कहानी | राख हुआ रंग

पूरे आठ साल बाद अपने गाँव की होली करेगा वह! पिछले वर्षों में होली, दीपावली, रक्षा-बंधन आते रहे, जाते रहे. वह गाँव पहुँचने को अकुलाया, पर कभी बच्चों की तबियत खराब, कभी पत्नी अस्वस्थ, कभी बच्चों के स्कूल या परीक्षा का झमेला, तो कभी छुट्टी की या पैसे की समस्या के कारण हार-झींककर मन मारे उसे गाँव से सैकड़ों मील दूर झाँसी में ही पड़े रहकर झक मारनी पड़ी. त्योहार पर किसी को बीबी-बच्चों के साथ अपने गाँव जाते देख, वह तड़प उठता. अपना घर, अपने माँ-बाप, भाई-बहिन याद आ-आकर गाँव चलने के लिए उससे जबर्दस्ती करते नजर आते. गाँव न पहुँच पाने की पीड़ा उसे बच्चों के साथ खुलकर त्योहार न मनाने देती. वह जो भी करता, केवल बीबी-बच्चों की खुशी का ख्याल करके. त्योहार के पहले से बाद तक वह दिन में कई-कई बार कभी पत्नी से, तो कभी बच्चों से अपने गाँव, अपने मुहल्ले, अपने घर की बैठकर चर्चाएँ करता रहता—
‘उस बार तुम्हें क्या बताऊं दीपावली पर हम लोगों ने गाँव में कितने मजे लिए! रक्षा-बंधन पर हमारे गाँव में कबड्डी का जैसा टूर्नामेंट होता है, वैसा आसपास के किसी गाँव में नहीं होता. तीजों पर गाँव में जुड़ने वाले दंगल में बड़ी दूर-दूर से नामी पहलवान आते हैं. शहर की होली भी कोई होली है? खरीदी हुई थोड़ी-सी लकड़ी किसी चौराहे पर जला लीं. दो-एक घंटे के लिए रंग-गुलाल डाल दिया. ‘बच्चों ने एक-दूसरे पर पिचकारी चला ली ओर बड़ों ने एक-दूसरे के गुलाल लगा दिया. बस, हो गई होली! फिर भकाभक कपड़े पहनकर घूमने निकल पड़े. यहाँ-वहाँ कुछ खा-पी लिया. ज्यादा किया तो किसी एक जगह सब नेता, व्यापारी, अफसर इकट्ठे होकर मिल-मिला लिए. अरे, जब तक आठ-दस दिन रंगा-रंगी न चले तब तक क्या मजा होली का? धूल-मिट्टी में लपेटकर जेट भरकर किसी को कीचड़ में रखने का मजा शहर वाले क्या जानें! भाभी-देवर, साली-जीजा की होली जितने दिन और जितने तरीकों से खेली जाती है, उसे शहरी क्या समझ सकते हैं भला! यहाँ कौन गाता है होली? कहाँ निकलती है चौपाई. गाँव में नाचने-गाने का आनंद महीनों लिया जाता है.’
वह बताना शुरू करता तो बंद मुश्किल से होता. त्योहार के आने से तीन-चार दिन पहले से उसका मन अपने घर, आफिस और आसपास से उचाट हो जाया करता. उसे लगा करता जैसे किसी ने उसकी आत्मा निकाल ली हो. झाँसी में वह न हो केवल उसके हाथ-पैर, नाक, आँख, कान हों. पत्नी-बच्चे जो कहते वह यंत्रवत् कर देता. त्योहार बीतने के तीन-चार दिन तक वह निचुड़ा-निचुड़ा चुप काम करता रहता. हर त्योहार अपने साथ एक विशेष उमंग, एक विशेष ऋतु लेकर आता हुआ उसे लगता, किंतु अपनी मजबूरियों-विवशताओं के मकड़जाल में फँसा वह गाँव पहुँचकर आनंद नहीं ले पाता. ‘
मुश्किलें इस बार भी कम नहीं थीं. दो बच्चों की बोर्ड की परीक्षाएं होली के तुरंत बाद शुरू होनी थीं. छोटी बच्ची की परीक्षा होली से पहले समाप्त होंगी. दो-दो ट्यूशन पढ़ानेवाले आते हैं. बच्चों को साथ लाने में पढ़ाई का नुकसान होता. बच्चों को छोड़कर आना वैसे असम्भव, पति-पत्नी में से एक का हरदम उनके पास रहना जरूरी. पत्नी को अकेले गाँव जाकर होली मनाने की कभी कोई चाह नहीं रही और न उसे पति का ही जाना जरूरी लगा है. अब की बार पिताजी के लगातार आए कई पत्रों में होली पर बच्चों को साथ लेकर आने की बात जोर देकर लिखी थी. पत्नी का ख्याल था कि पत्रों में कोई खास बात नहीं है, घरवालों ने केवल अपना फर्ज पूरा किया है. जबकि उसे लग रहा था कि पत्र का एक-एक शब्द जैसे कुएं में गिर पड़ी बाल्टी को निकालने वाला अनेकमुखी काँटा हो गया है. गुडुप-गुडुप के साथ सारे कांटे उसके हृदय में हड़कम्प मचाए हुए थे. यादों की अनगित बाल्टियों को वे एक साथ खींचकर बाहर निकाल लेना चाहते थे. उसकी आत्मा को खींचकर बाहर निकाल लेना चाहते थे. बच्चों की जिद और पत्नी की तुनकमिजाजी व तकरार के बावजूद वह खुशी और उमंग में भरकर गाँव में मन से होली मनाने के लिए झाँसी से दो दिन पहले चल दिया था.
घर पहुंचने से पहले रास्ते में मिले तीन-चार लोगों से उसकी दुआ-सलाम जिस अंदाज में हुई थी, उससे उसे एक झटका लगा था. क्या इन लोगों ने उसे पहचाना नहीं? इतनी हौंस से की गई नमस्ते का इतना रूखा-रूखा उत्तर क्यों मिला? निन्नाेमी चाचा, सुमेरू ताऊ, केसरी बाबा ने रुककर रुककर उससे बातें क्यों् नहीं कीं, हालचाल क्यों नहीं पूछा? वे शायद ज्यादा दिन में गाँव आने पर इस तरह अपनी नाराजी प्रकट कर रहे हैं. पहले भी बड़-बूढ़े पढ़े-लिखों और बाहर नौकरी करने वाले लड़कों पर बदल जाने, बिगड़ जाने, गाँव को भूल जाने का आरोप लगाया करते थे. वे अक्सर चिढ़ा करते थे नये जमाने के लड़कों की इस बात पर कि वे या तो तीज-त्योहारों पर गाँव आते ही नहीं हैं और यदि आते हैं तो घर घुसरे बनकर दो-तीन दिन गाँव में बिताकर शहर लौट जाते हैं. बचपन में उसे ऐसे लड़कों पर बड़ा गुस्सा आया करता था. आज वह उन आरोपों के घेरे में स्वयं को खड़ा पा रहा है. वह भी नौकरी के बाद गाँव के पर्वो-उत्सवों से निरंतर दूर होता चला गया है. इसके लिए वह किसे दोष दे— गाँव से इतनी दूर मिली नौकरी को, आर्थिक विवशता या पारिवरिक व्यस्तता को अथवा पत्नी की अनिच्छा और बच्चों के भविष्य से जुड़ी चिंताओं को? उसका कितना मन है कि उसके बच्चे गाँव की होली देखें, गाँव में दीपावली मनाएँ. वह मानता है कि उसकी गलती है. उसे हर वर्ष गाँव आना चाहिए. इसीलिए रास्ते में रुककर उन लोगों ने उसकी कुशलता नहीं पूछी. ठीक है, उसकी गलती है, पर उन लोगों को रुककर अपनी नाराजी तो प्रकट करनी चाहिए थी न! खुशी की गठरी की गाँठ कुछ ढीली होती दिखाई दी थी उसे. झटके के साथ जैसे उसमें से कुछ बिखरकर गिर गया था.
घर पहुंचकर वह अपनी खुशी परिवार के प्रत्येक सदस्य के समक्ष प्रकट कर चुका था. अपने प्रति परिवारी जनों का स्नेह, उत्साह और उल्लास देखकर उसका मन अंदर तक भीग गया था. बहू-बच्चों को बिना लिए आने की अपने माँ-बाप की शिकायत अनेक मजबूरियाँ गिनाकर उसने बेअसर कर दी थीं, पर मन ही मन बीबी-बच्चों को याद करके वह उस समय कुढ़ रहा था. अंधेरा होने में देर थी इसलिए उसने गाँव में घूम आना जरूरी समझा. मोहल्ले की चारों-पाचों भाभियों व बराबर के कुछ मित्रों को स्वयं जाकर आने की सूचना देना उसे आवश्यक लगा, उसका मन किया कि वह चलकर यह देख आए कि उसके गाँव की होली पहले से कितनी ऊँची रखी जाती है. कपड़े बदलकर वह ज्यों ही बाहर जाने को हुआ, पिताजी ने मना करने के ढंग से सुझावपूर्ण प्रश्न किया—‘हारा-थका आया है. आराम कर. घर में बैठकर बातें कर. कहाँ चल दिया आते ही?’
प्रतिबंधात्मक यह प्रश्न उसे अच्छा नहीं लगा. वह घर में बैठकर होली की रात बिताने के लिए तो गाँव नहीं आया. उत्तर देने के लिए उसने कह दिया—‘जरा दिल्लीब वाली भाभी और नरेंद्र तथा रमेश के यहाँ अपने आने की खबर कर आऊँ. उधर से लौटते में चौराहे पर रखी होली देखता हुआ लौट आऊँगा पिताजी! देखना चाहता हूं कि हमारे सामने से अब कितनी बड़ी होली रखी जाती है गाँव में.’
पिताजी के चेहरे पर एक खिंचाव आया था. उन्हें जैसे मालूम था कि वह यही कहेगा. उसका उत्तर देने को शायद वे पहले से तैयार बैठे थे—‘तू बहुत दिन में गाँव आया है. इसीलिए कह रहा हूँ कि पहले गाँव के हाल-चाल जान ले. जा, हाथ-मुंह धोकर पहले खाना खा ले. फिर सब बता दूंगा तुझे एक-एक करके.’
मना करने पर उस समय जाना पिताजी की पीढ़ी के लोगों को खुलेआम अपनी बेइज्जती के अलावा शायद कुछ और न लगता. इसलिए उसने अपनी छटपटाहट दबाकर जाने का इरादा बदल दिया. उसने तब यह नहीं सोचा था कि बेमन बदला वह इरादा बाद में उसका मन ही बदल देगा. खाना खा चुकने के बाद पिताजी ने पूरे घर के सामने अपनी दास्तान शुरू कर दी थी. शुरू में वह चौंका था, सहमा था, दुखी हुआ था. इसीलिए बीच-बीच में सच, क्या, कैसे, क्योंौ जैसे कुछ शब्द पिताजी पर फेंकता रहा था. यथावसर माँ, बहिन और भाई द्वारा अपनी-अपनी तरह से पिताजी के कथनों की पुष्टि किए जाने से उसने मान लिया था कि वे जो कह रहे हैं, सच कह रहे हैं. वह सच इतना वजनी होता जा रहा था कि धीरे-धीरे उसे यकीन होने लगा कि दास्तान सुनाने वाले उसके पिता नहीं हैं और वह दास्तान उसके गाँव की दास्तान नहीं है—’तीन-चार साल से अपने गाँव का हाल अब बहुत खराब हो गया है बेटा! होली-दीपावली घर में बैठकर मनाने के त्योहार रह गए हैं! तू दिल्लीह वाली भाभी के यहाँ जा रहा था? उसके घर से बटिया वाली जमीन के चक्कर में हमारी मुकदमेबाजी हो चुकी है; आवाजाही बिलकुल बंद है. रमेश ओर नरेंद्र पाँच-छह साल से गाँव नहीं आए. तुझे मालूम नहीं है, रमेश की माँ और बहू में मारपीट होने के बाद से गाँव से उसने नाता तोड़ लिया है. अपने बाप की गलत आदतों और कर्ज करते जाने के कारण नरेंद्र ने कभी गाँव न आने की कसम खा ली बताते हैं. अब होली आती है, तो कोई न कोई दंगा-फसाद कराके जाती है. तीन-चार साल से गाँव के ज्यादातर लोग अपने घर पर रहकर राम-राम जपते हुए होली बिताते हैं. हर होली पर कुछ न कुछ हो जाता है. तीसरी साल है तब लोधे और जाटवों में बच्चों की बातों को लेकर इतनी ठन गई कि कइयों के सिर फूटे, दस-बारह लोग जेल गए. पारसाल श्यामा बनिए ने सात-आठ लोधों के खेतों को अपने टयूबवेल का पानी देने से मना कर दिया सो उन्होंने लाठियाँ उठा लीं. महीनों कोर्ट-कचहरी और थाने के चक्क र लगाए बीसियों आदमियों ने. इस साल भी लग नहीं रहा कि होली खाली निकल जाएगी. जाटव बनियों की तरफ हो गए हैं. दो-तीन महीने से रोज होली के दिन के लिए चैलेंज दे रही हैं दोनों पार्टियाँ एक दूसरे को. पारसाल होली बढ़ाने के लिए जाटवों के पेड़ काटकर लाने के चक्कर में खूब कहा-सुनी हुई. पुलिस को खिलाना पड़ा तब मुश्किल से धोल-थप्पड़ तक ही बात रुकी. इस साल उसी डर और जिद से लोगों ने अपने बच्चों को होली बढ़ाने के लिए घरों से निकलने नहीं दिया है. तुझे मालूम है कि नहीं, अब एक नहीं तीन होलियाँ रखी जाती हैं अपने गाँव में. एक लोधों की, एक जाटवों की और बाकी जातियों की एक अलग उस पुरानी वाली जगह पर. किसी से सही बात कहने का धर्म नहीं रहा अब. चुप रहकर भी गाँव में रहना दूभर हो गया है.’ पिताजी सुनाते रहे थे, वह हाँ-हाँ, हूँ-हूँ करते सुनता रहा था. उसका सिर भन्नाने लगा था. बाहर घूमने जाने का उत्साह ठंडा पड़ चुका था. वह चाहने लगा था कि उसे जल्दी नींद आ जाए. जमुहाई लेते हुए उसने पिता से पूछा था—‘होली में आग कितने बजे लगनी है?’ —अब क्याँ कोई टाइम देखकर आग लगती है? जब जिसका मन आता है, आग लगा आता है. जब खेरापत आग लगाता था, तो पत्रे में देखकर टाइम से लगाता था. अब तो जब कोई लगा दे. नींद खराब न हो लोगों की इसलिए सबेरे के टाइम आग लगाना चाहते हैं सब आज-कल. तुझे जमुहाई आ रही है. तू आराम से सो. थक गया होगा.
—थोड़ी-बहुत देर में जौ देने वाले आएँगे, तब जगना पड़ेगा. इसलिए सोचता हूँ अभी हम लोग बातें ही करते रहें.
—तू तो निरा पागल है. तेरी समझ में नहीं आया अभी? तू आराम से सो. कोई नहीं आ रहा तुझे जगाने. तू पिछली सी बातें लिए ‘घूम रहा है. दो-तीन साल से रात में कोई किसी के यहाँ जौ देने नहीं आता. घर-खानदान वाले सुबह दिन निकलने पर एक-दूसरे को जौ दे-ले लेते हैं. घर में से रात को कोई एक आदमी होली में आग लगने पर चला जाता है. बाल भून लाता है. कंडे पर जरा-सी होली की आग ले आता है. उससे औरतें घर में रखी होली जला लेती हैं. थोड़ी देर गुनगुना लेती हैं. आधे घंटे में सब खत्म. फिर सब सोओ या रखवाली करो घर की, बाल-बच्चों की. तू चैन से सो. दो-चार मिलने-जुलने वाले आए भी तो मैं हूँ. मैं सब सम्भाल लूंगा.’
पिताजी वहाँ से उठकर चल दिए थे. नींद उसे आ नहीं रही थी, जगना वह चाह नहीं रहा था. क्या सोचकर आया था? क्या देख-सुन रहा है? उसे अच्छी तरह याद है बचपन में रात-रातभर घर से गायब रहकर होली बढ़ाने जाने के लिए वह पिताजी से पिटा है. कभी किसी का छप्पर, तो कभी किसी की पूरी की पूरी गाड़ी लाकर होली पर रख देने के लिए मोहल्ले के अनेक लड़कों के साथ वह गालियाँ खाता रहा है. न लड़ाई का डर, न फौजदारी का. कितने अलमस्त हो जाते थे सब उन दिनों में. अलग-अलग मोहल्लों और उम्रों के लड़के चीखते-चिल्लाते आनन-फानन में बड़े से बड़ा पेड़, छप्पर, बाजरे, अरहर आदि की गड्डियाँ खींचते-उठाते रात-रातभर दगड़ों पर घूमा करते. पूरा पहाड़ बना देते होली को.
आसपास के गाँवों में सबसे बड़ी होली होती थी अपने यहाँ. जब रमुआ काका होली गाते, तो लोग सुध भूलकर नाचने लगते. महीनों पहले से योजनाएँ बनती थीं कि कहाँ क्याम करना है? जो जितना अधिक चिढ़ता या गालियाँ देता, उसे उतना ही अधिक तंग किया जाता. हुलासी लोधा रातभर चौकीदारी करता था अपने घर की, फिर भी गोबर-टट्टी भरी चार-पाँच गागर उसके यहाँ जरूर फूटतीं. मवासी की गाड़ी उठाकर लाने के लिए रातभर आँख-मिचौली होती रही लड़कों की उससे. मवासी की पूरी चौकसी के बावजूद इधर होली में आग लगी, उधर मवासी के घेर में से गाड़ी गायब. कानी सुखिया सबसे ज्यादा गालियाँ देती थी, इसलिए उसके यहाँ कम से एक सप्ताह पहले से घड़े फोड़ने शुरू कर दिए जाते. घड़े इकट्ठे करने वाली टोली अलग थी, उनमें गोबर-मिट्टी भरने वाली अलग. कुछ फुर्तीले, होशियार व साहसी लड़कों का काम छिप-छिपाकर निश्चित स्थान पर जाकर घड़े फोड़ना हुआ करता था. साथ गई भीड़ का काम होता था, घड़ा फटने की आवाज के साथ एक स्वर से कहना—बोल होरिका मैया की जय. जयकारे को सुनकर लोग समझ लेते थे कि कहीं कुछ फेंका या फोड़ा गया है अथवा कहीं से कुछ उठाकर ले जाने में सफलता मिल गई है.
होली में बालें भूनकर घर-घर जाकर जौ दिए जाते. बड़ों के लोग पैर छूते, हमउम्रों और मजाक वाले रिश्तों के साथ मनमाने ढंग से मिलते-लिपटते. सुबह दस बजे से होली गायकों की टोली के साथ ढोलक-ढप और मृदंग की थापों पर नाचते-गाते पूरे गाँव की यात्रा होती. एक वर्ष के बीच जिन घरों में किसी की मौत हो जाया करती, हर व्यक्ति उनके घर जाकर सांत्वना देता, सम्वेदना प्रकट करता. चौपाइयाँ सोग उठाने आती. बड़े-बड़े घरों के दरवाजे पर टेसू के फूलों का रंगीन पानी घड़ों-नादों में भरा तैयार रहता. गरीबों के बच्चे पशुओं को दवा पिलाने वाली नाल का उपयोग पिचकारी की तरह और नालियों-गड्ढों के पानी का उपयोग रंग की तरह करके चहक लेते, मचल लेते. बड़े कहे जाने वाले घरों की होली दोपहर तक खत्म हो लेती. छोटे माने-जाने वाले वर्गों और घरों में दो दिन तक गोबर, कीच, मिट्टी की फेंका-फेंकी चलती रहती. पुरुषों के पीछे पकड़ने को भागती औरतें, उनसे बचने के लिए दौड़ते पुरुष और फिर कीचड़ में धरे जाने और मुक्ति पाने के लिए होने वाली धींगामुश्ती! विचित्र आत्मीयता, जोश और विश्वास चारों ओर दिखाई देता.
गाँव में पहली बार होली खेलने आने वाला कोई जमाई या समधी सहज सुलभ माध्यम बन जाया करता था गाँवभर की औरतों के लिए मनोरंजन का. उनसे कुआँ पुजवाया जाता, उन्हें हँसी ठिठोलियों के बीच नचाया जाता. उस दिन न जेठ का लिहाज रहता, न ससुर का भय. फागुन जेठों को देवर बना देता था. सासों से ननद की तरह ठिठोलियाँ चला करतीं. नथिया की माँ और सुमेरा की दादी से पूरा गाँव घबराता था. वे जिधर निकल पड़तीं, लोग भागने लगते. होली के दिन वे जान-बूझकर मनचाही गालियाँ बकतीं. जिसे सामने देखतीं मिलकर उठाकर रख देतीं तुरंत नाली में. लम्बी-चौड़ी, हट्टी-कट्टी काया थी उसकी. उनके सामने न कोई हिन्दू था न मुसलमान, न बनिया था न ब्राह्मण, न जाट था न जाटव, न लखपति था न टहलुआ. गाँव के मुसलमान, उनके बच्चे कई-कई दिन साथ नाचते, साथ घूमते, साथ होली खेलते. वर्षभर के मनमुटाव और कहासुनी को लोग होली के नाम पर पल में भूल जाते. सोचते-सोचते उसका मन भीग आया. क्या इस वर्ष उसे वह सब देखने को नहीं मिलेगा? वह सब नहीं तो वैसा कुछ देखना-सुनना क्या उसे नसीब नहीं होगा? वह नींद के लिए करवटें बदलने लगा.
सुबह आँख खुलने पर उसने जाना कि उसे नींद आ गई थी. रात में कब होली में आग लगी, होली के भजन किसने कितनी देर गाए, कौन घर आया, किसने किसको जो दिए, कहाँ गागर फूटी और कब उसे नींद आ गई, उसे कुछ भी नहीं मालूम. माँ घर की सफाई कर रही थीं और बहिन चौके में बैठी परात में आटा माड़ रही थी. पिताजी दरवाजे पर बोरी डालकर बैठे हुए कुछ बड़बड़ा से रहे थे. उसे देखकर उन्होंने छोटे भाई की शिकायतों का अपना पुंलिदा जैसे खोल दिया था—‘इसे तू अब अपने साथ ले जा. वहीं पढ़ लेगा. यहाँ के लड़कों की संगत में यह दिन पर दिन बिगड़ रहा है. कल से पहरेदारी कर रहा हूं. जरा आँख बचते ही भाग गया. अब बोतलों वाली पार्टी में पहुंचकर होली मना रहा होगा. उसने हमारी नाक काटकर रख दी है. दो साल से लगातार फेल हो रहा है. लड़कों के साथ स्कूल से सिनेमा देखने जाना फिर भी नहीं छोड़ता. परसाल शराब पीकर इसने प्रधान के गले में जूतों की माला डाली थी, उसे भीड़ के सामने माँ-बहिन की गालियाँ दी थीं. जैसे-तैसे बला टाली थी अपने ऊपर से. अब फिर निकल गया. जरूर कुछ रासा करके लौटेगा. तू कुछ डाँट-डपट करके देख ले. शायद कुछ समझ में आ जाए!’ वह नहीं समझ पाया था कि पिताजी को क्या कहकर आश्वस्त करे. उसे अपने पिता के चेहरे पर से मलाल की पर्त की पर्त उतरती दिखाई दीं. उनके चेहरे पर एक विकृत, दीन विद्रुप दिखाई दिया. किसी अज्ञात पंजे की उंगलियों की शक्ति का दबाव, उनकी कसमसाहटयुक्तस खरोंच की क्रिया का तकलीफदेह अहसास उसके ह्रदय को उस समय हुआ. गाँव आने के अपने निर्णय पर अब उसे क्षोभ हो रहा था. अपने मन को मजबूत करने के लिए उसने अपने आपसे कहा—‘अब आया है तो जो-जैसा है सब देखना होगा, सब झेलना और जीना होगा.’
अपने कुनबे और खानदान में जहाँ अभी आना-जाना बना हुआ था, उन घरों से एक-एक व्यक्ति पूरे घर की तरफ से उसे और पिताजी को जौ देने आया था. उसी समय गुलाल लगाकर आने वाले लोग जल्दी-जल्दी गले मिल गए थे, पैर छू और छुलवा गए थे. गाँव के कुछ बड़े-बड़े, जिनका मन बिना आए नहीं माना होगा या जो होली का अर्थ पहले की तरह ही जानते होंगे, अपनी चिंता, अपना अफसोस गले मिलकर बुढ़ियाती आँखों का पानी बरसाकर, जल्दी लौटने की मजबूरी का दोष जमाने के बदलने को देते हुए वापस जा चुके थे. तभी ढोल-नगाड़ों की आवाजें उसके कान में पड़ीं. इसका मतलब है लोग गाँव में मिलने को निकलेंगे. होली शुरू हो रही है. उसने राहत की साँस ली.जिन्हें नहीं जाना, न जाएँ, वह जरूर जाएगा. नाचती-गाती टोली में अपने को मिला देगा. इस तरह अलग पड़े रहकर, सुने के आधार पर मन में कुढ़ने से होली के आनंद से वह वंचित रह जाएगा. उसे पूरा आनंद लेने के लिए स्वयं को गाँव की धारा में मिलाना होगा. आँगन में बैठे हुए पिताजी कमरे में नशे में पड़े भाई की बड़बड़ाहट सुनते हुए अपने भाग्य और जमाने को कोस रहे थे. होली शुरू होने की आवाजें उन्होंने सुन ली होंगी, तभी वे फिर से दरवाजे पर आ जमे थे. डरे-सहमे उसे हिदायतें दे रहे थे—’देख ले जिनके दिलों में अभी लगाव है, वे हुड़दंग से पहले ही आकर मिल गए. मैं तो सूरज निकलते ही मिल आया गाँव में जाकर. सब एक से हो जाएँ तो कैसे दुनिया चले? चलने की ताकत नहीं, शरीर साथ नहीं देता फिर भी आए बिना रह तो नहीं सके परसादी चाचा और गाड़ी वाले बाबा. अब बता वे अपने हैं या तेरा चाचा अपना है जो बगल में से यहाँ मिलने नहीं आ सका. हाँ, एक बात सुन, दरवाजे पर मेरे साथ खड़े रहना. जो अपने आप मिले-बोले, उससे मिल लेना. अपनी तरफ से ज्यादा उतावले मत बनना. और हाँ, होली मंडली के साथ गाँव में अंदर घूमने मत जाना. जो यहाँ आएँ, उनके गुलाल लगा देना. पता नहीं कब क्या बवाल उठ खड़ा हो?’ वह तंग आ चुका था इतने सारे नियमों-प्रतिबंधों को आज के अवसर पर सुनकर. ‘बोल होरिका मैया की जय’ की आवाजें सुनकर वह फिर उद्वेलित हो उठा था.
झटपट कपड़े बदलकर वह दरवाजे पर पिताजी की बगल में खड़ा हो गया था. सामने जहाँ तक उसकी दृष्टि गई, मुहल्ले वालों को उसने चेहरों पर भय, आशंका और तनाव ओढ़े हुए अपने-अपने घरों के दरवाजों पर मातमी मुद्रा में खड़े पाया. वह समझ नहीं पाया. सोचने लगा कि वे लोग मिलने आने वालों की प्रतीक्षा कर रहे हैं या घरों की सुरक्षा में खड़े किसी बला टालने की प्रार्थना. लोगों के चेहरों पर गुलाल की जगह भय ओर आशंका पुती क्योंा दीख रही है? होली वाले अभी थोड़ी दूर थे. पिताजी पास न खड़े होते, तो वह दौड़कर उनमें शामिल हो गया होता. उसने तय कर लिया था कि पिताजी को भला लगे या बुरा, वह होली वालों के साथ गाँव में घूमने अवश्य जाएगा. होली वाली भीड़ सामने चौराहे पर आकर नाचने-कूदने लगी थी. रंग-बिरंगी टोपियाँ सिर पर लगाए, सफेद-काले रंगों से मुँह पोते हुए लड़कों का एक झुंड एक-दूसरे के गले में हाथ डाले मटक रहा था. किसी के गले में टूटे घड़े की गर्दन लटक रही थी, किसी के गले में जूतों की माला. कुछ बच्चे आगे-पीछे खड़े थे. दो-चार बड़े-बूढ़े उस नाच मंडली से जरा अलग हटकर खड़े थे. किसी के हाथ में न पिचकारी थी, न गुलाल. कोई किसी से न गले मिलने को आतुर दिखे रहा था, न पैर छूने को तत्पर. ढोलक बजाने वाले ने गीत शुरू किया था—हाय राम नथनियाँ ने हाय राम, बड़ा दुख दीना’ पूरा झुंड़ एक साथ ‘हाय राम हाय राम’ करते-करते ज़मीन और नालियों से मिट्टी व कीचड़ उठाकर ऊपर उलीचने में व्यस्त, ‘बोल होरिका मैया की जय’ का सामूहिक उद्घोष करता जा रहा था.
‘देख लिया इन साले गंदे नशेबाजों को? भगवान खैर करे! श्यामा बनिए के घर से राजी-खुशी आगे बढ़ जाएँ तब है.’ पिताजी के खीझ भरे स्वर ने उसके सम्मोहित मन को जमीन पर ला पटका. ये गाने और बजाने के लिए कौन-कौन को बुला लिया गया है? रमुआ काका, होती चाचा, सुंदरा जाटव, पन्नाी धोबी और ननुआ कोली क्यो नहीं दीख रहे कहीं गाते और ढप-ढोल बजाते हुए? ये लड़के ढोलक-नगाड़े पीट-पीटकर होली की जगह क्या गा रहे हैं? गा क्या घिघिया रहे हैं? इनकी आवाज और कदम लड़खड़ा क्यों रहे हैं? अरे वह गिर कैसे गया? उसने अपने ऊपर ही उल्टी कर ली! वह उन चेहरों में से किसी को पहचान नहीं पा रहा. किस-किसके लड़के हैं ये? उसे मतली आने को हुई. उसने अपनी पहल पर वहाँ से हट जाना चाहा, परंतु पिताजी ने हाथ पकड़कर उसे रोक लिया. वह जानना चाहता था कि कुछ वर्षों में उसके गाँव के लोगों को आखिर हो क्या गया? नशा तो होली पर पहले भी कुछ लोग करते थे, पर केवल भाँग का या माजूम का. नशा ज्यादा चढ़ जाता था, तो ऐसे चौराहों पर नाचते-दिखाते नहीं घूमते थे. बड़े-बूढ़ों के सामने भी नहीं पड़ते थे. यह पूरी की पूरी मंडली किस शान और अभिमान से नाच-मटककर होली मनाने का दायित्व निभा रही है? क्याा इन्हें किसी का भय या लिहाज नहीं रहा? अब होली मनाने का ढंग बदल गया है शायद. आगे और भी बदले नए ढंग से होली मनाएँगे क्या अब लोग?
भीड़ आगे बढ़ती आ रही थी. उनके आगे बढ़ने के साथ-साथ लोग दरवाजा बंद कर अंदर होते जा रहे थे. माँ-बहिन की कुछ गालियाँ देकर दो-तीन लड़के हर दरवाजे को खुलने का आदेश देते. दरवाजा न खुलने पर दो-चार लात-घूँसे दरवाजे पर पड़ते और फिर—‘हाय राम हाय राम नथनियाँ ने.. बोल होरिका मैया की जय!’ भीड़ इधर आ रही है. अब पिताजी क्या करेंगे? वह क्या करे? उसके घर के सामने आकर भी क्यार ऐसे ही गालियों और धक्कों से उपकृत किया जाएगा. घबराहट में उसने पिताजी के कान में फुसफुसाकर पूछा था—’किस-किसके लड़के हैं ये पिताजी?’
—एक के हों तो नाम बताऊं! सब लोफर हैं, बदमाश हैं. प्रधान दो-तीन मेम्बरों को लिए आगे-आगे उल्टियाँ करता चल रहा है. लाज-शर्म और मिलना-जुलना गया भाड़ में, अब तो नशाखोरी और नंगई रह गई है बस. सब साले जान-पूछकर लड़ाई मोल लेने को घूम रहे हैं.
—इन्हें कोई समझाकर मना क्यों नहीं कर रहा?
—जो अपने माँ-बाप पर जूते उठा लें, उन्हें कौन क्या समझाएगा? दो मिनट में किसी की भी इज्जत धूल में मिलाने को तैयार घूमते हैं. उधर देख, बुंदा के घर के सामने क्या हो रहा है? उसकी बीबी और लड़की का नाम लेकर बक रहे हैं. अब यही पढ़ाई-लिखाई रह गई है. इनसे तो वो लाख गुना अच्छे हैं, जो पढ़-लिखकर बाहर चले गए. गाँव में आते हैं, तो चुप घर में तो पड़े रहते हैं. ये ससुरे पढ़ें न लिखे. गाँव की हर बात में मूड़धुसेड़ी जरूर करेंगे. बड़े-बूढ़ों को दूध में से मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया है. इन लोगों की तादाद खूब बढ़ रही है. किसी की सुनना नहीं, मानना नहीं. सत्रह-सत्रह, अठारह-अठारह साल के पढ़े-लिखे लड़कों का गाँव में एक गैंग बन गया है. वैसे गाँव में जाटवों, लोधों, बनियों की अलग-अलग पार्टी हैं, पर इनकी पार्टी में सब जातियों के लड़के हैं. शराब, चोरी, डकैती के नाम पर इनमें जबरदस्त एका है. मुंह खोलते ही मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं. लोग चुप सहकर जैसे-तैसे अपनी इज्जत इनसे बचाए घूमते हैं.
भीड़ श्यामा बनिए के घर के सामने आकर रुक गई थी. गालियों के साथ उसके फाटक पर ईंट-पत्थर फिंकने शुरू हो गए थे. श्यामा को बाहर निकालने के लिए धमकियाँ दी जा रही थीं. काफी देर के हुड़दंग के बाद भी जब अंदर से कोई आवाज न आई, तो उनका गुस्सा बढ़ता जा रहा था. लड़खड़ाते-मटकते, गालियाँ बकते वे फाटक पर कीच-मिट्टी फेंक रहे थे, धक्के दे रहे थे—’निकल साले बनिए की औलाद! आज आ निकलकर सामने! तेरी माँ…. तो हमारा नाम नहीं. आज देखें तेरी खक्का साही. अब साले क्योंद भीगी बिल्ली बनकर अपनी लुगाई के पेटीकोट में दुबक रहा है? लगाओ साले के फाटक में आग! तब तो निकलेगा?’ ही-ही करते हुए कुछ लड़कों ने सचमुच फूस में माचिस दिखाकर फाटक को जलाना शुरू कर दिया था. उसका मन हुआ कि वह जाकर रोक दे. पर वह साहस न कर सका. ये लड़के उसे पहचानते भी तो नहीं हैं! गाँव के बड़े-बूढ़े घरों में छिपे बैठे थे, दूर-दूर खड़े थे! वह क्याय करे? पुलिस आ सकती तो यह दंगा रुक सकता था. कहाँ से लाए वह पुलिस? दो किलोमीटर दूर पुलिस चौकी से कौन बुलाकर लाए पुलिस को? यह शहर तो नहीं कि पुलिस खुद दौड़ी आए. यहाँ खबर करो पहले और फिर पता नहीं वहाँ सिपाही तैयार हों भी या नहीं. होते ही कितने सिपाहीं हैं गाँव की एक पुलिस चौकी पर? पुलिस जब तक आएगी, तब तक तो यहाँ क्या से क्या हो जाएगा? जरा तूल पकड़ते ही बहुत लोग मर सकते हैं, बहुत कुछ राख हो सकता है.
श्यामा की छत से एक साथ ईंटों की बौछार शुरू हो गई थी. एक दो कट्टे की आवाज भी सुनाई दी थी. देखते-देखते ही, आसपास की कुछ झोपाड़ियों से आग की लपटें ऊंची उठ-उठकर धुआँ उगलने लगी थीं. भगदड़ मच गई थी. चीख-पुकार होने लगी थी. अफरातफरी फैल गई थी. पिताजी उसे धकेलते हुए साथ लाकर दरवाजा बंद करके घर के अंदर आकर बैठ गए थे. वे हाँफ रहे थे, हकला रहे थे—’हम तो जानते थे राजी-खुशी नहीं बीतेगा आज का दिन. आज के लिए महीनों पहले से चैलेंज दिए जा रहे थे. दोनों ओर से तैयारियाँ हो रही थीं. कौन समझाए-रुकवाए अब? पहले आँखों का लिहाज था, बड़े-बूढ़ों की शर्म थी. प्रधान और मेम्बरों की बात मानी जाती थी. अब जब प्रधान और मेम्बर डकैत और शराबी हों, गुंडों के सरगना हों तो कौन रोके इन्हें? जो कायदे की बात कहेगा, आग बुझाने की कोशिश करेगा वह पिटेगा या उसका नाम रिपोर्ट में लिखा दिया जाएगा.’
वह हतप्रभ, निश्चेष्ट-सा सिर थामकर जमीन पर बैठ गया. माँ और बहन होली के दिन चैन से खाना तक न खाने के लिए बिना किसी का नाम लिए पूरे गाँव को कोस रही थीं. बार-बार दरवाजे की दरारों में से झाँककर देखते हुए लौट-लौटकर उन ‘मस्तीमारों’ को अगली होली न आने की दुआ कर रही थीं. अच्छा ही हुआ जो उसके बीवी-बच्चे साथ नहीं आए. वे यहाँ आकर क्या करते? यही सब देखते-सुनते! उफ! अब वह क्याट करे? आकाश में उठते धुएँ के बादलों, तड़ातड़, चटाख-चटाख, चट-चट की आवाजों को देख-सुनकर पिताजी फिर दरवाजे की ओर दौड़े थे. दरवाजे को जरा-सा खोलकर उन्होंने डरते-सहमते बाहर झाँका था. वह उनसे सटकर जा खड़ा हुआ था. ईंट-पत्थरों, धूल, धुआँ और आग के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. आवाजें इतनी गड्डमड्ड हो गई थीं कि केवल एक शोर बनकर सुनाई दे रही थीं. वह रात में अपने गाँव की होली का कुछ भी न देख पाने के कारण दुखी था. अब दिन में होलिकोत्सव का समग्र और चरम रूप अपनी आँखों से देखकर बेहद व्यग्र और चिंतित था. काँपता-कसमसाता वह दहन, नृत्य, गान की खुलकर खेली जा रही होली को एक ही समय में एक ही स्थान पर देख रहा था. वह अपने आप से पूछ रहा था—क्या उसका गांव इस दहन द्वारा अपनी कोई परीक्षा दे रहा है? वह दहन परीक्षा में क्या उत्तीर्ण हो सकेगा? आखिर ये ऐसी ‘अग्नि परीक्षाएँ’ कब तक ली जाती रहेंगी? उसे हिरण्यकश्यपों के समूह आँखों के सामने हा-हा, हू-हू करते उछलते दिखाई दिए. उसे लगा जैसे हिरण्यकश्पप की वंश-बेल पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ रही है.
प्रह्लाद की वंश-बेल को बढ़ने से कौन रोकता रहा है? प्रह्लाद के वंशजों समर्थकों की नियति दांतों के बीच रह रही जीभ की तरह की क्योंल होती है? अपने-अपने घरों में बंद प्रह्लाद के वंशज किस घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे हैं? उस यातनाप्रद क्षण में उसने अपने अंदर से किसी को बुदबुदाते सुना-जब तक प्रह्लाद के समर्थकों, अनुयायियों का घरों में छिप-दुबककर बैठना जारी रहेगा, तब तक प्रह्लाद को जबर्दस्ती अग्नि में झोंककर परीक्षा लेने की कहानियाँ बार-बार, एक-एक दिन में कई-कई बार दुहरती रहेंगी?’ वह सिटपिटाया-सा दरवाजे से हट गया.
अंदर पड़ा भाई कुछ बड़बड़ा रहा था. अपनी, पिताजी की, माँ और बहिन की हालत देखकर उसे लगा जैसे सब किसी नशे में धुत हैं. घर के अंदर और बाहर उसे सब नशे में गर्क, उन्माद में अंधे हुए दिखाई दिए. क्या किसी ने इस हवा में भाँग मिला दी है? जो भी साँस ले रहा है उसे जुनून चढ़ रहा है, उन्माद हो रहा है या मूर्च्छा छा रही है. वह अपने मन को स्थिर कर निर्णय लेने को तैयार करने लगा.
पिताजी दरवाजा बंद करके उसके कंधों पर हाथ रखकर फुसफुसाहट के साथ गिड़गिड़ाते बिफर उठे थे—’बेटा दोनों ओर से पूरी तैयारियाँ चल रही थीं महीनों से. मैं तभी कह रहा था आज जो न हो जाए वह थोड़ा है. अब रिपोटा-रिपोटी होगी. पुलिस आएगी. मुकदमे चलेंगे. झूठे-सच्चे नाम लिखाए जाएंगे दोनों ओर से. बेटा शाम के बाद बस चलनी शुरू हो जाती हैं. देख तू कुछ और मत सोचना. मैं चाहता हूं तू फौरन यहाँ से चला जा. किसी ने तेरा नाम लिखा दिया, तो हमारे साथ तेरा भी मरना हो जाएगा. तेरी नौकरी पर न आ बने कहीं. इसलिए तू फौरन यहाँ से चला जा बेटा. हम पर जो बीतेगी हम झेलेंगे. हमें तो आदत पड़ गई है अब.’
पास खड़ी माँ और बहन ठगी-सी गुमसुम पिता-पुत्र दोनों को देख रही थीं. वह अपने शरीर को करीब लाने के पिता के कंपते हाथों की भयभीत उत्कंठा देख रहा था, उनकी आँखों से बूंद-बूंद टपकती दुश्चिंता को देख रहा था. घर-बाहर सब तरफ चिंगारियों, लपटों और धुएँ के बीच उसे कितनी ही तरह के रंग राख होते दिखाई दे रहे थे.
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