जब नेपाल के प्रधानमंत्री का ग़ायब ज्वेलरी बॉक्स मोकामा के पार्सल घर में मिला
जिम कॉर्बेट आला दर्जे के शिकारी रहे, यह तो दुनिया जानती है. कम लोग जानते हैं कि दो दशक से ज़्यादा वक़्त तक रेलवे की नौकरी करते हुए वह पहले गोरखपुर और फिर मोकामाघाट में रहे. रेलवई की नौकरी के दिनों के उनके क़िस्से शिकार की कहानियों की तरह ख़ूब दिलचस्प हैं. और क़िस्सागोई का उनका तरीक़ा पुरकशिश तो है ही, बहुत मानीख़ेज़ भी है. नेपाल के प्रधानमंत्री के क़ीमती गहनों का सूटकेस ग़ायब होने और फिर मिलने का यह क़िस्सा उनकी किताब ‘माय इंडिया’ में दर्ज है.
कभी-कभी ख़ास मौक़ों पर बड़ी हस्तियों के लिए स्पेशल रेलगाड़ियाँ चला करती थीं. इन रेलगाड़ियों के साथ स्पेशल स्टीमर भी चलते थे, जिनको चलाने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी. एक दोपहर नेपाल के प्रधानमंत्री की स्पेशल रेलगाड़ी आई. प्रधानमंत्री के साथ उनके परिवार की बीस औरतें, एक सेक्रेटरी और दर्जनों नौकर-चाकर भी थे. वे काठमांडू से कलकत्ता जा रहे थे. रेलगाड़ी के रुकते ही नेपाली पोशाक पहने भूरे बालों वाला, एक भीमकाय आदमी कूदकर बाहर निकला और सीधा उस डिब्बे की तरफ लपककर चल दिया जिसमें प्रधानमंत्री सफर कर रहे थे.
यहाँ पहुँचकर इस भीमकाय आदमी ने एक बड़ा-सा छाता तान दिया. इसके बाद उसने अपनी पीठ डिब्बे के दरवाज़े के साथ लगा दी और अपनी दाईं बाँह उठाकर पीठ पीछे ले गया. इतने में डिब्बे का दरवाज़ा खुला और प्रधानमंत्री दरवाज़े में दिखाई दिए. उनके हाथ में सोने की मूठ वाली छड़ी थी. किसी तजुर्बेकार इन्सान जैसी आसानी से प्रधानमंत्री ने इस आदमी की पीछे मुड़ी हुई बाँह पर अपना आसन जमा लिया. जब प्रधानमंत्री अपनी इस सवारी पर आराम से बैठ गए तब भीमकाय आदमी ने छाता प्रधानमंत्री के ऊपर किया और चल पड़ा. इतना बोझ लिए यह भीमकाय आदमी जिस आसानी और सहजता से तीन सौ गज़ दूर खड़े स्टीमर तक का रेतीला फ़ासला तय कर रहा था उसे देखकर लगता था कि जैसे कोई प्लास्टिक की गुड़िया उठाकर चल रहा हो.
सेक्रटरी से मेरी पुरानी वाक़फ़ियत थी. मैंने उससे कहा कि जिस्मानी ताक़त का इससे बड़ा नमूना मैंने आज तक नहीं देखा तो सेक्रेटरी ने मुझे बताया कि जब भी आने-जाने का कोई और ज़रिया मौजूद न हो, प्रधानमंत्री इसी सवारी का इस्तेमाल करते है. भीमकाय आदमी के बारे में मुझे बताया गया कि वह नेपाली हैं किन्तु मेरा अंदाज़ा यह है कि वह उत्तरी यूरोप का निवासी था और किसी वजह से उसने हिंदुस्तान की सरहद से लगे एक आज़ाद मुल्क में नौकरी कर ली थी. वजहें क्या थीं ये तो या उस दानव को पता था या उसके मालिकों को.
जब प्रधानमंत्री स्टीमर की तरफ़ ले जाए जा रहे थे, उस वक़्त चार नौकरों ने काले रेशम का करीब बारह फुट लंबा और आठ फुट चौड़ा कपड़ा डिब्बे के नज़दीक रेत पर बिछा दिया. डिब्बे की सब खिड़कियाँ बंद थीं. काले कपड़े के चारों कोनों पर छोटे-छोटे फंदे बने हुए थे, जिनमें चाँदी के आठ-आठ फुट लंबे डंडे फिट कर दिए गए. जब चाँदी के डंडों को सीधा किया गया तो ज़मीन पर बिछा रेशम का कपड़ा काले रंग का बड़ा-सा डिब्बा बन गया जिसमें पेंदी नहीं थी. अब इस रेशमी बक्से का रेल के डिब्बे की तरफ वाला हिस्सा ऊँचा किया गया और एक-एक करके प्रधानमंत्री के परिवार की बीसों औरतें बगैर किसी की निगाह में आए काले रेशमी डिब्बे में समा गईं.
बाहर सिर्फ़ चाँदी के डंडों के ज़रिये रेशमी बक्से को ताने चार नौकर, और औरतों के पेटेंट लेदर से बने क़ीमती जूतों की चमक दिखाई दे रही थी. काले रेशम में क़ैद यह काफ़िला भी स्टीमर की तरफ़ चल पड़ा. स्टीमर की निचली डेक पर रेशमी बक्से का अगला सिरा उठा दिया गया और सारी औरतें हल्के क़दमों से दौड़ती हुई सीढियाँ चढ़कर ऊपरी डेक पर आ गईं, जहाँ मैं प्रधानमंत्री से बात कर रहा था. पिछली बार ऐसे ही मौक़े पर जब औरतें ऊपर आईं तो मैंने डेक छोड़ने की पेशकश की थी लेकिन मुझे बताया गया कि ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं है और यह कि रेशमी कपड़े का काला बक्सा प्रधानमंत्री के परिवार की औरतों को सिर्फ़ आम आदमियों की निगाह से बचाने के लिए है.
सभी औरतों की उम्र मुझे सोलह से अठारह के बीच लगी. इन औरतों की पोशाक के बारे में बयान कर पाना मेरे लिए मुमक़िन नहीं है. मैं सिर्फ़ यही कह सकता हूँ कि चटक रंगों वाले टाइट ब्लाउजों और कम से कम चालीस गज़ उम्दा रेशम से बने ख़ूब चौड़े शरारे पहने ये औरतें ऊपर डेक में एक कोने से दूसरे कोने तक फुदक रही थीं और इस छोटे से वक्फ़े में जो कुछ देखने लायक़ था, उसे अपनी आँखों में समेटने की कोशिश करते हुए मुझे ये किसी दूसरी दुनिया से आई परियों जैसी लग रही थीं.
स्टीमर से स्पेशल रेलगाड़ी तक जाने में वही तरीका अपनाया गया. प्रधानमंत्री, उनके परिवार की औरतें, पूरा लवाज़मा और पहाड़ जैसा उनका सामान का ढेर जब स्पेशल रेलगाड़ी में पहुँच गए तो रेलगाड़ी छुक-छुक करती कलकत्ता की तरफ़ चल दी. दस दिन बाद जब पार्टी लौटी तो मैंने समरियाघाट पर उन्हें काठमांडू के लिए विदा किया.
कुछ दिनों बाद एक रात दफ़्तर में बैठा मैं एक अर्जेंट रपट तैयार कर रहा था कि मेरा दोस्त, प्रधानमंत्री का सेक्रेटरी मेरे कमरे में आया. उसके कपड़े एकदम गंदे हो रहे थे और उनमें सलवटें पड़ी हुई थीं. ऐसा लगता था कि जैसे इन्हीं कपड़ों में वह कई दिनों से सोता-जागता रहा हो. उसका यह हुलिया उसके शानदार कपड़ों और रखरखाव से बिलकुल उलट था. जब कभी मैंने उसे प्रधानमंत्री के साथ देखा था तो उसकी शान कुछ और ही होती थी. मैंने उसे कुर्सी पेश की और कुर्सी पर बैठते ही बग़ैर किसी भूमिका के उसने मुझे बताया कि वह बहुत बड़ी मुसीबत में है. जो कुछ उसने मुझे बताया वह इस तरह है –
“कलकत्ता में अपने पड़ाव के आख़िरी दिन प्रधानमंत्री अपने परिवार की औरतों को कलकत्ता की मशहूर हैमिल्टन एण्ड कम्पनी की दुकान में ले गए. कलकत्ता में हीरे-जवाहरात की यह सबसे बड़ी दुकान है. प्रधानमंत्री ने औरतों से कहा कि जो भी गहने उन्हें पसंद आएँ, वो ख़रीद सकती हैं. गहनों का दाम चाँदी के कलदारों में चुकाया गया. रास्ते के ख़र्चे के लिए और गहने खरीदने के लिए, आप जानते ही हैं, हम काफ़ी नगदी अपने साथ लेकर चलते हैं. गहने पसंद करने, नगद रक़म गिनने और गहनों को सूटकेस में सीलबंद करने में कुछ ज़्यादा ही वक़्त लग गया. नतीजा यह हुआ कि हमें भागते-दौड़ते अपने होटल पहुँचने और वहाँ से सामान और लवाज़मे को लेकर स्टेशन पर हमारा इंतज़ार कर रही स्पेशल रेलगाड़ी में बैठने तक ख़ासी भागादौड़ी हो चुकी थी.
“जिस वक्त हम काठमांडू पहुँचे तब तक काफी रात हो चुकी थी और अगली सुबह प्रधानमंत्री ने मुझे बुलवा भेजा और मुझसे गहनों वाला सूटकेस माँगा. पूरे महल के सारे कमरे छान डाले गए और जितने लोग भी हमारे साथ गए थे, सबसे पूछताछ की गई लेकिन न तो सूटकेस मिला और न ही किसी ने सूटकेस को कभी देखने की बात क़बूल की. मुझे यहाँ तक तो याद पड़ता है कि जिस मोटर से हम होटल पहुँचे थे, उससे सूटकेस निकाला गया था लेकिन उसके बाद का कुछ भी मुझे याद नहीं. इस सूटकेस के लिए और भीतर रखे सामान के लिए मैं जाती तौर पर ज़िम्मेदार हूँ. यदि सूटकेस नहीं मिलता है तो मेरी सिर्फ़ नौकरी ही नहीं बल्कि बहुत कुछ चला जाएगा क्योंकि हमारे मुल्क के क़ानून के मुताबिक यह बहुत बड़ा गुनाह है.
“नेपाल में एक साधू रहता है जिसके पास दिव्यदृष्टि है. अपने दोस्तों को सलाह पर मैं साधू से मिलने गया. एक बहुत बड़े पहाड़ के बाजू में, फटे कपड़ों में, गुफा में बैठे बूढ़े साधू से मेरी मुलाक़ात हुई और मैंने उसे अपनी तकलीफ़ें बताईं. साधू ने मुझे चुपचाप सुना, कोई सवाल नहीं पूछा और मुझे अगले दिन आने के लिए कहा. अगली सुबह जब मैं साधू के पास पहुँचा तो उसने मुझे बताया कि रात को सोते में उसने एक सपना देखा है. सपने में उसे सूटकेस दिखाई दिया. सूटकेस की सीलें सही सलामत थीं और एक कमरे के कोने में तरह-तरह के सामान और बक्सों के नीचे सूटकेस दबा हुआ था. साधू ने बताया कि सपने में उसे दिखा कमरा एक बड़ी नदी से ज़्यादा दूर नहीं था. कमरे में एक ही दरवाज़ा था और यह दरवाज़ा पूरब की तरफ़ था. साधू मुझे इतना ही बता पाया.”
इतना कहकर सेक्रेटरी चुप हो गया. उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे और गला रुँधा हुआ था. उसने मुझे आगे बताया, “मैं एक हफ़्ते के लिए नेपाल से बाहर आने की इज़ाजत लेकर आया हूँ और आपके पास इसलिए आया हूँ कि साधू की बताई बड़ी नदी शायद गंगा हो और आप मेरी मदद कर सकें.”
हिमालय के पहाड़ों में जिन लोगों के बारे में कहा जाता है कि उनके पास गुमा हुआ या इधर-उधर हुआ सामान बताने वाली दिव्यदृष्टि होती है, उनके बारे में किसी को कोई शक या मुग़ालता नहीं होता. सेक्रेटरी को साधू की बात पर यक़ीन न होने का कोई सवाल ही नहीं उठता था और अब सेक्रेटरी की पूरी चिंता यही थी कि डेढ़ लाख रुपये के गहनों से भरा सूटकेस किन्हीं गलत हाथों में पड़कर खुर्द-बुर्द न हो जाए.
मोकामाघाट में इस तरह के कई कमरे थे, जिनमें तरह-तरह का सामान भरा हुआ था पर उनमें से कोई भी कमरा साधू के बताए ब्योरे से मेल नहीं खाता था. बहरहाल, मुझे एक कमरे के बारे में मालूम था जो साधू के ब्योरे से मेल खाता था लेकिन यह कमरा मोकामाघाट में नहीं बल्कि मोकामाघाट से दो मील आगे मोकामा जंक्शन का पार्सल आफ़िस था. मैंने कैली से उसकी ट्रॉली माँगी और सेक्रेटरी को रामसरन के साथ मोकामा जंक्शन भेज दिया. पार्सल बाबू ने ऐसे किसी भी सूटकेस के वजूद से इनकार तो किया लेकिन पार्सल आफ़िस का पूरा सामान बाहर प्लेटफ़ार्म पर लाकर खंगालने पर उसने कोई ऐतराज नहीं किया. खंगालने का नतीजा यह हुआ कि सूटकेस बरामद हो गया. सील सिक्के सहित.
अब सवाल यह उठा कि पार्सल बाबू की जानकारी के बग़ैर सूटकेस वहाँ कैसे पहुँचा. वहाँ के स्टेशन मास्टर ने जब पूछताछ की तो पता चला कि पार्सल आफ़िस में सूटकेस, रेलगाड़ी की सफ़ाई करने वाले ने जमा कराया था. यह आदमी रेलवे में सबसे कम तनख़्वाह पाने वाले लोगों में से एक था. प्रधानमंत्री को कलकत्ता से मोकामाघाट लाने वाली स्पेशल रेलगाड़ी में झाड़ू लगाने का काम इस आदमी को सौंपा गया था और सफ़ाई के दौरान एक डिब्बे में सीट के नीचे उसे यह सूटकेस मिला था.
गाड़ी की सफ़ाई पूरी करने के बाद यह आदमी सूटकेस अपने कंधे पर लादकर चौथाई मील का फ़ासला तय करके प्लेटफ़ार्म पर आया लेकिन उसे कोई ज़िम्मेदार आदमी मिला नहीं, जिसे वह सूटकेस सौंप सकता. लिहाजा उसने सूटकेस पार्सल आफ़िस के एक कोने में रख दिया. पूछताछ के दौरान इस सफ़ाई करने वाले ने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि कोई ग़लती हो गई हो तो माफी दे दें.
(संजीव दत्त के हिंदी अनुवाद ‘मेरा हिन्दुस्तान’ से साभार)
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