम ते बड़ौ होए, दूधन नहाओ, पूतन फलौ, हजारी उमर होय मेरे लाला की. कई बार गूंजता है एक ही शब्द उसके कानों में—भग्गो! भग्गो!! भग्गो!!! खड़ी हो जाती है ठिठककर एक साथ. आती है शुरू के अपने दिनों की याद और चढ़ता है उसे बहुत गुस्सा. दादी, चाची, भाभी कहेंगे गाँव के बड़े-बूढ़े बालक सब, पर जोड़ेंगे उसके साथ भग्गो जरूर. आई है जब से वह तब से सुना है उसने यही नाम. पीहर में थी वह भाग्यवती. यहाँ पहले कहा देवर ने तो कहने लगा पूरा गाँव भग्गो. तीन बार आदमी से लड़कर गई गुस्से में तो मिल गया नाम यह. चिढ़ती थी पहले और गालियाँ सुनाती थी खूब पर अब आदी हो गए हैं उसके कान. गत का होता आदमी तो क्योंी उसे कहते भग्गो सब. जो मौका न देता आदमी तो कैसे जीभ चलती गाँव की. लेके तो देखे कोई बूढ़ा भी गाँव में धींग का नाम. जिनके मारे मरती है मैया, उनसे तो कहेंगे सब दरोगा जी, दीवान जी, पटवारी जी, मुकद्दम, बौहरे जी, लालाजी, ठाकुर साहब. हजारों बार जोड़ेंगे हाथ और छुएंगे पैर अपने लगतों के. चाटेंगे तलुए जात-कुजात के. बस भग्गो है गाँव में सबसे बड़े गरीब की जोरू सो जो चाहें बिगाड़े उसका नाम.
सामने दरवाजे पर अपने दीखती है बैठी घरवाली मास्साब की. उनसे कहती है पाँयलागन भग्गो. पूछती है खड़ी होकर उनकी तबियत का हाल और उनके बेटे का गाँव आने का दिन. होती है खुश सुनकर उसके छुट्टी पर जल्दी गाँव आने की बात. देती है खड़ी-खड़ी बीसियों असीस. याद कर-करके सुनाती है अपने ऊपर किए गए मास्साब के अहसान. लौटते में बैठने का देकर बचन चल पड़ती है अपने खेत की तरफ. पड़ रहा है सामने सूरज. लग रही है आँखों को चौंध. होती है देर की उसे चिंता. अपने आप हो जाती है तेज उसकी चाल. चाहती है धोती के पल्ले को आँखों पर डालना. बदल देती है फौरन ही अपना इरादा. बाएँ हाथ की हथेली कर लेती है दोनों आँखों के सामने. खिंचा होता घूँघट तो न दुखी करता चौंध. पर करे क्याआ भग्गो घूँघट की रही नहीं है उसे बिल्कुल आदत. खुला नहीं सिर कभी उसका और भाया नहीं है घूंघट कभी बिल्कुल उसे. करती भी तो किससे करती भग्गो घूंघट? सास-ससुर देखे नहीं. चचिया-तैया ससुरों के कर्मों ने खुलवा दिए थे उसके मुंह और सिर यहाँ आने से पहले ही. गाँवभर में बस स्कूल वाले मास्साब ने कभी नहीं देखा उसका मुँह. उनके सामने नहीं खुली कभी भग्गो की जबान. और तो गाँव में कोई चोर, कोई चुगलखोर, कोई हरामखाऊ, कोई पजरैल, कोई हाथ सेका-मुकदमेबाज, तो कोई लार टपकाता कुत्ता. कोई हो मर्द-मानुस और बची हो जिसमें इंसानियत उसके सामने जरूर खिंच जाएगा खुद ही भग्गो का घूँघट. धूप में सफेद नहीं किए उसने अपने बाल. जानती है खूब अच्छी तरह भग्गो सब-जिनमें बची रहती हैं लाज-शर्म, हिए में जिनके होती है दीन-दुखियों के लिए पीर, नहीं देख सकती हैं जिनकी आँखें अन्याय, नहीं चुप रहती है नीच-पापी के सामने जिनकी जीभ, उन्हें जिंदा छोड़ता ही कहाँ है यह गाँव? घर, खेत, नदी, कुएं में एक दिन पड़ी मिलती है उनकी लाश केसो पंडित की तरह, हाफिज्जी की तरह, मुंशी सोनपाल की तरह या फिर मास्साब को तरह. नहीं कभी ढूंढ़ पाते हैं कातिल का नाम पुलिस दरोगा, पटवारी, पिरधान. भूल से भी नहीं लाते मरने वालों के बेटा-बेटी जबान पर अपनी हत्यारों के नाम. जिनमें है अकल और जो कर सकते हैं कानून से, सरकार से बात, वे रहने चले जाते हैं शहर. पढ़ते-पढ़ते एक दिन ढूंढ़ लेते हैं नौकरी और बनवा लेते हैं शहर में अपना मकान. फिर आते हैं महीनों और सालों में अपने घर मेहमान की तरह. पूछती है खुद से भग्गो अब किससे करे पर्दा? सुनाती है खुद को—ठीक किया भग्गो ने जो शुरू से ही खींचा नहीं घूंघट कभी ऐसों के सामने.
ऐसे में आती है उसे बहुत याद मास्साब की. भीग आया है मन उसका. गीली हो रही हैं आँख. सामने मेंड़ पर पड़ी देखती है भग्गो मास्साब की खून सनी लाश. काँपती है. हाँफती है वह. फिसलता है मेड़ पर से पैर. गिरने से बाल-बाल संभली है मुश्किल से. कसकर दोनों हाथों से पकड़ लेती है घल्लाट और कटोरदान. गर्दन में लगने से जरा-सा बचता हैं फावड़ा. निकलती हैं गालियाँ खेत वालों को मुँह से. दोनों तरफ से काट-काटकर छोड़ी नहीं है मेंड़ चलने लायक. कभी पेट नहीं भरता इन भुक्खाड़ों का अपनी जमीन से. हाथ-दो हाथ दबाके जोतेंगे खेत दूसरों का, फोड़ेंगे सिर इन मेंडों के पीछे और फिर लगाएँगे चक्कर थाने-कचहरी के. मनाती है वह गिरने से बचने की खैर. कोसती है एक बार फिर जगते ही बहू का मुँह दिख जाने को. बेटे को बहकाने वाले दुश्मनों को देती है मन ही मन दसियों गालियाँ और देती है ‘सराप’ मास्साब के हत्यारों को. होते मास्साब तो आज रोना नहीं पड़ता इस भग्गो को. कहते ही उसके बुलाकर समझा देते इस पूत को और हिमायतियों को इसके सुना देते खरी-खोटी खूब.
अब सुनाई दे रही है भग्गो को धीय की गए ड ड गए डड डो ड डडो ड डो डड की आवाज और आ रही है याद मास्साब की एक बात. उनके सामने कभी नहीं पड़ी भग्गो. पैर छूने को मन हुआ कई बार. मसोस-मसोस रह गई मन. कभी हिम्मत पड़ी नहीं पैर छूने की. मिले भी तो तब जब लिपटे पड़े थे कफन में मास्साब जी. पैरों में उनके पड़ी रोते-रोते हो गई थी बेहोश भग्गो. रोटी नहीं उतरी थी महीनों गले से नीचे. आदमी मरा था तो माना नहीं था उतना रंज भग्गो के मन ने. था भग्गो को भरोसा तब लग जाएगी नैया पार उसकी और उसके बाल-बच्चों की ‘किरपा’ से मास्साब की. आदमी के मरने पर गाँव-घर की औरतों ने उतारे थे बिछुआ और तोड़ी थीं चूड़ियाँ. मास्साब मरे थे तब फोड़ा था ‘करम’ भग्गो ने अपना अपने हाथ से. आदसी मरा था तो कहा था सबने उसे राड़. मास्साब के मरते ही मान लिया था उसने खुद कि अब हो गई बिना बाप की अनाथ भग्गो. मेंड़ पर खड़े-खड़े रुलाई लगी फूटती-सी भग्गो को. ठूँस लिया झट से मुँह में पल्लू अपनी धोती का. चौंक पड़ी सुनकर धमाके की आवाज वह. लथपथ पसीने में लगा जैसे मास्साब को मारी हो गोली किसी ने बाजरे में से छिपकर. धमाके के बाद की डो-डो की आवाज से थमी उसकी धुकधुकी. चमेला ने मारा होगा मेहरा की बल्ली में धमाका भरकर पुटास. ज्यादा पड़ रहे होंगे जिनावर मक्का में. हो गए हैं बेहा जनावर भी इन गाँव वालों की तरह. डो-डो, हो-हो और धमाकों से डरते नहीं हैं वे अब जरा भी. अकेली है उस “हार”में मक्कान भग्गो की. होती दो-चार और तो रखाई न होती इतनी मुश्किल. सूखे ने बोने नहीं दी ज्यादा खेतों में मक्का. लड़-झगड़ भग्गो ने कर ली “परेवट”तो बो लिया खेत. तीन पामी लग गए राम राखे पाँच मन बीघा से हौन होगी नहीं कम. राजी-खुशी फसल घर पहुँच जाएगी तो करा देगी कथा भग्गो. आँखों में गड़ती है सबके उसकी खेती, फसल और गृहस्थी. बचते ही निगाह लेते हैं काट खेत आदमी इस गाँव के. गला न फाड़ो तो तोता, कौआ, कुत्ता, गीदड़ न छोड़ें एक मुठिया.
सामने ही देखे भग्गो ने सूखते कई पेड़ मक्काो में अपनी. आज छठे दिन भी जो न आई बिजली तो और सूखेगी फसल. लगान-भराई को लेने तो सिपाही अमीन का डंडा फटकारता आ धमकता है रोब से. एक दिन की देर पर कह जाता है कराने की कुर्की. है नहीं चिंता देने की बिजली किसी बजमारे को. कभी कहें तार कटे कभी कहें गिरा खंभा. कभी फुंक जाता है सरकारी ‘टिरांसफारम’. कभी आए आठ-आठ दिन में तो कभी महीनों में हो सुनवाई. आटा पीसें घर में जगकर सबेरे ही जनानी या फिर मर्द जाएँ “आन-गाम”नाज पिसवाने. भग्गो ने रामजी से दुआ माँगी आज बिजली आए दिन में. रात-बिरात लगाने में पानी पहले नहीं डरती थी भग्गो. अब जरूर लगता है डर उसे खेत पर अकेले में. पानी लगाते रात में ही गोदे गए थे चाकुओं से सोनपाल. रोका था उन्होंने रात में आना-जाना माधो के घर प्रधान का. काँपती है भग्गो. उसका दुश्मन है पूरा गाँव. दुश्मन नहीं थे जो मार दिए इन दुश्मनों ने या फिर रहते ही नहीं हैं वे इस गाँव में.
पहुँची जब मेहरे पर तो चमेला को आवाज दी. सुबकती देखी चमेला तो भूल गई थोड़ी देर खड़ी है कहाँ वह. सिर से उतारे जल्दी घल्लाि और कटोरदान. ऊपर से ही छोड़ दिया फावड़ा खेत में. ऊपर चढ़ी और चमेला पर किया लाड़. सिर पर हाथ फेरा तो और रोई चमेला. ऐसे पहले और कभी रोई नहीं उसकी धीय. हिलती नजर आई भग्गो को धरती. काटे भी खून रहा नहीं उसकी देह में. जैसे-तैसे जान पाई प्यार पुचकार कर. आया था पीछे यहाँ चुनुआ का नया बना यार और कुपूत पिरधान का. चमेला के नोंचा-काटा, बकता-बकता गंदी बातें भाग गया गाँव में. दे गया है धमकी उसे—‘खोली जो जबान तो बहुत बुरा हाल होगा.’ सनाका-सा खाई भग्गो सुनती रही चुपचाप सब. भूल गई भग्गो खाना-खिलाना सब. फिर कुछ सोच समझाई बेटी और उससे खाने की जिद की. चबा लिए उसने भी दो-चार कौर रखने को मन अपनी धीय का. कटोरदान बंद किया तो गिनी बची रोटियाँ. दो रोटी भी नहीं सकी थी सुबह की भूखी माँ-धीय. उतरने से नीचे पहले सिर पर चमेला के हाथ अपना फेरा कई बार. रही बचाती रोना अपना गले से उसके चिपटी. और रुकी थोड़ी देर तो नहीं रोक पाएगी वह खुद को. रोएगी माँ तो बेटी का क्या हाल होगा? खून का-सा घूंट पीकर बैठी रही चुप भग्गो. सूख गए उसके आँसू गुस्से की आग में. फेरी जीभ होंठ पर, बहुत लम्बी साँस ली. दुहराती रही मन-ही-मन—‘खोली जो जुबान तो बहुत बुरा हाल होगा.’ पहले तो आया जी में लौट पड़े घर उल्टे पाँव. सौ जूते तो लगाए पहले चुनुआ की चाँद में फिर जाकर पीए खून उस कुत्ते की औलाद का. दिखी सामने पड़ी सुबकती चमेला की सूनी माँग. ख्याल आया घर-द्वार और अपने कपूत का. ध्यान आए बैल-भैंस, हुई चिंता उनके पेट की. चल जो अभी पड़ी तो सब रह जाएगा. हाँ, पहले भी बिना खोले जबान उसने नहीं होने दिया है बुरा हाल अपना. खोलेगी नहीं आज भी जबान वह पर होने भी नहीं देगी बुरा हाल धीय-पूत का. फिर से याद आए अपने भूखे डंगर. न्यार काटने की सोच मन को सम्भाला उसने. पूछा चमेला से रखी है दरांती कहाँ और फिर गुम-सुम चल दी बाजरे के खेत में.
खेत में दी गाड़ दरांती और बैठ गई सिर थाम अपना. हूक उठी अंदर से कि गैया की तरह डकराए भग्गो. चुनुआ के फूटे हैं दीदा, मति मारी इसकी. गुंडों के इस गांव में जवान बहनिया खेत रखाए और भैया सोए घर में. होता आज उसका आदमी तो पीता खून जाकर खुद.
रोती नहीं भग्गो तब बैठी-बैठी खेत में. बुरा था, भला था, बीमार जैसा भी था, था तो उसका आदमी. मानने लगा था बाद में तो बातें भी उसकी और करने लगा था खूब लाड़-प्यार भी. ध्यान आए बीते दिन. सिर से हटाए हाथ. खड़े हुए रोंगटे. भग्गो ने ली फुरफुरी. कर लेती शुरू में ही मनमाफिक आदमी को भग्गो जो कढ़ीखाए न पड़ते उनके बीच में. जानती थी इतना तो भग्गो भी खूब कि पीते हैं शराब मर्द हजारों के. जुआ भी खेलते हैं सैकड़ों जनानियों के आदमी. इतनी सी बात पर कभी भग्गो नहीं भागती. उफ नहीं की थी उसने उतार ले गया था चुनुआ का बाप खड़ुआ उसके पहली ही रात को. बुरी नहीं लगी थी नशे में दी गालियाँ. झेल नहीं पाई थी वह दूसरी ही रात घर से घसीट दगड़े में ला पीटना. थी भाग गई भग्गो अंधेरे ही में माँ के पास, आदमी के रहते विधवा की तरह रहने को. गए थे पुलिस लेकर प्रधान-सरपंच दो बार और घर-कुनबे के लठैतधारी पाँच बार. हुई थी नहीं टस से मस भग्गो किसी से पर चुप चली आई थी वह समझाने पर मास्साब के. उन्होंने ही दिए थे सीख और सहारे उसे, तभी कर पाई थी वह आदमी को वश में. खोज खोये गाँव ने तो लगाया था खूब दम भाग जाए भग्गो फिर वैसे ही रो-झींककर. रात-बिरात उतारे थे घर में आदमी और गैल-गलियारों में भी खूब की थी छेड़-छाड़. जलाए थे देवर-जेठों ने खेत उसके और आते थे रोज खोलने को भैंस उसकी पिरधान के आदमी. जुए के उधार पर पिटता था रोज-रोज तब भग्गो का आदमी. जब चला नहीं कोई बस तो बन गई मर्द भग्गो. कराई थी मिलकर रिपोर्ट सबने एक साथ और डकारने को जमीन उसकी हुए थे तैयार भी. लड़ाए हैं मुकदमे सालों इस भग्गो ने और काटे हैं चक्कर खूब-थाने तहसील के. एस.पी., कलक्टर से मिली है वह और उलीचा है पैसा भी दोनों हाथ से. जब दिला नहीं पाए न्याय थाना-कचहरी उसे, तब किया था उसने बिना झुके फैसला भी सलाह से मास्साब की. फिर तो गई थी, भूल भग्गो सभी कुछ और गई थी वह जुट अपने खेत-खलियान में. बरसों में बसी थी गृहस्थी जो भग्गो की लगने नहीं देगी वह आग उसमें आज भी. बिना खोले ही जबान अपनी नहीं होने देगी बुरा हाल वह.
दराँती ली हाथ में और शुरू किया बाजरे को काटना. खड़ा देखा आज उसने पूरा गाँव अपनी आँखों के सामने. पेड़ लगे टांगें उसे, बालें लगीं चेहरों सी और जमीन में को लौटती जड़ें लगीं नाखून सी. दरांती ले फैल पड़ी तभी उन्हें काटने. अंगूठे में दराँती लगी तो फिर कोसा बहू को. डोडो की आवाज पर ध्यान आया धीय का. माँ की जो होती धीय चमेला, बैठी टसुआ नहीं बहाती. सूरत लेकर बाप की अपने जो लच्छन माँ के लेती, तो तभी दबा देती टेंटुआ बिनोदा का. तोड़ देती धमाके से उसके दाँत या गोफन के गिल्ले से आँखें उसकी फोड़ देती. चंदा ने नोंची थी नाक देवी के नाती की, शशिया ने फाड़े थे कान भूदा की औलाद के. सुशीला ने भी तोड़ी थी एक बार टाँगें इसी बिनोदा की. मरती तो मर जाती चमेला, पर खा तो लेती माँस उस जनावर का. मरना तो पड़ा था बाद में चंदा, शशिया, सुशीला को भी, पर वो बना तो गई थीं नीचों के मुँहों पर निशान अपने-अपने. देखे हैं वे निशान गाँव में सभी ने पर पहचानती थी उन्हें केवल आँखें मास्साब की. मिटा लेने देते दरोगा, पिरधान को जो निशान मास्साब, तो मरने की जरूरत उन्हें नहीं पड़ती. मौत नहीं आती है गाँव में उनको जो बनाते हैं नये-नये निशान रोज पेटों में औरतों के, आदमियों की देह पर और छाती पर धरती की. कर दी जाती हैं बंद वो आँखें, जो निशान बनाने वालों को कभी भूल नहीं पाती. भग्गो की भी आँखें भूलती नहीं हैं मास्साब अभी, अपने दुश्मनों को और तुम्हारे हत्यारों को. सुना था भग्गो ने बचपन में अपने, मिलती है नीचों को सजा जरूर पाप की. देखती है सरकार कर्मों को उनके इस जन्म में और बाद में शायद भगवान जी. यही सोच गई थी भग्गो लिखाने को नाम दुश्मन-हत्यारों के. लौटी थी वहाँ से सुनकर दरोगा की धमकी और गालियाँ. थाने-कचहरी में पूछ नहीं होती है भग्गो की या मास्साब की. चलती है हुकूमत वहाँ बिनोदा के बाप की. लगती है रोज उसके घर में कचहरी. सुनाते है फैसला दरोगा सलाह पर उसकी. बिना पूछे उसके कभी इस गाँव में होते नहीं झगड़े मारपीट, हत्या-डकैती. कोई नहीं खोलता आंख-जीभ अपनी. खोलते थे मास्साब मार डाला उनको. खोलेगी भग्गो तो बच नहीं पाएगी. मरने के नाम से ही भग्गो को आया गुस्सा. गुस्से में हाथ से उखाड़े पेड़ तीन-चार. जबान नहीं खोलेगी पर जरूर देगी जवाब भग्गो. चुप रही तब वह बीती जब खुद पर. होती देखी हत्याएँ और उजड़ते घर देखे. मरती देखी छोरी-छपारी, ब्याहताओं के गिरते पेट देखे. आई है जब से भग्गो देखा है उसने खूब, बढ़े हैं पाप रोज-रोज पिरधान की तोंद-से. छोड़ता नहीं है हिम्मत विरोध की किसी में वह और डर नहीं छोड़ा कुत्ते ने पाप का. थाने-कचहरी से डरते नहीं हैं नीच, पैसों के जोर पर घूमते है छुट्टल हत्यारे इस गाँव में. नाम लिखाने और गवाही देने वाले भी जी नहीं पाते हैं दो दिन चैन से. कैसे ले बदला भग्गो, निकले उसकी भाय कैसे?
कटे हुए मुट्ठों पर नजर डाली, रोक दिया काटना. दोनों घुटनों पर रखकर हाथ उठी हाय राम कह. उठाए पेड़ पाँच-छह, उनसे बनाया मोरा. फैलाया उसे धरती पर और गड्डी पर चढ़ाए मुट्ठे. दिमाग में थी वही एक बात, निकले उसकी भाय कैसे? कैसे ले वह बदला अपने घर-बार, धीय-पूत, पूरे गाँव और मास्साब का? औरों पर हुए जब भी दो-चार वार बचा लाया जाकर पिरधान उन्हें. जब होगा वार पिरधान पर तो आएगा कौन उसको बचाने? रिपोटा-रिपाटी से होगा नहीं उसका कुछ. पहले तो लिखेगा नहीं रिपोट कोई उसकी. लिखी भी तो बचेगी नहीं भग्गो फिर बाद में. और ऊपर ऐंठ तान लेगा मूंछें अपनी चार अंगुल. भग्गो चाहती है झुक जाएँ मूंछें उसकी, कट जाएँ नाक-कान. ऐसा कुछ हो साथ इसके, बेहा रह नहीं पाए फिर कभी इस गाँव में. रिपोट लिखाने से सजा नहीं होगी उसको. कोई समझाए इस चुनुआ पागल को! रिपोटों के बाद भी तो होता ही है फैसला. फैसला हुआ जो कराए बाहर के लोगों के, तो जाएगी कट नाक उसके खानदान की. माँ-पूत मिल करेंगे जो फैसला, टलवा नहीं पाएँगे थाना-कचहरी और गाँव उसे. ले नहीं जाएगी वह रखकर अपने पिंड पर कुछ. उसी के हैं मकान-खेत, उसी की बहिन-महतारी. डरी नहीं रिपोटों से पहले भी भग्गो कभी, अब के जमाने में तो और भी सवाल नहीं. चाहती है एक बात महतारी अपने पूत से. इज्जत न डुबाए वह अपने दादा-बाप की. होते ढंग के बहू-बेटा तो कब का लिख देती वह कागज. सौंप उनको राजपाट छोड़ देती घर-बार. हरिद्वार चली जाती. फूटे उसके भाग, चुनुआ नहीं निकला बेटा अपने बाप का. जानती जो पहले नामर्दी इसकी तो जनमते ही घोंट देती गला ऐसे पूत का. चढ़ी है रे चुनुआ चूहड़ी तेरी माँ पर आज. करतब वो अपने आज फिर गाँव को दिखाएगी. औरत ही भागी है हमेशा इस गाँव से, अब वह राच्छस मर्दों को भगाएगी. करेगी वो इलाज ऐसा अपने गाँव का, जनानी यहाँ की अब भग्गो नाम नहीं पाएगी. सोचती है फिर-फिर आखिर करे भी तो भग्गो क्याभ? कैसे बिना खोले जबान अपनी, होने से बचाए बुरा हाल पूरे गाँव का.
चढ़ा चुकी न्यार तो लगा उसे भारी हो गई है ज्यादा गड्डी. मूंड़ लगाकर मोरा खींचने में हाँफ गई. जरा बैठ साँस ली फिर दरांती उरसी गड्डी में. ‘कच्च’ की आवाज सुन निकल गई उसकी चीख. कँपने लगे हाथ-पैर, कँपने लगी सारी देह. खून-खून कहती-कहती बैठ गई धम्म से. मूँदी आँखों घुटनों में सिर दिए बैठी रही काफी देर. चेत आया जब उसे, पहले हँसी खुद पर. तरस आया अकल पर अपनी चीख पर गुस्सा आया. भूल गई कैसे वह बैठी है खेत में? कैसे लगा उसे ऐसा जैसे घोंपा हो उसने छुरा पिरधान के पेट में? ऐसा जो कर देती भग्गो तो दिखाती कैसे अपना मुँह मास्साब को. फिर तो स्वर्ग में बैठे मास्साब भी कहते उसको हत्यारिन! फूलन-कुसुमा नाइन कहकर पूरा गाँव बोलता. खड़ी कर दी गड्डी उल्टी फिर झुककर उसके नीचे मूंड लगाया. कई दिए झटके पर उसे उठा नहीं पाई. गुस्से में आकर उसने जमीन पर पटक दी गड्डी. लम्बी-चौडी काया उसकी उतनी ही है अभी, पर दम अब उसमें उतना है रहा नहीं. थामने को फूली साँस बैठ गई गड्डी पर. कहाँ जाए, किससे पूछे, करे वो उपाय क्या? कैसे निकले उसकी भाय? कैसे हो इलाज आज उसके इस गाँव का? तभी उसे ध्यान आया सुबकती चमेला का और खून मास्साब का. फौरन ही ध्यान आई शक्ल बिनोदा की ओर उसके बाप बजमारे की. याद आए बाजरे के पेड़ और दराँती अपने हाथ की. फड़कने लगे नथुने उसके और मुट्ठियाँ भी बँध गईं. पता नहीं कब गड्डी फिर पिरधान बन गई है. चल पड़े उसके हाथ, तरकीब उसे मिल गई. तिरबाचा भरे तीन बार गड्डी पर बैठकर. थूका उसने दो-दो बार थाना-कचहरी के नाम पर. जमीन से छुलाकर पल्लूा माथे से लगाया उसने. जोड़े दोनों हाथ अपने, ताका आसमान को. हँसता दिखा उसका आदमी और हँसते दिखे मास्साब जी. फिर जोड़े दोनों हाथ, लम्बी सी साँस ली. खुद को सुनाकर बस इतना ही बोली वह, ‘गड्डी पटक अपनी जाएगी वह हवेली पर सीधी पिरधान की. गैल में सुनाती जाएगी वह सबको करतूतें विनोदा और उसके बाप की. कौआ रोर मचा-मचाकर जोड़ लेगी सारा गाँव. पेट पर पिरधान के मारेगी एक लात, गिरते ही उसके उसकी छाती पर चढ़ जाएगी. नोंचेगी पहले उसकी मूंछें फिर उसके मुंह पर थूकेगी. लूटी जिसने सबकी इज्जत भग्गो आज उसकी लूटेगी. पूरे गाँव की आँख सामने, भग्गो आज उसके मुंह में छुलुल-छुलुल मूतेगी.’
झटके से उठ उसने खड़ी की गड्डी फिर से. पैर मारा जड़ में तो गड्डी सिर पर आ गई. खड़े हो तिरबाचा भरे फिर से, तब चमेला को दी आवाज. भूलकर सब कुछ दुहराती रही तिरबाचा. फिर गड्डी रखे सिर पर तेज-तेज चल दी—हौंसभरी-जोशभरी-रोषभरी भग्गो.
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जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं