बकौल रुप्पन, ‘मुझे तो लगता है दादा, सारे मुल्क में यह शिवपालगंज ही फैला हुआ है.’ कुछ दिनों में ही रंगनाथ को भी शिवपालगंज के बारे में ऐसा ही लगने लगा कि महाभारत की तरह जो कहीं नहीं है वह यहां है, और जो यहां नहीं है वह कहीं नहीं है.’ [….]
मैं चुप रहा आता तो वे न जाने कब तक सुनाते जाते. यूँ सृजन के सुख में आकंठ डूबे एक रचनाकार की मुद्रा-भंगिमाएँ देखने का आनंद भी तो कम ख़ास नहीं होता पर…. तब मैं काज़ी साहब के लेखन में उपमाओं, रूपकों, कल्पनाओं और अतिश्योक्तियों के प्रयोगों को लेकर उठाए गए कुछ सवालों और आपत्तियों के बारे में सोच रहा था. [….]