‘‘इंसानी ज़िन्दगी का दायरा सिर्फ़ इश्क़ और मुहब्बत तक महदूद नहीं. क्या इसके अलावा और बहुत से मसाइल और बहुत सी दिलचस्प और ग़ैर दिलचस्प चीज़ें नहीं हैं, जिनसे हम बावस्ता हैं? इन चीज़ों को छोड़कर हम खला-ए-महज में रहकर इश्क़ नहीं कर सकते.’’ [….]
मैं चुप रहा आता तो वे न जाने कब तक सुनाते जाते. यूँ सृजन के सुख में आकंठ डूबे एक रचनाकार की मुद्रा-भंगिमाएँ देखने का आनंद भी तो कम ख़ास नहीं होता पर…. तब मैं काज़ी साहब के लेखन में उपमाओं, रूपकों, कल्पनाओं और अतिश्योक्तियों के प्रयोगों को लेकर उठाए गए कुछ सवालों और आपत्तियों के बारे में सोच रहा था. [….]