कहानी | तिब्बत बाज़ार

फुब्बू,
तुम्हारे अलीगढ़ से जाने के बाद भी एक पत्र लिखा था. उसका क्या हुआ, मालूम नहीं. जब तुम्हारा ठौर—ठिकाना ही नहीं मालूम तो पता तो कुछ इसका भी नही है, पर फिर भी लिख रहा हूँ. देखो तो बीस वर्ष बीत चले हैं बिना तुम्हें देखे. पर तुम्हारे साथ के हिस्से में का न कुछ रीता हुआ है, न धुँधला. तुम्हारे देश की बात पर या तुम्हारे हमवतनों को देखते ही हमेशा तुम जैसे सशरीर मेरे सामने आ खड़ी होती हो—उन ख़ूबसूरत आँखों में न अट पा रही अपनी सागर जितनी उस व्यथा के साथ. मन के अन्दर की आग से दिपते—दमकते अपने उस ख़ूबसूरत चेहरे के साथ. समझ नहीं आता कि इतनी अधिक उम्र और ताक़त कहाँ से पाती रहती हैं ये यादें! कभी आग, कभी पानी तो कभी तूफ़ान बनकर अचानक आ धमकने का जादू इन्हें कौन सिखा जाता है फुब्बू? उम्र के असर से बेअसर ये यादें क्या अधिक पुरानी होकर और ज्यादा तीखी, धारदार हो जाती हैं? किसी उम्मीद, इन्तज़ार या भुला सकने के लिहाज़ से बीस वर्षों जितनी लम्बाई कुछ कम तो नहीं होती न? इतने इन वर्षों में कितना कुछ नहीं हो गुज़रा है इस देश और दुनिया में. बदलावों की ऐसी-ऐसी आँधियाँ आईं कि आदमी तो आदमी देशों तक के इतिहास, भूगोल, दीन—धर्म, ईमान तक बदल गए. कुछ हिले, टूटे—तो कुछ इतने ताक़तवर और ज़िद्दी हो गए कि उनकी ख़ुदाई एक तरफ़ और सारी दुनिया की यातनाएँ एक तरफ. पर हाँ, वो आँधी अभी आना बाक़ी है जिसकी तुम्हें प्रतीक्षा है और इन्तज़ार मैं भी कर रहा हूँ. इसीलिए जब बहुत याद आती है तो मन में जतन से सहेज-सम्भाल कर रखे तुम्हारे हिस्से के गंगाजल से ख़ुद को शीतल, पवित्र कर लेता हूँ. और मान लेता हूँ कि मैंने तुमसे बात कर ली है.

तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारे जाने के बाद के साल, उसके अगले साल और फिर अगले साल रेलवे रोड पर लगी तिब्बतियों की दुकानों पर तुम्हें कितना ढ़ूँढा-तलाशा था मैंने. न तुम मिलीं, न तुम्हारे पिता. इतना भर पता चला कि तुम वतन के काम से तिब्बत चली गई हो. मुझे पता था कि तुम तिब्बत ज़रूर जाओगी. मेरे सामने ही तो किया था तुमने अपने पिता से यह वादा कि तिब्बत में लौटने के बाद तुम शादी ज़रूर कर लोगी. अगले साल पता चला कि तुमने मंगेतर को भी तिब्बत बुला लिया है. और अब तुम्हारे पिता तुम्हारे बिना दुकान लगाने भी नहीं निकल पा रहे हैं. फिर कभी उधर जाने की हिम्मत नहीं हुई. पता नहीं किससे कहाँ क्यां सुनने को मिल जाए. पर ऐसे ये सिलसिले कभी थमते हैं क्या फुब्बू?

हर साल तिब्बत दिवस के अगले दिन मैं अख़बारों में तुम्हारा नाम, तुम्हारा चित्र तलाश रहा होता हूँ. टी.वी. के समाचारों में तुम्हारी शक्ल ढ़ूँढ़ रहा होता हूँ. चीन से आए राजनेताओं के विरोध-प्रदर्शनों की ख़बरों और तस्वीरों में से हमेशा मैंने तुम्हें ढ़ूँढ़ निकाल लेना चाहा है—शायद नारे लगाती भीड़ की अगुआई करती तुम दिख जाओ, पुलिस की निगाहों से बचकर किसी इमारत पर अपना झंडा फहराती तुम दिख जाओ…पुलिस से उलझती-जूझती ही शायद कहीं दिख जाओ. पर तब की गईं तुम न फिर कभी मिलीं, न कभी दिखीं.

पर हाँ…वह दिन…वह तिब्बती बाज़ार….और वह लड़की! हकबक था मैं—हैरान रह गया था. एकदम अचानक घटा और जादुई-सा लगा. लगा कि इतने वर्षो बाद जैसे तुम मेरे पास हो, मेरे साथ हो. वही सब तो बताना-सुनाना है तुम्हें. उन दिनों का सब कुछ शेयर करना है तुमसे आज. पर पहले वह जो शायद तुम्हें पता न हो. सर्दी शुरू होते ही अब भी अलीगढ़ में तिब्बती लोग आते हैं. तुम्हारे समय से कई गुना ज्यादा. वे तुम्हारी या तुम्हारे पिता की तरह पीठ या कन्धों पर कपड़ों के गट्ठर लादे-लादे घर-घर, गली-गली आवाज़ें लगाते नहीं घूमते. न तुम लोगों की तरह सस्ते होटलों या धर्मशालाओं में गिचपिच-गिचपिच इकट्ठे रहते हें. साठ-सत्तर परिवार हर साल यहाँ आते हैं और किराए के मकानों में ख़ूब ठाठ से महीनों यहाँ रहते हैं. मालवीय पुस्तकालय और दुबे के पड़ाव का कुछ तो ध्यान होगा तुम्हें? इन दोनों जगह तिब्बती बाज़ार लगते हैं! बाज़ार हो चली दुनिया के इस अलीगढ़ में दो-दो तिब्बती बाज़ार फुब्बू! कितनी बार मन हुआ, नहीं गया. वही डर कि पता नहीं क्याह सुनने को मिले वहाँ तुम्हारे बारे में! सालों साल टलता गया वहाँ जाना.

पर उस दिन… दरअसल उन दिनों करमापा के भारत आने ने हम सबको उद्वेलित कर रखा था. हर रोज़ यहाँ करमापा, दलाईलामा, तिब्बत और चीन से जुड़े समाचार छापे-दिखाए जा रहे थे. कैसे कहाँ-कहाँ से छिप-छिपाकर करमापा भारत पहुँचे, किसको क्या लगा, अनेक इंटरव्यूज़, बहुत सारे दृश्य-यही सब छाया रहा था अख़बारों में, टी.वी. चैनल्स पर. चीन के आरोप, भारत की चिन्ताएँ, तिब्बतियों की आँखों में जागी उम्मीद की चमक…. क़दम—क़दम पर तुम याद आती रही थीं उन दिनों. शायद इसीलिए तुम्हारे हमवतनों की आँखों में जागी उस चमक को देखने का लोभ जागा था उस दिन. या फिर तुम्हारी कोई ख़बर पा लेने की उम्मीद जागी थी मन में. और फिर उस दिन वहाँ जाना नहीं टला तो नहीं ही टला. व्यग्र, आवेशित, उत्तेजित-सा मैं तिब्बत बाज़ार जा ही पहुँचा. कमाल यह कि जाना एक बार ही नहीं हुआ, तीन बार हुआ. एक सप्ताह में तीन बार.

तब वहाँ भीड़-भाड़ नहीं थी. दुकानों के आस-पास कुछ बच्चे धूप में खेल रहे थे. कुछ वृद्ध-वृद्धाएँ खुले में बैठे आँखें बन्द किए मालाएँ फेरने में मग्न थे. कुछ अकेले गुमसुम बैठे धूप सेंक रहे थे. कुछ घेरा बनाकर बैठे किसी चर्चा में मस्त थे. एक-दो दुकानों पर इक्का-दुक्का ग्राहक मोल-भाव में लगे थे. मैं बाज़ार के दो चक्कर लगा चुका था. कोई एक तो ऐसा दिखे जिससे कुछ पूछूँ, बात करूँ. तलाश तो तुम्हारी वाली उस बेचैनी, आग और रौशनी की भी थी, पर उसकी छाया तक किसी चेहरे पर नहीं दिखी. उचाट मन वापस हो ही रहा था कि उस पर दृष्टि पड़ी—जींस, शर्ट पहने तब वह उन महिला ग्राहकों को स्वेर्टर्स की ख़ूबियाँ गिना रही थी. क़दम वही अड़ गए. लगा कि बीस साल पहले वाली तुम मेरे सामने आ खड़ी हुई हो. अपनी उस पारम्परिक तिब्बती वेशभूषा में नहीं, एकदम आधुनिक लिबास में. वैसी शान्त, शर्मीली-सी नहीं, बहुत मुखर, चंचल, वाचाल-सी. पलभर को लगा कि मैं भी बीस साल पहले वाला वही हो गया हूँ जो तुम्हें पहली बार देखने के बाद हुआ था—सहमा, सकुचा, डरा-डरा सा! बात करने को मन हुआ. ठिठका-सा कुछ देर खड़ा भी रहा. पर तभी तीन-चार और महिलाएँ दुकान पर आ जमी थीं. धुक-धुक जैसे कुछ तेज़ हुई…और क़दम ख़ुद-ब-ख़ुद आगे बढ़ लिए.

दो-तीन दुकानों की ही दूरी तय की थी कि वह दिखा. शान्त, गम्भीर आकर्षक-सा वह युवक ट्रांजिस्टर कान से सटाए कुछ सुन रहा था. अकेला, फुर्सत में दिखा तो उसके पास जा पहुँचा. मन में कहीं यह भी था कि शायद इतनी देर में वह लड़की फुर्सत में आए. पास जाते ही लगा कि इससे बात की जा सकती है. नाम पूछा तो कहा—शिम्मी—शिरिंग डोल्मा. जल्दी ही लगने लगा था कि जैसे हम अरसे से परिचित-आत्मीय हैं. तिब्बत के ज़िक्र के साथ ही जैसे कई दीपक उसके अन्दर एक साथ जल उठे थे—‘नहीं, हम धर्मशाला में पैदा हुआ. पर क्यास बात करते हैं आप? देश को मर सकता है कभी. सेना में था हम. दो साल पहले छोड़ा. बीवी लद्दाख-बच्चे कॉलिज! फ़ीस बहुत—सो अर्निंग को ये धंधा. वो जो दिल्लीब में आग लगाया चीनी मन्त्री के आने पर वो हमारे साथ था सेना में. जब पाकिस्तान से लड़ा—बाप रे— उनका आदमी पठान—लम्बा—चौड़ा. सामने से देखो तो अपने से कितना बड़ा दिखे. और हमारा आदमी—छोटा-सा, इतना-सा. गोली मारो तो दिखे नहीं. हम खुखरी से, चाकू से मारा उनको… सेना में अब वैसा अफ़सर नहीं…करप्शन इंडिया को खा गया. रेल में जाओ तो टी.टी. पैसे माँगता है, थाने-पुलिस का आदमी आता है तो माँगता है…’ करमापा की चर्चा चली तो लगा कि जैसे वह तिब्बत की निर्वासित सरकार का कोई बड़ा अधिकारी हो गया था—‘हम कहीं और नहीं जा सकते. अगर इंडिया परमीशन नहीं दिया तो करमापा को हम इग्लैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका या कहीं और भेज देगा. हाँ, हम लोगों का आदमी भेजेगा… ….चीन से क्याट डरना? हाँ, अमेरिका कुछ करेगा हमें भरोसा नहीं! भारत—भारत क्या. करे?…हाँ, लड़ाई ये करेगा नहीं…कब मिलेगा, नहीं पता, पर आज़ादी हमें मिलेगा. ज़रूर…’ वह जोश में था, बहुत उत्साहित था—‘तब वहाँ था क्या? कुछ नहीं था, ऊसर था. पानी नहीं था. दलाईलामा जी वहाँ गया तो कमाल हो गया. काया पलट हो गया. अपने लिए वो सड़कें, वो अस्पताल, वो कॉलोनियां—सब तिब्बतियों ने बनाया. बाप रे, आज देखो तो कैसा लगता है! सुनसान इलाक़े—वो जंगल आज…सब दलाईलामा जी की कृपा.’

तब चीनी विदेश मन्त्री की भारत यात्रा की बात मैंने शुरू ही की थी. उसकी आँखें जैसे दहक उठी थीं और शब्द—शब्द चिंगारी हो गया था—‘बिल्कुल ग़लत बात है! चाइना का मिनिस्टर आया—भूख हड़ताल किया हमारा लोग. इंडिया का पुलिस उनको ज़बरदस्ती उठाकर ले गया. वो जलना चाहा था——उसे जलने नहीं दिया. ग़लत बात है न ये? क्योंम किया वो लोग ऐसा? ? ?’ उसका स्वर पीड़ित और शिकायती हो उठा. देर तक सफ़ाई—सी दी तो लगा कि स्वर कुछ नर्म हुआ, पर शिकायत तब भी बाक़ी थी—‘कोई ना नहीं कहेगा—इंडिया गवर्नमेंट बहुत किया था पहले. इंडिया अगर आज जैसा सिक्सीटी टू में होता तो कुछ और बात होता! लाल बहादुर शास्त्री आज होता—तब वह न मरता तो हालत कुछ और होता….हाँ, राजीव गाँधी गया था चीन—तब कैसा उम्मीद जगा था सबको! पर अब—ऐसा चुप क्यों है? आप सुना—वैसा सब नहीं बोलना था इंडिया को…हमारा लोग सुना तो लगा कि भारत तिब्बत को चीन का मान लिया…’

उदास चेहरा, खोयी-भटकती-सी आँखें—वह आसमान को तके जा रहा था. इतनी लम्बी चुप्पी हम दोनों पहली बार सुन रहे थे. कुछ और बुलवाने के लिए मैंने दलाईलामा के विरोध में उठी कुछ आवाज़ों की चर्चा की थी. सुनते ही जैसे उसकी आँखों में, चेहरे पर-सब जगह क्रोध उग आया था—‘दलाईलामा जी, करमापा को जो बुरा बोला, ग़लत कहा, वो सब चीनी दलाल—चीन का एजेण्ट! पैसे का लालची ऐसे ही बोलेगा. ऐसा लोग चीन के इशारे पर कब से कह रहा है—दलाईलामा को कैंसर हो गया, वो ज्यादा नहीं जीएगा. कभी बोलता है दलाईलामा डर गया, बिक गया…. इन सबको हमारा लोग छोड़ेगा नहीं… इन सबको साफ़ कर देगा हमारा लोग…’ उसकी तेज़ हो उठी साँसों की आवाज़ को सुनते-सुनते अचानक मुझे तुम्हारी एम्बैसी होटल के कमरे वाली मुद्रा याद हो आई थी. तुम्हें रेलवे रोड पर न पाकर मैं अचानक वहाँ जा पहुँचा था. दरवाज़ा खोलते ही मुझे सामने देख तुम्हारा चेहता फक्क पड़ गया. तुम्हारी वो हड़बड़ाहट, तुम्हारे उन दो साथियों का हाथों में लगे हथियारों को इधर-उधर छिपाना…तुम्हारा कुछ न बोल पाना—सब कुछ एक क्रम में मुझे याद आए जा रहा था.

तभी चोर-चोर-चोर की तेज़-तेज़, आवाज़ों ने हम दोनों का ध्यान अपनी ओर खींचा था. शिम्मी तीर की गति से भीड़ में जा मिला था. तिब्बती औरतें चिल्लाए जा रही थीं—चोर, चोर, चोर! तिब्बती पुरुष भी वहाँ आ इकट्ठे हुए थे. एक प्रौढ़ा चीख़-चीख़कर, हाथ नचा-नचा कर बता रही थी कि क्यास हुआ, कैसे हुआ. एक महिला किसी ग्राहक महिला के थैले की तलाशी ले रही थी. और जब उसने चोरी किया स्वेटर थैले में से निकाल लिया तो वह भीड़ को उसे दिखा रही थी, चिल्लाए जा रही थी—चोर, चोर, चोर! मैं डरा कि शिरीन अब इतना ज़रूर कहेगा कि आपके यहाँ ऐसा ये भी होता है. पर नहीं, वह ऐसे लौटा जैसे कोई तमाशा देखकर लौटा हो. मैंने हाल के घटित से ध्यान हटाने के लिए अलीगढ़ के लोगों के बारे में उसकी राय जाननी चाही. खिन्नघ, परेशान-सा हुआ था जैसे—‘आदमी के बारे में? क्या तो आप सुनेगा, क्या तो मैं बताएगा? यह शहर गन्दा. ग्राहक यहाँ अच्छा नहीं! मारुति वाला ख़राब, साइकिल वाला अच्छा! सुना था यहाँ का आदमी बदमाश है—झिक-झिक करेगा, लड़ेगा—झगड़ेगा. महाराष्ट्र का आदमी बहुत सॉलिड है—एकदम बढ़िया. पर वहाँ भी बम्बई में अब गुंडागर्दी है… बगल की दुकान से उलझती-झगड़ती-सी आवाज़ें आ रही थीं. शिरीन का ध्यान उधर जा पहुँचा था.

—’ऐसा सब होता है तो कैसा लगता है शिरीन? कोई उत्तर नहीं. ‘ग्राहक लोग लड़ता है तो तुम लोग क्या करते हो शिरीन? देर तक कुछ सोचता-सा चुप रहा. फिर थकी-धीमी-सी आवाज़ सुनाई दी—‘उधर देखो न उस दुकान पर. यहाँ का आदमी जब ऐसा-वैसा बोलता है, झिकझिक करता है, झगड़ता है तो पहले हम ज़ोर से बोलता है—ख़ूब ज़ोर से. नहीं मानता तो हम सब मिलकर धमकाता है उसे. सब आ जाता है इकट्ठा होकर. फिर भी नहीं मानता तो—तो क्या—हाथ जोड़ देता है बस. और क्या करेगा हम?’ पलकें तेज़-तेज़ उठ गिर रही थीं. झिलमिल-झिलमिल-सी उन पुतलियों में जैसे किरकिराने लगा हो अचानक कुछ—‘और क्याो कर सकता है हम? ये तो लड़ सकता है, अपने देश में है. हम तो उनके देश में है. यह हमारा देश नहीं, यहाँ हमारा घर नहीं. बहुत तकलीफ़ होता है तब…रोना आता है तब.’ गीली-भीगी-सी हो आईं वे आँखें रो पड़ने को उतावली-सी-दिखीं—‘रात को सोचता है तो नींद उड़ जाती है. हमारा क्या होगा? कब जाना होगा, ये तो नहीं मालूम पर जाना तो होगा. हम अपने देश लौटेगा ज़रूर…’ देर तक हममें से किसी को किसी की आवाज़ सुनाई नहीं दी थी. जैसे दोनों की वाणी ही मूक-पंगु हो गई थी अचानक.

छूटे, छिने, बीते को किस-किस तरह जीते दुहराते रहते हैं ताउम्र हम फुब्बू! सारी यात्राएँ, तलाशें, खोजें—सब उसी कुछ को ही तो पा-जी लेना चाहती हैं फिर-फिर. शिरीन से मिल कर बड़ा छटपटाया था मैं. फिर भी तीसरे दिन के आते-आते लगा कि उस लड़की से मिलना-बात करना ज़रूरी है—एकदम ज़रूरी. न रुक पाया तो दोपहर में भीड़-भाड़ न होने की सोच तिब्बत बाज़ार जा पहुँचा.

तब भी वह दुकानदारी में व्यस्त थी. थोड़ा फ़ासला बनाकर खड़ा मैं उसे, उसके दुकानदारी के अन्दाज़ को देख-सुन रहा था—‘कहीं ट्राई कर लो. इसमें इतनी कमाई नहीं है. हमको माल ख़त्म करना है जल्दी… ….अच्छा आप बताओ—लास्ट.’ साढ़े तीन सौ से शुरू होकर दो सौ से होती हुई बात अब एक सौ अस्सी पर आ टिकी थी—’ले लो, देखो ये वाला इन्होंने पहना है—ये भी इसी रेंज में है… …नहीं, दीदी क़सम से टू हंड्रेड ख़रीद…कमाई नहीं है…आपकी ज़बान पर दे रही हूँ…ख़राब निकला तो और कौन—हम लौटाएगा न…अगली बार नहीं आएगा क्यान हम…? सौदा करके बिगाड़ता है अब…आप लो, ना लो…सौ में तो हमें भी नहीं मिला…हाँ, हाफ़—बोला न आपको—हंड्रेड टेन में लेना है क्याओ? दे दूँ क्याी? उँगलियों में पहनी अँगूठियाँ, नेल पालिश के रंग में रंगे लम्बे, नुकीले नाख़ून, सिर की जुंबिश के साथ थिरक-मचल उठते गोल बड़े-बड़े कुंडल…लता की तरह हिलती-लहराती अनिंद्य-सी उसकी वह देहयष्टि…बातों के बीच—हँसी के नन्हें-मुन्ने से झरने, पतली, लम्बी-सी नदियाँ…हाँ, उसकी वह हँसी कभी किसी बच्ची की तरह, कभी किशोरी की तरह तो कभी एकदम एक युवती की तरह…. उसे मुग्ध-सा निहारता मैं तुम्हें याद किए जा रहा था.

ग्राहक टले तो मैं दुकान के क़रीब जा पहुँचा. मुझे देखकर उसने सामने से जाते एक लड़के को आवाज़ दी. लड़का पास आया तो चहकती-सी उससे बातों में व्यस्त हो गई—‘कल जाएगा क्याह फेरे में?’

—हाँ, जाएगा. तीन चार दिन में एंड हो लेगा.

—हाथरस जाएगा क्याज?

—नहीं, वहाँ का दुकान वाला चिढ़ता है—लड़ता है.

—क्यों? क्या बोलता है?

—बोलता क्याा है…झगड़ता है. माल नहीं लगाने देता हमें वहाँ.

—पता है, मैं और दीदी गया था—सड़क के बीच में लगा के बेचा था माल…

—सच?

—और नहीं तो क्या! हम गली-गली घूमा भी और बाज़ार में सड़क पर लगा के भी बेचा…हाँ, दीदी और मैं.

उस तरह खड़े रहना जब ज्यादा खलने लगा तो मैं दुकान के और क़रीब जा पहुँचा. तभी उनका हमउम्र एक और लड़का सीटी बजाता, कुछ गाता-सा हाथ में एक कैसिट लिए वहाँ आ पहुँचा! गाते-गाते इशारे से उसने लड़की से कुछ कहा—तुरन्त कूदकर अन्दर रखे स्टूल पर जा बिराजा. अब ज़रा ज़ोर से गाया है उसने… तरस गया हूँ…बन्दूक है गोली नहीं है. अपना दाँया हाथ लड़की की आर बढ़ाते हुए जैसे उसने खुजलाने का आग्रह किया है. शरारत आ मिली है लड़की के अन्दाज में भी—‘क्या मिलेगा?’ असमंजस में घिरा मैं वहीं का वहीं खड़ा रह गया हूँ. अचानक लड़का घबराया-सा उठ खड़ा हुआ—‘अरे बुड्ढा आ गया.’ लड़की की आवाज़ में गुस्सा आ मिला है——‘मेरे सामने ऐसे कभी नहीं बोलना. कभी तो तू भी बुड्ढा होगा. मेरा बाप बुड्ढ़ा है…?’ लड़के ने मुँह बिचकाया है—‘मैं सामने——मुँह के आगे बोलता है, पीछे नहीं.’ लड़की और चिढ़-झल्ला रही है— ‘कभी मेरा बाप हीरो की तरह चलता था. क़द मालूम है उसका? पाँच फुट छह इंच. हूँ—बुड्ढा आया है… बुड्ढा आया है…’

लगा कि लड़के अब भाग जाएंगे और मैं लड़की से बात कर सकूँगा. पर कहाँ? अब तक बाहर खड़ा वह लड़का भी कूदकर अन्दर जा पहुँचा. उनकी हँसी-मज़ाक, बहसबाजी को सुनता मैं अब अधीर हो रहा था….’अरे वो तो अम्मा है. अपने टाइम में टॉप रहा होगा वो भी.’ लड़के के हाथ से कैसिट छीनकर लड़की उस पर के लिखे को पढ़ रही है. थका-चिढ़ा मैं बिना किसी से कुछ पूछे दुकान के पटरे पर जा बैठा हूँ. उनमें शामिल होने के लिए मैंने कैसिट के बारे में जानना चाहा है. ये ऐसे मस्त-खोए हैं बातों में कि उनमें से न कोई रुका, न चौंका. फिर से पूछा तो लड़की ने उत्तर दिया. क्षणभर को लगा कि जैसे मैं उन्हीं में से एक हूँ और देर से उनकी बातों में शामिल हूँ—‘नेपाली गीत का कैसिट लाया है…एक गेम है…सबको बुला रहा है…आनन मेहरा—मेहरा हमने लगा दिया है…हमेशा आनन्द में रहता है…’ एक लड़का ज़ोर से हँसा है. दूसरे नेपाली सुपर स्टार गायक प्रेमराज महत की बात करते-करते उसके गीत की एक पंक्ति गुनगुनाई है—देश की याद सताती है…. मैंने उनमें और घुल-मिल जाने के इरादे से हिन्दी-फ़िल्मों की चर्चा छेड़ी है. अब वे जिस तरह मुझे देख रहे थे उससे साफ़ था कि उन्हें मेरे ग़ैर होने का अहसास हो रहा है. एक लड़के ने अनमना-सा उत्तर दिया है—‘हाँ, अच्छा लगता है हिन्दी पिक्चर…स्टोरी समझ आता है…’ दूसरे ने मेरी ओर से मुँह फेरकर लड़की को बताया है—‘छह को निकलना है हमें.’ लड़की झुंझलाई-सी बोली——‘छह को दिल्लीअ में मनाएगा. क्याछ मनाएगा वहाँ तू? यहाँ से बस में जाएगा…रोड देखा है? गन्दा-गन्दा, मिट्टी-मिट्टी, हो जाएगा..’ मैंने और क़रीब आने के इरादे से छह के बारे में पूछा. लगा कि लड़की का स्वर कुछ नर्म और मीठा हुआ है—‘छह को हमारा न्यू ईयर! हाँ, जैसे लोहिड़ी! छह से पूजा होगा धर्मशाला में. पन्द्रह दिन चलेगा…’ . एक लड़का अब गाते-गाते ज़ोर से हँसे जा रहा है. हँस-हँस कर उस नेपाली गीत की जैसे व्याख्या कर रहा है—‘लड़की से माँ स्मार्ट है…मालूम है किससे ?…लिपिस्टक से, पाउडर से! मेरी मॉ—मेरी सब कुछ…’

मुझे फिर तुम और तिब्बत की आज़ादी के लिए तुम्हारा वह जुनून याद आया. इन गीतों-बातों को सुन कर लगा कि मैं राख की किसी ऐसी ढेरी को कुरेद रहा हूँ जिसमें बहुत गहराई तक न कोई चिंगारी है, न कोई ताप या रौशनी है. अन्दर तेज घुमड़न हुई. क्या बदलाव की आँधियों ने किसी को भी नहीं बख़्शा है? कुछ तो हुआ ही है. नहीं तो कोई एक ताक़त, कोई एक देश बड़े-बड़े समुदायों, समाजों, राष्ट्रों को बाँटने-बर्बाद कर देने की हिमाकत न करता. मुझे चिन्ता हुई थी फुब्बू! शायद थोड़ा और अन्दर, और अन्दर ही छिपा हो कुछ. मैंने और गहरे तक कुरेदने के इरादे से ही सीधे तिब्बत की चर्चा छेड़ दी उनसे. सबकी मस्ती जैसे यकायक गुम हो गई थी. गर्दन झुकाए, चुप बैठे वे तीनों अचानक कहीं खो-से गए थे. बुलवाने की बहुत कोशिश की तो लड़की ने ऊबे-उकताए अन्दाज़ में मैदान की ओर इशारा किया था—‘वो बैठा है उधर धूप में. उससे सुन ले सब. जा तो वहाँ. मेरे बाबा की कहानी सुनेगा तो थक जाएगा. बहुत लम्बा है उसकी कहानी. मैं नहीं सुनती तो ग़ुस्सा करता है मुझसे. आप सुनेगा तो ख़ुश होगा मेरा बाबा…’ साफ़ था कि वे नहीं चाहते कि मैं वहाँ रुकूँ. लड़की मेरे साथ चली तो पीछे से हँसी मिली एक आवाज़ सुनाई दी—‘बाबा सुनाता है तो आँख बन्द करके सो जाता है चुप! तो फिर सुनेगा कैसे…’

अकेले स्थितप्रज्ञ मुद्रा में बैठकर धूप सेंकते अपने बाबा को लड़की ने पता नहीं क्या समझाया. सिर हिला-हिलाकर बच्चे की तरह वे हाँ, हाँ किए जा रहे थे. सिलवटों भरे, गोरी उदासी लपेटे उनके पोपले मुँह से हो-हो की आवाज़ के साथ हँसी भी सुनाई दे रही थी. पैंट, स्वेटर, सिर पर हैट! चुस्त-दुरुस्त-सी उनकी काया में अब फुर्ती आ भरी थी. उन्हें सुनते कई बार लगा था फुब्बू कि जैसे इतने दिनों बाद मैं तुम्हारे पिता की चिन्ता, चाहत, थकान, ख़ुशी, हैरानी, परेशानी से एक बार फिर से गुज़र रहा हूँ. शुरू में थोड़ी देर उनकी तर्जनी धरती पर कुछ लकीरें खींचती रही. फिर गर्दन झुकाए-झुकाए रुकते-अटकते-से उन्होंने बताया कि वे कब कहाँ गर्म या ठंडे हिस्सों में रहे, वे कब कहाँ-कहाँ घूमे. कुल्लू, मनाली, शिमला, सिक्किम, नैनीताल, असम, उ.प्र., मध्यप्रदेश… . तिब्बत की बात चली तो जैसे वे उसी काल और जगहों पर जा पहुँचे थे. उनकी आँखों में तमाम उम्र की चढ़ाइयाँ-उतराइयाँ साफ़-साफ़ दिख रही थीं. कई-कई रंग उनके चेहरे पर जल्दी-जल्दी आ-जा रहे थे. किसी रौ में बहे-से बड़े भोले अन्दाज़ में वे बता रहे थे—‘अस्सी से आगे हूँ अब! तिब्बत से आया तो बत्तीस का था. छोटा था तब आसाम आया था पहले. छः बेटी दो बेटे हुए. एक बेटा मर गया. उसकी एक बेटी है. तुमने कैसे सोचा कि भूल गया होगा हम. कैसे भूलेगा हम? पोटाला का राजमहल तुम कभी देखा? एक हज़ार कमरे, बहुत बड़े-बड़े हॉल, सोने जड़े खम्भे…कोई भूलेगा क्या? सागा, न्यालम, ल्हात्से, नारी तुम देखा होता तो मरते तक नहीं भूलने होता. हम कैसे भूलेगा कभी? चीन हमारा तिब्बत तीन टुकड़ों में बाँट दिया. हमारे आम्दो और खाम को चालाक़ी कर अपने में मिला लिया. एक हिस्से को बोलता है कि ये तुम्हारा तिब्बत है. हम लोग का धर्म बदला वहाँ, मन्दिर तोड़ा, लैंगुएज, कल्चर सबको मिटाने में लगा है…. क्या-क्या भूलेगा हम? वे ऐसे हाँफ रहे थे जैसे मीलों लम्बी दौड़ लगाई हो अभी-अभी…’ तुम कुछ सुना—पढ़ा कि नहीं? ल्हासा में अब लड़का-लड़की नाचता है, बीयर पीता है. बाहर का लोग देखने आता है. जोखंग मन्दिर चौक पर अब डांस बार चलता है. भौत ऊँचा-ऊँचा इमारत बन गया है बहुत सारा. वहाँ का लोग को चीन डराता है. ख़रीद लेता है सब…’ फुफकारते-से शब्दों के साथ झाग-झाग थूक बाहर गिर रहा था. आँखों में से चटख़ती-सी चिंगारियाँ इधर-उधर छिटके जा रही थीं.

चलने लगा तो मेरी हथेलियाँ उनकी हथेलियों की गिरफ़्त में थीं. उन्हें दबाते, उनका सहारा-सा लेते वे मेरे साथ उठ खड़े हुए थे. चार क़दम ही चले थे कि रुके, मेरे क़रीब आए. उनकी दाँई हथेली ने मेरे बाँए कन्धे को जल्दी-जल्दी कई बार थपथपाया. अपने होठों को मेरे कान के अधिकाधिक क़रीब लाकर ऐसे फुसफुसाए जैसे राज़ भरी कोई ख़ास बात उन्हें कहनी हो—‘हम बुद्ध को मानता है न. आदमी के साथ आदमी क्योंा नहीं रह सकता भला? चीन वहाँ आया, बोला—हमारा लोग रहने दो. हम कहा—रहो. वो दो-बार आया. फिर बोला—अब तुम जाओ. हमारा लोग मना किया. वो लड़ा. हमारा देश तो बहुत महान-बड़ा, पर हम पर लड़ने को इतना सब नहीं था. दलाईलामा जी यहाँ आया. पंडित नेहरू बोला—तुमको हम रखेंगे. फिर तो बहुत लोग आया यहाँ…’ बोलना रुका. इधर-उधर ऐसे देखा कि कोई और तो नहीं सुन रहा—‘तुम तो पढ़ता-लिखता है न? कुछ पढ़ा-सुना क्या वहाँ के किसान मजूदर के बारे में, उनकी हड़ताल के बारे में? तुम वो सुना जो हमारा रिंपोचे दस मार्च को धर्मशाला में बोला? इतना करप्शन बढ़ा है वहाँ…कि वो चीन को ज़रूर कमज़ोर करेगा. हांगकांग, ताइवान, कोरिया का कैसा-कैसा फ़ैक्ट्री लगा है वहाँ. माओ का सब उलट दिया देंगशियाओ पिंग ने. माओ मरा तो उसकी बेवा को अरेस्ट किया चीन. वो बेईमानी करता है, ज़ुल्म करता है. रिंपोचे बोला…चीन जल्दी टूटेगा…करप्शन और ज़ोर-ज़ुल्म उसे तोड़ देगा…’ उनकी आँखों में एक चमक थी और हाँफती-सी उस आवाज़ में एक चाहत. बेहद दीन क्षणों में की गई किसी प्रार्थना की-सी उन अनुगूँजों को मैं बाद तक, आज तक सुनता रहा हूँ फुब्बू.

फुब्बू, शिरीन और उस लड़की के बाबा से मिलने ने मुझे ख़ुशी भी दी थी और उत्तेजित भी किया था. पर उस लड़की से बातें न हो पाने की कसक ने मुझे बेहद तंग किया. इसीलिए, तुम हैरान होगी, मैं अगले दिन फिर से—हाँ, तीसरी बार तिब्बत बाज़ार जा पहुँचा. प्रवेश के साथ ही उसके बाबा सामने की दुकान पर बैठे दिखे. प्रणाम के उत्तर में चहकते-से अपने पास आने का इशारा किया—’हाँ, तुम जिसके बारे में पूछा—ये बताएगा उनका ख़बर. ये लोग भी देहरादून का है. उसका नाम इन्हें बताओ.’ जिनसे पूछने को मुझसे कहा गया वे दोनों आँखें बन्द किए माला फेरते हुए कुछ बुदबुदाए जा रहे थे. उनकी आँखें लगभग साथ-साथ खुलीं. छूपा, वुंजू में पुरुष और छुपा, वुंजू के साथ पंगधिन पहने, ख़ाली चोक्ता को पीठ पीछे लटकाए वह स्त्री. मैं बार-बार नाम बताता रहा—फुरबू डोल्मा, नुरबू डोल्मा…. पर हर बार उनकी गर्दन हिलती रही, होठों से ना ही ना निकलता रहा. बातों को अगर वहीं रोक देता तो शायद उन्हें बुरा लगता. यही सोचकर पूछ लिया—माला फेरते में क्या कहते है आप लोग?

—ओम मानी पेमे हूं…ओम नमः शिवाय की तरह…बहुत लम्बा है यह!

—क्या माँगते हैं आप ईश्वर से अपनी इस उम्र में?

—हम पैसा, मकान नहीं माँगता. माँगता है कि पहले हमें आदमी बनाओ! अगले जनम में हम कुत्ता नहीं बनें, मच्छर-मक्खी न बनें. हाँ, हमारी आँख बन्द होने से पहले तिब्बत देखना माँगता है हम… ! पकी उम्र की वे उम्रदराज आँखें बहुत छोटी-सी हो कर तेज़ी से मिचमिचाती-सी डबडबाने लगी थीं. फुब्बू उन आँखों के बिफर कर बह पड़ने के उस अवश अधैर्य ने मुझे अलीगढ़ से विदा के समय के तुम्हारी आँखों में के उस हौसले और संकल्प की याद दिला दी थी—ट्रेन दिल्ली की ओर रेंगना शुरू कर चुकी थी. तुम्हारी दोनों मुट्ठियाँ खिड़की की सलाख को जकड़े हुए थीं. तुम्हारे शब्दों में उत्तेजना और आवेश का स्वर तीव्रतर होता जा रहा था. डिब्बे के साथ-साथ चलते हुए मैंने तुम्हारे वे आख़िरी शब्द सुने थे. ड.फेला डोगी येन—हम तिब्बत लौटेंगे!…मेरी निगाह ने डिब्बे के अन्दर छलांग लगाई थी. मेरी ओर देखती तुम्हारी वो आँखें…उन आँखों के आसमानों में तूफ़ानी तेज़ी से घिर आए वो बादल, वो कड़कती बिजली-सी कौंध…और फिर तेज़ बरसात की-सी वो झड़ी….

इत्तेफ़ाक़ था कि वह लड़की तब दुकान पर अकेली बैठी कोई अंग्रेज़ी अख़बार पढ़ रही थी. मुझे देखा तो उसकी आँखों में पहचान का एक भाव आया. पटरे पर मेरे बैठने के लिए जगह बनाते हुए शिष्ट, आदर मिले अन्दाज में बैठने का इशारा किया. आज तो एकदम बदली-सी लगी. शान्त, सौम्य, गम्भीर, शिष्ट. तुमसे पहली बार मिलने को याद करते-करते पता नहीं कैसे यह ख़याल आया—यदि तुमने तब शादी कर ली होती तो इतनी इस उम्र की यह लड़की तुम्हारी बेटी भी हो सकती थी. मैंने उसका नाम पूछा बोली—कुसांग डोल्मा! पढ़ाई-लिखाई की बात चली तो बताया कि बी.ए. किया है. नौकरी की बात पर आवाज़ कुछ ऊँची हुई—रखा कहाँ है नौकरी? इंडिया गवर्नमेंट कहाँ देगा…क्यों देगा हमें नौकरी? धर्मशाला में हमारा सरकार कितनों को देगा? कुसांग के उस लाल-सुर्ख़ हुए चेहरे के देखकर मुझे उन लाखों-करोड़ों युवकों का ध्यान हो आया था जिनकी देह को कंकाल-सा बना दिया है बेरोज़गारी ने. क्या वह आत्म निर्भरता के किन्हीं पाठों का परिणाम था फुब्बू? या फिर निर्वासित जीवन के दबावों-अभावों के लिए दूसरे से कोई उम्मीद न रखने का कोई अभ्यास? क्या उम्मीदें भी दुधारी होती हैं, फुब्बू? एक तरफ़ से जिलाने का दम-ख़म रखती है तो दूसरी तरफ़ से अपंग भी कर सकती हैं वे? मौन तोड़ने को धीमे से पूछा था मैंने—’अगर कहीं नौकरी मिले तो..’ अधीर-सी जल्दी में बीच में ही बोल पड़ी—‘नौकरी…सच बात ये कि हमारा शादी हो गया…’
शादी…? अवाक, चकित हुआ मैं विवाहित की पहचान करा सकने वाले कुछ चिह्नों-प्रतीकों को तलाशने में जुट गया था. आश्चर्य प्रकट न होने देने के लिए पूछ लिया—ससुराल वाले क्या नौकरी करने को मना करते हैं?

—नहीं, ऐसा कुछ नहीं…

—तुम्हारी उम्र क्या है कुसांग?

—नाइनटीन ईअर्स….

—शादी को कितना समय हुआ?

—ऐट मंथ्स.

—इतनी जल्दी…?

—हाँ, कोई-कोई का हो जाता है. वैसे ट्वंटी फाइव, ट्वंटी सिक्स—सेविन तक भी करता है. हमारा ग्रांडफादर की लड़की का तब ट्वेल्व ईअर में होता! अब नहीं होता वो….

—तुमने मना क्यों नहीं किया?

—नहीं, वो क्या था कि लव मैरिज था हमारा.

—लव मैरिज…यानी.

—हाँ, मथुरा से मुलाक़ात…फिर डलहौजी, राजपुर-आसाम में साथ-साथ दुकान था हमारा. पहले तब शुरू हुआ बात जब हमारा फादर-मदर लुधियाना गया था माल लेने. उसका सिस्टर के साथ बात हुआ रास्ते में. मेरा हस्बैंड… ? आसाम साइड का! उसका सिस्टर का थ्री चिल्ड्रेन. हमारा ग्रांड फादर उसका लैंगुएज समझा. वो फ्रैंड जैसा हो गया… . फिर क्या? फिर लव हो गया. उसने रीक्वेस्ट किया…शादी हो जाना बस… वह बिना रुके बोले जा रही थी. फुब्बू! किसिम-किसिम की हँसियाँ बीच-बीच में आकर थिरकती-कूकती रही थीं उसके होठों पर. ऋजुता के वैसे उज्ज्वल पवित्र प्रपातों में तुमसे मिलने के बाद दूसरी बार स्नान कर रहा था मैं. किसे कब मिलता है ऐसा सौभाग्य फुब्बू! पर कुछ था जो अन्दर-अन्दर चुभे जा रहा था. लव और मैरिज की इस तरह इतनी देर तक बातें कर रही इस लड़की ने एक बार भी अपने तिब्बत को याद नहीं किया. तुम थीं कि तिब्बत के अलावा तुम पर कोई और बात जैसे होती ही नहीं थी. लव और मैरिज की बात पर तो तुमने फ़ादर तक की नाराज़गी मोल ली थी.

हाथ में लगे अंग्रेज़ी अख़बार से शुरू होकर बात अब हिन्दी पर आ टिकी थी. मैंने उसे ख़ुश करना चाहा धा—बहुत अच्छी हिन्दी बोल लेती हो तुम! कैसे सीखी तुमने इतनी अच्छी हिन्दी? झिझकती-शर्माती-सी बोली—नहीं मुझे कहाँ आती है अच्छी हिन्दी-शिरींग को आती है… कुछ देर मौन रहीं. अचानक न जाने क्या हुआ कि उसकी भाव-भंगिमा बदलती दिखी. विचित्र-सा तीख़ापन आ मिला था उसकी आवाज़ में——इंडिया का आदमी जब दूसरे कंट्री जाता है तो कैसे सीख लेता है वहाँ का लैंगुएज. वो तो वहाँ जैसा ही बोलने लगता है, करने लगता है सब. हमारा लोग तो फिर भी तिब्बत की तरह जीता है न यहाँ आज तक. इंडिया का आदमी इंग्लैंड गया तो वहाँ का जैसा और अमेरिका गया तो वहाँ का जैसा सब कुछ… दहकते-चुभते से उन वाक्यों को सुनकर मुझे तुम्हारा बहुत ग़ुस्से में दिया लगभग ऐसा ही एक उत्तर याद हो आया था—’पेट, ज़रूरत, धन्धा क्या-क्या नहीं सिखा देता इन्सान को. मजबूरी में फँसेगा तुम भी सीख लेगा कुछ भी.

चलने से जरा पहले मैंने उसके घरवालों के नाम पूछे थे. कई बार बोलने के बाद भी जब मैं ठीक से नहीं समझ पाया तो वह परेशान-सी दिखी. काग़ज़-पेन लेकर नामों को अंग्रेज़ी में लिखा. बार-बार बोलकर मुझसे उनका उच्चारण कराया. सही बोल देने पर ऐसे ख़ुश हुई जैसे किसी कमअक़्ल बच्चे को कोई अध्यापक मुश्किल-सा पाठ पढ़ा देने में कामयाब हो गया हो. मुझ पर उस समय भी तुम्हारे साथ के अतीत का एक हिस्सा हावी हो गया धा. मैंने उससे हिन्दी में कुछ लिखने को कहा. वह सकुचाई. ज़िद की तो थोड़ा सचेत होकर लिखा——यूकपा, मोमो, छोछो, चाउमिन… . मस्तिष्क में तो तुम्हारे लिखकर दिए कुछ ये वाक्य घूम रहे थे. मैंने कुछ ऐसा लिखकर देने को कहा जिसे मैं बाद तक पास रख सकूँ. उसने मेरी आँखों में देखा. ऐसे जैसे मेरा मन पढ़ लेना चाहा हो उसने. फिर एकदम छोटे बच्चे की तरह सँभल-सँभलकर ख़ुशख़त-ख़ुशख़त उसने लिखना शुरू किया—मैं एक तिब्बती लड़की हूँ. मेरा नाम कुसांग है हमारे तिब्बत देश चीन के कब्ज़े में है लेकिन हमने कभी तिब्बत देश को नहीं देखा है मगर ये जरूर जानती हूँ कि जब मेरी आख़िरी साँस आएगी उस घड़ी से पहले मैं अपने देश को एक बार ज़रूर देखने का मिले और दलाई लामा जी का नाम तब तक रोशन रहे, जब तक सूरज रहे चाँद रहे!

मुझे पढ़ते न देख लिया होता तो वह और भी कुछ लिखती. पर अब उसकी तन्मयता भंग हो चुकी थी. मैं चलने को खड़ा हुआ तो अनमनी, उदास-सी वह भी यन्त्रवत उठ खड़ी हुई. मन में अचानक ऐसा कुछ घुमड़ा कि मेरी हथेली उसके कन्धे को थपथपाने लगी. मृगछोने की-सी उसकी दूधिया आँखों में चलते जादुई, रंग-बिरंगे खेलों को जी भर देख लेने के लिए मेरी आँखें मोहाविष्ट-सी वहाँ आ जमीं. लगा कि उन आँखों में एक पल घने काले बादल गरजे थे. अगले पल तेज़ बिजली चमकी थी और फिर लगा कि बेबसी और पीड़ा का भयानक-सा एक समुद्र उन नन्हींँ-सी आँखों में हिलोरें ले रहा है. मज़ेदार बात यह कि हर लहर के शीर्ष पर अपनी लौ को ख़ूब ऊँचा किए कई-कई दीपक एक साथ जल रहे थे.

चकित, सम्माहित-सा मैं चुप खड़ा था और हाथ जोड़े मन्त्रबिद्ध-सी वह निर्निमेष मेरी ओर देखे जा रही थी. कुछ कहना ज़रूरी था—बहुत मुश्किल भी. जैसे-तैसे अन्तस्‌ की आवाज़ को शब्दों की पोशाक पहनाई—जिनके पास साहस और ताकत के ऐसे नायक—ऐसे स्रोत होते हैं—उनके प्रति ऐसा विश्वास और इतनी आस्था होती है—उन्हें कभी कोई थका, झुका, हरा नहीं सकता कुसांग. समय की कैसी कितनी भी राख दिलों में दबी-छुपी आग को कभी बुझा-मार नहीं सकती कुसांग…

बस फुब्बू! फिलहाल इतना ही. तुम पास आ पातीं तो… . दुआ करता हूँ कि जल्दीे ही तुम अच्छी ख़बर दो.

लाड़-दुलार के साथ—तुम्हारा वही ‘इंडियन अंकल.’

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