कहानी | मौत से पहले की क़यामत

बहुत सालों से यह सिलसिला जारी है. इन दोनों बच्चियों के जन्म से भी पहले से. अगर हम लोग शहर में हैं तो हमें शाम को साथ बैठना ही है. अरुण जी के घर पर रोज़ घंटे-दो घंटे एक दूसरे के घर परिवार की, दुख दर्द की बातें सुन लेना, सुना देना. चाय-पानी के साथ तरह- तरह की बहसों-चर्चाओं में उलझे रहना. बाद में धीरे-धीरे घर के अन्य लोग भी हमारी बैठकी में शामिल होते गए थे. थोड़े और बाद में अरुण जी के साथ ऊपर वाले एक हिस्से में रहने वाले रिटायर्ड इंजीनियर साहब और उनका परिवार भी शामिल हो गया. अरुण जी के घर जाने-मिलने-बैठने का अर्थ तब से एकदम बदल गया जब इंजीनियर साहब के यहां उनकी नातिन का जन्म हुआ. चार-पाँच महीने की ही हो पाई थी वह तब. हम लोगों के बैठते ही उसे हमारे पास पहुँचा दिया जाता. तब अरुण जी के घर में कोई छोटा बच्चा नहीं था. उसके आते ही हम लोग चुहिया-सी उसकी काया को गोद में लिए इधर से उधर घुमाते, उसके साथ खेलते हुए अजीब-अजीब आवाजें निकालते रहते. उसके चार साल का होने तक दिन के ज्यादातर हिस्से में वह अरुण जी के घर ही रहती. हमारी शामों पर उसका अधिकार और कब्जा इतना तक बढ़ गया था कि हम उसके अलावा अन्य किसी पर चर्चा ही नहीं कर पाते थे. हमारी शाम के समय में तब तो और भी बदलाव आ गया जब अरुण जी के यहां भी उनकी नातिन आ गई. हमारा सारा समय इन दोनों बच्चियों के साथ गुजरता. अरुण जी की नातिन के बोलना और चलना शुरू करने तक स्थिति यह हो गई कि छोटी का सम्भालो तो बड़ी आफ़त मचा दे और बड़ी पर ध्यान दो तो छोटी घर को सर पर उठा ले. हमारी शाम का सारा समय उनकी शरारतों, शैतानियों, ज़िदों, लड़ाइयों को झेलने और उन्हें समझाने-बहलाने-चुप कराने में निकल जाता. यह ज़रूर था कि उतने समय हम भी बचपन में पहुँच जाते और दिन भर के तमाम-तमाम तनाव-दबाव चुटकी बजाते गायब हो जाते. छोटी तब सुनने-समझने लगी थी. बड़ी की शरारतें, ज़िदें तेजी से बढ़ रही थीं. हम लोगों के बालकनी में बैठते ही अन्दर उन्हें पता लग जाता. दोनों अपनी अकड़-धमक के साथ हाज़िर हो जातीं. जिसकी गोद में पहले आकर जो बैठ जाती दूसरी उसी की गोद में बैठने को लेकर उलझने लगती. कई बार दोनों को एक ही व्यक्ति अपनी गोद में बिठाता. फिर उनका गोद की अदला-बदली का खेल शुरू होता. मेरी गोद में आने के लिए इसलिए भी वे झगड़ने लगतीं क्योंकि मैं उनसे उनके बरावर का होकर उन्हीं की भाषा में बात करता. कभी कोई कहानी, कभी कोई गीत उनसे सुनना या कभी सुनाना और बीच-बीच में उनके उलझ पड़ने पर उनमें जैसे-तैसे समझौता कराना मेरे ही ज़िम्मे था. जल्दी ही उन्होंने मान लिया कि वे बड़ी हो गई हैं. अलग-अलग कुर्सियों पर बैठने लगीं, हमारी तरह चाय पीने लगीं. जो हम खाते वह उन्हें ज़रूर खाना होता. हमें ही नहीं दोनों परिवारों के सभी सदस्यों को वे यह अहसास कराती रहतीं कि वे अब बड़ी हो गई हैं. प्रेप में एडमीशन के बाद तो बड़ी एकदम बहुत बड़ी हो गई. स्कूल से आकर मैम की तरह चलना, बोलना, आदेश देना. उनकी तरह चुन्नी को साड़ी की तरह पहन लेना. बड़ी को देख-देखकर छोटी ओर तेजी से बड़ी हो रही थी. उसके लिए भी कापी-किताब, पेन-पेंसिलें आ गई थीं. बड़ी की तरह वह भी मम्मी से साड़ी पहनने की जिद करती. चूड़ी पहनती, बिन्दी, लिपिस्टक लगवाती. खेलने में झगड़ा होता-मैं डॉक्टर हूँ, तू मरीज़. मैं मैडम हूँ, तू स्टूडेंट. दोनों में से कोई न मरीज बनना चाहता, न स्टूडेंट. झगड़ते-झगड़ते मुँह फुलाए हमारे पास आ खड़ी होतीं—’अंकल, अंकल, ये बताओ कि ये सोनिया बड़ी है या मैं? मैं बड़ी हूँ तो डॉक्टर और मैम में ही तो बनूँगी. तब तक सोनिया जी का पारा इतना चढ़ जाता कि खेल का सामान इधर-उधर फेंक देतीं. रोने लगतीं—“नहीं अंकल बड़े होने से क्या होता है? डॉक्टर-मैम मैं बनूँगी, युक्ति नहीं! दोनों को एक-एक बार डॉक्टर और मैम बनने के लिए मुश्किल से राजी कर पाते हम लोग. घर के लोगों को जब मीका मिलता उनकी हरकतों, उनके चलने, बोलने, कहीं चढ़ जाने या कहीं से कूद जाने की कितनी ही बातें वे बताने लगते. सारे दिन टी.वी. देखने, गानों पर मटकने-नाचने और बाहर के बच्चों से खराब आदतें सीखते जाने की बातें उन्हें सुना-सुनाकर सब बड़े दुखी भाव से करते. ऐसी चर्चा के बीच आज कं बच्चों के तेज़, दुस्साहसी, मुँहफट होने, अपना-पराया करने और अपनी हर बात मनवा लेने की होशियारी का जिक्र जरूर होता. उस दिन सोनिया टी.वी. के पास बैठी कार्टून देखने में मग्न थी. हम लोग उसी के बारे में बातें कर रहे थे. उसके चाचा ने कहा कि सोनिया डॉक्टर बनेगी. मैंने कहा कि नहीं, उसने पहले चन्द्रमा देखा है, यह कलाकार बनेगी. बहस-सी होने लगी हम लोगों में. देवी जी ने कुर्सी घुमाई, बैठे-बैठे गुस्से में बोलीं-‘चुप सब! मुझे जो बनना है बनूँगी. दादी ने पूछा—‘क्या बनोगी?’ तत्क्षण कहा गया— ‘दुल्हन’. दादी ने पूछा किस-किस को बुलाओगी शादी में? बिना रुके दो टूक उत्तर—‘दादी को नहीं…’ ‘क्यों?’ ‘मेरा मन…’ तुरन्त घूमीं और कार्टून देखने में मस्त. दादी खिसियाई-सी हो गई और हम थे कि उनकी बातों, उनके अन्दाजों पर हैरान रह गए-से एक-दूसरे की ओर ताके जा रहे थे.
एक दिन बातों-बातों में पता लगा कि जिस टेम्पो से युक्ति स्कूल जाती है उसी से भावुक भी जाता है. भावुक-यानी कि मेरे छोटे भाई का बेटा. युक्ति अब फर्स्ट में आ गई है और भावुक सेकेंड में है. जब से युक्ति को यह पता लगा कि मैं भावुक का बड़ा पापा हूँ, वह रोज़ अपनी बातों की शुरुआत टेम्पो की किसी ऐसी घटना से करती है जिससे भावुक भी जुड़ा हो. उसके बारे में कुछ न कुछ उसे पूछना है, अपने घर लाने की ज़िद करनी है. निश्छल भावों की ऐसी उज्ज्वल-धवल अभिव्यक्तियाँ कि जिन पर कोई भी रीझ-रीझ जाए. बीच में दो-चार बार यह भी हुआ कि यदि टेम्पो वाला नहीं आया तो एक तरफ से भावुक के पापा दोनों को स्कूटर से स्कूल पहुँचा आए, दूसरी तरफ से युक््ति के पापा उन्हें मोटर साइकिल से घर ले जाए. इस आने-जाने ने दोनों को और करीब ला दिया. जब भी वह भावुक को लेकर कोई बात करती है तो कुछ ज्यादा ही बड़ी बन जाती है. उस दिन न जाने क्याा सूझा कि काग़ज़-पेंसिल हाथ में लिए मेरे कन्धे से टिककर आ खड़ी हुई—’अंकल, पहले यह पकड़िए. मुझे एक लैटर लिखवाना है. मैं बोलती हूँ. आप लिखना…!’ मैं उसका मुँह ताकने लगा—लैटर? लैटर लिखना-लिखवाना अब इतिहास की बातें हो गईं. अब कौन किसे लैटर लिखता-लिखवाता है? फ़ोन, मोबाइल, इंटरनेट का यह जमाना! और फिर जरा-सी यह बच्ची क्याफ लिखवाएगी लैटर में? किसे लिखवाएगी? उसे अड़ना था, अड़ गई. मैंने काग़ज़-पेंसिल ले लिए. कन्धे से टिके-टिके उसका धड़ाधड़ बोलना शुरू. एक-दो बार मैंने कहा कि धीरे-पर अपने प्रवाह में उसने कुछ सुना ही नहीं. पहले कहा गया कि आज की डेट डालिए और फिर बड़े आत्मविश्वास के साथ बोलना शुरू-‘भावुक मेरे साथ मोटर साइकिल पर गया था. पर वो बहुत समझदार लड़का है. अगर वो मुझसे माफी माँगना चाहे तो माँग सकता है. वो अपने मेरे घर आ जाए और हम बहुत खेलेंगे. मेरी एक दोस्त भी है. वो मेरे घर पर आती है. उसका नाम है काजल. अगर भावुक उससे दोस्ती करना चाहे तो मेरे घर आ सकता है. वह काजल से मिलना चाहता है तो मेरे घर के चबूतरे पर मिल जाए. अगर वो नहीं मिला तो मैं उससे अपनी दोस्ती तोड़ दूँगी. डीयर भावुक वो बहुत थैंक्स फॉर यू…एक लाइन और रह गई. भावुक अपना नाम हिन्दी में लिखे अगर उसने मुझे लिखकर दिया और जमा कर दिया तो मैं उसे फोर रुपए दूँगी. थैंक्यू एवरीवडी एंड युक्ति. भावुक नेक्स्ट होली पर तू घर पर आकर मेरे साथ होली खेलेगा… ! पूरा पत्र सुना गया. उसे मोड़कर मेरी जेब में रखते हुए मिन्नतत-सी की गई—‘प्लीज़ अंकल, ये भावुक को दे देना.’
फिर तो मेरे पहुँचते ही सबसे पहले वह पूछती कि पत्र दिया कि नहीं. दिया तो उसने क्या कहा? फिर काग़ज़-पेंसिल थमाकर कहा जाता—लिखो अंकल! शुरू में अरुण जी ने भी हमारे इस खेल में रुचि ली थी. पर बाद में वह उन्हें मेरा बचपना लगा था. मुझे युक्ति के साथ उलझा देख वे वहाँ से उठ जाते और घर का कोई काम निपटाने में लग जाते. पहले दिन जब मैंने भावुक को पत्र के बारे में बताया, उसे पत्र दिया तो उसकी भाव-भंगिमाएँ एकदम बदल गई थीं. उसके चेहरे पर आई ललाई ओर शर्मीली-शर्मीली-सी चहक ने मुझे चौंकाया था. उन निर्मल, निश्छल, पवित्र-सी अभिव्यक्तियों के बारे में तरह-तरह से सोचने के बाद भी मैं नहीं समझ पाया कि इस जरा से, मासूम भावुक का मन इन सब बातों को कैसे लेगा. युक्ति की ज़िद जारी रही और मेरा पत्र लिखना, उन्हें भावुक तक पहुँचाना भी जारी रहा. जब जो बात जैसे युक््तिा के दिमाग में आती वह बोलती जाती. अन्त में क्लास और सेक्शन के साथ अपना और भावुक का नाम ज़रूर लिखवाती. कभी शुरू में तारीख लिखवाती, कभी बिना तारीख के शुरू हो जाती. उस दिन तारीख डलवाना उसे याद नहीं रहा. शायद ज्यादा जल्दी में थी, आवेश में भी—“भावुक तुम मेरे पक्के दास्त हो या नहीं. आज मैं तुम्हें टेम्पो में मिली थी. हमारे स्कूल में आज कितना सारा पानी भर रखा था. भावुक अगर काश मैं तुम्हारे घर होती तो हम दोनों भाई-बहन होते. मुझसे दोस्ती तो है तुम्हारी मेरे से. एक शब्द बताती हूँ तुमको-नहीं पाते हो पानी पीना-गुड-फर्स्ट सी युक्ति एंड भावुक सैकिंड-सी गुड भावुक क्लास में फर्स्ट है युक्ति भी क्लास में फर्स्ट है.’
उन दिनों युक्ति को जाने क लिए टेम्पो की जगह एक वैन में व्यवस्था करा दी गई थी. वैन में जाने पर कई दिन तक वह परेशान दिखी. कई दिन उसने पत्र नहीं लिखवाया. रोज भावुक की कोई न कोई शिकायत. एक दिन आई तो देर तक उदास, गुमसुम खड़ी रही. कारण जानना चाहा तो आँखें भर लाई. लगा कि अब फटी अब बिफरी! रोते-रोते बताया कि उसने भावुक को टॉफी देनी चाही थी. वह हाथ झटक कर भाग गया. मुझे उसके भोलेपन पर प्यार आया. उसका सिर सहलाया, माथा चूमा. आँखें चूमने को ओंठ आगे किए तो देखा-उसकी आँखें इतनी लाल जैसे दुखने आ गई हों. अचानक एक पंक्ति याद आई-दरसन बिन दुखन लागे नैन…जानकार कहते हैं कि अधिक देखने से आँखें दुखती हैं, पर मीरा की आंखें न देखने से दुखने लगती हैं! कुछ देर वह चुप खड़ी मुझसे प्यार कराती रही. यकायक उसके नन््हें से हाथ की अँगुलियों ने मेरी ठोड़ी पकड़ी, मेरा मुँह अपनी तरफ किया, बड़ी भोली भीगी-सी आवाज़ सुनाई दी—“अंकल क्या मैं भावुक को खरीद सकती हूँ? सुनकर हकबक मैं उसका मुँह ताके जा रहा था—इसकी यह उम्र, यह सोच, यह इरादा, यह हिम्मत! आख़िर आ कहाँ से रहा है यह सब इनके अन्दर? कौन सिखा रहा है इन्हें इस तरह बोलना, जीना, रहना, करना? कुछ नहीं सूझा कि उसे क्या उत्तर दूँ. मुझे न जाने क्यों फिर मीरा का ध्यान आया—माई री मैं तो गोविन्द लीयो मोल… मीरा को पता था कि प्रेम और भय एक साथ नहीं चलते. उसने अपने गोविन्द को किसी दुकानदार की तराजू से नहीं, अपने प्रेम की तराजू से तोल भी तो लिया था… मुझे उस तरह चुप और खोया-सा देख युक्ति अन्दर चली गई थी. जरा देर बाद लौटी तो जैसे वह कोई दूसरी युक्ति थी. काग़ज़-पेंसिल मेरे हाथ में थमाए और आदेश हुआ—“आज दो पेपर हैं ये! आपको दो लैटर लिखने हैं.” आज्ञापालक की तरह बैठा मैं बोलने का इन्तजार कर रहा था. जैसे सोचा जा रहा था कुछ—’हाँ, पहले यह वाला लिखिए-भावुक अगर अच्छा है तो वो मेरे साथ बदतमीजी से बातें बिल्कुल न करे—यूँ-ये यूँ-ये…. एक बोलकर चुप हो जाती हूँ मैं वो ये वो, ये वो. अगर वो मुझसे बदतमीजी से बात नहीं करेगा तो मैं उससे बात करूँगी. भावुक अगर उसने मुझसे बदतमीजी से बात करनी बंद कर दी तो मैं उससे बोलूँगी. नहीं तो नहीं. और भावुक तू मेरे घर कभी नहीं आता है. डीयर भावुक युक्ति एंड सोनिया. भावुक यू विद प्लीज कम इन माई पार्टी. जहां तुम्हारा घर है वहाँ तो मेरे मम्मी पापा जाते थे. भावुक इज ए नॉटी ब्ऑय. आइ एम ए गुड गर्ल. माइन मॉनीटर इज वैरी बिग. थेंक्यू भावुक एंड थैंक्यू सोनिया.’ मैंने काग़ज़ के भर जाने की सूचना दी तो वह रुकी. मैं हैरान था कि पत्र की शुरुआत कहाँ से हुई थी. अन्त तक आते-आते यह अबोध मन क्या-क्या लिखवाने लगा. झटपट दूसरा कागज़ आगे कर दिया…’लिखी है मैंने भावुक को कहानी. गाँव में रहता था एक बूढ़ा ऊँट. उसकी थी छोटी सी पूँछ. रहती बन्द हमेशा आँख. मुंह में था न कोई दाँत. पानी पीने गया कुँए पर. उसने झाँका उसके अन्दर. गले में लिपटा देखा साँप. सुनी साँप की ऊँची फूँक. मीनू ने एक सपेरा बुलाया. रात बढ़ी और निकला चाँद. जान बचाकर भागा साँप. भावुक मैंने तुम्हारे लिए यह कहानी बनाई है. अगर मैं ये कहानी नहीं बनाती तो तुम कभी भी समझ नहीं पाते जो मैंने कल भेजा है. बस थैंक्यू भावुक एंड युक्ति. सेकिंड सी एंड फर्स्ट सी.
बीच में कई दिन हमारे बैठने का समय बदलता रहा. किसी दिन अरुण जी को शाम में कोई काम होता, किसी दिन मुझे. उस दिन तय हुआ कि बारह बजे अरुण जी और मैं मेडिकल कॉलेज जाएँगे और वहाँ एक मित्र को देखने के बाद घर पर बैठ लेंगे. मेडिकल कॉलेज से हम लोग लगभग डेढ़ बजे लौट आए थे. अन्दर बैठे हम दोनों टी.वी. देख रहे थे. अरुण जी की पुत्रवधू अभी अपने स्कूल से नहीं लौटी थी सो उनकी पत्नी रसोई में चाय बना रही थीं. अचानक किसी बच्चे के रोने की बड़ी तेज़-तेज़ आवाज़ आई. हम दोनों घबराए से बाहर निकले. अरुण जी की पत्नी रसोई से युक्ति के कमरे की ओर दौड़ पड़ी थीं. युक्ति के बाबा दादी भी बालकनी से दौड़ते-से वहाँ आ खड़े हुए थे. हम सोच ही रहे थे कि वहाँ जाएँ या न जाएँ, तभी सोनिया और उसकी मम्मी भी आ गईं. विचित्र ढंग से रोने की उस आवाज़ को सुनकर वो भी वहीं पहुँच चुकी थीं. हमने सोचा था कोई लौट कर बताएगा. कोई नहीं लौटा तो हम दोनों भी वहाँ जा पहुँचे. युक्ति अभी भी माँ की गर्दन में बाँह फँसाए रोए जा रही थी. सब पूछ-समझा रहे थे, पर उसकी हिचकियाँ थम ही नहीं रही थीं. किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. घबराए, परेशान से सब पूछे जा रहे थे—’बताओ तो सही बेटा, आख़िर हुआ क्या? जैसे-तैसे शान्त हुई. आँखों में डर और घबराहट के निशान अभी भी दिखाई दे रहे थे. बड़ी मुश्किल से बोली—‘मम्मी, मम्मी, आज तो हम सब फँस जाते वैन वाले भैया भी!’ पास खड़े सब लोग हैरान. सबके मुँह से एक साथ निकला-‘क्यों बेटे क्या हुआ?’ ‘हाँ मम्मी, हम सब फँस जाते, जेल की हवा खा रहे होते, चक्की पीस रहे होते…इल्जाम हम सब पर आता…’ जेल, चक्की पीसने और इल्जाम की बातें सुनकर हम सबके मुँह फटे रह गए थे. उसकी माँ ने उसका सिर सहलाया, पीठ सहलाई. बड़ी देर में वह बता पाई—‘अरे वो है न, हमारी वैन में फ़िफ़्थ वाली लड़की. पुल पर वैन आई तो उसमें से कूदने को हुई. वो तो उस फ़ोर्थ वाली लड़की ने खींच लिया. वो फिर खड़ी हो गई! फिर रोका तो रोने लगी—’मैं मरूँगी, मैं मरूँगी! मेरा ए ग्रेड आया है! अब मेरे मम्मी-पापा मुझे मारेंगे! मैं घर नहीं जाऊँगी…सुसाइड करूँगी.’ उस लड़की ने उसके एक चाँटा मारा. मैंने भी मारा. भैया ने सुना तो वैन रोकी. आप बताओ मम्मी, वो मर जाती तो हम सब फँस जाते न…?’ वह बहुत डरी घबराई लग रही थी. हम सब भी बेहद परेशान हो गए थे.
वहाँ से हटने को हुए तो सोनिया पर ध्यान गया. कमरे में ख़ामोशी आ भरी थी. चिन्ता, पीड़ा और डर ने अब भी हम सबको जकड़ा हुआ था. अरुण जी ने सोनिया को गोद में लिया तो वह बिल्कुल बेजान-सी उनके सीने से चिपक गई थी. चाय के आने तक बिस्तर पर लेटी सोनिया को नींद आ गई. चाय पीते हम लोग सोनिया के वहाँ होने को लेकर और भी व्यग्र हो उठे थे. सोनिया की मम्मी रुआँसी-सी सामने खड़ी थी. स्कूल से आकर अभी तक उसने न अपने कपड़े बदले थे, न सोनिया के. आज की घटना के आतंक से वह अभी मुक्त नहीं हो पाई थी. बीच में दो-तीन बार जाकर उसने सोनिया के बाल सहलाए थे, उसका माथा चूमा था. चाय पीते-पीते अचानक उत्तेजना में भरी-सी बोली—‘अंकल, इस बार रिज़ल्ट वाले दिन थर्ड का एक स्टूडेंट मेरे पास आया. फेल का रिज़ल्ट कार्ड उसके हाथ में था. देर तक चुप खड़ा रहा. कई बार पूछा कि क्या बात है तो बोला—मैम पासिंग मी…पापा बीटिंग मी!’ वहीं खड़ा फूट- फूटकर रोने लगा —‘मैं आत्महत्या कर लूँगा-मैं नहीं तो पापा कर लेंगे…’ अब आप सोचिए अंकल-क्या हो रहा है इन ज़रा-ज़रा से बच्चों को. मेरी एक दोस्त काउंसलर बन गई है. बता रही थी कि उसके पास बच्चे आत्महत्या के तरीक़े पूछने आते हैं…’ उस दिन हम में से कोई अपने आप में नहीं था. चाय पीकर वहाँ से चलते समय हम सबके मस्तिष्क में भारी-सा बोझ था और अन्दर बहुत तल्ख़-सी चुभन.
उस दिन की घटना के असर ने कई दिन तक दोनों घरों को उदास और परेशान किए रखा. सब अपनी-अपनी तरह वातावरण को सुधारने, सामान्य करने में लगे थे. बच्चों के मन पर तो वैसे भी कोई कालिख लम्बे समय तक टिकी रह भी कहां पाती है. कुछ दिन बाद चाँदनी में लिपटे उनकी हँसी के फूल फिर हमारे आस-पास झरने लगे थे. उनकी चीख़-चिल्लाहट में गायन, रोने में संगीत का अन्दाज़ आ मिला था. लड़ने-भिड़ने में अजब सहज-सरल-सी वर्जिश दिखती तो बोलने-गाने में कई-कई रागों-रागिनियों का अद्भुत-सा समागम. कभी कोई जुगलबन्दी तो कभी समूहगान. चलने-थिरकने-मचलने में लोक-नृत्य की-सी भंगिमाएँ, मुद्राएँ और ऊर्जा दिखने लगी और उनकी कूद-फाँद, हाय-हुल्लड़ और शोर-शराबे में पश्चिमी शैलियों की ढेर-ढेर परछाईं. दोनों ने नियमित आकर कहानियाँ सुनना फिर शुरू कर दिया. कहानी भी रोज़ वही दो-एक सोनिया की पसन्द की, दूसरी युक्ति की. उस दिन युक्ति को काग़ज़ पेंसिल के साथ आया देख अच्छा लगा. आते ही उसने पहले की तरह लिखने का आदेश दिया और बोलने लगी—‘भावुक, मैं तुम्हारे लिए क्ले भेज रही हूँ. तुम्हारे पास वाटर कलर हों अगर तो उनमें जो गोल बनाकर दे रही हूँ, उस पर वाटर कलर कर लेना. आगे भावुक आप मुझको अपनी ही क्लास के पास मिल जाइए करो. तुम्हारी क्लास में मनु नाम का बच्चा पढ़ता होगा तो उससे कह देना अगर जो मेरा वैन वाला भैया है वो तुम्हें पहुँचा सकता है मेरे घर तक. अगर अपने बड़े पापा के साथ तुम आना चाहते हो तो आ सकते हो. वो भी कल. क्योंकि कल मेरे पास फ्री टाइम होगा. गुड भावुक एंड गुड युक्ति—एक लाइन और अंकल-भावुक मैं तुम्हारी कज़िन—एक फ्रेंड होती तो क्या तुम कल घर आ सकते हो. गॉड प्रॉमिज़ करो! अगली शाम वह मेरे पहुँचने से पहले ही काग़ज़ पेंसिल हाथ मं लिए कुर्सी पर विराजमान थी. पहुँचते ही एक सवाल करने के साथ ही बोलना शुरू—‘भावुक, अभी तक तुम्हारे बड़े पापा ने कल वाला लेटर नहीं दिया है. क्या भावुक तुम असली में सो गये थे. अगर नहीं सोए थे तो तुम कहाँ थे? भावुक तुम बताओ मुझको कि तुम दोस्त हो या नहीं? जब भी मैं कहती हूँ तुम मेरे घर पर आओ तुम नहीं आते. भावुक तुम मेरी क्लास के पास क्यों नहीं आते? मैं अपनी क्लास के पास तुम्हारा वेट करती हूँ. अगर तुम आते तो मैं तुमको देख लेती. मैं तुम्हारा वेट करते-करते थक जाती हूँ इसलिए मैं ग्राउंड में नीचे चली जाती हूँ. तुम मुझे नहीं देखते. तुम्हारी फूटी कौड़ी भी नहीं देखती है. वैसे ही तुम बिल्कुल बेवकूफ हो. अगर मैं तुम्हें देखूं तो शरमाकर भाग जाते हो. मेरा एक दोस्त है. मैं उससे हमेशा मिलती हूँ. वो तुम्हारी क्लास में पढ़ता है. उसका नाम मनु है. वैसे तुम भी बुद्धू, मैं भी बुद्धू-गुड युक्ति फर्स्ट सी…’ यहाँ आकर मैं रुका. युक्ति को सुनाने से पहले कई बार वह पत्र मैंने खुद पढ़ा. शब्दों के पीछे की ईमानदारी, सरलता, निष्कपटता, बेचैनी, आतुरी, युवाओं प्रौढ़ों जैसी समझदारी और अभिव्यक्ति के बारे में तरह-तरह से सोचा. क्या नाम दिया जा सकता है इस बच्ची के इस लगाव को? ये ज़िद, ये अधिकार, ये खुशामद, ये धमकी-और भी बहुत कुछ. बड़े-बड़े शहंशाहों, शहज़ादियों, प्रिंस प्रिसेज़, सम्राटों,साम्राज्ञियों, सितारों, धनपतियों के प्रेम में भी और क्या होता है सिवाय कशिश, मिलन, विछोह और उसके बाद घुलने, रोने या मरने के….. अपने, अपने समवयस्कों के कितने ही प्रसंग, जिये-सुने अनुभव मुझे याद आए जा रहे थे. अन्दर-अन्दर मन में छिपे एक डर ने करवट ली-कोई और अगर यह सब पढ़े जाने तो क्या सोचेगा इस सब को लेकर! राहत मिली सोचकर कि अभी ये बच्चे बड़े नहीं हुए हैं. बड़े होकर यदि इन्होंने यह सब किया होता तो पता नहीं किसको क्या जीना-झेलना पड़ जाता. प्रेम के नाम पर दी जाने वाली कितनी ही सजाएँ, की जाने वाली अनेक हत्याएँ-आत्महत्याएँ याद आ-आकर मुझे व्यग्र, भयभीत किए जा रही थीं. भय के उस क्षण में मेरे अन्दर यह विचार आया था कि इन सभी पत्रों को रोज़-रोज़ भावुक को देना शायद ठीक नहीं है. और आज का यह पत्र उसे न देने का इरादा मैंने बना भी लिया था. पर…. अगले दिन युक्ति जी फिर तैयार थीं. कुछ कहने-पूछने से पहले ही बोलना शुरू—’भावुक, मैं तुम्हें क्रिसमस का एक गिफ़्ट भेज रही हूँ. उसका नाम है दीया. अगर तुम्हें पसन्द नहीं आया होगा तो तुम चेंज करवा सकते हो. मैंने एक और अच्छा-सा दीया बनाया है पर क्या करूँ मेरे पास सिर्फ़ ब्लैक, पिंक, ऑरेंज, ब्ल्यू कलर सिर्फ़ ये ग्रीन था. क्या करूँ मेरा पिंक ख़त्म हो गया सारा. वाटर कलर से दीए पर डिज़ाइन तो नहीं हो पाएगी. भावुक आज मैं क्राइस्ट के जन्म दिन की तुम्हें बधाई दे रही हूँ. मैं एक अच्छी लड़की हूँ पर भावुक सैकिंड क्लास. तुम जब छुट्टियाँ ख़त्म हो जाएँगी जब तुम इंटरवल में मुझसे मिलने आया करोगे. मैं तुम्हें तब तुम्हारे बर्थ डे की टॉफी दूँगी. सैकिंड क्लास पर अगर तुम नहीं आओगे तो मैं तुम्हारी क्लास में अंदर आ जाऊँगी और तुम वहीं मिलना. अगर तुम नहीं मिले तो मनु से पूछ लूँगी. उसकी दीदी भी है वो फ़िफ़्थ बी में पढ़ती है. अगर तुम नहीं मिले तो उसकी दीदी से कह दूँगी. सैकिंड सी एंड फर्स्ट सी. डीयर भावुक एंड डीयर युक्ति!
अरुण जी और उनके घर के लोग वर्षों से अपना घर बनाने या ख़रीदने की कोशिश में लगे थे. गमियों की छुट्टियों से उनके बेटों ने कोशिश तेज़ कर दी. उसका परिणाम यह हुआ कि शहर से बाहर दूर नयी बनी एक कॉलोनी में फ्लैट का सौदा पक्काो हा गया. यह भी तय हो गया कि छुट्टियों के बाद यहाँ से शिफ्ट कर लेंगे और अभी इस बारे में किसी से कुछ कहना नहीं है. इन दोनों बच्चियों से तो बिल्कुल भी नहीं. छुट्टियों में अरूण जी अपने गाँव चले गए और मैं भी. सोनिया और युक्ति अपनी-अपनी ननसाल चली गईं. छुट्टियाँ ख़त्म होने पर जब पहले दिन मैं अरुण जी के घर पहुँचा तो न सोनिया वहाँ दिखी, न युक्ति! उनके बिना बिताई उन दो-तीन शामों में लगा कि किसी बेहद ज़रूरी से सुख से हम वंचित हैं. पत्र लिखने का समय होते ही युक्ति मुझे रोज़ याद आई. ज़रा-सी बच्ची के पत्र लेखक और पत्र वाहक की भूमिका निभाते चले जाने के अपने सिलसिले पर आश्चर्य भी हुआ, हँसी भी आई. सिलसिले की शुरुआत में हम सोचना ही नहीं चाहते कि वह कभी रुकेगा या ख़त्म भी होगा. पर जब ऐसा कुछ होता है तो हम बिलबिलाने लगते हैं कि अब कुछ हुआ कि तब कुछ हुआ. ननसाल से सोनिया ओर युक्ति एक ही दिन लौटीं. उस शाम वे कुछ ज्यादा ही मस्ती के मूड में थीं. दोनों की हथेलियों, पंजों ओर हाथों की कुहनियों तक मेंहदी लगी थी. सुर्ख़ घाघरा और अपनी-अपनी चुन्नियाँ सँभालती वे नाचती-नाचती गा रही थीं—‘एक परदेसी मेरा दिल ले गया.’ दोनों घरों के लोग उनके नाचने-गाने पर मुग्ध हो-होकर तालियाँ बजा रहे थे. लगा कि इतने दिनों में युक्ति की पत्र लिखवाने वाली वह आदत शायद छूट गई है. पर कहाँ-चलने को हुआ तो वह काग़ज़ पेंसिल के साथ हाज़िर—‘आपको अंग्रेज़ी में लिखना आता है अंकल?’ मेरे हाँ कहते ही हुक्म हुआ—‘अच्छा पहले मैं कुछ वर्ड्स बोलूँगी, आप लिखना! मैं चेक करूंगी.’ बोले गए शब्दों को लिखा देखकर बड़ा बुरा मुँह बनाया! सारे शब्द काटे. कई बार कहा—शेम, शेम, शेम! फिर एक-एक शब्द की स्पेलिंग बाली गई—पी एल ज़ेड प्लीज़…ओनली यू- यू…ओनली आर-आर—टी ए के टॉक…-बी सी ओ ज़ेड-बिकॉज़—वी ए टी वेट…एफ़ओटीओ फ़ोटो….ओनली वी वी—अंडर स्टैंड? अब ठीक से लिखोगे न? उसकी आवाज़ में जैसे उसकी मैम उतर आई थीं. संचार क्रान्ति के युग में बढ़ रहे इन ज़रा-ज़रा से बच्चों की वर्तनी में आ रहे इस बदलाव का देखकर मुझे चिन्ता हुई. पर बिना बहस में उलझे मैंने लिखना शुरू कर दिया—‘डीयर भावुक एंड युक्ति. भावुक आप तो सैकिंड सी में पढ़ते थे और मैं फर्स्ट सी में…यस अंकल अब आप हिन्दी में लिख सकते हैं—अभी मुझे बहुत दिनों पढ़ना है. थैंक यू भावुक आप तो सैकिंड सी में पढ़ते थे और मैं फर्स्ट सी में…थैंक यू भावुक थैंक्यू सोनिया एण्ड थैंक यू युक्ति. यहाँ नाम अपना लिखकर लाए अंग्रेज़ी में. नाम यदि ले आए तो अपने बड़े पापा से जमा करा दे मुझे. मैं आपको वन रूपीज दूँगी…’
घर बदलने के दिन ज्यों-ज्यों क़रीब आ रहे थे, हम लोगों की बातों में फिर रोज़ न मिल पाने के दुख-मलाल की बातें उतनी ही अधिक जगह पाने लगी थीं. बड़ों ने लाख चाहा कि दोनों बच्चियों को अभी ख़बर न लगे, पर एक दिन युक्ति ने अपने घर सोनिया के यहाँ से चले जाने की बात मम्मी के मुँह से सुन ही ली. युक्ति को पता चलते ही सोनिया को मालूम हो ही जाना था. इस मालूम होने का जैसा असर उन दोनों पर हुआ, इसकी हममें से किसी को कल्पना नहीं थी. जिस दिन उन्हें मालूम हुआ, उस दिन दोनों कई बार लिपट-लिपट कर ख़ूब रोई. किसी भी समय नींद में से जो जग जाती, रोना शुरू कर देती. सबने समझाया कि जल्दी-जल्दी आया-जाया करेंगे. ख़ूब मिला करेंगे. फिर भी दोनों में से कोई पहले की तरह उछलता-कूदता, चहकता, ठहाके लगाता नहीं दिखा. सोनिया के घर बदल लेने के बाद मेरे वहाँ न आने को लेकर युक्ति ने केवल एक दिन कुछ सवाल किए थे. उत्तर सुन कर जैसे उसने मान लिया था कि सोनिया को जाना ही है और उसके बाद मुझे भी ऐसे रोज नहीं आना है. कई दिन वह हम लोगों के पास आना बचाती रही. मेरे अन्दर भी कम उथल-पुथल नहीं हो रही थी. फिर मैं उसे क्या समझाता, कैसे बताता? चार-पाँच दिन बाद वह अचानक काग़ज़ पेंसिल के साथ मेरी बगल में आ खड़ी हुई. बड़े उखड़े से अन्दाज में बोली—लिखो अंकल. भावुक मैं तुम्हें एक बात बताती हूँ. तुमने मुझसे क्योंं झूठ बोला कि तुम सैकिंड सी में पढ़ते हो. भावुक तुमने मुझसे झूठ बोलकर बड़ी भूल की है. जो आज तुम्हारी दोस्त है वह मैं नहीं सोनिया है. तुम मेरा कान मत पकड़ा करो. भावुक मैं-थर्ड एंड सैकिण्ड सी…
दोनों घरों के लोग महसूस कर रहे थे कि वे दोनों सबसे दूर-दूर रह रही हैं. कहीं भी दोनों अकेले में चली जाती हैं और पता नहीं क्या-क्या बातें बनाती रहती हैं. शाम को पहुंचते ही पहले उन दोनों के बारे में बताया जाता कि आज दोनों ने यह किया, यह कहा और आज दोनों वहाँ रोती मिलीं. उन दोनों को लेकर सब चिन्तित थे, सावधान थे. चौथे-पाँचवें दिन देखें तो काग़ज़ पेंसिल के साथ युक्ति जी फिर उपस्थित. लिखने के आदेश के साथ बोलना शुरू—’मैं तुम्हारी कक्षा में नहीं थी. क्योंप नहीं थी हमारी मैम ने सैक्शन चेंज कर दिए थे और सैक्शन चेंज करने के बाद मैंने अपने फायनल रिपोर्ट कार्ड में देखा कि मेरी क्लास सैकिंड बी है. मैं तुम्हारी क्लास में एक उत्कर्ष और मनु नाम का लड़का पढ़ता था. सैकिंड सी में. अब वह किस क्लास में आ गए हैं. अगर जवाब न पता हो तो रोंग एंड राइट देना. भावुक एंड डीयर युक्ति. सैकिंड बी एंड थर्ड ए. भावुक मैं तुम्हारी फ्रेंड ही नहीं कज़िन भी हूँ. चाहो तो अपने जो भाषा सेतु सैकिंड सी में थी वह मुझे लाकर दे दो और उसके साथ एक कॉपी भी. सैकिंड बी एंड थर्ड ए.
सात-आठ दिन बाद अरुण जी के परिवार वालों ने सामान की पैकिंग शुरू कर दी थी. एक दिन सब ख़ुश होकर बताते कि आज सोनिया और युक्ति ने पैकिंग कराने में ऐसे, इतनी मदद की…कैसे किस-किस सामान को उठा-उठाकर लाती रहीं. कभी पता लगता कि आज दोनों ने मिलकर उस पैकिंग को ख़राब कर दिया है, उस बैग या पैकिट का बँधा सामान खोलकर इधर-उधर बिखरा दिया है. उनके नित्य के बदलते व्यवहार ने दोनों परिवारों को बेहद परेशान और दुखी कर रखा था. सब मिलकर रोज़ कोई तरक़ीब ढूँढ़ते, पर उन्हें समझ ही नहीं आता कि इन बच्चियों को कैसे समझाया जाये. अब हमारी शामों पर अनजाने किसी आतंक का साया-सा पसरा रहता. हमारा सारा समय उनकी किसी नई हरकत की चिन्ता और चर्चा में निकल जाता. अरूण जी ही नहीं, बाक़ी लोग भी हैरान थे कि नए घर में जाने की ख़ुशी वे लोग क्योंप नहीं जी पा रहे थे. डर ने ऐसा गिरफ़्त में ले रखा था सबको कि उन बच्चियों की छींक या खाँसी की आवाज़ मात्र से दोनों घरों की छतें, दीवारें तक काँपने थरथराने लगतीं. घर के बदले जाने वाले दिन के दो दिन पहले की शाम युक्ति आई और मेरे गले में बॉहे डालकर झूलती सी बोली—‘सोनिया के बाबा के जाने के बाद आप तो हमारे घर आया करेंगे न अंकल? ’ मैं न हाँ कह पाया, न ना. उसने मेरे कुछ कहने का इन्तज़ार भी नहीं किया. उदास-सी अन्दर गई और ज़रा देर बाद काग़ज़-पैंसिल लिए लौट आई—‘लिखो अंकल—भावुक पहले मेरा पक्का दोस्त बन जाएगा. बन सकता है या नहीं…’ तभी अन्दर से सोनिया की चीखती-सी आवाज़ सुनाई दी—’युक्ति अब जल्दी आ ना.’ युक्ति ने सॉरी कहा और अन्दर दौड़ गई. आज उसने थैंक यू नहीं बोला डीयर भावुक एंड डीयर युक्ति नहीं बोला, न दोनों की क्लास लिखवाई. उसे उस तरह अन्दर जाते देख मेरे अन्दर कुछ हिला-दरका.
युक्ति को गये मुश्किल से पन्द्रह मिनट बीते होंगे. यकायक अन्दर से रोने-चीख़ने जैसी आवाज़ें सुनाई दीं. हड़बड़ाये घबराये से हम दोनों अन्दर भागे. स्टोर में भीड़ लगी थी. सोनिया और युक्ति के गलों में एक धोती के छोर बंधे थे. दोनों की मम्मियाँ रोते हुए उनके गले में लगी गाँठों को खोल रही थीं. युक्ति के बाबा वहाँ मिली कापी के पेज पर के लिखे को सबको दिखा रहे थे, जोर-जोर से पढ़कर सुना रहे थे—’कोई हमारी बात नहीं मानता. सब बहकाते हैं. डॉटते हैं. अब हम सुसाइड करेंगे. दानों एक साथ. गले में धोती बाँधकर स्टोर वाली छड़ से लटक जाएँगे… दोनों की मम्मी-दादी रोए जा रही थीं. हमारे चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं. दिल की धड़कन बहुत तेज़ हो चली थी. किसी के मुँह से कोई बोल नहीं फूट रहा था. वे दोनों चुप चकित-सी ऐसे बैठीं थी कि जैसे समझना चाहती हों कि हम इतने बदहवास-परेशान क्यों हो रहे हैं. सोनिया की दादी ने हाथ जोड़े-जोड़े आसमान की ओर देखा—‘भगवान तुमने आज रक्षा कर ली. अचानक मैं इधर न आई होती तो पता नहीं क्या हो जाता आज…’ और लोग जो भी सोच रहे हों पर मैं बार-बार उन कारणों को जानने की कोशिश में लगा था, जिनके चलते ये बच्चियाँ यहाँ तक पहुँचीं.
सारा घर जैसे मातम में डूबा था. लग रहा था जैसे अभी-अभी मौत से पहले की कोई क़यामत वहाँ आई थी. उसने आकर हमारा सब कुछ नेस्तनाबूद कर दिया था. इकट्ठे बैठे हम लोग एक भी शब्द नहीं बोल पा रह थे. कितनी ही आत्महत्याओं के समाचार हम रोज़ सुनते हैं. किसानों, मजदूरों, युवकों, युवतियों द्वारा आत्महत्या किया जाना अब रोज़मर्रा की आम-सी घटनाएँ हो चली हैं. जिस समाज में जितनी अधिक आत्महत्याएँ होती हैं, उसे उतना ही क्रूर और हिंसक माना जाता है. पर जहाँ ज़रा-ज़रा से बच्चे मरने की सोचने लगें, ज़रा-ज़रा सी डांट-डपट पर वे आत्महत्याएँ करने लगें तो…? तो, तो हमें मान लेना चाहिए कि हमने अपने परिवेश को अनेक तरह के तनावों-दबावों से भर दिया है, बेहद प्रदूषित विषाक्त कर दिया है. बहुत देर तक हम सब एक कमरे में बैठे रहे…तरह-तरह की बातें करते रहे, अभी घर न बदलने का बच्चियों से वादा भी करते रहे…! पर सच यह था कि हममें से कोई ख़ुद को भी समझा सम्भाल नहीं पा रहा था. लग रहा था जैसे हम सब एक ऐसी सुरंग में जा फँसे थे जिसमें से निकलने का रास्ता हमें नहीं सूझ रहा था.
सम्बंधित
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं